हम ख़ुद को अन्य जीवों से बेहतर मानते हैं और कहा भी जाता है कि मनुष्य योनि में जन्म बड़ी ही मुश्किल से मिलता है. मनुष्य सभी जीवों में सबसे शक्तिशाली माना जाता है, क्योंकि वो सोचने-समझने की क्षमता सबसे अधिक रखता है, वो बोल सकता है, वो नए-नए आविष्कार कर सकता है, वो दुख-दर्द महसूस कर सकता है, वो अपनी भावनाएं व्यक्त कर सकता है, क्योंकि वो एक सामाजिक प्राणी है और उसमें मानवी भावनाएं हैं. लेकिन क्या सचमुच ऐसा ही है, जैसा हम सोचते हैं? हम ख़ुद को सर्वश्रेष्ठ तो मानते हैं, लेकिन कहीं न कहीं समय के साथ-साथ हमारी इंसानियत खोती जा रही है. अगर ऐसा न होता, तो कई तरह के अमानवीय पहलू हमें देखने को न मिलते.
- बच्चे अपने बूढ़े माता-पिता से पीछा छुड़ाने के लिए उन्हें वृद्धाश्रमों में न छोड़ देते.
- स़िर्फ पैसों व ज़रूरतों के लिए एक-दूसरे को हम इस्तेमाल न करते.
- कहीं 7 महीने की बच्ची से बलात्कार, तो कहीं अपने ही पिता से शोषण का शिकार बेटी… कहीं अपने प्रेमी के साथ मिलकर पति का ही क़त्ल, तो कहीं माता-पिता से पैसे ऐंठने के लिए ख़ुद के अपहरण की कहानी… इस तरह की ख़बरों से आजकल हमारे दिन की शुरुआत होती है. ज़ाहिर है, कहीं न कहीं कुछ तो ग़लत हो रहा है, जो हम इंसानियत भूलकर इस हद तक चले जाते हैं.
- जब भी कोई इंसान ग़लत व्यवहार या अपराध करता है, तो हम उसकी तुलना जानवर से करते हैं, लेकिन जानवर तो कभी भी अपनी हदें पार नहीं करते. ये हम ही हैं, जो सीमाएं लांघते हैं और अपने इंसानी दंभ में सब कुछ भूलकर जघन्य अपराध तक कर डालते हैं.
- ऐसे में यह सवाल उठना लाज़िमी है कि क्या अब ज़रूरी हो गया है कि इंसानियत को बचाया जाए, सहेजा जाए?
- हम वॉटर कंज़र्वेशन, एनर्जी कंज़र्वेशन, फ्यूअल कंज़र्वेशन, फॉरेस्ट और एनिमल कंज़र्वेशन आदि की बातें करते हैं, लेकिन शायद ही कभी ह्यूमैनिटी कंज़र्वेशन की तरफ़ हमारा ध्यान जाता हो.
- दिन-ब-दिन बढ़ते अपराध, गिरते मानवी मूल्य और बढ़ते लालच के चलते बेहद ज़रूरी हो गया है कि सबसे ज़्यादा और सबसे पहले ह्यूमैनिटी कंज़र्वेशन की तरफ़ ध्यान दिया जाए.
कैसे किया जाए ह्यूमैनिटी कंज़र्वेशन?
- बच्चे हमारे देश के भविष्य हैं. यही हमारे भविष्य के समाज के निर्माण में मुख्य भूमिका निभानेवाले हैं. ऐसे में ज़रूरी है कि बच्चों की नींव मज़बूत बने.
- हमारे बच्चे हमसे ही सीखते हैं. हम झूठ और फरेब करेंगे, तो यह अपेक्षा न रखें कि बच्चे सब कुछ देखकर भी सच्चाई की राह पर चलेंगे. बेहतर होगा कि हम पहले ख़ुद को बदलें.
- जितना संभव हो सके, सच्चाई और ईमानदारी से काम करें.
- अपने बच्चों को भी यही सीख दें. स्वार्थ और झूठ की राह शुरुआत में तो बड़ी आसान लगती है, लेकिन इसके नतीज़े उतने ही घातक होते हैं.
- स़िर्फ अपने बारे में सोचना ही काफ़ी नहीं है, अपने परिवार के अलावा, समाज व देश की बेहतरी के लिए प्रयास करने भी ज़रूरी हैं.
