पहली बार जब मिले थे तब राजी बीस बरस की जवान लड़की और बिंदा दुबला-पतला शर्मिला-सा किशोर. पंद्रह बरस की उम्र में भीवह बारह-तरह बरस का लगता. बिंदा राजी की मां की मुंहबोली बहन का बेटा था. दोनों एक ही शहर की रहने वाली थी. अक्सर अपनीमां के साथ बिंदा राजी के घर आता रहता था. दोनों की मांएं अपने शहर की गलियों की पुरानी बातों में खो जाती और बिंदा अपनी मांकी बातों की उंगली थाम कर थोड़ी देर तक तो अपरिचित गलियों में घूमता-फिरता रहता फिर उकता जाता. तब राजी उसके मन कीस्थिति समझ कर उसे पढ़ने को कहानियों की कोई किताब या कॉमिक्स देती और अपने पास बिठा लेती थी. बिंदा गर्दन झुकाए चुपचापकिताब में सिर घुसा कर बैठा रहता. उसे राजी के पास बैठना न जाने क्यों बहुत अच्छा लगता, क्यों लगता यह तक वह समझ नहीं पाताथा, लेकिन बस इतना ही उसे समझ आता कि राजी के आसपास रहना उसे अच्छा लगता है. एक खुशबू सी मन को मोहती रहती. वहबहुत कम बात करता. बस यदा-कदा गर्दन उठाकर पलभर कमरे में नजर फिराता हुआ राजी को भी देख लेता और फिर सिर नीचा करकेकिताब में खो जाता. फिर साल भर बाद बिंदा के पिता का तबादला दूसरे शहर हो गया और वह लखनऊ चला गया. जाने के पहले उसकी मां बिंदा को लेकरराजी की मां से मिलने आई. राजी की मां ने सामान लाने के लिए उसे पास की दुकानों तक भेजा. राजी अपनी काइनेटिक उठाकर बाजारजाने लगी तो बिंदा से बोली, "चल बिंदे तुझे भी घुमा लाऊं." और बिंदा कुछ सकुचाता हुआ उसके पीछे बैठ गया. गाड़ी जब चली तो राजी का दुपट्टा उड़ता हुआ बिंदा के कंधे और चेहरे को छूते हुएउसके मासूम मन को भी सहला गया. राजी की यही छवि बिंदा के मन पर छप गई तस्वीर बनकर. सालों बीत गए पर बिंदे के मन पर छपीऔरत की यह तस्वीर धुंधली नहीं हो पाई बल्कि उसके रंग और गहरे ही होते गए. उस रोज बिंदा राजी के साथ बाजार से घर लौटा तोउसके हाथ राजी की दी हुई चॉकलेट, बिस्किट, टॉफीओं की सौगात से भरे हुए थे और उसका दिल राजी के दुपट्टे की छुअन की सौगातसे. फिर तेरह साल बाद जब बिंदा राजी से मिला तब वह अट्ठाइस बरस का लंबा-चौड़ा, गोरा-चिट्टा जवान था जो फौज में भर्ती हो चुका थाऔर तैतीस बरस की राजी दो बच्चों की मां थी. राजी अपनी मां के ही घर थी जब बिंदा भरी दोपहरी में उसके दरवाजे पर आ खड़ा हुआ. "हाय रब्बा बिंदा तू...?" राजी बित्ता भर के बिंदे की जगह छह फुट ऊंचे फौजी मेजर बलविंदर को देखकर देखती रह गई. "क्या कद निकाला है रे तूने, वारी जाऊं. पता नहीं होता कि तू आने वाला है तो मैं तो कभी पहचान ही नहीं पाती तुझे." बिंदा मुस्कुरा दिया. उसकी आंखों मे राजी का तेरह बरस पुराना दुपट्टा लहरा गया. बिंदे ने देखा बरामदे में राजी की वही पुरानीकाइनेटिक अब भी खड़ी थी. थोड़ी देर सबसे बातें करने के बाद बिंदा अचानक उठ खड़ा हुआ. "चलो मुझे काइनेटिक पर घुमा लाओ." "चल हट बिंदे मजाक करता है? भला अब तू क्या बच्चा रह गया है? गाड़ी उठा और खुद ही घूम आ. रास्ते तो तेरे पहचाने हुए हैं ही." राजी को हंसी आ गई "फौज में तो तू बड़ी-बड़ी गाड़ियां चलाता होगा. भला अब मैं क्या तुझे अपने पीछे बिठाऊंगी." "पर मुझे तो तुम्हारे ही पीछे बैठना है. चलो न." बलविंदर ने बहुत जिद की तो राजी गाड़ी निकाल लायी. अब उसे चार पहियों वाली गाड़ी में आगे की सीट पर बैठने की आदत हो गईथी. वह डर रही थी कि पता नहीं चला भी पाएगी की नहीं काइनेटिक, लेकिन हिम्मत करके चला ही ली. बिंदा एक बार फिर उसके पीछेबैठा था. एक अनजानी खुशबू से महकता हुआ. आज बिंदे के गालों को फिर से राजी का नारंगी दुपट्टा सहला रहा था. वही दुपट्टा जोफौज की कठिन ट्रेनिंग के बीच जब तब उसे पिछले सालों में नरमाइ से सहलाता रहा है. जो रातों को खुशबू बन ख्वाबों में महकता रहा हैऔर जिसकी खुशबू के बारे में उसके सिवा कोई नहीं जानता, खुद राजी भी नहीं. वह चाहता भी नहीं कि कोई जाने. वह तो बस इसखुशबू में अकेले ही भीगना चाहता है और कुछ नहीं. बिंदे के मुंह पर आज वही किशोरों वाली झिझकी सी मासूम खुशी है और राजी के चेहरे पर वही बीस बरस की उम्र वाली लुनाई औरचमक थी. एक आजाद खुशी. जाने बिंदे ने राजी को उसका अल्हड़ और आजाद कुंवारापन एक बार फिर कुछ पलों के लिए लौटा दियाथा या राजी ने आज बिंदे के दोनों हाथ उसके मासूम किशोरपन की प्यार भरी सौगात से भर दिए थे… नहीं जानता था मेजर बलविंदर. जानना चाहता भी नहीं था. वह तो बस कुछ पलों के लिए राजी के आसपास रहना चाहता था. उसके दुपट्टे की छुवन को महसूस करनाचाहता था जो उसके दिल को छू जाती थी. न जाने क्यों. यह पहले प्यार का अहसास था या कुछ और, नहीं जानता था बलविंदर. जानना चाहता भी नहीं था.…
