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कहानी- हैप्पी बर्थडे (Story- Happy Birthday)

                  पूनम मेहता

मेरी आंखों के नीचे कालापन, चेहरे पर हल्की रेखाएं, दाग़-धब्बे, तिल… उफ्! मैंने दुबारा ख़ुद को अविश्‍वास से देखा, पर यह मैं ही थी. मेरा दिल धक् से रह गया. मैंने घूम-घूम के स्वयं को देखना शुरू किया. पेट पर चर्बी, कमर पर सिलवटें, नितंब भी भारी हो चुके थे. गर्दन व हाथों की स्किन तो बहुत ही ड्राई लग रही थी. क्या यह मैं हूं? ऐसा लगा, जैसे मैं स्वयं को पहली बार देख रही थी.

“हैप्पी बर्थडे टू यू…” रात के बारह बजे अचानक मेरे कमरे की बत्ती जली. नींद में से हड़बड़ाकर आंख मलते हुए मैं उठी, तो देखा बेटा, बेटी और ‘ये’ खड़े हैं. स्वीटी मुझसे “हैप्पी बर्थडे मम्मा” कहकर लिपट गई. पास खड़े तनय ने भी झप्पी डाल दी और इन्होंने भी मंद-मंद मुस्कुराते हुए मुझे विश किया. बच्चों ने आनन-फानन में मुझसे केक कटवाया, गिफ्ट्स दिए और फिर गिफ्ट्स खोलने का आग्रह भी करने लगे. दोनों गिफ्ट्स बेहद ख़ूबसूरत थे. बच्चे छांट के लाए थे. एक प्यारी-सी साड़ी और एक सुंदर-सी घड़ी. बच्चों के लिखने का ढंग मन मोह गया- ‘हमारी प्यारी मम्मी के लिए.’ इन्होंने भी एक शॉल गिफ्ट की- ‘दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत महिला के लिए.’ इनकी राइटिंग उस शॉल के पैकेट पर चमक रही थी. मैंने सभी को धन्यवाद दिया.
मैं भाव-विह्वल हो गई. किसी भी स्त्री को इतने प्यार करनेवाले परिवार के अलावा और भला क्या चाहिए? ईश्‍वर ने मुझे सुंदरता दिल खोल के दी थी, उस पर मेरा सादगी भरा अंदाज़ तो इन्हें बहुत ही पसंद था.
तभी तो सत्रह साल पहले मेरी चचेरी बहन को देखने आए यह, मुझे दो कपड़ों में ही ब्याह लाए थे. इनकी ज़िद थी कि शादी करूंगा, तो स़िर्फ ‘नीलम’ से, वरना आजीवन कुंआरा ही रह जाऊंगा. मैंने भी सत्रह साल का विवाहित जीवन बख़ूबी निभाया था, इसीलिए आज एक ख़ुशहाल वैवाहिक जीवन जी रही थी.
बच्चे अपने कमरे में जाकर सो चुके थे. ये भी मुझे अपनी बांहों में ही भींचे हुए सो गए थे. सुबह जल्दी उठना था, इसलिए यादों की सुनहरी परतों से निकलना पड़ा. अगली सुबह बच्चों का टिफिन तैयार करना, घर-बाहर के काम और विश करनेवाले फोन और पड़ोसी… दिन आनन-फानन में कब बीत गया, पता ही नहीं चला. शाम को इन्होंने आते ही ऐलान कर दिया कि खाना बाहर कहीं खाएंगे.
दिनभर की थकी-हारी मैं थोड़ी रिलैक्स्ड हो गई. इनकी पिछले बर्थडे पर दी हुई गुलाबी शिफॉन की साड़ी मैंने पहनी और उस पर अपना हैदराबादी पर्ल का सेट डाला. हल्का मेकअप करके मैं तैयार थी. बच्चों ने और इन्होंने कॉम्प्लीमेंट दिया कि मैं बहुत अच्छी लग रही हूं. मैंने मुस्कुराते हुए ‘थैंक्यू’ कहा और हम सब गाड़ी में बैठ गए.
होटल घर से काफ़ी दूर था. रास्तेभर हल्की-फुल्की बातों में बच्चे डिसाइड करने में लगे रहे कि खाने में क्या ऑर्डर करेंगे. ख़ैर, होटल आते ही हम अंदर प्रविष्ट हुए, तो कहीं से इनकी पूरी मित्र-मंडली आ गई. “हैप्पी बर्थडे टू यू” की ध्वनि से होटल का वो हिस्सा गूंज उठा.
मैं अचंभित थी. सभी मुझे विश कर रहे थे और गिफ्ट्स दे रहे थे. कुछ देर बाद वेटर एक बड़ा-सा केक ले आया. ‘मेरी ख़ूबसूरत संगिनी के लिए’ केक पर भी इनकी छाप-सी लगी थी. विवाह के सत्रह वर्ष होने के बाद भी मैं नई-नवेली दुल्हन की तरह शरमा रही थी.

