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कहानी- सपनों के पंख (Short Story- Sapno Ke Pankh)

कुछ पूछा नहीं मंदा ने नीलोत्पल दा और रुपाली दी से इस बारे में, लेकिन मन ही मन धन्यवाद ज़रूर दिया. इतने दिनों से वह खुद बहुत अच्छा महसूस कर रही थी. आलस, बोझिलता और कुछ कर न पाने की कसक दूर हो गई थी. हालांकि वह जानती थी कि जिस दिन विवेक को पता चला, तो तूफान आ जाएगा. जानती है नाटक करने वालों को वह भांड कहता है. लिपे-पुते चेहरे वाले भांड, तिरस्कार होता है उसके शब्दों में.

“ख़ुद को कब तक यूं ही आईने में निहारती रहोगी? अच्छी ही लग रही हो. अब चलो भी, वरना पार्टी में सबसे देर से पहुंचेंगे.” विवेक ने मंदा की तरफ देखते हुए झुंझलाते स्वर में कहा.

“वैसे भी इतने सारे लोग होंगे, किसको फुर्सत होगी कि तुम्हें देखे? पार्टी में सब खाने-पीने के लिए जाते हैं. देखा जाए तो पीने और ग्लैमर्स तितलियों को ताकने जाते हैं. न जाने किसके लिए इतना तैयार होना चाहती हो? मैं तो रोज़ ही तुम्हें देखता हूं. जैसी हो, मेरे लिए ठीक हो. वैसे भी शादी के इतने सालों बाद कुछ फर्क नहीं पड़ता.” विवेक एक बार बोलना शुरू कर दे, तो उसके तानों में उपहास घुल जाता है और वह जो मन आता है, बोल देता है. बिना यह सोचे कि सुनने वाले को कैसा लगेगा. लेकिन ऐसा वह केवल मंदा के साथ ही करता है, वरना अपनी प्रोफेशनल लाइफ में तो बहुत नाप-तौल कर बात करता है. पता नहीं मंदा के साथ ही क्यों उसका व्यवहार बदल जाता है?
“दूसरों के लिए क्यों, खुद के लिए तैयार होती हूं मैं. अच्छा लगता है.” मंदा बुदबुदाई.
“जानता हूं. तुम्हें बन-ठनकर रहना पसंद है, लेकिन वह सब भी एक उम्र तक ही ठीक लगता है. हर उम्र की अपनी मर्यादा और शालीनता होती है.” विवेक ने कार स्टार्ट करते हुए कहा.
खीझ हुई यह सुनकर मंदा को. पल भर को उसे घूरा. कोबाल्ट ब्लू सूट, व्हाइट शर्ट और लाइट ब्लू टाई, ब्लैक शूज, आफ्टर शेव की भीनी-भीनी सुगंध और ढेर सारा परफ्यूम. विवेक हमेशा बेहतरीन ढंग से तैयार होकर घर से निकलता है. पार्टी के लिए ही नहीं, कहीं भी जाना हो, हमेशा टिप-टॉप रहता है. गजब का आकर्षक व्यक्तित्व है. उसकी भी तो उम्र हो गई है? मंदा से चार साल बड़ा है, फिर यह क्यों सज-संवरकर निकलता है? अगर कभी वह यह सवाल पूछ बैठी, तो जानती है इस सवाल का कोई सटीक जवाब विवेक के पास नहीं होगा. घिसा-पिटा जवाब ही होगा कि ‘मैं पुरुष हूं, काम पर जाता हूं, 10 लोगों से मिलना होता है. आख़िर सोसायटी में मेरा कोई स्टेटस है.’