मीति और मधुर बचपन से एक ही स्कूल में पढते थे, लेकिन मधुर के पिता का अचानक निधन हो गया और उसे मीति का स्कूल छोड़ सरकारी स्कूल में दाख़िला लेना पड़ा. लेकिन आते-जाते अक्सर दोनों के रास्ते मिल ही जाते थे और उनकी नज़रें मिल जातीं, तो दोनों केचेहरे पर अनायास मुस्कुराहट आ जाती. स्कूल ख़त्म हुआ तो दोनों ने कॉलेज में एडमिशन ले लिया था. दोनों उम्र की उस दहलीज़ पर खड़े थे जहां आंखों में हसीन सपने पलने लगते हैं. मधुर भी एक बेहद आकर्षक व्यक्तित्व में ढल चुका थाऔर उसके व्यक्तित्व के आकर्षण में मीति खोती जा रही थी. कई बार मधुर ने उसे आगाह भी किया था कि मीति तुम एक रईस पिता की बेटी हो, मैं तो बिल्कुल साधारण परिवार से हूं, जहां मुश्किल से गुज़र-बसर होती है, लेकिन मीति तो मधुर के प्यार में डूब चुकी थी. वहकब मधुर के ख्यालों में भी बस गई थी वह यह जान ही नहीं पाया. मीति कभी नोट्स, तो कभी असाइनमेंट के बहाने उसके पास आ जाती, फिर कभी कॉफी, तो कभी आइसक्रीम, ये सब तो उसका मधुरके साथ नज़दीकियां बढ़ाने का बहाना था. अब मीति और मधुर क़ा इश्क कॉलेज में भी किसी से छिपा नहीं रह गया था. करोड़पति परिवार की इकलौती लाडली मीति कोपूरा विश्वास था कि मध्यवर्गीय परिवार के मधुर के कैंपस सेलेक्शन के बाद वह पापा को अपने प्यार से मिलवायेगी. मल्टीनेशनल कंपनी के ऊंचे पैकेज का मेल मिलते ही मधुर ने मीति को अपनी आगोश में ले लिया ऒर वह भावुक हो उठा, ”मीति, तुम तो मेरे जीवन मेंकी चांदनी हो, जो शीतलता भी देती है और चारों ओर रोशनी की जगमगाहट भी फैला देती है. जब हंसती हो तो मेरे दिल में न जानेकितनी कलियां खिल उठती हैं. बस अब मेरी जिंदगी में आकर मेरे सपनों में रंग भर दो.” मीति मधुर के प्यार भरे शब्दों में खो गई और लजाते हुए उसने अपनी पलकें झुका लीं और मधुर ने झट से उसकी पलकों को चूम लिया था. इस मीठी-सी छुअन से उसका पोर-पोर खिल उठा. वह छुई मुई सी अपने में सिमट गई. लेकिन इसी बीच मीति के पापा ने उसकी ख्वाहिश को एक पल में नकार दिया और मधुर को इससे दूर रहने का फरमान सुना दिया. मधुर उदास पराजित-सा होकर दूर चला गया. दोनों के सतरंगी सपनों का रंग बदरंग कर दिया गया था. मधुर ने अपना फ़ोन नंबर भी बदल दिया था और अपनी परिस्थिति को समझतेहुए मीति से सारे संबंध तोड़ लिये थे. मीति के करोड़पति पापा ने धूमधाम और बाजे-गाजे के साथ उसे मिसेज़ मेहुल पोद्दार बना दिया. उसका अप्रतिम सौंदर्य पति मेहुल केलिए गर्व का विषय था. समय के साथ वह जुड़वां बच्चों की स्मार्ट मां बन गई थी. पोद्दार परिवार की बहू बड़ी-बड़ी गाड़ियों में घूमतीऔर अपने चेहरे पर खिलखिलाहट व मुस्कान का मुखौटा लगाए हुए अपने होने के एहसास और वजूद को हर क्षण तलाशती-सी रहती. उसे किसी भी रिश्ते में उस मीठी-सी छुअन का एहसास न हो पाता और वह तड़प उठती. सब कुछ होने के बाद भी वह खोई-खोई-सी रहती. इतना सब कुछ पाने के बाद भी वह मधुर की उस मीठी-सी छुअन के विचार से ही वह रोमांचित हो उठती थी... पूरे आठ वर्ष बीत गए थे. वह अपने परिवार और बच्चों के साथ संतुष्ट थी, परंतु आज भी सतरंगी सपनों की उड़ान और गुनगुनाती बयार, मधुर की प्यार भरी मीठी छुअन की चाह, उसके मन को आंदोलित करके भटका ही देती. वह सोचती... वह मधुर से माफी भी तो नहीं मांगपाई... आज भी वह उससे नाराज़ ही होगा. एक शाम वह अकेली ही मॉल के कॉफी शॉप में बैठ कर कॉफी का इंतज़ार कर रही थी. वह फोन पर अपनी नज़रें गड़ाए हुए थी, तभी मानो उसके कानों में सुरीला संगीत बज उठा था. मधुर के वजूद में बसी ख़ुशबू उसके चारों ओर फैल गईं थी. उसकी मीठी-सी छुअनकी भावनाएं पायल की मीठी-मीठी रुनझुन की सी संगीत लहरी उसके कानों में गूंज उठी थीं. दोनों की नज़रें मिलीं और उसके दिल कीधड़कनें तेज़ हो गईं. “कैसी हो मीति?” “अच्छी हूं और तुम ?”…