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भोजन के बीच शरारतें, हंसी-ठिठोली चलती रही. रात को घर आते वक़्त मैंने इनसे प्रेम भरी शिकायत की कि इस सबकी क्या ज़रूरत थी, मैं कोई बच्ची थोड़े हूं, पर इन्होंने हंसते हुए कहा, “मेरे लिए तो हो.” रातभर प्यारभरी मीठी-मीठी बातें और शरारतें होती रहीं और इस बीच कब आंख लग गई, पता ही नहीं चला. सुबह मैं चाय बनाकर बेडरूम में ले गई. पर्दा हटाया, तो खिड़की से झांककर सूरज की किरणें अठखेलियां करने लगीं. मैंने इनको देखा. बिस्तर पर गहरी नींद में ये कितने अच्छे लग रहे थे. बस, बालों से स़फेदी झांक रही थी और आंखों के नीचे थोड़ी स्याही-सी हो गई थी, पर अभी भी कितने अच्छे लगते हैं. जब मैं इनसे पहली बार मिली थी, तो कितने आकर्षक लगते थे. इनके द्वारा प्रपोज़ करने पर मैं भी तो कहां मना कर पाई थी.
शादी के बाद के सारे साल पंख लगाकर उड़ चले थे. हम जहां भी जाते, यही सुनने को मिलता कि वाह क्या जोड़ी है. कितने पुरस्कार बेस्ट कपल के हमने जीते थे…
स्वीटी ने नाश्ता बनाने के लिए आवाज़ लगाई, तो मेरी तंद्रा भंग हुई. इन्हें उठाकर चाय देकर मैं अपना काम निपटाने चली गई. छुट्टीवाले दिन बच्चे और ये पिकनिक जाने के मूड में थे. मैंने मना कर दिया. हालांकि ये बहुत नाराज़ हुए, पर फिर मान गए. उनके लिए सैंडविच, केक, स्नैक्स बनाकर मैंने उन्हें रवाना किया और फिर थोड़ी देर सुस्ताने लगी. आज कई दिनों के बाद कुछ फुर्सत मिली थी. आज बहुत दिनों बाद मैं अकेली थी.
बाई भी अपना काम करके चली गई थी. मैंने चाय बनाई और लॉबी में धूप सेंकने चली गई. चाय की चुस्कियों के बीच मुझे अचानक बच्चों के बेडरूम का दरवाज़ा याद आया. वो खुला था, उसे बंद करना था. उस दरवाज़े पर ग्लास लगा था, जिसमें बाहर से अपना प्रतिबिंब दिखाई देता था और अंदर से वो पारदर्शी था. बच्चों ने पता नहीं कौन-सी मूवी देखने के बाद यह लगवाया था.
मैंने दरवाज़ा बंद किया. अपना अक्स नज़र आया. चूंकि धूप मुझ पर पड़ रही थी. मेरी छवि साफ़ दिख रही थी. मैंने स्वयं को निहारना शुरू किया. अपने ड्रेसिंग टेबल में तो मुझे इतनी बारीक़ी से अपना अक्स नहीं दिखता था. मैंने देखा कि मेरे बाल काफ़ी चमक रहे थे. मेहंदी का रंग बालों पर दिन में ऐसा दिखता होगा, मैंने सोचा न था. मैं शीशे के पास होती गई.
मेरी आंखों के नीचे कालापन, चेहरे पर हल्की रेखाएं, दाग़-धब्बे, तिल… उ़फ्! मैंने दुबारा ख़ुद को अविश्‍वास से देखा, पर यह मैं ही थी. मेरा दिल धक् से रह गया. मैंने घूम-घूम के स्वयं को देखना शुरू किया. पेट पर चर्बी, कमर पर सिलवटें, नितंब भी भारी हो चुके थे. गर्दन व हाथों की स्किन तो बहुत ही ड्राई लग रही थी. क्या यह मैं हूं? ऐसा लगा, जैसे मैं स्वयं को पहली बार देख रही थी. मन से एक आवाज़ आई, “तैंतालिस साल की औरत और कैसी हो सकती है?”