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तो? मंदा के भीतर जैसे सवाल-जवाब की उठा-पटक चलने लगी. वह स्त्री है, उसके लिए संवरे रहना क्यों ज़रूरी नहीं है? जबकि श्रृंगार की तमाम वस्तुएं, सारे ताम-झाम और रौनकें स्त्रियों के लिए ही होती हैं. फैशन की सारी दुनिया उनसे ही चलती है, उनकी वजह से ही फलती-फूलती है. पूरा बाज़ार पुरुषों की बजाय स्त्रियों के कपड़ों और उनके साज-श्रृंगार की चीज़ों से ज़्यादा भरा रहता है. माना वह नौकरी नहीं करती, तो क्या घर में यूं ही झल्ली बनी घूमती रहे. नहीं रह सकती वह ऐसे. नौकरी करने पर भी विवेक ने ही पाबंदी लगाई थी, इसलिए लाख विवेक टोके, वह शादी के बाद मेनीक्योर, पेडीकेयोर, फेशियल से लेकर ज़रूरी ब्यूटी ट्रीटमेंट करवाती रही. नेलपॉलिश, लिपस्टिक सब लगाती रही. घर पर भी तैयार होकर रहना ही पसंद था उसे. विवेक को इस बात से ख़ुश होना चाहिए था कि उसकी बीवी स्मार्ट है, सही तरह से रहने के तौर-तरीके जानती है, लेकिन उसे ये सब फिजूल की बातें लगती हैं.
वैसे भी मंदा की हर बात को काटना या टिप्पणी करना विवेक अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानता है. और उम्र की बात करें तो 42 साल की हुई है बस. 22 साल में शादी हो गई थी. एक साल बाद बेटा और उसके दो साल बाद बेटी. बच्चे बाहर हॉस्टल में रहकर पढ़ाई कर रहे हैं, इसलिए समय ही समय है उसके पास. इतना कि बिल्कुल बोर हो जाती है. शादी के बाद सारे शौक, सपने कब चूल्हे और गृहस्थी की भेंट चढ़ गए, पता ही नहीं चला. वह जिस क्षेत्र में अपना मुकाम बनाना चाहती थी, उसके बारे में पता चलते ही शादी के बाद भड़क गया था विवेक. साफ ताकीद दी थी, “कोई ज़रूरत नहीं है, ऐसी बेकार की बातों को दिमाग में लाने की भी. शादी से पहले के जो शौक हैं, उन्हें जाकर किसी मिट्टी के ढेर के नीचे दबा दो, वरना परेशानी तुम्हें ही होगी. यह समझ लो तुम्हें किसी चीज़ की कमी कभी नहीं होने दूंगा. तुम मेरी ज़िम्मेदारी हो और मैं उसे निभाऊंगा.”
विवेक ने सच में उसे कोई कमी नहीं होने दी कभी. बढ़-चढ़कर उसके लिए चीज़ें खरीदकर लाता है, लेकिन क्या चीज़ें ही सारी इच्छाओं की भरपाई करने की पर्याय होती हैं?
वैसे धीरे-धीरे कम ही हो रहा है उसका अपने ऊपर ध्यान देना. इन दिनों बिना प्रेस की साड़ी पहन लेती है, कभी बाल बिखरे भी रहते हैं. फेशियल कराए महीनों बीत जाते हैं. हाथ-पैरों के नाखून तराशना नज़रअंदाज़ कर जाती है. एक अजीब-सा आलस उस पर हावी हो रहा है. आलस से ज़्यादा शायद बोरियत है, कुछ न कर पाने की बोरियत है, पीछे जो छूटा है, उसे संभाल न पाने की एक चिढ़. तो एक ज़िद की तरह करती है वह बनाव-श्रृंगार, वह भी कभी-कभी. इसीलिए अब जब कहीं बाहर जाती है, तो कुछ ज़्यादा ही देर लगती है उसे शीशे के सामने से हटने में. मानो सारी कसर उसी दिन पूरी कर लेना चाहती हो.

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उम्र हो जाए तो क्या सजना-संवरना, खुद पर ध्यान देना छोड़ देना चाहिए. इस तरह तो अपने लिए जीना भी छोड़ देना चाहिए. नहीं कर सकती वह विवेक से सवाल और बहस तो कतई नहीं. इसलिए सारे रास्ते चुप ही बैठी रही कार में.
