हम सभी चाहते हैं कि ज़िंदगी में हमें सब कुछ हासिल हो, हम अक्सर सपने देखते हैं, ख़्वाहिशें पालते हैं और जुट जाते हैं उन्हें पूरा करने में… इसी कशमकश में हमें अक्सर ज़िंदगी में कई समझौते भी करने पड़ते हैं, एडजस्टमेंट्स करने पड़ते हैं, अपने दायरे तय करने पड़ते हैं. इसमें भी यदि हम बात करें एक स्त्री की, तो उसके दायरे व़क्त के साथ-साथ बदलते रहते हैं, उसके एडजस्टमेंट्स थोड़े ज़्यादा होते हैं… शादी के बाद वो नए रिश्तों को समझने के लिए एडजस्ट करती है. पति का साथ मिलता है, बच्चे होते हैं, तो ज़िम्मेदारियां और बढ़ जाती हैं… सबके खाने-पीने का ख़्याल रखने से लेकर सबके जज़्बात की क़द्र करना और सबको ख़ुश रखना जैसे बिन बोले ही उसकी प्राकृतिक ज़िम्मेदारी का हिस्सा बनता चला जाता है… वो रोज़ बिना किसी शिकायत के इन ज़िम्मेदारियों को ओढ़ती चली जाती है… लेकिन कहीं न कहीं उसके अंतर्मन में एक द्वंद भी चलता रहता है कि क्या यही वो ज़िंदगी थी, जिसकी ख़्वाहिश उसे हमेशा से थी…? लेकिन सच कहूं तो हर ख़ुशी की क़ीमत अदा तो करनी ही पड़ती है. सभी की तरह मैंने भी बहुत एडजस्टमेंट किए हैं, लेकिन उसका आज मुझे बहुत फ़ायदा भी मिला है. जब मैं छोटी थी, तो मैं खिड़की से देखती थी कि सारे बच्चे बाहर खेल रहे हैं और मैं डांस प्रैक्टिस कर रही हूं, लेकिन आज पीछे पलटकर देखती हूं, तो लगता है कि अगर उस व़क्त साधना नहीं की होती, तो आज ये कामयाबी नहीं मिलती और इन सबका श्रेय मेरी मां को जाता है.
मैंने फिल्मों में भी जब काम करना शुरू किया, तो एक व़क्त के बाद मुझे भी यह महसूस होने लगा कि एक लड़की की तरह मैं भी अपनी ज़िंदगी जीऊं, शादी करूं, घर बसाऊं… फिर मैंने शादी करने का फैसला कर लिया. जिस तरह ख़्वाहिशें समय के अनुसार बदलती रहती हैं, उसी तरह हमारी ज़िम्मेदारियां भी बदलती रहती हैं और हम उन्हें पूरा करने के लिए फिर अलग तरह से एडजस्टमेंट्स करने लगते हैं.
हमारी ज़िंदगी ऐसी ही तो हो गई है, जहां रोज़ाना क्या करें, क्या न करें की एक फेहरिस्त हमें बांधे रखती है. सुकून, शांति और नैसर्गिक सुख से हम कोसों दूर हो चुके हैं. कई बार समय की ज़रूरतें पूरी करते-करते, अपनी ज़िम्मेदारियां निभाने में हम इतने व्यस्त हो जाते हैं कि चाहकर भी अपने लिए, अपनों के लिए व़क्त नहीं निकाल पाते, अपनी इच्छाएं पूरी नहीं कर पाते… मुझे जब भी यह महसूस होने लगता है कि मैंने ख़ुद को ज़रूरत से ज़्यादा व्यस्त कर लिया है, तो मैं समझ जाती हूं कि कहीं न कहीं मेरे जीवन में असंतुलन आ गया है, जिसे स़िर्फ और स़िर्फ मैं ही ठीक कर सकती हूं. यह मुझे मेरे अनुभवों ने सिखाया है. ऐसे में मैं कुछ क़दम पीछे हट जाती हूं और उन चीज़ों के बारे में सोचती हूं, जो मुझे सुख व पूर्णता का आभास कराती हैं… तब मैं अपने नृत्य, ध्यान, योग, साधना के लिए व़क्त निकालती हूं, अपने परिवार के साथ व़क्त बिताती हूं… ऐसा करके मैं ख़ुद में फिर से वही ऊर्जा व शक्ति महसूस करती हूं.
कोई भी किसी मामूली-सी वजह से भी ख़ुद को खो सकता है, चाहे वो एक अयोग्य-सा रिश्ता हो, असंतुष्ट-सी नौकरी हो, अनुचित ज़िम्मेदारियां हों या कुछ भी इसी तरह का… ऐसे में यह आपको तय करना है कि आपको ख़ुद को कैसे खोजना है. इसके कई आसान से रास्ते हैं- आप एक छोटा-सा वेकेशन ले सकते हैं, या फिर अध्यात्म-योग, डांस या ऐसी ही किसी हॉबी में मन लगा सकते हैं.
ख़ुद मैंने भी यह किया है, रोज़ाना चंद मिनटों तक करती हूं, ताकि अधिक केंद्रित हो सकूं और हर दूसरे महीने कुछ दिनों तक मैं यह ज़रूर करती हूं… और यक़ीन मानिए मैंने ख़ुद को बार-बार ढूंढ़ निकाला है… ख़ुद को पाया है… पूर्णत: परिपूर्ण रूप से!
मुझे ज़िंदगी से कोई शिकायत नहीं… ज़िंदगी को शिद्दत से जीने के लिए एडजस्टमेंट्स करने ही पड़ते हैं, आप उनसे बच नहीं सकते.
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