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कहानी- वट वृक्ष की छाया (Short Story – Vat Vriksh Ki Chhaya)

                   रेनू मंडल
“बच्चे नहीं समझते कि घर के बड़े-बुज़ुर्ग आंगन के वट वृक्ष के समान होते हैं, जो भले ही फल न दें, अपनी छाया अवश्य देते हैं.” देशबंधुजी के शब्दों ने मेरी सोई अंतरात्मा को जगा दिया था. यह क्या करने जा रही थी मैं?

जिस तरह शांत बहती नदी में कंकड़ मारने से पानी में हलचल पैदा हो जाती है, बिल्कुल उसी तरह पूजा की बातों ने मेरे मन में झंझावात पैदा कर दिया था. हर माह हम चारों सहेलियां नेहा, पूजा, प्राची और मैं एक दिन गेट-टुगेदर करते हैं. इस बार हम सब नेहा के घर इकट्ठा हुए थे. हंसी-ठिठोली और खाने-पीने में कब शाम हो गई, पता ही नहीं चला. “काफ़ी देर हो गई, मुझे चलना चाहिए.” कहते हुए मैंने पर्स उठाया. नेहा बोली, “अभी बैठ न. सब एक साथ जाना.”

“नहीं, नहीं… पूजा और प्राची तो फ्री हैं. जब तक चाहें, रुक सकती हैं, लेकिन मेरे घर में सास-ससुर हैं. वे दोनों मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे.”
“क्या अंजलि, महीने में एक ही दिन तो होता है, जो तेरा अपना है. बाकी पूरे महीने तू उनकी चिंता करती ही है न.” प्राची बोली.
“नहीं प्राची, मुझे घर जाकर खाना बनाना है. मम्मी-पापा को जल्दी खाने की आदत है.”
पूजा ध्यान से मुझे देखकर बोली, “अंजलि, तुझे नहीं लगता, तू बेव़कूफ़ बन रही है.”
“क्या मतलब?” मैं चौंकी. पूजा समझाने लगी, “देख अंजलि, तेरे पति अंकुर अपने माता-पिता के इकलौते पुत्र नहीं हैं. उनके दो बड़े भाई और भी हैं. अपने पैरेंट्स के प्रति क्या अंकुर के भाइयों की कोई ज़िम्मेदारी नहीं है? वे दोनों कभी उन्हें अपने पास क्यों नहीं बुलाते? यह कहां का न्याय है कि सारा बोझ छोटे बेटे के सिर पर डाल दिया जाए. तेरी दोनों जेठानियां मौज करें और तू अकेली सास-ससुर के प्रति कर्त्तव्यों का निर्वाह करे. क्या तेरे सास-ससुर ने कोई कुबेर का ख़ज़ाना तेरे नाम कर दिया है, जो उन्हें रखने का दायित्व अब तेरा ही है.”
“ऐसा नहीं है पूजा. एक बार मम्मी-पापा दोनों बेटों के पास गए थे, लेकिन मेरी जेठानियों ने उन्हें अपने पास रखना नहीं चाहा. उनके दुर्व्यवहार के कारण एक माह दोनों के पास रहकर वे वापस लौट आए.”
“वे इसलिए वापस लौट आए, क्योंकि तेरे रूप में उन्हें विकल्प मिला हुआ है. यदि तू भी अपनी जेठानियोंवाला रवैया अपना ले, तब उन्हें दूसरे बेटों के पास भी जाना पड़ेगा.” पूजा बोली.
“मैं अंकुर को अच्छी तरह जानती हूं पूजा. वे मम्मी-पापा को अब अपने भाइयों के पास भेजने के लिए कभी सहमत नहीं होंगे.” मैंने कहा. इस पर पूजा ने रास्ता सुझाया, “ठीक है, मम्मी-पापा नहीं जाते, तो तुम दोनों चले जाओ.”
“क्या मतलब?”