पार्टी में नीलोत्पल दा को देख हैरान रह गई. हमेशा की तरह खादी का कुर्ता-पाजामा पहना हुआ था. अक्सर वह कहती, “दा, गांधीजी के बाद आप खादी के सबसे बड़ा प्रचारक हैं.” तो वह ज़ोर-ज़ोर से हंसते हुए कहते, “बहुत शैतान हो तुम, मंदा. लेकिन अपनी ये शरारतें, ये चुलबुलापन हमेशा कायम रखना. इससे व्यक्तित्व और कला दोनों में निखार आता है. जीवन की जीवंतता बनी रहती है.”
शैतानी और चुलबुलापन दोनों को ही वह संभाल नहीं पाई.
“आप यहां? इस शहर में? कब आए दिल्ली से? आपको देखकर बहुत अच्छा लगा, दा.” ख़ुशी के अतिरेक में उसने प्रश्‍नों की झड़ी लगा दी.
“बीवी जो बोले मानना पड़ता है बाबा. उसका आदेश कि मुंबई शिफ्ट हो जाते हैं. यहां ज़्यादा अवसर हैं हमारे लिए.“ नीलोत्पल दा ज़ोर से हंसे.
“आपने शादी कर ली. घोर आश्‍चर्य दा. आप तो हमेशा कहते थे कि चाहे कोई अप्सरा भी आ जाए, शादी नहीं करूंगा.”
“नहीं चली मेरी उसके सामने. ऐ रुपाली, देखो तो कौन है यहां.”
रुपाली दी को देख मंदा उनसे लिपट गई. हमेशा की तरह बालों में गजरा लगा था और पीले रंग की सिल्क की साड़ी में वह अद्वितीय लग रही थीं. ग्रुप के सारे लोग उन्हें शिल्पकार का ऐसा शिल्प कहा करते थे, जिसे गढ़ते हुए हथौड़ी-छेनी भी बहुत कोमलता से चलाई गई होगी. तभी तो हर अंग कलात्मक ढंग से तराशा हुआ लगता था.
“आपने रुपाली दी से शादी की?” मंदा की हैरानी और बढ़ गई थी.
“करनी पड़ी मंदा. मानी ही नहीं. तुम सबसे बिंदास थीं हमारे ग्रुप में. तुम तो शादी करके गायब ही हो गईं, फिर मुझे कौन बचाता?” दा हंसे.
रुपाली ने प्यार से उनकी पीठ पर मुक्का मारा. “बदमाश मानुष. मंदा, इनकी बातों में मत आना. कितने पीछे पड़े कि शादी कर लो, वरना इस रूखे इंसान के साथ बंधती क्या मैं?”
“नहीं दी. दा बिलकुल रूखे इंसान नहीं हैं. कलाकार तो संवेदनशील होता है. अपने गुरु के बारे में मैं कुछ नहीं सुनूंगी.”
“तुम थियेटर कर रही हो कि नहीं?” विवेक तो अपने दोस्तों के साथ ड्रिंक करने में व्यस्त था. मंदा साथ में आई है, यह भी भूल गया था. वे तीनों कोने की एक टेबल पर आकर बैठ गए.
“दा, कुछ नहीं कर रही मैं. विवेक को पसंद नहीं, लेकिन आप लोगों का थियेटर ग्रुप कैसा चल रहा है?”
“एकदम बढ़िया. यहां मुंबई में भी अच्छा लग रहा है. लोग थियेटर पसंद करते हैं. ग्लैमरस होने के साथ-साथ मुंबई में कला की भी बहुत कद्र है. तुम वापस ज्वाइन कर लो हमारे साथ.” रुपाली दी ने चीज़ बॉल्स खाते हुए कहा.
“संभव नहीं होगा दी.” मंदा ने धीमे स्वर में कहा. थियेटर के बारे में सोचते ही एक टीस उठी थी मन में. उसका सपना था एक बेहतरीन थियेटर कलाकार बनने का.
