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डिफिकल्ट होती पैरेंटिंग (Parenting is a challenging task)

खुला वातावरण, उन्मुक्त सोच और इन सबके बीच मासूमियत खोता बचपन… ये तमाम बातें हैं, जो पैरेंटिंग को और भी मुश्किल व चैलेंजिंग बनाती जा रही हैं. एक ओर जहां बच्चे बाहरी वातावरण से प्रभावित होकर अपने तरी़के से जीने की ज़िद लिए आगे बढ़ते हैं, तो वहीं दूसरी ओर अभिभावक इस दुविधा को मन में पाले रहते हैं कि कहां रोकें और कहां छूट दें.

 


बदलती सोच के साथ समाज तेज़ी से बदल रहा है और इससे सबसे ज़्यादा प्रभावित हो रहे हैं बच्चे. और चूंकि बच्चे प्रभावित हो रहे हैं, तो ज़ाहिर-सी बात है, अभिभावकों की चिंताएं बढ़ रही हैं.
हमारे समाज में एक सोच सदियों से चली आ रही है कि बच्चों पर पैरेंट्स का इतना हक़ है कि वे जब, जैसे चाहें उन्हें डांट-डपट सकते हैं, मार सकते हैं, उन पर प्रतिबंध लगा सकते हैं इत्यादि. हालांकि समय के साथ-साथ इस सोच में बदलाव आया है. लेकिन ये बदलाव बच्चों में ज़्यादा तेज़ी से आ रहा है बजाय पैरेंट्स के. पैरेंट्स आज भी कहीं न कहीं उसी पारंपरिक सोच के साथ जीते हैं कि बच्चों को ज़्यादा आज़ादी नहीं दी जानी चाहिए, उनके मन में बड़ों का डर होना ही चाहिए. उन्हें ज़िंदगी में क़ामयाब होना है, तो खेल-कूद के बजाय पढ़ाई पर ही ध्यान देना चाहिए आदि. हम आज भी यही सोचते हैं कि बच्चों के टीचर्स को तो बच्चों को पढ़ाने और उन्हें हैंडल करने की ट्रेनिंग मिलनी चाहिए, मगर पैरेंट्स को कुछ भी सीखने की ज़रूरत नहीं. जबकि पैरेंटिंग भी एक आर्ट है और आज तो पैरेंटिंग एक चैलेंज भी बन गई है. ऐसे में पैरेंट्स को ही अपने बच्चों को समझकर उनका फ्रेंड, फिलोसॉफ़र और गाइड बनना होगा.

क्यों परेशान हैं पैरेंट्स?

पैरेंट्स के मन में बच्चों को लेकर कई तरह के सवाल उठते हैं और यह स्वाभाविक भी है. कुछ पैरेंट्स सोचते हैं कि बच्चों को डरा-धमकाकर रखना चाहिए, ताकि वो अनुशासन में रहें और कुछ को लगता है कि बढ़ते बच्चों के साथ दोस्ताना व्यवहार रखना चाहिए. लेकिन बहुत कम लोग ही यह समझ पाते हैं कि इन दोनों के बीच का रास्ता भी हो सकता है. जहां ज़रूरत हो, वहां दोस्त बनें. लेकिन जब-जब एक मार्गदर्शक के रूप में बच्चों को आपकी ज़रूरत हो या पैरेंट्स ख़ुद ये महसूस करें कि उन्हें थोड़ी सख़्ती करनी पड़ेगी तो वहां दोस्त की नहीं, अभिभावक की भूमिका निभाएं.

पैरेंट्स की डिफिकल्टीज़

आज के बच्चे ज़िद्दी, ग़ुस्सैल और विद्रोही होते जा रहे हैं.
बड़ों का आदर-सम्मान नहीं करते.
सीधे जवाब दे देते हैं.
कम उम्र में ही सेक्स की बातें करने लगते हैं.
शॉर्टकट्स में विश्‍वास करते हैं.
संस्कारों की बातें उन्हें बोर लगती हैं.

टीनएजर्स की पैरेंटिंग और भी चैलेंजिंग

टीनएजर्स की पैरेंटिंग आजकल एक चुनौती बनती जा रही है, क्योंकि टीनएजर्स उन सभी चीज़ों, बातों और लाइफ़ स्टाइल का सामना करते हैं, जो फैमिली वैल्यूज़ को चैलेंज करती हैं. ऐसे में संस्कारों और आज़ाद सोच के बीच टकराव होना लाज़मी है और पैरेंट्स निम्नलिखित समस्याओं से जूझने लगते हैं-
बच्चों को कितनी छूट दें.
कितनी पॉकेटमनी दें.
युवा होती बेटी पर कितनी पाबंदी लगाएं.
यही पाबंदियां बेटों पर भी लगाएं कि नहीं.
देर रात बाहर रहने या रात में दोस्तों के यहां रुकने की इजाज़त दें या नहीं.
किस तरह के दोस्तों की संगत में रहते हैं, उस पर टोकें या नहीं.
ग़लतियों पर किस तरह से डांटें और डांटें भी या नहीं.
पढ़ाई के लिए कितना दबाव डालें.