बात उन दिनों की है जब मैं बीए फर्स्ट ईयर में थी. इसी बीच हमारे शहर में भाभी का कज़िन किसी एग्ज़ाम की तैयारी करने आया था. जाहिर है, हमारे घर में ही रुकना था उसे. “ये क्या बात हुई मम्मी, आपने मेरा कमरा उसे क्यों दे दिया?” मम्मी ने मुझे डांट दिया था, “कुछ महीनों के लिए इतना भी एडजस्ट नहीं कर सकती? तुम्हारा कमरा छत पर है, एकांत में, आराम से बैठकर पढ़ लेगा. कल सुबह वो आ रहा है, जरूरत भर का सामान उठाओ और मेरे कमरे में आकर रख लो.” अगली सुबह नवीन का आगमन हुआ और भाभी ने प्यार से उसको गले लगाकर कहा, “तुम्हारा कितना इंतजार हो रहा था. निधि ने अपनाकमरा भी तुम्हारे लिए खाली कर दिया है.“ नवीन सच में बिल्कुल अपने नाम जैसा ही तो था. तरोताज़ा चेहरा, मनमोहक मुस्कान और बेहद विनम्र. “थैंक यू निधि. मैं तुम्हारे रूम का बहुत ध्यान रखूंगा.“ पहली मुलाकात में ही बात ‘तुम’ से शुरू हुई थी जो कि मुझे अच्छा लगा था. नवीन खूब जमकर पढ़ाई करते थे लेकिन तैयारियों के बीचजैसे ही सुस्ताने के लिए कमरे से बाहर आते, धूप में बैठी मम्मी के साथ मटर छीलने में लग जाते. कभी भाभी के साथ धुले हुए कपड़ेफैलाने लगते. मैं छुप-छुपकर किसी ना किसी बहाने से नवीन को देखती रहती. नवीन कितने अलग थे बाकी लड़कों से. मन था जो पंखलगा कर कहीं और उड़ता जा रहा था. कितनी बार ऐसा हुआ जब मैंने भाभी के हाथ से कपड़ों की बाल्टी झटक ली, “आप रहने दो भाभी, मैं फैला आती हूं कपड़े.“ कितनी आवाज़ करके झिटक-झिटककर कपड़े फैलाती कि शायद आवाज़ सुनकर ही नवीन कमरे से बाहर आ जाएं, लेकिन हर बारकोशिश बेकार रहती. फिर थक-हारकर मैंने कुछ गमले छत पर रखवा दिए थे, उनमें पानी देने के बहाने छत पर एक चक्कर और लगजाता था, लेकिन मेरी सारी कोशिशें बेकार थीं. नवीन को तो बस अपनी पढ़ाई, अपने लक्ष्य के आगे और कुछ सूझता ही नहीं था. उस समय मोबाइल फोन नहीं होता था, बल्कि एक लैंडलाइन होता था. इसी बीच घर में एक घटना और होनी शुरू हो गई थी, जब देखोतब लैंडलाइन पर फोन आता था. मम्मी या भाभी उठाती थीं तो कोई उधर से कुछ बोलता ही नहीं था. उस दिन मैंने भैया की बात सुन लीथी, जब वो भाभी को डांट रहे थे, “इसीलिए मैं नहीं चाहता था कि कोई लड़का घर में आकर रहे. देख रही हो ना जब से नवीन आया है, तब से ही ऐसी ब्लैंक कॉल आ रही हैं, पूछ लो उससे कि उसकी कोई गर्लफ्रेंड है क्या जो उसको फोन करती रहती है? इससे पहले तोअपने यहां इस तरह की ब्लैंक कॉल नहीं आईं.” यह बात सच थी. नवीन के आने के तीन-चार दिनों बाद ही इन कॉल्स का सिलसिला शुरू हुआ था और जो शुरू हुआ तो रुकने का नामही नहीं ले रहा था. उस दिन घर पर सिर्फ भाभी और मैं ही थे. थोड़ी देर बाद आकर नवीन ने भाभी से कहा, “आप कह रही थीं मार्केट काकुछ काम है, अभी मैं फ्री हूं, चलना हो तो चलिए.” दो मिनट के अंदर ही भाभी और नवीन मार्केट के लिए निकल गए थे और अगले दस मिनट के अंदर फिर लैंडलाइन फोन बजने लगा था. ऐसा मौका कम ही होता था कि घर में कोई ना हो और मैं फोन उठाऊं, मैंने लपक कर फोन जैसे ही उठाया और हेलो कहा, उधर से किसीलड़के की आवाज़ सुनाई दी, “हेलो! मैं नवीन बोल रहा हूं.” “अरे! क्या हुआ? भाभी ठीक हैं ?अभी अभी तो आप लोग यहां से गए हैं.” नवीन ने जल्दी से कहा, “मैंने तुमसे बात करने के लिए फोन किया है. मैं अक्सर तुमको फोन करता हूं, कोई और फोन उठा लेता है.” मेरीहैरानी की तो कोई सीमा नहीं रह गई थी. जो लड़का सामने बात करता नहीं है, वो बाहर से जाकर मुझे घर पर फोन कर रहा है.…
उसके हाथ में गिफ्ट पैक देखकर मन मचल पड़ा. हाय राम बात यहां तक पहुंच गई? गिफ्ट पैक में क्या…
चांदनी… दूधिया सफ़ेद… न सिर्फ़ उसका रंग बल्कि उसके कपड़े भी… वो हमेशा सफ़ेद रंग ही पहनती है… उस पर खूब फबता भी है… एकदम पाक… मासूम रंग जैसे सुबह-सुबह की नर्म-नाज़ुक ओस… उसकी भोली मुस्कान उसके गुलाबी होंठों पर हमेशा बिखरी रहतीहै… अभी-अभी हमारे मोहल्ले में रहने आई है और रोज़ सुबह-शाम मेरी गली से गुजरती है, उसके साथ उस वक्त एक छोटी बच्ची भीरहती है, उसकी छोटी बहन होगी, उसी को स्कूल छोड़ने-ले जाने जाती है… जब भी वो मेरे घर के सामने से गुजरती है मैं ज़ोर से वो गाना मोबाइल पे लगा देता हूं… चांद मेरा दिल, चांदनी हो तुम… और वो एकनज़र मेरी खिड़की की तरफ़ डालकर निकल जाती है. यही सिलसिला चल रहा था कि एक रोज़ उसे बस स्टॉप पर देखा. मैंने बाइकरोकी और उसके पास जाकर बात करने की कोशिश की… “आपको रोज़ देखता हूं मैं, नई आई हैं आप इस मोहल्ले