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एक्ट्रेस नहीं डॉक्टर बनना चाहती थीं ऐश्वर्या राय, जिंदगी से जुड़े ये राज नहीं जानते होंगे आप (Aishwarya Rai Wanted To Become A Doctor Not An Actress, You Would Not Know These Secrets Related To Her Life)

फिल्मों में कदम रखने से पहले ही ऐश्वर्या राय काफी ज्यादा फेमस हो गई थीं. मिस वर्ल्ड का खिताब जीतने के बाद साल 1997 में…

फिल्मों में कदम रखने से पहले ही ऐश्वर्या राय काफी ज्यादा फेमस हो गई थीं. मिस वर्ल्ड का खिताब जीतने के बाद साल 1997 में उन्होंने अपने एक्टिंग करियर की शुरुआत की और देश की सबसे सक्सेफुल एक्ट्रेस की लिस्ट में शुमार हो गईं. लेकिन क्या आपको पता है कि ऐश्वर्या राय एक्ट्रेस बनने से पहले डॉक्टर बनना चाहती थीं. आज हम आपको बताएंगे ऐश्वर्या राय की जिंदगी के उस राज के बारे में जिसके बारे में शायद ही आप जानते होंगे.

फोटो सौजन्य – इंस्टाग्राम

अपने स्कूल के दिनों में ऐश्वर्या राय काफी अच्छी स्टूडेंट हुआ करती थीं. इसी वजह से वो अपने करियर को लेकर भी काफी ज्यादा सीरियस थीं. सिम्मी ग्रेवाल के शो में एक बार ऐश्वर्या राय ने बताया था कि वो मेडिकल कर रही थीं. इंटरव्यू के दौरान एक्ट्रेस ने बताया था कि उनका फेवरेट सब्जेक्ट जुलॉजी था और वो मेडिकल के फील्ड में अपना करियर बनाना चाहती थीं. यही नहीं वो एक आर्किटेक्ट भी बनने की ख्वाहिश रखती थीं, जिसके लिए उन्होंने रचना संसद अकादमी ऑफ आर्किटेक्चर में एनरोल भी किया था, लेकिन बाद में मॉडलिंग में करियर बनाने की वजह से उन्हें बीच में ही पढ़ाई छोड़नी पड़ी थी.

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फिल्मों में आने से पहले ऐश्वर्या राय एक सक्सेफुल मॉडल हुआ करती थीं. साल 1994 में उन्होंने मिस वर्ल्ड का खिताब अपने नाम किया और दुनियाभर में फेमस हो गईं. साल 1997 तक वो मॉडलिंग ही कर रही थीं. इसके बाद उन्हें फिल्मों में काम करने का मौका मिला और उन्होंने तमिल फिल्म ‘इरुवर’ से अपने फिल्मी करियर की शुरुआत की. अपने दमदार एक्टिंग के दम पर ऐश्वर्या लोगों के दिलों पर छाती चली गईं.

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तमिल फिल्म के बाद साल 1997 में उन्हें हिंदी फिल्म ‘और प्यार हो गया’ में काम करने का मौका मिला. इसके बाद उसी साल उन्हें संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘हम दिल दे चुके सनम’ भी मिल गई. इस फिल्म ने उनके शोहरत को आसमान पर ला दिया. इसके बाद उन्होंने एक से बढ़कर एक फिल्मों में काम किया और अपने फैंस के दिलों पर राज करती रहीं. साल 2010 के बाद ऐश्वर्या ने करीब 5 साल का ब्रेक लिया और फिर साल 2015 में उन्होंने फिल्म ‘जजबा’ से वापसी की.

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ऐश्वर्या राय को 11 नामांकनों में 2 फिल्मफेयर पुरस्कारों सहित अनेकों पुरस्कार मिले. यही नहीं साल 2009 में वो पद्मश्री से सम्मानित की गईं और साल 2012 में आर्डे डेस आर्ट्स एट डेस लेट्रेस से भी सम्मानित किया जा चुका है.