“अपना पता दो. कल आते हैं हम तुम्हारे घर.” नीलोत्पल दा उसे भावुक होते देख माहौल को सहज बनाने के लिए बोले.
“दा, दोपहर में आइएगा.” अचानक मंदा के मुंह से निकला. विवेक घर पर होगा, तो नाहक ही गुस्सा होगा.
“मंदा, हमारे ग्रुप की एक लड़की की मां बहुत बीमार है. वह रिहर्सल पर भी नहीं आ रही है. और अगले महीने ही नाटक का मंचन है. विज्ञापन जा चुके हैं, पोस्टर छप गए हैं. प्रचार काम जोरों पर है. वेन्यू के लिए एडवांस का भुगतान किया जा चुका है. लगभग सारी तैयारियां हो चुकी हैं. ऐसे में नाटक मंचन की तारीख़ आगे बढ़ाना संभव नहीं. और तुम तो जानती हो हमारे पास इतना पैसा भी नहीं है कि शो कैंसल कर दें और नुकसान सह लें. बरबाद हो जाएंगे हम.” नीलोत्पल दा ने पूरी नाटकीयता से, चेहरे पर दयनीय भाव लाकर कहा.
“हां मंदा. अब तुम ही हमें बचा सकती हो.” रुपाली दी ने भी अभिनय के सारे दांव-पेंच आजमाते हुए स्वर में वेदना के सारे तार झनझनाते हुए कहा.
“मैं कैसे? यह आप लोग क्या कह रहे हैं? मुझे नहीं लगता कि आर्थिक रूप से इस काम के लिए मैं आपकी कोई मदद कर पाऊंगी. विवेक को थियेटर की दुनिया कतई पसंद नहीं.”
“अरे नहीं, पैसे से मदद करने के लिए नहीं कह रहे हैं. मैं चाहता हूं कि उस लड़की की भूमिका तुम करो. एक महीना है, आराम से रिहर्सल हो जाएगी. और तुम जैसी पारंगत कलाकार के लिए कौन-सा मुश्किल काम है अभिनय करना.” नीलोत्पल दा ने समझाने और मनाने के ख़्याल से अपनी खास शैली में कहा.
बुरी तरह से चौंक गई मंदा. “यह आप क्या कह रहे हैं, दा? असंभव बात है.”
“क्यों, इसमें इतनी चौंकने वाली बात क्या है?” रुपाली दी ने पूछा. “तुम स्कूल टाइम से थियेटर करती आ रही हो. मंजी हुई कलाकार हो. हमारे ग्रुप का हिस्सा रही हो. अब हमें ज़रूरत है तो क्या हमारे लिए इतना भी नहीं कर सकतीं? नीलोत्पल को गुरु मानती हो. उनका मान नहीं रखोगी क्या?” रुपाली ने मंदा की भावनाओं को झिंझोड़ा. वह जानती थीं कि मंदा वैसे मानने वाली नहीं है.
“शादी के बाद अभिनय करना तो दूर, किसी नाटक का मंचन होते देखा तक नहीं. सब भूल चुकी हूं. इतने बरस हो गए हैं, रुपाली दी.”
“कला हमारे भीतर होती है, वह ख़त्म नहीं होती. अगर समय का अंतराल आ जाए, तो उसे केवल तराशने की ज़रूरत होती है. बस तुम्हें पुनः अभ्यास करना होगा. रिहर्सल करोगी तो पुरानी मंदा स्टेज पर छा जाएगी पहले की तरह.” नीलोत्पल दा बोले.
“दा, विवेक मुझे कभी इसकी अनुमति नहीं देंगे.” मंदा ने कंपकंपाते स्वर में कहा. ‘मैं जिस सपने को दफना चुकी हूं, उसे क्यों खोदकर बाहर लाने की ज़िद कर रहे हैं ये दोनों?’ मंदा अपने भीतर एक लड़ाई लड़ रही थी. ‘क्यों वापस ये उसे उस दुनिया में ले जाना चाहते हैं, जहां जाना संभव नहीं है!’
