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कहानी- श्रवण कुमार (Short Story- Shravan Kumar)

“तुम मेरे कल के स्वांग को सच समझ बैठी क्या?”
“स्वांग! मतलब… पर किसलिए?” दमयंतीजी हैरान थीं, सूर्यकांतजी गंभीर मुद्रा में बोल रहे थे, “हर बच्चा अपने माता-पिता को सुखी देखना चाहता है, पर ज़िम्मेदारी लेने से बचता है. बूढ़े माता-पिता के सुख-आराम के लिए अपने सुख को दांव पर लगाए बिना दूसरे भाई-बहनों का मुंह देखकर, उनको नसीहतें देकर कर्त्तव्य पूर्ति की इतिश्री समझता है. ऐसे में कुछ माता-पिता एक बेटे के घर रहते हुए अपने मन को दूसरे में लगाकर उस बेटे के साथ नाइंसाफ़ी करते हैं, जो उनको सहारा दे रहा है. दूर रहनेवाले के प्रेम में डूबकर हम साथ रहनेवाले की सेवा-प्रेम को नज़रअंदाज़ करके उसकी उपेक्षा कर बैठते हैं.”

''अंकजा जानती है कि गुलाब जामुन पापा की कमज़ोरी है. एक दे देती तो क्या हो जाता. सनी को कह रही थी कि दादाजी के सामने मत खाना. क्या संस्कार पड़ेंगे बच्चे पर?” सुरेखा की बात सुन जतिन आहत और दमयंतीजी मौन थीं. जतिन-सुरेखा और दमयंतीजी के चेहरे से झलकी अप्रसन्नता देख सूर्यकांतजी निंदारस से बचते कमरे से बाहर निकले, तो दंग रह गए. छोटी बहू अंकजा दरवाज़े की ओट में खड़ी भीतर की फुसफुसाहट सुनने का प्रयास कर रही थी. सूर्यकांतजी से नज़र मिलते ही वो शर्मिंदगी के भाव लिए चली गई. अटपटा-सा महसूस करते बरामदे की ओर गए, तो छोटे बेटे अभय और बहू अंकजा के वार्तालाप के कुछ हिस्से कानों में पड़े, “मैं तो पापा के डायबिटीज़ के कारण सनी को उनके सामने गुलाब जामुन खाने से रोक रही थी, पर यहां तो अर्थ का अनर्थ बना दिया सुरेखा भाभी ने.”
“छोटे बच्चे के सामने कहना ठीक नहीं था. सनी का नन्हा मन नहीं समझेगा तुम्हारे कंसर्न को.”
“हां, ये ग़लती हुई. मैं समझाती कि दादाजी के लिए मीठा नुक़सानदेह है, पर भाभी ने तो बीच में ही बात पकड़ ली, कितना कुछ सुना दिया. अब मम्मी-पापा से चुगली करेंगी, क्या सोचेंगे वो?”
“सोचेंगे तुम कितना ख़्याल रखती हो.”
“अरे! आप तो बस… जतिन भइया और सुरेखा भाभी का व्यवहार मुझे अच्छा नहीं लग रहा है. दो दिन से घूम-घूमकर देख रहे हैं कि पापा-मम्मी कैसे रह रहे हैं. बात-बात पर टोका-टाकी, नसीहत बर्दाश्त से बाहर है.”
“बड़े हैं, कुछ कह दिया तो क्या हुआ.”
“कहने का बुरा नहीं लगता, बात-बात पर नीचा दिखाने की कोशिश बुरी लगती है. कल कह रहे थे एक डायट प्लान बनाओ, मम्मी-पापा कमज़ोर लग रहे हैं. वह आरोप भी हम पर है.”
“बड़े भइया ने मुझे भी कहा कि मैं पहले से कमज़ोर हो गया हूं, तो क्या यह आरोप भी तुम पर आया? अब मम्मी-पापा की सेहत के लिए बोला, तो बुरा मान गई. सच भी है कि पहले से सेहत गिरी है, इस उम्र में साल दर साल तेज़ी से अंतर आता है. हम रोज़ देखते हैं, तो पता नहीं चलता. वो सालों बाद मिले हैं, ज़ाहिर है कि परिवर्तन के बारे में बात करेंगे.” सूर्यकांतजी बाहर आती धीमी आवाज़ों से व्यथित खुली हवा में चले गए. हर तरह के आराम व सुविधा के बावजूद सुरेखा-जतिन का अंकजा-अभय में कमी निकालना और दमयंतीजी का अप्रत्यक्ष रूप से उसमें शामिल होना हमेशा ही अखरा है. सोच में डूबे सूर्यकांतजी सामने बने पार्क में अपनी मित्र-मंडली तक पहुंच गए. मित्र सुधाकर हंसकर बोले, “बहू-बेटे से ख़ूब सेवा करवाई है, तभी ईद का चांद हो गए हो. भई, इनके ‘श्रवण कुमार’ के क्या कहने. मेरी मिसेज़ बड़ी तारीफ़ करती हैं.”