तकनीक ने भी बढ़ाई है डिफिकल्टीज़

इंटरनेट- जहां इंटरनेट आज की बड़ी ज़रूरत बन चुकी है, वहीं पैरेंट्स के लिए एक डिफिकल्टी भी है, क्योंकि न तो बच्चों को पूरी तरह से इनके प्रभाव व प्रयोग से रोका जा सकता है और न ही इसके लिए पूरी छूट दी जा सकती है. बच्चे चैटिंग की लत में पड़ जाते हैं या फिर अश्‍लील साइट्स पर जाकर ग़लत दिशा में भटक सकते हैं.
टीवी और फ़िल्में- शोधों से पता चला है कि जो बच्चे ज़्यादा टीवी देखते हैं, वे हिंसा के प्रति संवेदनहीन हो जाते हैं.
आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति- बच्चों पर प्रेशर बढ़ रहा है और पैरेंट्स की मजबूरी यह है कि वे अपने बच्चों को पिछड़ते नहीं देखना चाहते. ऐसे में वे भूल जाते हैं कि बच्चों की अपनी पसंद और क्षमताएं होती हैं. बच्चे के मन को बिना पढ़े कोई निर्णय न लें, वरना बच्चों में यह भावना आ जाती है कि पैरेंट्स उन्हें लेकर संवेदनहीन हैं और ऐसे में बच्चे ग़लत क़दम उठा सकते हैं.

पैरेंटिंग स्किल्स इंप्रूव करें

वो ज़माना अब नहीं रहा कि बच्चे की छोटी-सी ग़लती पर आप ज़ोर से चिल्ला दें या उसे एक चपत लगा दें. ये पुराने तरी़के हैं पैरेंटिंग के. आज बढ़ते बच्चे की बदलती ज़रूरतों के अनुसार पैरेंट्स को भी बदलना पड़ता है.
बच्चे के बिहेवियर को हमेशा जज करने के बजाय उसके साथ, उसकी बातों को एंजॉय करें.
हमेशा पढ़ाई और ट्यूशन की ही बातें न करें.
बच्चे की भी अपनी सोच है, उसकी बातों और चाहतों को आप महत्व देते हैं, उसे इस बात का एहसास करवाएं.
उसके साथ बैठकर अगर होमवर्क करवाना आपको ज़रूरी लगता है, तो उसके साथ खेलने के लिए भी व़क़्त निकालें.
आजकल पैरेंटिंग पर बहुत-सी वेबसाइट्स हैं. वर्क शॉप्स के ज़रिए भी पैरेंटिंग टिप्स लिए जा सकते हैं.
पैरेंट्स को काउंसलिंग की ज़रूरत नहीं, यह धारणा ही ग़लत है. बच्चे को कोई समस्या है, तो पैरेंट्स को भी काउंसलिंग सेशन लेने चाहिए.
ग़लत काम करने पर उसे डांटते हैं, तो अच्छा काम करने पर ग़िफ़्ट भी दें.

कैसे कम होंगी डिफिकल्टीज़?