में?” “जी हां.” उसकी मीठी आवाज़ आज पहली बार सुनी. खुद को खुशक़िस्मत समझ रहा था मैं उसके इतना क़रीब जाकर. “कहीं जा रही हैं? आइए मैं छोड़ दूं…” मैंने उसकी मदद करने के इरादे से पूछा, तो उसने नो, थैंक यू कहकर टाल दिया… अब अक्सर उससे यूं ही मुलाक़ात होने लगी, कभी मार्केट में, तो कभी बस स्टॉप पर, क्योंकि मैंने बाइक छोड़ बस से जाना शुरू करदिया. “एक रोज़ हमें बस में साथ बैठने का मौक़ा मिला, तो उसने सवाल किया, “आप तो बाइक से जाते थे ना?” “जी, लेकिन सोचा बाइक से पेट्रोल बर्बाद करने से बेहतर है पब्लिक ट्रांसपोर्ट यूज़ करूं…” “वैसे आपका नाम जान सकता हूं…?” मैंने हिम्मत करके पूछ ही लिया. “मैं चांदनी हूं. वैसे आपका नाम क्या है?” “मैं वियान हूं…” फिर हम दोनों चुप रहे और इतने में ही मेरा स्टॉप आ गया… अरे, ये क्या चांदनी भी यहीं उतर रही है? मैं सोच में पड़ गया. वो आगे चलरही थी, मेरे ही बैंक के गेट की ओर वो जाने लगी. मैंने सोचा कोई काम होगा. मैं भी अंदर चला गया और काम में जुट गया. वैसे मेरीनज़रें चांदनी को ही ढूंढ़ रही थीं, पर वो कहीं नज़र ही नहीं आ रही थी. इतने में ही डेस्क पर रखा फ़ोन बजा और हमको कॉन्फ़्रेन्स रूम मेंबुलाया गया. “हेलो एवरीवन, मैं चांदनी… आपकी नई ब्रांच मैनेजर…” उसको यूं देखकर मेरे तो होश ही उड़ गए थे.जिसे मैं एक घरेलू लड़की समझ रहा था, उसका एक अलग ही रूप और अंदाज़ आज मेरेसामने था. ख़ैर, मीटिंग ख़त्म हुई और मैं अपने डेस्क पर लौट आया. “वियान सर, आपको मैम ने बुलाया है…” मुझे ऑफ़िस बॉय ने आकर कहा तो मैंने केबिन में जाकर कहा- “मैम आपने बुलाया?” “हां, मैंने सोचा बैंक के सभी सीनियर पोस्ट वालों से वन ऑन वन बात करके अपडेट ले लेती हूं ताकि हम मिलकर बतौर एक टीम कामकरें और अपने बैंक को फिर से नंबर वन बनाएं.”…
दिल्ली के एक कॉलेज में बेटी को इंजीनियरिंग में एडमिशन दिलवा कर हॉस्टल में उसका सामान रखकर मैंने उसे मेस में खाना खाने केलिए चलने को कहा. उसका खाना खाने में मन नहीं था, उसने मना कर दिया. मैं अकेला ही मेस की ओर निकल गया. बड़ी तेज़ भूख लगरही थी. मेस में खाने की खुशबू ने भूख को और बढ़ा दिया. मैं थाली लगाकर एक टेबल पर बैठ गया और जल्दी-जल्दी खाने लगा. अचानक गले में निवाला अटक गया और मैं ज़ोर-ज़ोर से खांसने लगा. मेरी आंखों के सामने अंधेरा छा गया. सहसा एक मधुर आवाज़सुनाई दी-‘पानी’ मैंने नज़रें उठाकर उसे देखा, आश्चर्य चकित रह गया- “विभूति तुम…” “पहले पानी पी लो.” मेरे हाथों में ग्लास पकडाकर वह पास की कुर्सी पर बैठ गई. पानी पीते-पीते ही पुराने दिन याद आने लगे. बरसों पहले गांव से शहर इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने आया था. हॉस्टल में रूम नहीं मिला. कॉलेज के पास ही किराए पर कमरा लेलिया. ज़रूरत का सब सामान सेट कर लिया था. पास में ही एक टिफिन सेंटर था, वहां से टिफिन लगवा लिया. टिफिन में रोज़-रोज़दाल-सब्ज़ी खाकर बोर हो गया था. एक दिन आंटी को मेनू बदलने के लिए कहने टिफिन सेंटर पर गया. सेंटर पर टिफिन पैक करतीएक मोटी लड़की दिखाई दी. मुझे लगा यही टिफिन सेंटर वाली आंटी है. “आंटी ज़रा सुनिए…” वह जैसे ही पलटी, मैं उसे देखता ही रह गया. वह मोटी ज़रूर थी मगर उसके घुंघराले बाल, गहरी भूरी आंखें और गुलाबी होंठों पर सजीमुस्कान किसी को भी दीवाना बना सकती थी. जब मैंने उसकी आंखों को देखा तो देखता ही रह गया. मै उसके आकर्षण में गुम हो गया. उसने क्या बोला मुझे सुनाई नहीं दिया. उसने मुझे झंझोड़ते हुए पूछा-“मम्मी घर पर नहीं है आपको क्या चाहिए?” मैं जैसे-तैसे होश में आया. “आज अलसाया-सा रविवार है और रविवार को छुट्टी होती है. इस दिन आप कुछ अच्छा नहीं खिला सकतेक्या? आप लोग रोज़-रोज़ टिफिन में दाल-चावल भेज देते हो.” मैं थोड़ी तेज़ आवाज़ में कहा. “पहले तो आप धीरे बोलिए. दूसरी बात, यह टिफिन सेंटर है, आपकी घर का किचन नहीं, जहां आप अपनी मर्ज़ी चलाएं. वैसे भी सेहतके लिए दाल-रोटी ज़्यादा बेहतर होती है. स्वाद बदलने के लिए रेस्टोरेंट खुले हुए हैं… समझे आप.” वह अपनी बात खत्म कर अपने काममें व्यस्त हो गई और मैं मायूस होकर लौट आया. घर आकर मेरा मन किसी काम में नहीं लगा. बार-बार उसका चेहरा याद आता रहा. उसकी आंखों ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा. अब मैं बहानेसे उसके घर के चक्कर लगाता रहता. पहले जान-पहचान, फिर दोस्ती और उसके बाद प्यार हो गया. मैं अक्सर उससे कहता था, ‘विभूतुम्हारी आंखें बहुत सुंदर है. कहीं मैं डूब न जाऊं’ और वह कहती, ‘कभी इन आंखों में समन्दर मत रखना मुझे तैरना नहीं आता.’ अब कभी-कभी टिफिन के साथ एक और टिफिन आता, जिसमें कभी इडली-सांबर होता, तो कभी मूंग का हलवा. यह विभूति मेरे लिएस्पेशल तौर पर भेजती जिसका कभी एक्स्ट्रा चार्ज नहीं लिया. मेरी पढ़ाई पूरी हो गई और मैं अपने घर लौट गया. नौकरी मिलते हीपरिवार वालों ने एक सुंदर कन्या देखकर मेरी शादी फिक्स कर दी. इन सबमें मै विभूति को भूल गया और अपनी ज़िंदगी में व्यस्त होगया. विभूति से मेरी दोबारा मुलाकात होगी यह तो मैंने कभी सोचा ही नहीं था. विभूति अब पहले से काफी बदल चुकी थी. पतली-दुबली मगरआकर्षक लग रही थी. उसकी आंखें पहले जैसी ही थीं. “मां चाहती थी कि मैं शादी कर लूं मगर मुझे तुम्हारा इंतज़ार था और विश्वास थाकि तुम ज़रूर लौटोगे. तुम्हें न आना था, न आए मगर तुम्हारी शादी की सूचना ज़रूर मिल गई थी. बस, उस दिन के बाद तुम्हारे आने कीआस खत्म हो गई, लेकिन मेरा प्रेम नहीं. आज भी तुम मेरा पहला और आखिरी प्यार हो. तुम्हारे बाद इन आंखों में किसी को डूबने नहींदिया. तुमने मेरी आंखों में जो समन्दर रखा था, उसमें मैंने तैरना सीख लिया है. फ़िक्र न करो, मेरे प्यार मुझ तक ही सीमित है… तुम्हें कोईपरेशानी नहीं होगी. हमारी ज़िंदगी में बदलाव की ज़रूरत होती है ना, बस वही बदला है. मां के जाने के बाद मैंने घर और टिफिन सेंटरबेच दिया और इस शहर में आकर मेस इंचार्ज बन गई. मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है. तुम तो मुझे कुछ इस तरह मिले, जैसे बरसोंपहले एक यात्रा के दौरान तुम मेरे सहयात्री रहे हो और बरसों बाद अचानक दोबारा मुलाकात हो गई… अस्थाई मुलाकात. जीवनयात्रा मेंतो यह सब चलता रहता है. प्रेम की परिणीति शादी हो… ज़रूरी तो नहीं. तुम्हारे साथ गुज़रा हुआ वक्त मेरे जीवन का सुखद हिस्सा है…” वह चली गई और मैं आत्मग्लानि में डूब गया. कुछ लोगों के लिए प्रेम कोई खेल नहीं, उनके लिए तो प्रेम इबादत है और जीने की वज़ह… मुझे अपने किए पर पछतावा होने लगा. शोभा रानी गोयल
तन्हाई में अक्सर दिल के दरवाज़े पर तुम्हारी यादों की दस्तक से कुछ खट्टे- मीठे और दर्द में भीगे लम्हे जीवंत होकर मानस पटल परमोतियों की तरह बिखर जाते हैं. उन्हीं में से एक खुबसूरत लम्हा है… ‘मैं, तुम और मॉनसून.’ आज भी याद है मुझे हमारे प्रणय का प्रथम मॉनसून... तुम मेरे सामने वाले घर में किरायेदार के रूप रहते थे और हमारा खुद का घर था. संयोग था हमारा कॉलेज एक ही था. साथ-साथ कॉलेज जाते थे, एक-दूसरे के घरों में भी आना-जाना था, धीरे-धीरे कब एक-दूसरे के दिलों में उतर गए दोनों को ही खबर ना थी... बेखबर और बेपरवाह थे. आज की तरह मोबाइल पर मैसेज आदान-प्रदान करने की सुविधा नहीं थी, लेकिन हमारी आंखों के इशारे ही हमारे मैसेज थे... चिट्ठी-पत्री में भी विश्वास नहीं था, एक-दूसरे की खामोशी को शब्दों में ढालकर पढ़ने का जबरदस्त हुनर था हम दोनों में. एक बार यूं ही प्लान बना लिया ताजमहल देखने का. शायद दोनों के मन में प्रेम के प्रतीक ताजमहल के समक्ष अपना प्रणय निवेदन करने की चाह थी. बसएक रोज़ निकल पड़े ताजमहल निहारने. घरों से अलग-अलग निकले छिपते-छिपाते... सावन का महीना था, बादल सूरज से लुका-छिपी का खेल खेल रहे थे, हल्की-फुल्की बौछारों से नहाए ताजमहल की खूबसूरती में चार चांद लग रहे थे, संगमरमर से टपकती बूंदों सेउस वक्त मुहब्बत के साक्षात दर्शन हो रहे थे... उस हसीन नज़ारे को देखकर हम दोनों भावुक हो उठे... एक नज़र ताजमहल पर डाली, तोलगा जैसे प्रकृति ने बारिश की बूंदों के रूप में पुष्पों की बारिश करके उसे ढक दिया है, जिससे उसका सौष्ठव और दैदीप्यमान हो उठा है. अचानक बादलों की तेज़ गड़गड़ाहट से मैं डरकर तुम्हारे सीने से लग गई और तुमने मुझे इस तरह से थाम लिया जैसे मैं कहीं तुमसे बिछड़ना जाऊं… और फिर ज़ोर से झमाझम बारिश होने लगी. मैं तुम्हारी बाहों में लाज से दोहरी होकर सिमट गई... मैं झिझक रही थी, लजा रही थी और तुम्हारी बाहों से खुद को छुड़ाने का असफल प्रयास कर रही थी. बारिश जब तक थम नहीं गई, तब तक हमारी