आज के ज़माने में तो दो बच्चे ही पूरा घर सिर पर उठाने के लिए काफ़ी हैं. खिलौना हो तो उसके लिए झगड़ेंगे, न हो तो उसके लिए. कभी-कभी जी चाहता है इस स्थिति से दूर भाग जाएं. हमेशा नहीं तो यदा-कदा मन में ऐसी भावना आती ही है. बाल मनोवैज्ञानिक विश्लेषण कहता है कि बच्चे की ये सभी क्रियाएं बिल्कुल स्वाभाविक हैं. बाल सुलभ जिज्ञासा, अहं की भावना, सर्वाधिक की चाहत विकास व व्यक्तित्व के आवश्यक अंग हैं. हां, इन्हें सही समय पर व सही दिशा में मोड़ना हम बड़ों का कर्त्तव्य है. बच्चों का झगड़ना मानसिक विकास की स्वाभाविक प्रक्रिया है, जहां बनावट नहीं है. किन्तु यह ज़रूरी है कि बड़े उनसे संतुलित ढंग से व्यवहार करें.
* सबसे पहली बात बच्चों के झगड़े में बड़े ना ही बोलें तो बेहतर है.
* अक्सर देखने में आता है कि झगड़ने के कुछ ही देर बाद बच्चे फिर साथ खेलने लगते हैं और बड़ों में उस बात को लेकर मन-मुटाव हो जाता है.
* याद रहे, कोई भी बच्चा अकेला नहीं रहना चाहता, उसे अपने साथी प्रिय हैं. वह सुलह का कोई न कोई रास्ता ढूंढ़ निकालेगा.
* बस आपको इतना ध्यान ज़रूर रखना है कि उसकी विचारधारा ग़लत दिशा में मुड़ने न पाए.
* कभी-कभी बच्चे माता-पिता के अनुशासन के प्रति विद्रोह जताने के लिए कुछ ऐसा करते हैं कि आपको उन पर ग़ुस्सा आ ही जाता है.
* आपकी बेचैनी से उन्हें संतोष मिलता है. ऐसे में आप शांत व नियंत्रित रहें. कुछ समय बाद उस समस्या पर बातचीत करें.
* यदि किसी एक खिलौने को लेकर बच्चों में झगड़ा हो जाए, तो सबसे उत्तम उपाय होगा कि खिलौने को हटा दें.
* संभवतः थोड़ी देर बाद बच्चे स्वयं ही आपके पास मिलकर खेलने का सुझाव रखेंगे.
* यदि बच्चे हाथापाई पर उतर आएं, तो कसकर उसका हाथ पकड़ लीजिए और तब तक न छोड़िए, जब तक वह शांत न हो जाए अन्यथा वह चीज़ों को उठाकर फेंक सकता है, जिससे दूसरे बच्चे को चोट लग सकती है.
* आपकी इस सख़्ती से दूसरे बच्चे को भी इस बात का ज्ञान हो जाएगा कि घर में मारपीट बर्दाश्त नहीं की जाएगी.
* लेकिन याद रखें कि यह सख़्ती आप उन्हें उचित शिक्षा व सही दिशा समझाने के लिए बरत रही हैं, न कि अपनी कुंठा व क्रोध निकालने के लिए.
* आपको शांत रहना है. क्रोध में दो-चार थप्पड़ लगा दिए, तो अनुशासन का कोई अर्थ ही नहीं रह जाएगा.
* बच्चे यदि नियम तोड़ते हैं, तो उन्हें ऐसे ही न छोड़ें.
* अनुशासन सिखाने के लिए ऐसी सज़ा दें कि उन्हें अपनी ग़लती का एहसास हो.
* उन्हें टीवी पर अपना प्रिय कार्यक्रम न देखने दें.
* खेल के समय ऐसा काम सौंपे, जो उसे अरुचिकर हो.
* आप कठोर रहें, पर उत्तेजित न हों.
* कभी-कभी खेल-खेल में आपसी बहस झगड़े में बदल जाती है. ऐसी सम्भावना लगते ही विषय बदल दें. बात वहीं ख़त्म हो जाएगी.
* यदि झगड़े के दौरान चोट-खरोंच लग जाए, तो जिसकी वजह से लगी है उससे ही शांत भाव से कहें, “बेटा, दौड़कर दवा लाओ. देखो कितनी ज़ोर से लग गई है.”
* बच्चा अपराधबोध से भर उठेगा. बाद में उसे समझाएं.
* यदि बड़ा बच्चा छोटे को तंग करे या रुलाए, तो चुप कराने की ज़िम्मेदारी भी उसी को सौंपें.
* अगली बार तंग करने या रुलाने से पहले वह सोचेगा ज़रूर.
* बच्चे के मनोविज्ञान को समझने का हर संभव प्रयास करें.
* वह ऐसा क्यों कर रहा है? जानने का प्रयास करें.
* बच्चे से खुलकर बात करें.
* उनके प्रति सुरक्षापूर्ण तरीक़ा अपनाएं.
* उन्हें विश्वास दिलाएं कि उनकी हर छोटी-बड़ी बात आपके लिए ख़ास है. * आप उनके पक्ष-विपक्ष को पूरी तरह सुने बिना निर्णय नहीं लेंगी.
* आप उनकी मित्र हैं, शिक्षक हैं, संरक्षक हैं.
* हर पल उन्हें महसूस कराएं कि आप उन्हें प्यार करती हैं. उस समय भी जब आप सख़्ती बरत रही हैं.
* पिता का डर दिखाकर या उनके आने का हवाला देकर दिनभर मनमानी न करने दें.
* उन्हें जता दें कि उनके लिए आप ही काफ़ी हैं और पिता भी आपके निर्णय को ग़लत नहीं कहेंगे. उसे अस्वीकार नहीं करेंगे.
* जब बच्चे प्रेम से खेल रहे हों, तो शाबासी देना भी न भूलें.
* कुछ एक रचनात्मक कार्यों में भी ऐसे लगाएं कि झगड़े की गुंजाइश कम हो जाए.
* कोशिश करें कि बच्चे थोड़े समय साथ खेलें और थोड़े समय कुछ अलग करें.
* बच्चे डांट से ज़्यादा प्यार की भाषा समझते हैं, अतः जब आपकी आंखों में प्रशंसा व दुलार दिखाई देता है, तो उनका व्यवहार भी नम्र हो जाता है. * वैसे भी कोई बच्चा अपने माता-पिता का दिल नहीं दुखाना चाहता है.
* बस, बच्चे हैं तो झगड़ेंगे भी. इसे विकास की एक स्वाभाविक प्रक्रिया के रूप में स्वीकार करें और उनके छोटे-छोटे झगड़ों का आनंद लें.
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