“देख, अंकुर की फैक्टरी तुम्हारे घर से काफ़ी दूर है न. आने-जाने में काफ़ी समय लगता है. अंकुर को समझाकर तुम वहां शिफ्ट कर लो. वीकेंड पर मम्मी-पापा के पास आते रहना. अंजलि, यह सब मैं तेरे भले के लिए कह रही हूं. अभी तेरी शादी को एक साल भी नहीं हुआ है. अभी लाइफ को एंजॉय नहीं करेगी, तो कब करेगी? देख हमारी तरफ़, हम तीनों कितनी मस्ती से अपने-अपने पतियों के साथ अकेली रह रही हैं. न सास-ससुर का झंझट, न किचकिच. अकेले रहने से पति भी मुट्ठी में रहते हैं, अन्यथा संयुक्त परिवार में तो पति बेचारे माता-पिता और पत्नी के बीच पैंडुलम बने डोलते रहते हैं.” पूजा की बात पर सब मुस्कुरा दिए. वह उत्साहित हो आगे बोली, “याद रख, कर्त्तव्यों की अग्नि में स्वयं को होम करके कुछ हासिल नहीं होगा, सिवाय कुंठा और निराशा के. अभी तेरे सास-ससुर की सेहत ठीक है. कल को बीमार हो गए, तब क्या होगा, कभी सोचा है तूने. इसीलिए कह रही हूं, जितनी जल्दी हो सके, इस जंजाल से निकल.” पूजा की बातें मेरे शांत दिलोदिमाग़ में हलचल पैदा कर रही थीं. अनमनी-सी मैं घर लौटी, तो पापा ने मुस्कुराकर पूछा, “आ गई, आज का प्रोग्राम
कैसा रहा?”
“अच्छा रहा.” हमेशा की तरह मैं उन दोनों के पास बैठी नहीं और अंदर जाने लगी, तो वे बोले, “क्या बात है अंजलि, तुम्हारा चेहरा क्यों उतरा हुआ है?”
“कुछ नहीं पापा, सिर में हल्का-सा दर्द है.”
“सिर में दर्द है, तो अपने कमरे में जाकर लेट. मैं अभी बाम लगाए देती हूं.” मम्मी बोलीं.
“बाम भी लगा दो और अंजलि को एक कप गर्म चाय भी दे दो.” कोई और व़क्त होता, तो मेरा मन उनके स्नेह से भीग उठता, लेकिन उस दिन बात कुछ और थी. पूजा की बातें दिलोदिमाग़ पर छाई हुई थीं. मैं चुपचाप अपने कमरे में जाकर लेट गई. थोड़ी देर बाद देखा, मम्मी किचन में खाना बना रही थीं, पर मैं अनदेखा कर गई. रात में अंकुर ने स्नेह से माथे पर हाथ रख पूछा, “बहुत दर्द है क्या? सिर दबा दूं?”
“उहूं.” मैंने उनका हाथ हटा दिया. अंकुर ने छेड़छाड़ करते हुए मुझे अपनी बांहों में समेटना चाहा, तो मैं छिटककर परे सरक गई. वह असमंजस भाव से मुझे देखते रहे, फिर करवट बदलकर सो गए. किन्तु मेरी आंखों में नींद नहीं थी. मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था, अंकुर का स्पर्श भी नहीं. मन बहुत उचाट हो रहा था. क्या मिला मुझे अंकुर से विवाह करके? स़िर्फ कर्त्तव्य और ज़िम्मेदारियां. शादी से पहले क्या-क्या ख़्वाब थे मेरे, पर कोई पूरा नहीं हुआ. मेरे बाबूजी ने मेरे लिए अंकुर का रिश्ता ढूंढ़ा था, अन्यथा मैं तो राहुल से विवाह करना चाहती थी. राहुल का विजातीय होना बाबूजी को रास नहीं आया. ऐसे रिश्ते समस्याओं को जन्म देते हैं, उनका तर्क था. काश! बाबूजी मान जाते, तो आज मैं राहुल के साथ लंदन में एंजॉय कर रही होती. राहुल के साथ बिताए पल जीवंत होकर मुझे अतीत में ले जाते, इससे पहले ही मेरी अंतरात्मा ने मुझे रोक लिया. छिः यह क्या हो रहा है मुझे? क्यों ऐसी निरर्थक बातें मेरे दिमाग़ में आ रही हैं और मैं राहुल के बारे में सोच रही हूं. क्या मैं इतनी ही कमज़ोर हूं? मन के इस भटकाव पर मुझे ग्लानि हो आई.
आंखें मूंदे मैं अपनी सोच की दिशा बदलने का प्रयास करने लगी और इस प्रयास में विचारों की सुई पुनः अपनी जेठानियों पर जाकर केंद्रित हो गई. कितना ऐश कर रही हैं दोनों. न किसी की रोक-टोक, न जवाबदेही. शादी से पहले सोचा था, चलो तीन भाई हैं, माता-पिता का दायित्व तीनों पर रहेगा. थोड़े-थोड़े दिन वे अपने हर बेटे के पास रहेंगे, लेकिन मेरी दोनों जेठानियों ने बड़ी चतुराई से दायित्वों को निभाने की ज़िम्मेदारी मुझ पर डाल दी. अंकुर ने भी कह दिया कि अब मम्मी-पापा मेरे पास ही रहेंगे. अपनी बेइज़्ज़ती करवाने कहीं नहीं जाएंगे. क्यों होता है, हमेशा मेरे ही साथ ऐसा? मैं ही हमेशा लूज़र क्यों रहती हूं? पढ़ाई में मैं बहुत होशियार थी. डॉक्टर बनना चाहती थी, पर जिस दिन मेडिकल का एंट्रेंस टेस्ट था, उससे एक दिन पहले रात में बाबूजी को हार्टअटैक आ गया, जिससे मैं एक्ज़ाम नहीं दे पाई. डॉक्टर बनने का सपना, सपना ही रह गया.