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“कौन, अभय?”
“अरे नहीं, बड़ा बेटा जतिन. कब तक रुकेगा यहां? दमयंती भाभी उसकी बहुत तारीफ़ करती हैं.” बातचीत का मुद्दा बदलने के लिए सूर्यकांतजी ने उनके कुर्ते की तारीफ़ की, तो वो गौरवान्वित होकर बोले, “मेरे इंदौरवाले बेटे ने भेजा है.” उनके इंदौरवाले बेटे के गुणों को सुनने के बाद सुबोधजी को अपने दानवीर सहृदय कनाडावाले बेटे की याद आई, साथ ही अपनी बहू की भी, जो कनाडा में रहते हुए भी संस्कारशील है. बाकायदा उनके चरण पखारती है, कहती है, “बुज़ुर्गों के आशीर्वाद ज़रूरी हैं.” दूर निवास करते बच्चों की चर्चा में अब सब शामिल थे. मित्रगण में कोई अमुक बहू के हाथों के बने पकवान के स्वाद में, तो कोई अपने बेटे के स्वभाव में डूबा था, कोई किसी बेटे के घुमाने-फिराने के शौक़ का मुरीद था, तो कोई पूजा-पाठवाले स्वभाव पर फ़िदा था. दूर रहती संतानों के गुणानुवाद में सब यूं डूबे मानो निरानंद-निस्पृह-सा जीवन उन आनंदमई क्षणों के सहारे ही बीत रहा हो. गोया जिस बेटे-बहू के घर रहा जा रहा है, उसे छोड़कर दूसरी संतानों में सारी ख़ूबियां टनों भरी हुई हों. भूले-बिसरे गीतों की मधुर तान में डूबे लंबी उसांस भरते मित्रों से सूर्यकांतजी पूछना चाहते थे कि आप सब उन संतानों के पास क्यों नहीं चले जाते, पर कुछ सोचकर चुप रहे. सबके हुलसित आत्ममुग्ध मन पर इस प्रश्‍न के बोझ से उनको उदासीन करना नहीं चाहते थे. इस बीच जतिन अपने पापा को लेने आया, तो सुधाकर बोले, “लो भई, आ गए आपके ‘श्रवण कुमार’, सुख-दुख बांटिए… कल मिलते हैं.” अपने लिए ऐसा संबोधन सुनकर जतिन गदगद हो गया. रास्ते में भावुकता से बोला, “कितना लकी है अभय, आप लोग उसके साथ रह रहे हैं. पापा कोई द़िक्क़त तो नहीं है यहां. अभय और अंकजा आप लोगों को वक़्त देते हैं या नहीं?”
“हां, जितना बन पड़ता है. सुबह-शाम की चाय, रात का खाना साथ खाते हैं.”
“सुना है, ये लोग अपनी शादी की सालगिरह पर हिल स्टेशन गए थे. आप लोगों को नहीं ले गए, क्यों…? क्या आप परिवार का हिस्सा नहीं हैं? हम तो कभी अकेले ना छोड़ते, एक बात और, अपने कमरे में एक टेलीविज़न लगवा लीजिए.”
“किसलिए, घर पर है तो…”
“मम्मी बता रही थीं कि सनी टेलीविज़न ना देखे, इस चक्कर में अंकजा टेलीविज़न अक्सर बंद रखती है.”
“हां, पर जब सनी स्कूल जाता है, तब देखते हैं. बच्चों के लिए टेलीविज़न की पाबंदी का समर्थन मैं भी करता हूं.” जतिन पिता के तर्क से आश्‍वस्त होने की बजाय उद्विग्न हो गया. बातें करते-करते घर पहुंचे, तो सुरेखा बाज़ार जाने के लिए तैयार थी. जतिन-सुरेखा बाज़ार से खाने-पीने के सामानों से लदे-फंदे लौटे.