- जैसा कि कहा जाता है- क्या हम अपने बच्चों के लिए बेहतर प्लानेट (धरती) छोड़कर जाएंगे…? इसी तरह से कुछ लोग यह भी कहते हैं कि क्या हम अपने प्लानेट के लिए बेहतर बच्चे छोड़कर जाएंगे? तो दोनों ही तरह से सोचना ज़रूरी है.
- यदि अब हमने ह्यूमैनिटी कंज़र्वेशन पर ध्यान नहीं दिया, तो ज़ाहिर है बहुत कुछ हाथ से निकल जाएगा.
क्यों खोती जा रही है इंसानियत?
- स्वार्थ और लालच के चलते हम सभी सबसे आगे रहने की ख़्वाहिश रखते हैं.
- हम सबसे ज़्यादा पैसा कमाएं, हम सबसे ज़्यादा पॉप्युलर हो जाएं, अपने दोस्तों व रिश्तेदारों में हम सबसे अधिक कामयाब रहें… इस तरह की चाहत आम है.
- कामयाब होना ग़लत नहीं, लेकिन ग़लत तरह से कामयाब होना या किसी और की कामयाबी को देखकर उससे ईर्ष्या रखना ग़लत है.
- किसी के पास कार है, तो हमारे पास उससे भी बड़ी कार होनी चाहिए, पड़ोसी की टीवी से हमारी टीवी बड़ी होनी चाहिए, वो थाईलैंड के ट्रिप पर गए, तो हमें यूरोप ट्रिप पर जाना है… कुल मिलाकर दिखावे की ज़िंदगी आजकल हम पर हावी रहती है.
- हमें ख़ुद को दिखाना है कि हम कामयाब हैं, ख़ुश हैं और सबसे ज़्यादा हम ‘कूल’ हैं.
सोशल मीडिया ने भी बदले हैं बहुत-से समीकरण
- यह सच है कि सोशल मीडिया ने हमें क़रीब किया है, अपने पुराने दोस्तों से, रिश्तेदारों से व ढेर सारे नए अंजान चेहरों से भी.
- लेकिन हम शायद इसे पचा नहीं पा रहे या इसका ओवरडोज़ इतना हो चुका है कि हम भटक रहे हैं.
- हम दोहरी ज़िंदगी जीने लगे हैं. अपनी लाइफ को कूल दिखाने की कोशिश में लगे हैं, क्योंकि सोशल मीडिया के वो अंजान चेहरे, जो दोस्त बन चुके हैं, हमारे लिए इतने महत्वपूर्ण हो गए हैं कि उन्हें इंप्रेस करने के लिए हम नकली ज़िंदगी जीने या दिखावा करने से भी परहेज़ नहीं करते.
- इन सबके चलते हम अपने निजी रिश्तों को अपेक्षाकृत कम महत्व देने लगे हैं, हम उनसे दूर हो रहे हैं. ऐसे में भावनाएं, अपनापन, प्यार, मेलजोल, संस्कार आदि बैकवर्ड बातें हो गई हैं और प्रैक्टिकल बनना ही मॉडर्न और कामयाबी की निशानी मानी जाने लगी है.
- पैरेंट्स भी सोशल मीडिया में बिज़ी हैं और बच्चे भी, ऐसे में कब, कहां और कैसे मूल संस्कार दिए जाएंगे? न व़क्त है और न ही हमें इसकी ज़रूरत महसूस होती है.
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कूल बनना है बहुत ज़रूरी…
- जी हां, आपके पास महंगे गैजेट्स और ब्रान्डेड कपड़े-जूते हों, यही आपकी बेसिक ज़रूरतें या प्राथमिकता बन चुकी है.
- दूसरी प्राथमिकता है कि आप सोशल मीडिया पर बहुत ही एक्टिव हों, वरना आप आउटडेटेड कहे जाएंगे.
- ऐसे में यदि बच्चों को या युवाओं को समझाने बैठेंगे कि ये करो, ये मत करो, तो उन्हें लेक्चर से ज़्यादा कुछ नहीं लगेगा. बेहतर होगा कि आप ख़ुद एक उदाहरण के तौर पर अपने व्यवहार को आदर्श बनाएं, इससे वो बेहतर तरी़के से सीख पाएंगे.
- ज़रूरी नहीं कि बच्चों की हर डिमांड को पूरा ही किया जाए, उन्हें अनुशासन का महत्व सिखाना भी बेहद ज़रूरी है.
- अनुशासित युवा ही बेहतर इंसान भी बन सकेगा और सही-ग़लत के बीच के फ़र्क़ को भी समझेगा.