“अनुमति नहीं देंगे मतलब? तुम्हें अपने बारे में फैसले लेने का अधिकार तो होगा ही? और क्या तुम अपनी कला को मरने दोगी? अभिनय तो तुम्हारे लिए जीवन की संतुष्टि रहा है हमेशा. कैसे जी पा रही हो उसके बिना?” रुपाली दी ने जैसे उसके आत्मसम्मान को झिंझोड़ा.
“रुपाली रहने दो. मंदा को इस तरह परेशान मत करो. विवेक को नहीं पसंद तो कोई बात नहीं. हम तुम्हें बाध्य नहीं करेंगे, लेकिन बस इस बार यह नाटक कर लो, वरना बहुत मुश्किल स्थिति पैदा हो जाएगी हमारे लिए.” नीलोत्पल दा ने अनुरोध किया.
“दा, इस तरह अनुनय कर आप मुझे शर्मिंदा न करें. मैं कोशिश करूंगी, पर अभिनय ठीक से कर पाऊंगी कि नहीं इसकी गारंटी नहीं ले सकती.”
“वह तुम मुझ पर छोड़ दो.” रुपाली दी बोलीं.
“मैं दोपहर में ही रिहर्सल के लिए आ सकती हूं.”
“कोई दिक्कत नहीं. हमारी टोली का विमल तुम्हें कार लेकर लेने आएगा और छोड़ भी जाएगा. कॉलेज में पढ़ता है, पर अच्छा कलाकार है. जब तुम हमारे ग्रुप से जुड़ी थीं, उस समय जैसा जुनून तुम में था अभिनय को लेकर, वैसा ही जुनून उसमें भी दिखाई देता है मुझे. वह भी एक भूमिका निभा रहा है नाटक में.” नीलोत्पल दा ने उसे स्क्रिप्ट पकड़ाते हुए कहा.
इतने वर्षों बाद अभिनय करते हुए भी रिहर्सल के दौरान मंदा को नहीं लगा कि वह कुछ भूली थी. बहुत ही सहज ढंग से वह संवाद पढ़ती गई. धीरे-धीरे अभिनय और मंज गया. नीलोत्पल दा और रुपाली दी के निर्देशों के साथ वह निखरती गई.
“मंदा दी, आपका अभिनय एकदम स्वाभाविक है. जान डाल दी है आपने ध्रुवस्वामिनी की भूमिका में.” उसे वापस छोड़ते समय विमल बोला.

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“अच्छा विमल, अब उस लड़की की मां की तबीयत कैसी है, जो पहले यह भूमिका निभाने वाली थी?”
“नहीं तो दी. यह भूमिका तो कोई नहीं निभाने वाला था. नीलोत्पल दा किसी को ढूंढ रहे थे इसके लिए. फिर आप मिल गईं तो वह बहुत प्रसन्न हुए.”
कुछ पूछा नहीं मंदा ने नीलोत्पल दा और रुपाली दी से इस बारे में, लेकिन मन ही मन धन्यवाद ज़रूर दिया. इतने दिनों से वह खुद बहुत अच्छा महसूस कर रही थी. आलस, बोझिलता और कुछ कर न पाने की कसक दूर हो गई थी. हालांकि वह जानती थी कि जिस दिन विवेक को पता चला, तो तूफान आ जाएगा. जानती है नाटक करने वालों को वह भांड कहता है. लिपे-पुते चेहरे वाले भांड, तिरस्कार होता है उसके शब्दों में.
बस आज फाइनल रिहर्सल है और दो दिन बाद मंचन. उस दिन के लिए कोई बहाना बनाना पड़ेगा सुबह से रात तक घर से बाहर रहने के लिए.