“मम्मी, ये डायटवाली नमकीन और बिस्किट हैं, जितनी मर्ज़ी खाओ. और हां, कल से रोज़ बादाम भिगोकर पापा-मम्मी को खिलाना.” सुरेखा अंकजा को पैकेट देते हुए बोली. दमयंती बेटे-बहू के स्नेह से आत्ममुग्ध हुई बार-बार सुरेखा और जतिन के सिर पर हाथ फेरती, मानो आशीर्वाद देती हों. जतिन को मां से लाड़ करते देख सूर्यकांतजी को उसका बचपन याद आया. दमयंतीजी का पल्लू छोड़ता ही नहीं था. सब उसे दमयंतीजी का चम्मच कहते थे. अक्सर उस पर चुगलखोर का तमगा लगता. उसकी आदत से जहां लोग परेशान होते, वहां दमयंतीजी विभोर हो उस पर वात्सल्य वर्षा करती रहतीं और चुगलखोर अभियोग को मिटा देतीं. बचपन से ही जतिन के प्रेम-प्रदर्शन को देख लोग उसे ‘श्रवण कुमार’ कहकर पुकारते. फिर वह शादी के बाद भी कई सालों तक सूर्यकांत-दमयंतीजी के साथ पैतृक मकान में ही रहा, पर सूर्यकांतजी के रिटायरमेंट के बाद वो दूसरे शहर चले गए. पांच साल अकेले रहने के बाद अंकजा और अभय ने सूर्यकांत और दमयंतीजी से अपने साथ चलने की पेशकश की, तो उन्होंने मना नहीं किया. अकेले रहना दिनोंदिन मुश्किल होता जा रहा था. आज पांच साल से वो अभय और अंकजा के साथ ही हैं. जतिन-सुरेखा साल-दो साल में छोटे भाई के घर माता-पिता से मिल जाते हैं. इन दिनों वे उनकी दवाइयों, स्वास्थ्य-खानपान, मनोरंजन आदि से जुड़ी छोटी-छोटी बातों पर आश्‍वस्त होना चाहते हैं. उनके जाने के बाद कई दिनों तक दमयंतीजी उनके प्रेम में डूबी दिखतीं. बात-बात पर जतिन और सुरेखा का उल्लेख होता. सूर्यकांतजी अभय-अंकजा, सुरेखा-जतिन के व्यवहार का आकलन कर ही रहे थे, तभी दमयंतीजी बोलीं, “सुनो, कल घर सूना हो जाएगा. जतिन और सुरेखा के आने से कितनी रौनक़ हो गई.”
‘हां-हूं’ में जवाब देते सूर्यकांतजी सहसा बोले, “कहो तो, इस बार जतिन के घर हो आएं, ज़्यादा नहीं तो छह-सात महीने रह आएंगे. तुम्हारा मन भी बदल जाएगा.” पति के प्रस्ताव पर दमयंतीजी चौंक पड़ीं. “कैसी बात कर रहे हो, क्या सोचेंगे अभय-अंकजा?”
“इसमें सोचने जैसा क्या है. हम पर दोनों का हक़ है, तो एक वंचित क्यों रहे?”
कुछ सोचकर दमयंतीजी बोलीं, “नहीं, अब ये नया बखेड़ा मत खड़ा करो. जहां हैं, वहीं ठीक हैं. कौन तीन मंज़िल सीढ़ियां चढ़ेगा.”
“तुम जतिन से बात करो, किसी अपार्टमेंट में घर ले ले या फिर नीचेवाला घर किराये पर ले ले.”
“अब सो जाइए, जाने कहां से फ़िज़ूल की बात दिमाग़ में आ गई.” दमयंतीजी सो गईं, पर सूर्यकांतजी देर रात तक कुछ सोचते रहे. सुबह आंख खुली, तो अंकजा और अभय को इतनी सुबह तैयार देख याद आया कि आज सनी के स्कूल में पैरेंट्स-टीचर्स मीटिंग है, वो जल्दी-जल्दी काम निपटा रही थी. सूर्यकांतजी ने ज़ोर से आवाज़ लगाकर अंकजा से चाय मांगी.

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“जी पापा.” उसने बोल तो दिया, पर इधर-उधर के काम निपटाती रसोई तक पहुंचने का समय नहीं निकाल पाई.
“भाभी, देर हो रही है.” सुरेखा से कहती बाहर चली गई. अंकजा के जाते ही सूर्यकांतजी की रोषभरी आवाज़ आई.
“इस घर में क्या एक कप चाय भी समय से नहीं मिल सकती?” सुरेखा ने आश्‍चर्य से कहा, “अरे! उसने चाय नहीं दी आपको.” जतिन ने ग़ुस्से में सुरेखा को चाय बनाने का आदेश दिया और अंकजा की लापरवाही को कोसने लगा.