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Khushbu Singh

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ये माना समय बदल रहा है और लोगों की सोच भी. समाज कहने को तो पहले से कहीं ज़्यादा मॉडर्न ही गया है. लाइफ़स्टाइल बदल गई, सुविधाएं बढ़ गईं, लग्ज़री चीजों की आदतें हो गई… कुल मिलाकर काफ़ी कुछ बदल गया है, लेकिन ये बदलाव महज़ बाहरी है, दिखावाहै, छलावा है… दिखाने के लिए तो हम ज़रूर बदले हैं लेकिन भीतर से हमारी जड़ों में क़ैद कुछ रूढ़ियां आज भी सीना ताने वहीं कि वहींऔर वैसी कि वैसी खड़ी हैं… थमी हैं… पसरी हुई हैं. जी हां, यहां हम बात वही बरसों पुरानी ही कर रहे हैं, बेटियों की कर रहे हैं, बहनों की कर रहे हैं और माओं की कर रहे हैं… नानी-दादी, पड़ोसन और भाभियों की कर रहे हैं, जो आज की नई लाइफ़स्टाइल में भी उसी पुरानी सोच के दायरों में क़ैद है और उन्हें बंदी बना रखा हैखुद हमने और कहीं न कहीं स्वयं उन्होंने भी.  भले ही जीने के तौर तरीक़ों में बदलाव आया है लेकिन रिश्तों में आज भी वही परंपरा चली आ रही है जिसमें लड़कियों को बराबरी कादर्जा और सम्मान नहीं दिया जाता. क्या हैं इसकी वजहें और कैसे आएगा ये बदलाव, आइए जानें.  सबसे बड़ी वजह है हमारी परवरिश जहां आज भी घरों में खुद लड़के व लड़कियों के मन में शुरू से ये बात डाली जाती है कि वोदोनों बराबर नहीं हैं. लड़कों का और पुरुषों का दर्जा महिलाओं से ऊंचा ही होता है. उनको घर का मुखिया माना जाता है. सारे महत्वपूर्ण निर्णय वो ही लेते हैं और यहां तक कि वो घर की महिलाओं से सलाह तक लेना ज़रूरी नहीं समझते. घरेलू कामों में लड़कियों को ही निपुण बनाने पर ज़ोर रहता है, क्योंकि उनको पराए घर जाना है और वहां भी रसोई में खाना हीपकाना है, बच्चे ही पालने है तो थोड़ी पढ़ाई कम करेगी तो चलेगा, लेकिन दाल-चावल व रोटियां कच्ची नहीं होनी चाहिए.ऐसा नहीं है कि लड़कियों की एजुकेशन पर अब परिवार ध्यान नहीं देता, लेकिन साइड बाय साइड उनको एक गृहिणी बनने कीट्रेनिंग भी दी जाती है. स्कूल के बाद भाई जहां गलियों में दोस्तों संग बैट से छक्के मारकर पड़ोसियों के कांच तोड़ रहा होता है तो वहीं उसकी बहन मां केसाथ रसोई में हाथ बंटा रही होती है.ऐसा नहीं है कि घर के कामों में हाथ बंटाना ग़लत है. ये तो अच्छी बात और आदत है लेकिन ये ज़िम्मेदारी दोनों में बराबर बांटीजाए तो क्या हर्ज है? घर पर मेहमान आ जाएं तो बेटियों को उन्हें वेल्कम करने को कहा जाता है. अगर लड़के घर के काम करते हैं तो आस-पड़ोस वाले व खुद उनके दोस्त तक ताने देते हैं कि ये तो लड़कियों वाले काम करता है.मुद्दा यहां काम का नहीं, सोच का है- ‘लड़कियोंवाले काम’ ये सोच ग़लत है. लड़कियों को शुरू से ही लाज-शर्म और घर की इज़्ज़त का वास्ता देकर बहुत कुछ सिखाया जाता है पर संस्कारी बनाने के इसक्रम में लड़के हमसे छूट जाते हैं.अपने घर से शुरू हुए इसी असमानता के बोझ को बेटियां ससुराल में भी ताउम्र ढोती हैं. अगर वर्किंग है तो भी घरेलू काम, बच्चों व सास-ससुर की सेवा का ज़िम्मा अकेले उसी पर होता है. ‘अरे अब तक तुम्हारा बुख़ार नहीं उतरा, आज भी राजा बिना टिफ़िन लिए ऑफ़िस चला गया होगा. जल्दी से ठीक हो जाओ बच्चेभी कब तक कैंटीन का खाना खाएंगे… अगर बहू बीमार पड़ जाए तो सास या खुद लड़की की मां भी ऐसी ही हिदायतें देती है औरइतना ही नहीं, उस लड़की को भी अपराधबोध महसूस होता है कि वो बिस्तर पर पड़ी है और बेचारे पति और बच्चे ठीक से खानानहीं खा पा रहे. ये चिंता जायज़ है और इसमें कोई हर्ज भी नहीं, लेकिन ठीक इतनी ही फ़िक्र खुद लड़की को और बाकी रिश्तेदारों को भी उसकीसेहत को लेकर भी होनी चाहिए. घर के काम रुक रहे हैं इसलिए उसका जल्दी ठीक होना ज़रूरी है या कि स्वयं उनकी हेल्थ केलिए उसका जल्दी स्वस्थ होना अनिवार्य है? पति अगर देर से घर