मैंने ख़ुद ही को जवाब दिया कि नहीं-नहीं सहेलियां, रिश्तेदार, बच्चे, पड़ोसी और यहां तक कि ये भी मुझे बार-बार ख़ूबसूरत क्यों बुलाते हैं? आंखों से जो दिख रहा था, उसे मेरा मन मानने को तैयार नहीं था, पर बुद्धि भीतर से कहीं जानती थी कि इन
दो-एक सालों में मुझ पर मोटापा आना शुरू हो गया था.
गृहस्थी की ज़िम्मेदारियों में कभी ख़ुद पर इतना ध्यान ही नहीं दिया. सब मेरी तारीफ़ करते रहे, तो मैं भी इस ओर उदासीन ही रही. पर अब मेरा धैर्य जवाब दे रहा था. सारा दिन मैं हैरान-परेशान स्वयं को शीशे में देखती रही और आकलन करती रही कि क्या मैं सचमुच सुंदर हूं? मन बेहद परेशान और उद्विग्न हो उठा.
देर रात ये और बच्चे आए, तो मैं काफ़ी संयत हो चुकी थी. ब्यूटीफुल की अवधारणा को अपने लिए मैंने नकार-सा दिया था. चेहरे पर इतनी झुर्रियां, तिल, दाग़ होते हुए मैं भला कैसे ख़ूबसूरत हो सकती थी. शरीर पर भी चर्बी की परत चढ़ चुकी थी.
व्यायाम व मेकअप, फेशियल व कॉस्मेटिक सर्जरी के फेर में मैं कभी पड़ी नहीं और उम्र के इस पड़ाव पर अब कैसा रंज…? मेरा इनके साथ पार्टियों में जाने का उत्साह घटने लगा. बच्चे भी जब किसी साथी के अभिभावक से मिलाने को कहते, तो मैं मना कर देती.
दिन के फंक्शन्स में मैंने जाना बिल्कुल ही बंद कर दिया. मेरी चुहल, हंसी-ठिठोली सब बंद हो गई. मैं उदास और गंभीर रहने लगी. घर के वातावरण पर इसका बहुत प्रभाव पड़ा. बच्चे सहमे-सहमे से रहने लगे. जिस घर में इतनी पार्टियां, लोगों का आना-जाना लगा रहता था, वहां सन्नाटा-सा पसर गया था. इन्होंने कई बार मुझसे पूछा, पर मैं कोई वजह न बता पाई. कहती भी क्या कि मैं सच्चाई का सामना नहीं कर पा रही हूं… मुझे अपनी डबल चिन, काले होंठों, झाइयोंवाले गालों के साथ बाहर निकलने में शर्म आती है? लेटेस्ट फैशन के कपड़े मुझे अब टाइट होने लगे हैं? मेरी समस्याओं का विकल्प था- जिम, ब्यूटीपार्लर या कॉस्मेटोलॉजी, पर मैं ठहरी ओरिजनैल्टी में यक़ीन रखनेवाली.किसी भी तरह का दिखावा मुझे पसंद नहीं था. बच्चों से, इनसे, सगे-संबंधियों, रिश्तेदारों, पड़ोसियों से मैं कटने लगी.
ब्यूटी को लेकर भी अधेड़ अवस्था में डिप्रेशन हो सकता है? कोई मेरी व्यथा सुनता, तो हंसता… पर अपनी पीड़ा तो ख़ुद ही समझ आती है. मन में उम्र ने इतने घाव दे रखे थे कि किसे दिखाती? जीवन सामान्य होकर भी मानो सामान्य नहीं रह गया था.
दिन-सप्ताह-महीने गुज़र गए और आ गया एक बार फिर से मेरा ‘जन्मदिन’. इस बार बच्चे बाहर गए हुए थे. रात को बारह बजे इन्होंने मुझे जगा के विश किया. “मेरा ख़ूबसूरत प्यार और दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत पत्नी के लिए…” यह कहकर इन्होंने हाथ बढ़ाया. इनके हाथ में लाल रंग का महकता हुआ गुलाब था.
बस! मुझसे और सहन नहीं हुआ. मैं लगभग चीख ही पड़ी, “क्यों जले पर नमक छिड़क रहे हो? मैं चौवालिस की हो चुकी हूं और कहीं से भी सुंदर नहीं हूं.”
“ओह! तो यह बात है. इतने महीनों से यह चिंगारी दबाए बैठी थी.” इन्होंने कहा.