खामोशियांरोमांचित होकर सरगोशियां करती रहीं. मौन मुखर होकर सिर्फ आंखों के रास्ते से एक-दूसरे के दिलों को अपना हाल बता रहा था. बारिश में भीगते अरमान मुहब्बत के नग़मे गुनगुना रहे थे. मॉनसून अपने शबाब पर था और हमारा प्रेम अपनी चरम पराकाष्ठा पर. मेरेलाज से आरक्त चेहरे को अपलक निहारते हुए तुमने कहा था, "अनु ,एक बात कहूं तुमसे?" "नहीं, अभी इस वक्त कुछ भी नहीं... सिर्फऔर सिर्फ मुहब्बत" मदहोशी के आलम में मेरे अधर बुदबुदा उठे थे. एक तरफ श्वेत-धवल बारिश की बूँदों से सराबोर ताजमहल सेमुहब्बत बरसती रही, दूसरी तरफ तुम्हारी असीम चाहतों की बारिश में भीग कर मेरी रूह तृप्त होती रही. तुम्हारी बात अधूरी रह गई... सालों बाद फिर तुमसे मुलाकात हुई ताजमहल में... तुम्हारे साथ ताज के हसीन साये में मुझे याद आया... “जब हम दोनों पहली बारताजमहल में मिले थे तब तुम मुझसे कुछ कहना चाहते थे… अब वो अधूरी बात पूरी तो कीजिए जनाब, मौका भी है और दस्तूर भी है." सिगरेट के धुएं को इत्मीनान से आकाश की तरफ उड़ाते हुए तुमने दार्शनिक अंदाज़ में कहा , "जान… तुम्हारी मुहब्बत में पागल हो गया हूं मैं." "ये क्या कह रहे हो?" "किसी ने सच कहा है कि मुहब्बत इंसान को मार देती है या फिर पागल कर देती है, इसका जीता-जागता प्रमाण आगरा है. यहांपागलखाना और ताजमहल दोनों हैं.”कहकर तुम ज़ोर से पागलों की तरह हंसने लगे... मेरे लाख रोकने पर भी तुम लगातार हंसते ही रहे... यह नज़ारा देखकर तमाम भीड़ इकट्ठा हो गई… सचमुच मैं डर गई, कहीं तुम सच में पागल तो नहीं हो गए? तुम्हारी बात अधूरी ही रह गई... और हमारी मुहब्बत भी... डॉ. अनिता राठौर मंजरी
उस दिन मैं क्लीनिक पर नहीं था. स्टाफ ने फोन पर बताया कि एक पेशेंट आपसे फोन पर बात करना चाहती है. “उन्हें कहिए मैं बुधवार को मिलता हूं.” जबकि मैं जानता था बुधवार आने में अभी 4 दिन बाकी हैं. शायद उसे तकलीफ ज़्यादा थी, इसलिए वह मुझसे बात करने की ज़िद कर बैठी. जैसे ही मैंने हेलो कहा, दूसरी तरफ़ से सुरीली आवाज़ उभरी- “सर मुझे पिछले 15 दिनों से…” वह बोल रही थी मैं सुन रहा था. एक सुर-ताल छेड़ती आवाज़ जैसे कोई सितार बज रहा हो और उसमें से कोई सुरीला स्वर निकल रहाहो. मैं उसकी आवाज़ के जादू में खो गया. जाने इस के आवाज़ में कैसी कशिश थी कि मैं डूबता चला गया. जब उसने बोलना बंद कियातब मुझे याद आया कि मैं एक डॉक्टर हूं. मैंने उसकी उम्र पूछी, जैसा कि अक्सर डॉक्टर लोग पूछते हैं… “46 ईयर डॉक्टर.” मुझे यकीन ही नहीं हुआ यह आवाज़ 45 वर्ष से ऊपर की महिला की है. वह मखमली आवाज़ मुझे किसी 20-22 साल की युवती कीलग रही थी. इस उम्र में मिश्री जैसी आवाज़… मैं कुछ समझ नहीं पाया. फिर भी उसे उसकी बीमारी के हिसाब से कुछ चेकअप करवानेको कहा और व्हाट्सएप पर पांच दिन की दवाइयां लिख दीं. 5 दिन बाद उसे अपनी रिपोर्ट के साथ आने को कह दिया. यह पांच दिन मुझे सदियों जितने लम्बे लगे. बमुश्किल से एक एक पल गुज़ारा. सोते-जागते उसकी मखमली आवाज़ मेरे कानों में गूंजतीथी. मैं उसकी आवाज़ के सामने अपना दिल हार बैठा था. मैंने कल्पना में उसकी कई तस्वीर बना ली. उन तस्वीरों से मैं बात करने लगा. नकभी मुलाकात हुई, न कभी उसे देखा… सिर्फ एक फोन कॉल… उसकी आवाज़ के प्रति मेरी दीवानगी… मैं खुद ही कुछ समझ नहींपाया. मुझे जाने क्या हो गया… मैं न जाने किस रूहानी दुनिया में खो गया था. मुझे उससे मिलना था. उसकी मीठी धुन फिर से सुननी थी. जब उसकी तरफ से न कोई कॉल आया, न कोई मैसेज, तो खुद ही दिल केहाथों मजबूर होकर मैसेज किया- ‘अब कैसी तबीयत है आपकी?’ ‘ठीक नहीं है, आपकी दी हुई मेडिसन का कोई असर नहीं हुआ…’ उसने जवाब दिया. ‘आपने ठीक से खाई?’ ‘हां, जैसा आपने कहा था, वैसे ही.’ मैं उसकी बात सुनकर चुप हो गया. मेरी उम्मीद टूटने लगी. मुझे लगा वह अब वह नहीं आयेगी. उससे मिलने का सपना खत्म हो गया. थोड़ी देर बाद ही उसका मैसेज स्क्रीन पर चमका. ‘आज आपका अपॉइंटमेंट मिल सकता है?’ मुझे मन मांगी मुराद मिल गई. ठीक शाम 5:00 बजे वह मेरी क्लिनिक पर अपनी रिपोर्ट और मेडिसिन के साथ थी. उसकी वही मीठी आवाज़ मेरे कानों में टकराई,…
