पहला अफेयर: हरसिंगार के फूल (Pahla Affair: Harsingar ke Phool)
मन की दहलीज़ पर, रख यादों के चराग़
ख़त चुपके से वो, मेरा पढ़ती थी!
ऐसी थी मेरी रेखा, मेरे दोस्त की बहन. उसी के घर रेखा से मुलाक़ात हुई. पहली नज़र में पहले प्यार के बारे में सुना तो था, लेकिन उसका सुखद एहसास रेखा को देखने के बाद ही महसूस हुआ! चौड़े माथे पर सजी बिंदी, पनीली आंखों में मासूम-सी शोख़ी, गुलाबों से नाज़ुक सुर्ख़ लब और लहराते रेशमी बाल. जब वह बालों में गुड़हल का फूल लगाती, तो झरनों के पत्थर मुड़-मुड़ कर उसे ताकते. यूं लगता आसमान से फ़रिश्ते भी उसे देखने को तरसते हैं. यूं प्रेम का वो नन्हा पौधा, प्रणय-सूत्र में बंध गया.
तुम यादों को उखाड़कर कहीं भी फेंको, वे कैक्टस की तरह उगने की ग़लती दोहराती हैं. चाय का प्याला हाथ में है, मेज़ पर रखी क़िताब के उस पुर्ज़े पर नज़र डालता हूं, जो मुझे मुंह चिढ़ा रहा है. “मैं जा रही हूं. मुझे ख़ुद नहीं पता कि कहां! मुझे ढूंढ़ने की ग़लती मत करना…” उ़फ्! मेरे गूंगेपन की साथी हैं ये दीवारें! जो बोल रही हैं, फुसफुसा रही हैं- “अरे मूर्ख! यह ईंट-गारे से बना घर है, यादों का संगमरमरी ताज नहीं.”
“हम थे जो कभी, रातों को हंसा देते थे
अब ये हाल कि थमते अपने नहीं आंसू”
रेखा के सौंदर्य का जादू मेरे सिर चढ़कर बोला था. उसके रूप में इस कदर खो गया था कि आसपास की बाकी हक़ीक़तों को देख ही न सका. अपने प्यार के अंजाम के बारे में उस वक़्त यथार्थ के धरातल पर खड़े होकर सोच न सका. शायद मैं भूल गया था कि अमीर पिता की ज़िद्दी बेटी मेरे साथ निबाह कर पाएगी भी या नहीं. माना मेरे पास ऐशो-आराम का वो सामान न था, मगर प्यार का उमड़ता लबालब समंदर था सीने में.
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आज भी याद हैं वे दिन. सागर किनारे कभी भेलपूरी खाते, कभी फ़िल्मी गीत गुनगुनाते… तो कभी बारिश की फुहारों में भीगते, कितने ख़्वाब बुने थे हमने अपने प्यार को लेकर. ये हवाएं, इनमें बसी हमारे प्यार की महक गवाह हैं हमारे उन हसीं दिनों की.
उसके हंसने का अंदाज़. उ़फ्! जब वो हंसती तो लगता हरसिंगार झर रहा है. जैसे कई गुलाबों का एक साथ खिलना… जैसे बरखा की पहली बूंद का थिरकना… जैसे मंदिर में घंटियों का गूंजना… नवंबर की मीठी धूप में रखे ये कैक्टस, हमारे प्यार के गवाह हैं. रेखा की यादों को ताज़ा करने का सामान भी हैं.
घाटी में शाम का झुरमुट घिर आया है. मैं सोचते-सोचते काफ़ी दूर निकल आया हूं. पथरीली पगडंडी पर पहला पड़ाव और… कोई भी दरख़्त मेरा हाथ पकड़ने को आगे नहीं बढ़ता. अब इतने सवालों से घिरा पिंजरे में मरे शेर-सा मैं. अपने पर तरस आता है. सोचता हूं खोलूं इस बंद पिंजरे के द्वार, जहां सदियों से कैद प्रश्नों के परिंदे फड़फड़ा रहे हैं.
अर! ये कैसा प्यार था? ज़रा धागा खिंचा नहीं कि पूरा स्वेटर उधड़ गया… अब लौटने का मन नहीं है. वहां है केवल बोलती दीवारें… मेरे ग़म में शरीक़ मोम-सी पिघलती दीवारें… मेरे साथ सिसकती दीवारें… घर की दीवारों से भी अलग होती हैं कुछ दीवारें, जो भीतर एक घुटन भर देती हैं…
“मैं सिसकने की आवाज़ साफ़ सुन रहा हूं,
तुम कहते हो घर में, दूसरा कोई नहीं.”
– मीरा हिंगोरानी
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