- बच्चों को बचपन से ही यह एहसास कराना ज़रूरी है कि उनका संबंध स़िर्फ अपने परिवार से ही नहीं है, बल्कि देश व समाज के प्रति भी उनका कर्त्तव्य है. वो एक बेहतर नागरिक बनें, नियमों का पालन करें, समाज के लिए बेहतर इंसान बनें, सबको सम्मान दें.
- बच्चों को यह समझाना भी महत्वपूर्ण है कि कूल बनने का सही अर्थ क्या होता है. एक अनुशासनहीन युवा कभी भी कूल नहीं होता, वो एंटीसोशल एलीमेंट होता है, जबकि सच के लिए खड़े रहनेवाला ही कूल होता है, जिसमें गट्स होता है, जो दूसरों के लिए भी आवाज़ उठाता है.
- क्योंकि एकाएक अचानक यदि हम यह चाहें कि समाज बदल जाए, तो यह संभव ही नहीं, बदलाव के लिए समय व प्रयास दोनों ही ज़रूरी हैं और यह बदलाव हमें ही लाना होगा, तभी बेहतर समाज का निर्माण होगा और इंसानियत की जीत भी.
देश और समाज के प्रति भी हमारी ही ज़िम्मेदारी है…
- हम बेहतर नागरिक बनें, बेहतर इंसान बनें यह हमारे व हमारे परिवार के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिए सकारात्मक बात होगी.
- ज़ाहिर-सी बात है, जब सामाजिक मूल्य ऊंचे होंगे, तो अपराध कम होंगे.
- हम समाज के प्रति अधिक ज़िम्मेदार बनेंगे, ग़लत राह पर न ख़ुद चलेंगे और न ही दूसरों को चलने देंगे.
- यह जज़्बा हरेक में होना चाहिए. न स़िर्फ अपने देश व समाज में बल्कि आज के दौर में विश्वभर में इंसानियत को सहेजने की बेहद आवश्यकता है.
- यदि इंसानियत होती, तो आतंकी हमले न होते, यदि इंसानियत होती, तो दुनिया बारूद के ढेर पर न बैठी होती, यदि इंसानियत होती, तो सरहदों पर हथियार और बंदूकें नहीं होतीं… लेकिन यह इंसानियत सबमें नहीं है. आत्मरक्षा के लिए भी बहुत कुछ करना मजबूरी है. ऐसे में यदि हम शुरुआत अपने परिवार व समाज से करें, तो धीरे-धीरे ही सही, सफलता मिलेगी. लेकिन इसके लिए सतत प्रयास करने होंगे, वरना इंसानियत मरती जाएगी और यह शब्द स़िर्फ क़िस्से-कहानियों में ही सीमित होकर रह जाएगा.
सच्चाई बयां करते आंकड़े
- नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के अनुसार, उत्तर प्रदेश और दिल्ली में सर्वाधिक हत्या व बलात्कार के मामले पाए जाते हैं.
- यही नहीं, महिलाओं के ख़िलाफ़ भी सबसे अधिक अपराधों में उत्तर प्रदेश को सबसे आगे पाया गया.
- रेप यानी बलात्कार के मामलों में पिछले वर्षों के मुक़ाबले लगभग 12.4 प्रतिशत तक की बढ़ोत्तरी देखी गई.
- इसके अलावा एक और तथ्य जो आंकड़ों से सामने आया है, वो यह कि 95% बलात्कार की शिकार महिलाएं अपराधी को पहचानती थीं.
- अब तक बलात्कार को लेकर एक धारणा समाज में बनी हुई थी कि एक ख़ास तरह के लोग ही बलात्कार करते हैं और ख़ास क़िस्म की महिलाएं ही इसका शिकार होती हैं. समाज व परिवार की इसी सोच के चलते आज भी अधिकांश मामले दर्ज ही नहीं किए जाते.
- आंकड़े बताते हैं कि 95% मामलों में पीड़िता अपराधी को पहचानती है. इसमें से 27% तो पड़ोसी ही होते हैं, 22% वो जो शादी का झूठा दिलासा देकर संबंध बनाते हैं, 9% घर-परिवार व नाते-रिश्तेदार होते हैं. इसी तरह से कहीं-कहीं एंप्लॉयर, को-वर्कर्स, पार्टनर आदि भी अपराधी होते हैं.
- इंसानियत को शर्मसार करने के लिए ये आंकड़े काफ़ी हैं. इसी से यह अंदाज़ा लग जाता है कि आज की तारीख़ में सबसे अधिक यदि किसी बात की ज़रूरत है, तो वो है इंसानियत को सहेजने की.
– रामेश्वर दयाल शर्मा
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