पत्थर की मुंडेर पर बैठी मैं तालाब की ओर देख रही थी. दूर तक फैली जलराशि पर अलसाई-सी अंगड़ाइयां लेती हुई एक के बाद एकलहरें चली आ रही थीं. हवा में अजीब-सी खनक थी. शहर के कोलाहल को चुप कराता यह तालाब और इसके किनारे बना यहसांस्कृतिक भवन जहां संगीत, साहित्य और कला की त्रिवेणी का संगम होता रहता था, इसकी खुली छत पर बैठ मैं घंटों ढलती शाम केरंगों को अपने सीने में समेटते बड़े तालाब को देखती रहती. आज भी मैं लहरों संग डूब-उतरा रही थी कि अचानक एक रूमानी गीत कामुखड़ा हौले से आकर कानों में गुनगुनाने लगा. जाने उस आवाज़ में ऐसी क्या कशिश थी कि मैं उसमें भीगती गई. शाम अचानक सेसुरमई हो उठी. तालाब के उस पार बनी सड़क की स्ट्रीट लाइटों की रौशनी तालाब के पानी में झिलमिलाने लगी. ऐसा लग रहा था जैसेमन के स्याह कैनवास पर किसी ने जुगनुओं को उतार दिया हो. मैं धीमे-धीमे उस आवाज़ के जादू में बंधती जा रही थी. एक-एक शब्द प्रेम जैसे तालाब की लहरों पर तैरता हुआ मुझ तक आ रहा था. सुरों में भीगी उन लहरों पर मैं जैसे बहती चली जा रही थी. बहिरंग में शायद संगीत का कोई कार्यक्रम था. जब भी दिल ने कोई दुआ मांगी, ख्यालों में तुम ही रहे छाए… जब भी दिल ने इश्क को सोचा, ख्वाबों में बस तुम ही आए... जाने कब उस आवाज़ की कशिश मुझे बहिरंग की ओर खींच कर ले गई. पैर अपने आप ही चल पड़े. मुक्ताकाश के मंच पर गायक और उसके सहायक वादक बैठे थे. सामने सीढ़ियों पर श्रोताओं की भीड़ बैठी गाना सुन रही थी. मैं भी उनके बीच जगह बनाती एक कोने मेंसीढ़ियों पर बैठ गई. सिर्फ़ आवाज़ में ही नहीं, उसके चेहरे में भी ग़ज़ब की कशिश थी. कला की साधना में तपा एक परिपक्व गौरव सेदीप्त चेहरा. गर्दन तक लहराते घुंघराले बाल. गाते हुए घुंघराली लटें लापरवाह-सी माथे और गालों पर झूल रही थीं. आंखें बंद कर जब वह आलाप-ताने लेता तो ऐसा लगता मानों साक्षात कोई गन्धर्व संगीत साधना कर रहा हो. मद्धिम पीले उजास में डूबे लैम्प की छाया मेंढलती सांझ के रंग भी घुल कर उसके चेहरे पर फैल रहे थे. मेरे दिल की कश्ती सुरों के समंदर में डोल रही थी और उस रूमानी आवाज़का जादू डोर बनकर उस कश्ती को और गहराई तक खींच कर ले जा रहा था. मंत्रमुग्ध श्रोताओं पर से बेपरवाही से फिसलती उसकी दृष्टि अनायास ही मेरे चेहरे पर ठिठक गई. हमारी आंखें मिली, मेरा दिल धड़कगया. फिर तो जैसे मेरा चेहरा उसकी आंखों का स्थायी मुकाम हो गया. आते-जाते उसकी दृष्टि मुझपर ठहर जाती, जिस तरह तेज़ धूपसे त्रस्त कोई मुसाफिर किसी घने पेड़ की छांव में ठहर जाता है और मुखड़े की पंक्तियां ‘जब भी दिल ने इश्क को सोचा, ख्वाबों में बसतुम ही आए’ गाते हुए उसकी गहरी नज़र जैसे आंखों के रास्ते मेरे दिल का हाल जानने को बेताब होती रही. ढाई घंटे बाद जबऔपचारिक रूप से कार्यक्रम खत्म हो गया, तो लोगों की भीड़ उसके चारों ओर उमड़ पड़ी, लेकिन वह न जाने किसे तलाश रहा था औरवो जिसे तलाश रहा था वो तो खुद ही उसके सुरों में पूरी तरह भीग चुकी थी. आते हुए देख आई थी 'अनुराग' यही नाम था उसका. तभीउसके सुरों में इतना प्रेम भरा था. अगले दो दिन भी उसका कार्यक्रम था. मैं पहले ही पीछे वाली सीढ़ियों पर भीड़ में छुपकर बैठ गई. आजफिर उसकी आंखें अपना ठिकाना तलाश रही थीं, मगर हर बार मायूस हो जातीं. कल वाली खुशगवार खुमारी आज आंखों में नहीं थी. मैंथोड़ा खुले में बैठ गई. जैसे ही उसकी नज़रें मुझपर पड़ीं, वह खिल उठा. उसके चेहरे की रंगत ने उसके दिल का हाल खुल कर कह दियाथा. दिल कर रहा था कि वो यूं ही गाता रहे और मैं रात भर उसके सुरों की कश्ती में सवार हो प्रेम के दरिया में तैरती रहूं. तीसरे दिन मन बहुत उदास था. आज उसके गाने का आखरी दिन था. कार्यक्रम के बाद मैं भीड़ में सबसे पीछे खड़ी थी. उसे घेरकर लोगबधाइयां दे रहे थे, लेकिन वह भीड़ को चीरते हुए धीरे-धीरे मेरी तरफ आया, एक भरपूर नज़र से मुझे देखा और चुपचाप अपना फोन नम्बर लिखा हुआ कागज़ मुझे थमा दिया. आज सत्रह बरस हो गए हम प्रेम की कश्ती में सवार हो इकट्ठे सुरों के दरिया में तैर रहे हैं. मेरा चेहरा उसकी आंखों का स्थाई ठिकानाबन चुका है और मुझे देखकर उसकी बेतरतीब घुंघराली लटें शरारत से गुनगुना उठती हैं- ‘जब भी दिल ने इश्क को सोचा…ख्वाबों में बस तुम ही आये’ वो ख्वाब जो हकीकत में बदल चुका है. विनीता राहुरीकर