“आधी पेंशन देते हैं पापा, फिर भी छोटी-छोटी ज़रूरतें पूरी नहीं होतीं.” पापा को नाराज़ देखकर जतिन के सुर तेज़ हो गए थे. सहसा सूर्यकांतजी बोले, “क्या समझते हैं कि मेरा एक यही ठिकाना है. बस… अब तुम्हारे साथ चलूंगा. अब और अपमान नहीं सहेंगे…” जतिन-सुरेखा को अवाक् देख वो आगे बोले, “दमयंती, सामान बांधो, जिस घर में समय पर चाय ना मिले, गुलाब जामुन छिपाकर खिलाए जाएं, ख़ुद घूमने जाएं और हम रखवाली करें, दमयंती टेलीविज़न को तरसे, ऐसे घर में रहना अब मुश्किल है.”
“अरे! सठिया गए हो क्या? मैंने कब कहा टेलीविज़न देखने को तरस गई हूं.” दमयंतीजी ने टोका तो हड़बड़ाते हुए जतिन ने भी कहा, “हां पापा, इतनी बड़ी बात भी नहीं है. अंकजा जल्दी में थी.” पर सूर्यकांतजी कुछ सुनने को तैयार नहीं थे. जतिन ने सिर पकड़ लिया.
छोटी-छोटी बातों का जो बतंगड़ उसने बनाया था, सब सूर्यकांतजी के मुंह से निकल रहा था. सुरेखा, जतिन को खा जानेवाली नज़रों से देखते हुए बोली, “क्यों ज़रा-सी बात का बतंगड़ बनाकर पापा का ग़ुस्सा बढ़ाया?”
“अरे! घर-परिवार में हज़ार बातें होती हैं. कुछ हमने भी कर लीं. क्या जानते नहीं अंकजा-अभय कितना ख़्याल रखते हैं, घूमने का शौक़ चढ़ा है. थोड़ी दूर चलकर तो हांफने लग जाते हैं.” दमयंतीजी पति की हरक़त पर हैरान बड़बड़ा रही थीं. जतिन समझा रहा था, “अभय आपकी सेवा में कोई कसर नहीं रखता है. अंकजा मन की साफ़ है, मलाल मत रखिए. साथ ले जाने को ले चलूं, पर आपको असुविधा होगी. मैंने तो बस यूं ही कह दिया, पर जानता हूं यहां जैसा आराम आपको कहीं नहीं मिलेगा.” बेसाख़्ता मुंह से निकला, कड़ी मश़क्क़त के बाद सुरेखा और जतिन अभय और अंकजा का सेवाभाव बखानकर सूर्यकांतजी के क्रोध के उफ़ान पर छींटें मारकर शांत करने में कामयाब हुए. अंकजा-अभय आए, तो सुरेखा और जतिन के स्वर बदले से लगे. सुरेखा को अंकजा से कहते सुना, “तुझे मेरी किसी बात का बुरा तो नहीं लगा और हां सबके साथ अपना भी ख़्याल रखा करो.” जेठानी की आत्मीयता और छोटे-बड़े भाई का दोस्ताना अंकजा को भा गया.
डायनिंग टेबल पर अभय और जतिन के ठहाके के साथ सुरेखा और अंकजा की गुफ़्तगू भी जारी थी. पापा-मम्मी के डायट और स्वास्थ्य को लेकर कुछ नहीं कहा गया. मम्मी-पापा के मौन का कारण अभय-अंकजा ने यही निकाला कि वो जतिन भइया और भाभी के जाने से दुखी हैं. दूसरे दिन सैर के समय जतिन यहां के हवा-पानी और अंकजा-अभय के प्रबंधन की तारीफ़ कर रहा था. भावुक माहौल में विदा होते सुरेखा और जतिन के साथ बाकी सभी थोड़े दुखी थे.
“आप लोगों का ख़्याल इतने अच्छे से रखा जा रहा है, बहुत तसल्ली है. बहुत अच्छा लगा सबसे मिलकर.” जतिन के भावपूर्ण शब्दों पर सूर्यकांतजी ने कहा, “अपना ख़्याल रखना और आते रहना.” इतना कहकर जतिन को गले लगा लिया. अभय और अंकजा बड़े भाई के मुंह से तारीफ़ सुनकर खिल उठे. जतिन-सुरेखा के जाने के बाद दुख और ग़ुस्से के मिले-जुले भाव में दमयंती को चुपचाप कमरे में बैठा देखकर सूर्यकांतजी बोले, “कुछ पूछोगी नहीं?”
“क्या पूछूं, जाते-जाते बेटे-बहू को दुखी कर दिया.”