आता है तो उसके इंतज़ार में खुद देर तक भूखा रहना सही नहीं, ये बात बताने की बजाय लड़कियों को उल्टेये सीख दी जाती है कि सबको खिलाने के बाद ही खुद खाना पत्नी व बहू का धर्म है. व्रत-उपवास रखने से किसी की आयु नहीं घटती और बढ़ती, व्रत का संबंध महज़ शारीरिक शुद्धि व स्वास्थ्य से होता है, लेकिनहमारे यहां तो टीवी शोज़ व फ़िल्मों में इन्हीं को इतना ग्लोरीफाई करके दिखाया जाता है कि प्रिया ने पति के लिए फ़ास्ट रखा तोवो प्लेन क्रैश में बच गया… और इसी बचकानी सोच को हम भी अपने जीवन का आधार बनाकर अपनी ज़िंदगी का अभिन्न हिस्साबना लेते हैं. बहू की तबीयत ठीक नहीं तो उसे उपवास करने से रोकने की बजाय उससे उम्मीद की जाती है और उसकी सराहना भी कि देखोइसने ऐसी हालत में भी अपने पति के लिए उपवास रखा. कितना प्यार करती है ये मेरे राजा से, कितनी गुणी व संस्कारी है. एक मल्टी नेशनल कंपनी में काम करने वाली सुप्रिया कई दिनों से लो बीपी व कमज़ोरी की समस्या झेल रही थी कि इसी बीचकरवा चौथ भी आ गया. उसने अपनी सास से कहा कि वो ख़राब तबीयत के चलते करवा चौथ नहीं कर पाएगी, तो उसे जवाब मेंये कहा गया कि अगर मेरे बेटे को कुछ हुआ तो देख लेना, सारी ज़िंदगी तुझे माफ़ नहीं करूंगी. यहां बहू की जान की परवाहकिसी को नहीं कि अगर भूखे-प्यासे रहने से उसकी सेहत ज़्यादा ख़राब हो गई तो? लेकिन एक बचकानी सोच इतनी महत्वपूर्णलगी कि उसे वॉर्निंग दे दी गई. आज भी हमारे समाज में पत्नियां पति के पैर छूती हैं और उनकी आरती भी उतारती दिखती हैं. सदा सुहागन का आशीर्वाद लेकरवो खुद को धन्य समझती हैं… पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद मिलने पर वो फूले नहीं समाती हैं… ऐसा नहीं है कि पैर छूकर आशीर्वाद लेना कोई ग़लत रीत या प्रथा है, बड़े-बुजुर्गों का आशीर्वाद बेहद ज़रूरी है और ये हमारेसंस्कार भी हैं, लेकिन पति को परमेश्वर का दर्जा देना भी तो ग़लत है, क्योंकि वो आपका हमसफ़र, लाइफ़ पार्टनर और साथी है. ज़ाहिर है हर पत्नी चाहती है कि उसके पति की आयु लंबी हो और वो स्वस्थ रहे लेकिन यही चाहत पति व अन्य रिश्तेदारों कीलड़की के लिए भी हो तो क्या ग़लत है? और होती भी होगी… लेकिन इसके लिए पति या बच्चों से अपनी पत्नी या मां के लिए दिनभर भूखे-प्यासे रहकर उपवास करने कीभी रीत नहीं… तो फिर ये बोझ लड़कियों पर क्यों?अपना प्यार साबित करने का ये तो पैमाना नहीं ही होना चाहिए.बेटियों को सिखाया जाता है कि अगर पति दो बातें कह भी दे या कभी-कभार थप्पड़ भी मार दे तो क्या हुआ, तेरा पति ही तो है, इतनी सी बात पर घर नहीं छोड़ा जाता, रिश्ते नहीं तोड़े जाते… लेकिन कोई उस लड़के को ये नहीं कहता कि रिश्ते में हाथ उठानातुम्हारा हक़ नहीं और तुमको माफ़ी मांगनी चाहिए.और अगर पत्नी वर्किंग नहीं है तो उसकी अहमियत और भी कम हो जाती, क्योंकि उसके ज़हन में यही बात होती है कि जो कमाऊसदस्य होता है वो ही सबसे महत्वपूर्ण होता है. उसकी सेवा भी होनी चाहिए और उसे मनमानी और तुम्हारा निरादर करने का हक़भी होता है.मायके में भी उसे इसी तरह की सीख मिलती है और रिश्तेदारों से भी. यही कारण है कि दहेज व दहेज के नाम पर हत्या वआत्महत्या आज भी समाज से दूर नहीं हुईं.बदलाव आ रहा है लेकिन ये काफ़ी धीमा है. इस भेदभाव को दूर करने के लिए जो सोच व परवरिश का तरीक़ा हमें अपनाना हैउसे हर घर में लागू होने में भी अभी सदियों लगेंगी, क्योंकि ये अंतर सोच और नज़रिए से ही मिटेगा और हमारा समाज व समझअब भी इतनी परिपक्व नहीं हुईं कि ये नज़रिया बदलनेवाली नज़रें इतनी जल्दी पा सकें. पत्नी व महिलाओं को अक्सर लोग अपनी प्रॉपर्टी समझ लेते हैं, उसे बहू, बहन, बेटी या मां तो समझ लेते हैं, बस उसे इंसान नहींसमझते और उसके वजूद के सम्मान को भी नहीं समझते.गीता शर्मा 

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