एमएससी के बाद अंकुर से शादी के ठीक एक सप्ताह पहले बाबूजी का स्वर्गवास हो गया. एक सादे से समारोह में मेरी शादी हो गई थी. बाबूजी के लिए ठीक से रो भी नहीं पाई और ससुराल आ गई. यूं मुझे अंकुर के मम्मी-पापा से कोई शिकायत नहीं. दोनों मुझसे स्नेह रखते हैं. मेरी परवाह करते हैं, पर अकेले रहने की चाहत किसे नहीं होती. बंधनरहित उन्मुक्त जीवन जीने की लालसा हर किसी के दिल में होती है. मेरे दिल में भी है और जब पूजा ने मुझे अपने लूज़र रहने का एहसास कराया, तब से यह लालसा अपने उफ़ान पर थी.
उस दिन से मैं घर में अनमनी-सी रहने लगी थी. न किसी से ज़्यादा बात करती और न हमेशा की तरह मम्मी-पापा के पास बैठती. यहां तक कि घर का काम करने में भी मैं लापरवाही बरतने लगी थी. दोपहर के दो बज जाते और मैं किचन में न जाती, तो मम्मी चुपचाप रोटी सेंक लेतीं. मेरी ख़ामोशी से वे परेशान हो गई थीं. अंकुर ने कई बार पूछा, “आख़िर बात क्या है अंजलि, क्यों इतनी चुपचाप रहती हो?” लेकिन मैं फीकी-सी मुस्कुराहट के साथ बात को टाल देती. मम्मी-पापा ने भी मुझे कुरेदना चाहा, लेकिन मेरी अन्मयस्कता देख वे ख़ामोश हो गए. उनके चेहरों पर अब चिन्ता की लकीरें नज़र आने लगी थीं. शायद दोनों अपने असुरक्षित भविष्य को लेकर भयभीत हो गए थे.
15 दिन बाद बाबूजी की पहली बरसी आई. मेरी मां और भाई इस मौ़के पर मुझे अपने साथ हरिद्वार ले जाना चाहते थे. उनका मानना है कि गंगा किनारे पंडितों को भोजन कराने और दान-दक्षिणा देने से उनकी आत्मा को शांति प्राप्त होगी, पर मैंने उनके साथ जाने से इंकार कर दिया. पंडे-पुजारियों का पेट भरने से कहीं अच्छा है कि ज़रूरतमंदों की सहायता की जाए.
कोई अच्छा कार्य किया जाए. दो दिन से मैं इसी उधेड़बुन में थी कि बाबूजी की बरसी पर ऐसा क्या करूं, जिससे मुझे मानसिक शांति मिले. मुझे ख़्याल आया, क्यों न ओल्ड एज होम में जाकर वृद्धों को खाना खिलाऊं. इस विचार के आते ही मैं तैयारी में जुट गई.
बरसी वाले दिन मुंह अंधेरे उठकर मैंने बाबूजी की पसंद की कई चीज़ें बनाईं. बाज़ार से फल और मिठाइयां ख़रीदीं और ओल्ड एज होम पहुंच गई. वहां के संचालक से मैंने कहा कि मैं स्वयं वहां रहनेवाले बुज़ुर्गों को खाना खिलाना चाहती हूं. थोड़ी-सी ना-नुकूर के बाद वह सहमत हो गए. वे मुझे लेकर एक हॉल में आए. वहां क़रीब 15-16 बुज़ुर्ग बैठे थे. मैंने खाना टेबल पर सजाया और उनसे खाने का आग्रह किया. मेरी लाई कचौरी, छोले, सब्ज़ी और रायते को देख उनकी आंखों में चमक आ गई. शायद बहुत समय से उन्होंने अच्छे खाने का स्वाद नहीं चखा था. सबने भरपेट खाया और मुझे ढेरों आशीर्वाद दिए. उन सब के साथ देर तक मैं बातचीत करती रही. जब मैंने उनसे यह पूछा कि उन्हें यहां क्यों आना पड़ा, तब सभी ग़मगीन हो उठे. सबके अपने-अपने दर्द और अपनी-अपनी विवशताएं थीं.