पैरेंटिंग की डिफिकल्टीज़ के संदर्भ में सायकोथेरेपिस्ट चित्रा मुंशी कहती हैं-
दुनिया बदल गई, व़क़्त बदल गया, इसलिए पैरेंटिंग के तरी़के भी बदल जाएं, ऐसा मैं नहीं कहती. लेकिन पैरेंट्स के लिए यह ज़रूरी है कि वो ओपन ऐटिट्यूड रखें.
हर बच्चे का अलग टेंपरामेंट होता है, वो एक स्वभाव लेकर पैदा होता है, कुछ बच्चे तो पैदा ही होते हैं डिफिकल्ट टेंपरामेंट के साथ, जैसे- सोने का फिक्स टाइम नहीं होता या बहुत ज़्यादा ग़ुस्सेवाले या चिड़चिड़े होते हैं. इसकी वजह जेनेटिक भी हो सकती है, जिसे बदला नहीं जा सकता और जहां तक घर का वातावरण है, वो पैरेंट्स पर निर्भर करता है. लेकिन पैरेंट्स उसे बदलने के प्रति ज़्यादा गंभीर नहीं होते.
जन्म से लेकर 8-10 साल की उम्र तक बच्चा सेपरेशन और स्ट्रेंजर एंज़ाइटी से गुज़रता है. उसके मन में पैरेंट्स से दूर जाने का डर रहता है, इसीलिए पहली बार स्कूल जाते व़क़्त, स्कूल चेंज होने पर या वर्किंग मदर है, तो मां को ऑफ़िस जाते देख बच्चा रोता है. अनजाने लोगों के आगे वो स्ट्रेंजर एंज़ाइटी के कारण शर्माता है. इसलिए बच्चे पर किसी भी चीज़ के लिए दबाव न डालें.
बच्चे को अनुशासन सिखाने का तरीक़ा मारना-पीटना तो बिल्कुल नहीं है, क्योंकि ये फिज़िकल एब्यूज़ होगा. किसी भी तरह का उत्पीड़न बच्चे के विकास में बाधक हो सकता है.
बच्चों को उपेक्षित न महसूस कराएं. पैरेंट्स भी सुनने की आदत डालें और बच्चों की बातों को गंभीरता से लें.
सारे अधिकार अपने ही पास न रखकर बच्चों को भी कुछ निर्णय लेने की आज़ादी दें. इससे बच्चों को भी ज़िम्मेदारी का एहसास होगा.
बच्चों को छोटे चैलेंजेज़ लेने दें. यदि बच्चा रोज़ एक ही ग़लती करता है और आप उसे रोज़ समझाती हैं, फिर भी वो नहीं समझता तो एक दिन उसे अपनी भूल का ख़ामियाज़ा भुगतने दें.
किशोरावस्था की ओर बढ़ते बच्चे यानी 12 से 19 वर्ष की उम्र में बच्चे सबसे ज़्यादा दुविधा में होते हैं. अपोज़िट सेक्स की तरफ़ भी वो आकर्षित होने लगते हैं और पैरेंट्स से ज़्यादा फ्रेंड्स की तरफ़ उनका झुकाव होने लगता है. ऐसे में पैरेंट्स यह न समझें कि बच्चों को उनकी ज़रूरत नहीं, बल्कि उस उम्र में तो उनकी ज़रूरत और बढ़ जाती है.
बच्चों की जासूसी न करें, उनके प्रति सेंसिटिव बनें और अगर पैरेंट्स को लगता है कि बच्चा ग़लत रास्ते पर जा रहा है, तो काउंसलर की मदद लें.
बच्चे को कम उम्र में एकांत में कंप्यूटर हैंडल न करने दें, वरना वह इंटरनेट आदि का ग़लत इस्तेमाल कर सकता है. बेहतर होगा कंप्यूटर किसी ऐसी जगह पर रखें, जहां बच्चा आपकी नज़र के सामने ही उस पर काम करे.
कम मार्क्स लाने पर बच्चों को कभी न डांटें, क्योंकि हर बच्चे की अलग क्षमताएं होती हैं. 95% लाना आपका लक्ष्य हो सकता है बच्चे का नहीं, अपनी चाहत उस पर न थोपें.
बच्चों के सामने स्वयं का उदाहरण रखें. आप चाहते हैं कि बच्चा सच बोले, ईमानदार और चरित्रवान बने, लेकिन क्या आप बच्चे के सामने यही उदाहरण रखते हैं? बच्चा आप पर तभी विश्‍वास करेगा, जब आप ईमानदार होंगे.
पैरेंट्स वर्कशॉप अटेंड करें, ख़ुद भी काउंसलर के पास जाएं, इससे भी आपकी डिफिकल्टीज़ कम होंगी और आप बच्चों के साथ बेहतर तरी़के से डील कर पाएंगे.

डिफिकल्टीज़ कम हो सकती हैं यदि-

बच्चों को सपोर्ट करें.
उन्हें स्पेस दें.
उनकी क्षमताएं समझें, उनकी तुलना दूसरे बच्चों से न करें.
उनकी कमज़ोरियां भी जानें.
कोई भी पऱफेक्ट नहीं है, इस बात को पैरेंट्स भी समझें.
बच्चों को ज़रूरत से ज़्यादा प्रेशराइज़ न करें.
हर बात के लिए उन्हें ही ज़िम्मेदार न ठहराएं.
दूसरों के सामने बच्चे की बुराई
हर समय उन पर नज़र न रखें.

ध्यान रखें-

आपके द्वारा दी गई आज़ादी को बच्चा हल्के में लेकर उसका फ़ायदा न उठाने लगे.
यदि रात में बच्चे के घर लौटने का व़क़्त आपने निर्धारित किया है, तो बच्चा उसे गंभीरता से ले.
बेटा हो या बेटी- दोनों के लिए समान नियम ही हों.
ओवर प्रोटेक्टिव न बनें.
कम उम्र के बच्चों को लैपटॉप या मोबाइल ग़िफ़्ट में न दें.
उन्हें ज़िम्मेदारी का एहसास करवाएं. अपने छोटे-मोटे काम उन्हें ख़ुद करने दें, जैसे- अपना रूम साफ़ रखने को कहें, अपना स्कूल बैग ख़ुद तैयार करने को कहें.

– गीता शर्मा
Meri Saheli Team

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