ऑफ़िस से लौटने के बाद सो़फे पर बैठकर मैं लैपटॉप पर ऑफ़िस का काम कर रही थी. काम करते-करते अचानक लैपटॉप के माय डॉक्यूमेंट में समीर नाम की एक फ़ाइल खुल गई. फ़ाइल के खुलने के साथ ही मेरी पुरानी यादों का पिटारा भी खुल गया. एक के बाद एक पत्रों का सिलसिला चलने लगा. पहला पत्र 4 फरवरी 2000 का था, जिसमें लिखा था- समीर, मैं एक राजपत्रित अधिकारी हूं. काम के सिलसिले में मेरा कई लोगों से संपर्क होता रहता है, परंतु जब से तुम्हें देखा है, मन विचलित-सा रहता है. बस, हर पल एक ही इच्छा रहती है कि तुम्हारा सामीप्य बना रहे.
समीर के लिए मैंने यह पत्र लिख तो दिया था, परंतु उसे मेल करने की हिम्मत मुझमें नहीं थी, इसलिए यह ज्यों का त्यों पड़ा रहा. लेकिन यह क्या, अगले ही पल नेट खोलने पर इनबॉक्स में समीर का मेल था. लिखा था- मैं समझ सकता हूं कि तुम मेरे बारे में क्या सोच रही होगी? जो तुम्हारी हालत है, वही मेरी भी है.
इसे संस्कारों की बेड़ी कहें या शर्म-संकोच कि मैं उस मेल को देखकर भी कुछ नहीं कर पाई. बस, समीर नाम की फ़ाइल में डमी लेटर लिखकर सेव कर देती. दिल बहलाने का सिलसिला चलता रहा. जहां मैं समीर को पत्र लिख-लिखकर फ़ाइल में इकट्ठे किए जा रही थी, वहीं समीर मेरे द्वारा जवाब न दिए जाने पर भी मुझे ह़फ़्ते में एक मेल ज़रूर भेज देता था.
समीर परियोजन अधिकारी था और अक्सर मीटिंग में उससे आमना-सामना हो जाता था. जब भी उसे देखती, दिल की धड़कनें बढ़ जातीं. मुझे देख समीर भी शरारत से मुस्कुरा देता.
मालूम हुआ कि समीर डिप्टी कलेक्टर बन गया है और उसकी पोस्टिंग रीवा हो गयी है. समीर के मेल आते रहे और फिर धीरे-धीरे बंद हो गए. न चाहते हुए भी मैं हर घंटे इनबॉक्स ज़रूर खोलती, लेकिन निराशा ही हाथ लगती. मैं सोचने लगी कि आख़िर समीर कब तक मेरे मेल का इंतज़ार करता? हो सकता है उसने अपना जीवनसाथी चुन लिया हो और उसके साथ सुखी जीवन बिता रहा हो.
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तभी दरवाज़े पर नौकरानी सुमित्रा की आवाज़ से मेरी तंद्रा भंग हो गई. किसी आदमी ने पूछा, मैडम हैं?
हां हैं. क्या कहना है?
उनसे कहो, समीर आया है.
आप बैठें, मैं अभी ख़बर करती हूं.
समीर की आवाज़ सुनकर मेरा दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा.
मैं उठकर बाहर आ गई और नमस्ते कहते हुए दोनों हाथ जोड़ दिए. सुमित्रा पानी लेने अंदर चली गई. समीर ने कहा,कैसी हो?
ठीक हूं. और तुम…?
ठीक हूं…
तुम्हारे पति और बच्चे?
नहीं, मैंने शादी नहीं की. लेकिन तुम क्या अकेले…?
हां, मैं भी अकेला ही हूं…
सुनकर मुझे अच्छा लगा. एक बार मन हुआ कि उसके सीने से लग जाऊं और अपने मन की सारी बातें कह दूं. फिर कुछ संभलकर पूछा, तुमने शादी क्यों नहीं की?
जवाब देने के बजाय उसने पलटकर सवाल किया,और तुमने क्यों नहीं की?
मैंने कहा, तीन साल पहले मम्मी-पापा इस दुनिया से चले गए थे. तुम्हारी भी कुछ ख़बर नहीं मिली. अब तो अकेले रहने की आदत-सी पड़ गई है.
हम दोनों एक-दूसरे को निहारते रहे. समीर की नज़रें कुछ पूछ रही थीं. अजीब दास्तां है हम दोनों की, एक-दूसरे को चाहते रहे फिर भी कह न सके. समीर ने धीरे से मेरा हाथ थामा और कहा,क्या तुम मुझसे शादी करोगी? शरमाते हुए मैं समीर के गले लग गई. देर से ही सही मुझे मेरा पहला प्यार हासिल हो ही गया.
– एक पाठिका
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