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पहला अफेयर- कच्ची उम्र का पक्का प्यार (Love Story- Kachchi Umar Ka Pakka Pyar)

मुझे याद है मैंने आख़िरी बार आनंद को फोन किया था, मैंने एक ही विनती की थी, बचपन का खेल समझकर भूल जाना…

लेकिन किसी के लिए भी खेल नहीं था, भूला कोई भी नहीं!

कई सालों बाद मैं उस साल गर्मी की छुट्टियां बिताने अपने ननिहाल आई हुई थी.

“घर के अंदर चलो सब लोग, आंधी आने वाली है.” मामी सारे बच्चों को चिल्ला कर बुला ही रही थीं कि धूल के बवंडर से पूरा घर भर गया. छत पर सूखते पापड़ अगल-बगल के घरों में बिखर गए और उन घरों के कपड़े हमारे आंगन में आ गिरे.

आनंद… यही तो लिखा था उस रुमाल के एक कोने पर, सफ़ेद रुमाल पर लाल धागे से कढ़ा वो शब्द मेरे लिए अजनबी था, लेकिन जब उस पर मालिकाना हक़ जताने वो चेहरा सामने आया, तो लगा कि ये तो जाना-पहचाना है.

“तुम अनु हो न? अरे मैं आनंद, भूल गई क्या? तुम और मैं बचपन में कितना खेलते थे.”

अच्छा हां, एक टोली मेरी भी हुआ करती थी, बहुत सालों पहले. उन सबके बारे में आनंद से पूछती गई, वो बताता चला गया.

हर शाम दोनों घरों के लोग छत पर बैठकर अंताक्षरी खेलते और सुबह हम सारे बच्चे; मेरे भाई-बहन, मामी के बच्चे, आनंद के भाई, सब लोग नमक की पुड़िया लिए आम के बाग में जाते. कच्चे-पक्के आम तोड़ते, चटखारे लेकर नमक से खाते! ऐसी ही एक सुबह उसने मुझे टोक दिया था, “पता है, कच्चे आम की महक और पके हुए आम की महक में क्या अंतर होता है? कच्चा आम दोस्ती सा महकता है, पक्का आम प्यार जैसा, ख़ुद ही अंतर महसूस करो.” ये कहते हुए उसने दोनों आम मेरे सामने रख दिए थे. मैं तो उसकी उन आंखों को देख रही थी, जहां कुछ दिनों पहले दोस्ती थी और अब… अब तो कुछ और ही था!

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“घर चलते हैं, देर हो रही है.” कहते हुए मैं खड़ी होनेवाली थी कि उसने मेरा हाथ पकड़कर रोक लिया, “सच बताओ, तुमको हमारे बीच दोस्ती ही लगती है क्या?”

जवाब तो मैं क्या ही देती. ये महक मेरे लिए नई थी. जीवन में आए पहले प्यार की ख़ुशबू थी.

“मुझे अभी भी जवाब मिला नहीं है.” अगले दिन सुबह फिर उसने आम की टोकरी की ओर इशारा किया था. मैंने झिझकते हुए एक पका हुआ आम उठा लिया था. मेरा चेहरा तपकर पीला हुआ जा रहा था.

“हम दोनों की पढ़ाई पूरी होने तक, नौकरी लगने तक हमें इंतज़ार करना पड़ेगा. करोगी न इंतज़ार?” उसने मेरी आंखों में झांकते हुए पूछा था. मेरी आंखें भर आई थीं. वहां से वापस आई तो लगा, अपना एक हिस्सा वहीं छोड़ आई हूं.

“कोई बात है क्या बिटिया?” मां ने चेहरा देखते ही जान लिया, मैं भी बिना उनको बताए रह कहां पा रही थी? कितने अच्छे दिन थे और उससे भी अच्छी थी रातें, क्योंकि रात में ही आनंद की एसटीडी कॉल आती थी. वो लैंडलाइन का ज़माना था. मम्मी को इस बात पर कोई आपत्ति नहीं थी, लेकिन पापा को इन सबकी भनक तक नहीं थी. मम्मी का कहना था कि ठीक समय आने पर वह पापा से इस बारे में बात करेंगी. क्या पता था, ठीक समय से पहले ग़लत समय आ जाएगा.

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पापा फोन पर चीख रहे थे, आनंद का असमय फ़ोन आया था. मेरी तो सिट्टी-पिट्टी गुम हो चुकी थी. मम्मी ने आकर बात संभाल ली थी. “अच्छा लड़का है, इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा है, हमारी कास्ट भी एक है, क्या समस्या है?”

“बहुत बड़ी समस्या है, वह लोग तुम्हारे मायके के पड़ोसी हैं. दुनिया वाले समझ जाएंगे कि अनु आती-जाती थी, चक्कर चला कर शादी हुई है.” मम्मी उनको समझाती जा रही थीं, पर पापा कुछ सुनने को तैयार नहीं थे. दरअसल, असली वजह यह नहीं थी, मम्मी ने बाद में बताया कि उनकी शादी के समय आनंद के घरवालों के साथ पापा की कुछ कहासुनी हो गई थी. वही बैर पापा मन में पाले बैठे थे. मैं कितना रोई गिड़गिड़ाई, लेकिन पापा पर कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ा. मामी ने अगले दिन फोन करके बताया कि जब यह बात आनंद के घर में खुली, तो वहां भी इस रिश्ते का प्रबल विरोध किया गया था. मुझे याद है मैंने आख़िरी बार आनंद को फोन किया था, मैंने एक ही विनती की थी, बचपन का खेल समझकर भूल जाना… लेकिन किसी के लिए भी खेल नहीं था, भूला कोई भी नहीं!

हालांकि घर-परिवार की इज़्ज़़त के लिए एक बेटी और क़ुर्बान हुई. पापा ने जहां शादी करने को कहा, मैंने कोई विरोध नहीं किया, लेकिन पहले प्यार का बीज जिस मन की ज़मीन पर पड़ता है, वहां वो किसी और पौधे को पनपने भी नहीं देता. ठीक यही तो मेरे साथ भी होता रहा. एक पत्नी और एक मां बनकर मैं पूरी तरह समर्पित रही, लेकिन वो अनु जिसने प्यार का फल चखा था, वो तो अतृप्त ही रही.

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बेटा अक्सर पूछता है, “मम्मी, आप आम क्यों नहीं खातीं?” मैं एक आम उठाकर, उसकी ख़ुशबू अपने भीतर खींच लेती हूं, “बेटा! मुझे इसका स्वाद अच्छा नहीं लगता…”

लकी राजीव

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Usha Gupta

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