“कहां दुखी थे? आज जतिन अपने भाई और उसकी पत्नी की प्रशंसा करता नज़र आया. तुम्हारा दिमाग़ बेवजह के प्रदूषण से दूषित होते बचा. जेठ-जेठानी के प्रति सम्मान तो देवर-देवरानी के प्रति स्नेह दिखा. जतिन और सुरेखा बेवजह परेशान नहीं दिखे और सबसे बड़ी बात, दोनों हमारी देखरेख के प्रति आश्‍वस्त होकर गए और क्या चाहिए.”
“पर आपने ऐसा क्यों किया? कौन-सा भूत सवार हुआ, जो एकदम बिगड़ गए और अब शांत.” “तुम मेरे कल के स्वांग को सच समझ बैठी क्या?”
“स्वांग! मतलब… पर किसलिए?” दमयंतीजी हैरान थीं, सूर्यकांतजी गंभीर मुद्रा में बोल रहे थे, “हर बच्चा अपने माता-पिता को सुखी देखना चाहता है, पर ज़िम्मेदारी लेने से बचता है. बूढ़े माता-पिता के सुख-आराम के लिए अपने सुख को दांव पर लगाए बिना दूसरे भाई-बहनों का मुंह देखकर, उनको नसीहतें देकर कर्त्तव्य पूर्ति की इतिश्री समझता है. ऐसे में कुछ माता-पिता एक बेटे के घर रहते हुए अपने मन को दूसरे में लगाकर उस बेटे के साथ नाइंसाफ़ी करते हैं, जो उनको सहारा दे रहा है. दूर रहनेवाले के प्रेम में डूबकर हम साथ रहनेवाले की सेवा-प्रेम को नज़रअंदाज़ करके उसकी उपेक्षा कर बैठते हैं.”
“आप क्या चाहते हैं, जिस बेटे के साथ रहें, बस उसे ही स्नेह-आशीर्वाद का पात्र बनाएं.”
“स्नेह-आशीर्वाद के दोनों हक़दार हैं, पर जहां तक प्रशंसा का सवाल है, तो उसका एक अतिरिक्त निवाला अपने हाथों से उसे खिलाना चाहिए, जो पास है. प्रेमपूर्वक खिलाया वो निवाला उनको आत्मतृप्त कर देगा, परिणाम भी सुंदर निकलेगा. अपना जतिन बहुत प्रेम करता है माना, पर उसका प्रेम प्रदर्शन है.

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ज़िम्मेदारी से इतर दूसरों के कामों में कमी निकालनेवाला है. बचपन में उसकी चुगलियां सुन तुम हंस देती थीं, अब ये आदत रिश्तों में दरार डालेगी. आज के बाद जतिन निरर्थक नसीहतें देने से बाज़ आएगा. अव्यावहारिक नसीहतों का भार उठाने में वो कितना सक्षम है, ये एहसास करवाना ज़रूरी था. हमें भी स्वयं के सोचने-समझने और निर्णय लेने की क्षमता बढ़ानी होगी. ग़लत के चश्मे से सही बात ग़लत ही दिखेगी. जब हम अकेले थे, तब टेलीविज़न तीसरे की मौजूदगी का एहसास कराता था, यहां तीसरे की मौजूदगी अभय-अंकजा और सनी पूरी करते हैं. गुलाब जामुन ना देना मेरे स्वास्थ्य की चिंता के तहत है. ये विश्‍वास होना चाहिए. दोनों अपने बच्चे हैं, हमसे जुड़ाव होना स्वाभाविक है. एक सहारा देकर प्रतिबद्धता निभाता है, दूसरा नसीहतों, हिदायतों द्वारा कर्त्तव्यपूर्ति करता है. बोलो, किसकी प्रतिबद्धता को सही मायनों में पूरे नंबर दोगी?” दमयंतीजी मौन थीं? तभी अंकजा और अभय भीतर आए. अंकजा उत्साह में हाथों में पकड़ी साड़ी दिखाते हुए बोली, “भाभी ने दी है. सुंदर है ना. मैं तो भइया-भाभी को कुछ दे ही नहीं पाई.” “इतने दिनों से सबका ख़्याल रखा, वो क्या कम था. जाओ अब थोड़ा आराम कर लो.” दमयंतीजी के स्नेहपूर्ण शब्दों से लबरेज़ तारीफ़ से अंकजा के चेहरे पर छाया उल्लास अभय के चेहरे पर संतुष्टि के भाव ले आया, जिसे देख सूर्यकांतजी मुस्कुरा दिए.

मीनू त्रिपाठी

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