फाइनल रिहर्सल में देर हो गई थी. विवेक का आने का समय हो रहा है, सोचकर मंदा ने न कपड़े बदले थे और न ही मेकअप उतारा था. अंधेरा हो गया था. विमल उसे छोड़कर निकल ही रहा था कि बोला, “मंदा दी, एक बार खड़्गधारिणी के साथ जो आपका संवाद है, उसे सुनाओ न. वाह! कितना अद्भुत है आपका कहने का अंदाज़.”
मंदा हंस पड़ी. पैसेज में ही रुक गई. “भला मैं क्या कर सकूंगी? मैं तो अपने ही प्राणों का मूल्य नहीं समझ पाती. मुझ पर राजा का कितना अनुग्रह है, यह भी मैं आज तक न जान सकी. मैंने तो कभी उनका संभाषण सुना ही नहीं. विलासिनियों के साथ मदिरा में उन्मत, उन्हें अपने आनंद से अवकाश कहां!”
अचानक जड़ हो गई मंदा. विवेक सामने खड़ा था।
“दी, मैं चलता हूं. प्रणाम.” विमल चला गया.
सजी-धजी, मेकअप की परतों से चेहरे को रंगत दिए, भौंहों में कटाव और नकली आभूषणों से सुसज्जित मंदा को देख हतप्रभ रह गया विवेक. घर के अंदर उसके पीछे आते हुए वह उसे बताने का प्रयत्न कर रही थी कि कैसे नीलोत्पल दा और रुपाली दी से उसकी भेंट हुई और उसके बाद बस परसों मंचन है. “उसके बाद मैं अभिनय नहीं करूंगी विवेक, लेकिन अब मैं मना नहीं कर सकती. सारी तैयारियां हो चुकी हैं. मैं तुम्हारी बात की अवहेलना नहीं करनी चाहती थी, बस न जाने कैसे मेरे सपनों ने उड़ान भर ली. कुछ तो बोलो विवेक. तुम समझ रहे हो न मेरी बात?”
कोई प्रतिक्रिया नहीं. मंदा इस बात से ज़्यादा परेशान थी. ज्वालामुखी के फटने का इंतज़ार था उसे. सुबह तक चुप्पी छाई रही. न ताना, न उलाहना. हैरानी की बात तो यह कि बड़ी देर तक दूसरे कमरे में जाकर बच्चों से बात करता रहा विवेक. मंदा ही करती थी बच्चों से हमेशा बात और वह उसी से उनका हाल-चाल पूछ लिया करता था. बेटी तो हमेशा कहती थी कि ‘मां आपको इस तरह अपने अभिनय के पैशन को नहीं छोड़ना चाहिए था. कला तो हर रूप में अच्छी और प्रशंसा योग्य होती है. मुझे वापस आने दें, फिर देखती हूं पापा आपको कैसे रोक पाएंगे.’ बेटी की बात सुन मंदा कुछ नहीं कहती थी. अपने सपनों को वह कब का दफन कर चुकी है, नाहक क्यों उन्हें बाहर निकालने की कोशिश में वर्तमान में उठा-पटक करे!
“कितने बजे का शो है?” सुबह चुप्पी टूटी. “आऊंगा मैं भी देखने तुम्हारा अभिनय. सुना तुम्हारी डायलॉग डिलीवरी तो अच्छी है. और हां सजी-संवरी ज़्यादा अच्छा लगती हो तुम. अपना ध्यान रखना क्यों छोड़ दिया है तुमने?”
मंदा आश्‍चर्यचकित सी उसे ताक रही थी. नहीं ताना तो नहीं लग रहा यह, न ही तानों में लिपटा उपहास है. क्या सचमुच विवेक नाराज नहीं है? कहीं वह अभिनय तो नहीं कर रहा?
वह धीरे-धीरे क़दम रखते हुए बिल्कुल उसके पास जाकर खड़ी हो गई. उसकी आंखों में झांका. उसके चेहरे के भावों को पढ़ने लगी. नहीं अभिनय तो नहीं लग रहा!
मंदा को लगा जैसे उसके सपनों ने हौले से पंख फड़फड़ाए हैं.

सुमन बाजपेयी

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