सरिताजी के पति का स्वर्गवास हो चुका था. वह दुनिया में अकेली थीं, इसलिए उन्हें यहां आना पड़ा. विद्याजी का इकलौता बेटा विदेश जा बसा था, पर यह सच था कि उनमें से अधिकतर अपने बच्चों की ज़्यादतियों के शिकार थे. रविकांतजी के पास जब तक पैसा था, तब तक घर में उनकी कद्र थी. रिटायरमेंट के बाद मिले पैसे को उन्होंने बेटे के मकान में लगा दिया और खाली हो गए, तब बहू ने उन्हें फ़ालतू चीज़ समझकर घर से निकाल दिया. रिटायर्ड प्रोफेसर देशबंधुजी की बात सुनकर मैं चौंक-सी गई थी. उनकी कहानी मानो मेरी मनःस्थिति बयान कर रही थी. शादी के कुछ समय बाद उनके बेटा-बहू अलग हो गए थे, क्योंकि उनकी बहू को बंधन पसंद नहीं था. वह आज़ाद रहना चाहती थी. जब तक उनकी पत्नी ज़िंदा रहीं, वे दोनों अकेले रहते रहे. पत्नी के स्वर्गवास के बाद बेटा-बहू उन्हें लेने आए, पर वे नहीं गए और वृद्धाश्रम चले आए. पत्नी को यादकर देशबंधुजी के आंसू बह रहे थे. भर्राए कंठ से वे बोले, “माता-पिता इतने जतन से बच्चों को पालते हैं और बच्चे क्या करते हैं उनके लिए? बुढ़ापे में उनका सहारा तक बनना नहीं चाहते. बोझ समझते हैं उन्हें. ज़िंदगी का फ़लसफ़ा बिल्कुल सीधा-सादा है- जैसा बोओगे, वैसा काटोगे.
आज के बच्चे अपने माता-पिता को अपने बुज़ुर्गों के साथ जैसा व्यवहार करते देखेंगे, वैसा ही व्यवहार वे भी बड़े होकर उनके साथ करेंगे.” देशबंधुजी हांफने लगे थे. हृदय की समस्त वेदना उनके चेहरे पर सिमट आई थी. गला खंखारकर वे पुनः बोले, “बच्चे नहीं समझते कि घर के बड़े-बुज़ुर्ग आंगन के वट वृक्ष के समान होते हैं, जो भले ही फल न दें, अपनी छाया अवश्य देते हैं.” देशबंधुजी के शब्दों ने मेरी सोई अंतरात्मा को जगा दिया था. यह क्या करने जा रही थी मैं? अपने माता-पिता समान स्नेहिल सास-ससुर को छोड़ देना चाहती थी. कल को उन्हें भी यहीं आना पड़ता तो? इस विचार ने मुझे झकझोर-सा दिया. वे लोग मेरी मनःस्थिति अवश्य भांप चुके होंगे. अब क्या मुंह दिखाऊंगी मैं उन्हें. मन ही मन पछताते हुए मैं घर से बाहर आकर ठिठक गई. अंदर से पापा की आवाज़ आ रही थी, “अंकुर, आज मुझे और तुम्हारी मम्मी को अंजलि की ख़ामोशी और उदासी की वजह समझ में आई. आज उसके बाबूजी की बरसी है. पिछले कई दिनों से उन्हीं को यादकर वह दुखी थी. अरे, विवाह से एक हफ़्ते पहले उनका देहांत हो गया. रोकर अपना मन हल्का भी नहीं कर पाई वह और ससुराल आ गई. अपने दर्द को समेटे वह हमसे हंसती-बोलती रही और हम भी उसकी पीड़ा को न समझ पाए.”
“आप ठीक कह रहे हैं पापा.” अंकुर की आवाज़ आई. तभी मम्मी बोलीं, “हम तीनों को अंजलि का पहले से अधिक ख़्याल रखना चाहिए. हफ़्तेभर बाद तुम दोनों की पहली मैरिज एनीवर्सरी है. हम चाहते हैं, तुम अंजलि को बैंकॉक घुमाने ले जाओ.”
“ठीक है पापा.”
“और सुनो, यह हमारी तरफ़ से तुम दोनों को शादी की सालगिरह का तोहफ़ा है.” इससे अधिक मुझसे नहीं सुना गया. ईश्‍वर का लाख-लाख शुक्र है, वे मेरे मन की उथल-पुथल को नहीं समझ सके थे. मैंने उन्हें कितना दुख पहुंचाया, कितनी अवहेलना की, फिर भी दोनों मेरी फ़िक्र कर रहे हैं. उनके मन की सरलता देख मेरी आंखों से आंसू बहने लगे. मैं तेज़ी से अंदर की ओेर बढ़ी और उनके गले लग रो पड़ी. मम्मी-पापा का हाथ मेरे सिर पर था. मैंने दोनों की बांहों को कसकर थाम लिया था, कभी न छोड़ने के लिए.

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Meri Saheli Team

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