आज फिर उसे देखा… अपने हमसफ़र के साथ, उसकी बाहों में बाहें डाले झूम रही थी… बड़ी हसीन लग रही थी और उतनीही मासूम नज़र आ रही थी… वो खुश थी… कम से कम देखने वालों को तो यही लग रहा था… सब उनको आदर्श कपल, मेड फ़ॉर ईच अदर… वग़ैरह वग़ैरह कहकर बुलाते थे… अक्सर उससे यूं ही दोस्तों की पार्टीज़ में मुलाक़ात हो जाया करतीथी… आज भी कुछ ऐसा ही हुआ. मैं और हिना कॉलेज में एक साथ ही थे. उसे जब पहली बार देखा था तो बस देखता ही रह गया था… नाज़ों से पली काफ़ीपैसे वाली थी वो और मैं एक मिडल क्लास लड़का. ‘’हाय रौनक़, मैं हिना. कुछ रोज़ पहले ही कॉलेज जॉइन किया है, तुम्हारे बारे में काफ़ी सुना है सबसे. तुम कॉलेज में काफ़ीपॉप्युलर हो, पढ़ने में तेज़, बाक़ी एक्टिविटीज़ में भी बहुत आगे हो… मुझे तुम्हारी हेल्प चाहिए थी…’’ “हां, बोलिए ना.” “मेरा गणित बहुत कमजोर है, मैंने सुना है तुम काफ़ी स्टूडेंट्स की हेल्प करते हो, मुझे भी पढ़ा दिया करो… प्लीज़!” “हां, ज़रूर क्यों नहीं…” बस फिर क्या था, हिना से रोज़ बातें-मुलाक़ातें होतीं, उसकी मीठी सी हंसी की खनक, उसके सुर्ख़गाल, उसके गुलाबों से होंठ और उसके रेशम से बाल… कितनी फ़ुर्सत से गढ़ा था ऊपरवाले ने उसे… लेकिन मैं अपनी सीमाजानता था… सो मन की बात मन में ही रखना मुनासिब समझा. “रौनक़, मुझे कुछ कहना है तुमसे.” एक दिन अचानक उसने कहा, तो मुझे लगा कहीं मेरी फ़ीलिंग्स की भनक तो नहीं लगगई इसे, कहीं दोस्ती तो नहीं तोड़ देगी मुझसे… मन में यही सवाल उमड़-घुमड़ रहे थे कि अचानक उसने कहा, “मुझे अपनाहमसफ़र मिल गया है… और वो तुम हो रौनक़, मैं तुमसे प्यार करती हूं!” मेरी हैरानी की सीमा नहीं थी, लेकिन मैंने हिना को अपनी स्थिति से परिचित कराया कि मैं एक साधारण परिवार कालड़का हूं, उसका और मेरा कोई मेल नहीं, पर वो अपनी बात पर अटल थी. बस फिर क्या था, पहले प्यार की रंगीन दुनिया में हम दोनों पूरी तरह डूब चुके थे. कॉलेज ख़त्म हुआ, मैंने अपने पापा केस्मॉल स्केल बिज़नेस से जुड़ने का निश्चय किया जबकि हिना चाहती थी कि मैं बिज़नेस की पढ़ाई के लिए उसके साथविदेश जाऊं, जो मुझे मंज़ूर नहीं था. “रौनक़ तुम पैसों की फ़िक्र मत करो, मेरे पापा हम दिनों की पढ़ाई का खर्च उठाएंगे.” “नहीं हिना, मैं अपने पापा का सहारा बनकर इसी बिज़नेस को ऊंचाई तक के जाना चाहता हूं, तुम्हें यक़ीन है ना मुझ पर? मैं यहीं रहकर तुम्हारा इंतज़ार करूंगा.” ख़ैर भारी मन से हिना को बाय कहा पर कहां पता था कि ये बाय गुडबाय बन जाएगा. हिना से संपर्क धीरे-धीरे कम होनेलगा था. वो फ़ोन भी कम उठाने लगी थी मेरा. मुझे लगा था कोर्स में व्यस्त होगी, लेकिन एक दिन वो लौटी तो देखा उसकीमांग में सिंदूर, गले में मंगलसूत्र था… मेरी आंखें भर आई… “रौनक़, मुझे ग़लत मत समझना, जय से मेरी मुलाक़ात अमेरिका में हुई, उसने मुझे काफ़ी सपोर्ट किया, ये सपोर्ट मुझेतुमसे मिलना चाहिए था पर तुम्हारी सोच अलग है. जय का स्टैंडर्ड भी मुझसे मैच करता है, बस मुझे लगा जय और मैं एकसाथ ज़्यादा बेहतर कपल बनेंगे… पर जब इंडिया आई और ये जाना कि तुम भी एक कामयाब बिज़नेसमैन बन चुके हो, तोथोड़ा अफ़सोस हुआ कि काश, मैंने जल्दबाज़ी न की होती…” वो बोलती जा रही थी और मैं हैरान होता चला जा रहा था… “रौनक़, वैसे अब भी कुछ बिगड़ा नहीं है, हम मिलते रहेंगे, जय तो अक्सर टूर पर बाहर रहते हैं तो हम एक साथ अच्छाटाइम स्पेंड कर सकते हैं…” “बस करो हिना, वर्ना मेरा हाथ उठ जाएगा… इतनी भोली सूरत के पीछा इतनी घटिया सोच… अच्छा ही हुआ जो वक़्त नेहमें अलग कर दिया वर्ना मैं एक बेहद स्वार्थी और पैसों से लोगों को तोलनेवाली लड़की के चंगुल से नहीं बच पाता… तुममेरी हिना नहीं हो… तुम वो नहीं, जिससे मैंने प्यार किया था, तुमको तो मेरी सोच, मेरी मेहनत और आदर्शों से प्यार हुआकरता था, इतनी बदल गई तुम या फिर नकाब हट गया और तुम्हारी असली सूरत मेरे सामने आ गई, जो बेहद विद्रूप है! तुम मुझे डिज़र्व करती ही नहीं हो… मुझे तो धोखा दिया, जय की तो होकर रहो! और हां, इस ग़लतफ़हमी में मत रहना किमैं तुम जैसी लड़की के प्यार में दीवाना बनकर उम्र भर घुटता रहूंगा, शुक्र है ऊपरवाले ने मुझे तुमसे बचा लिया…” “अरे रौनक़, यार पार्टी तो एंजॉय कर, कहां खोया हुआ है…?” मेरे दोस्त मार्टिन ने टोका तो मैं यादों से वर्तमान में लौटा औरफिर डान्स फ़्लोर पर चला गया, तमाम पिछली यादों को हमेशा के लिए भुलाकर, एक नई सुनहरी सुबह की उम्मीद केसाथ! गीता शर्मा