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मैं फफक-फफककर रो रही थी. मुझे लगता था कि इनका प्यार और तारीफ़ मेरी ख़ूबसूरती के कारण ही था और वो अब निःसंदेह कम हो जाएगा. मेरी सबसे बेस्ट क्वालिटी ही मेरी नहीं रही थी और उसे मैं वापस भी नहीं ला सकती थी.
इन्होंने मुझे अपनी आगोश में ले लिया. मेरे आंसू पोंछे. बिस्तर पर बैठाया और कहना शुरू किया, “पगली! मेरी नज़रों में तुम अब भी सुंदर हो. चौवालिस की हो गई, तो क्या हुआ? मेरे लिए तुम अब भी बेस्ट हो.” मैं ध्यान से इनके चेहरे के उतार-चढ़ाव परख रही थी. इनके चेहरे पर अभी भी शरारत खेल रही थी. “तुम्हारी तन की ही नहीं, पाक-साफ़ मन की ख़ूबसूरती के हम क़ायल हैं. इतने साल इतनी निष्ठा से तुमने शादी को निभाया है. पुरुष तो फिर भी कहीं इधर-उधर फिसल जाते हैं, पर स्त्रियां ज़्यादातर एक ही की होकर रह जाती हैं और फिर तुम तो इतनी आकर्षक हो, इसके बाद भी किसी पराए पुरुष को नहीं देखा, क्या यह कम बात है?”
मैं इनके तर्कों के आगे निरुत्तर थी. “उम्र तो आएगी ही और उसके साथ सारे लक्षण भी आएंगे. उम्र को छिपाना मूर्खता है. झुर्रियों से भरे चेहरे पर कितना भी मेकअप पोत ले कोई, बाल डाई कर ले, हमारी फूहड़ता ही झलकेगी. तो क्यों न एज को ग्रेसफुली स्वीकार करें.”
किसी दार्शनिक की तरह ये बोले जा रहे थे और मेरे पूर्वाग्रह घुलते जा रहे थे.
“क्या मैं बूढ़ा नहीं हो रहा हूं? तो क्या तुम मुझे कम प्यार करने लगोगी या बच्चे हमारा ख़्याल नहीं रखेंगे?” मैंने ‘ना’ में सिर हिलाया.
“जब हम किसी के साथ रहने लगते हैं, तो उसकी बाह्य नहीं, आंतरिक सुंदरता के भी क़ायल होते हैं और अंदर से तुम बहुत सुंदर हो.”
इन्होंने मुझे गुदगुदाया, तो तनावपूर्ण माहौल में मस्ती आ गई. मैंने आंसू पोंछे. मुझे तसल्ली हो गई थी कि उम्र बढ़ने के साथ बदलावों के कारण यह मुझे छोड़कर तो नहीं जाएंगे.
“पगली, इस उम्र में फिट रहना, सेहत का ध्यान रखना, ख़ूबसूरती पर ध्यान देने से ज़्यादा ज़रूरी है और फिर तुम अभी चौवालिस की लगती ही कहां हो?” इन्होंने मेरी आंखों में झांका, तो मुझे शर्म आ गई. चौवालिस की उम्र का यह बर्थडे मुझे अब बुरा नहीं लग रहा था.

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Meri Saheli Team

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