लड़कपन की सुखद यादों के क्षण, अनायास ही सामने आकर बैठ जाते हैं और मैं उस मधुर एहसास में डूब जाती हूं, जिसका पहला एहसास आज भी मेरे होंठों पर मुस्कुराहट ले आता है.
बात उन दिनों की है, जब में स्कूल में पढ़ती थी. पापा का ट्रांसफर होकर हम नए शहर में आए थे. सरकारी आवास खाली नहीं था. एक चौबे जी का मकान किराये पर लिया. काफ़ी बड़ा मकान था, तीन किरायेदार थे. ऊपर हम, नीचे कोई फर्नीचरवाले और एक वकील साहब.
बरसात शुरू हो चुकी थी. दूर तक फैले धान के हरे-हरे खेत… भरा हुआ पानी, आकाश में घिरी हुई घटाएं… मन को बांध लेती थीं. ऐसे ही सुहावने मौसम में बांसुरी का मधुर स्वर कानों में पड़ा… गीत की धुन, ‘इन हवाओं में, इन फ़िज़ाओं में…’ सुनकर मैं बरबस उस ओर खिंची चली गई. कमरे के दरवाज़े में झांककर देखा, पड़ोस से ही आवाज़ आ रही थी. एक कोठरीनुमा कमरा, कमरे में लगा बड़ा-सा शीशा, बांसुरी बजानेवाला पलंग पर लेटा था और शीशे में दिखाई दे रहा था. होंठों से बांसुरी लगी थी.
नए शहर, नए स्कूल की व्यस्तता के बीच फिर वही गीत बांसुरी से निकल रहा था. रविवार का दिन था, ़फुर्सत में थी. बरबस पांव उस दिशा में खिंचे चले गए. अपने कमरे के पिछले द्वार पर जा खड़ी हुई. शीशे में वही व्यक्ति दिखा. सलोने व्यक्तित्व का वो व्यक्ति वकील साहब का बड़ा बेटा था, जो रिसर्च स्कॉलर था. सारी जानकारी चौबेजी की लड़की से मिल गई थी.
दूरियां तो बनी रहीं, पर बांसुरी की आवाज़ सुनते ही मैं यंत्रवत उस द्वार पर जा खड़ी होती. धीरे-धीरे इशारों से कुछ बातें होतीं, पर स्पष्ट नहीं थी, पर प्यार की भाषा स्वत: समझ आ जाती है.
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हर शनिवार उनके आने की प्रतीक्षा, सोमवार को चले जाना, शनिवार की रात से सोमवार की सुबह तक दूर होकर भी वो मुझे अपने बहुत पास लगते. समय पंख लगाकर उड़ रहा था, मेरी परीक्षाएं हो चुकी थीं. वो भी अपने रिसर्च वर्क में लगे थे. एक शनिवार छोड़कर आते- मेरा रूठना, उनका मनाना, कानों पर हाथ रखकर आगे से ऐसा नहीं होगा… ज़ोर-ज़ोर से अपने ही घर में सॉरी, सॉरी कहना, जो मैं सुन सकूं…
जून का प्रथम सप्ताह था, वो नहीं आए. हमारे ट्रांसफर के ऑर्डर आ गए थे. हमें माह के अंत तक जाना था. जाने से सप्ताह भर पहले वो आए. मैं नहीं बोली. बांसुरी पूरे दिन बजती रही, हार कर मैं गई. मेरी आंखों में आंसू थे. इशारों से बताया- हम लोग जा रहे हैं. उनके चेहरे का रंग फीका पड़ गया. माथे से हाथ लगाकर कोठरी में जाकर लेट गए. सोमवार की सुबह वो चले गए.
हमारी ट्रेन उसी रूट से जा रही थी, जहां वो रिसर्च कर रहे थे. स्टेशन पर वो लोग उतर गए, जो हमें सी ऑफ करने आए थे. मैं डिब्बे में थी, एक रेलवे कर्मचारी कोल्ड ड्रिंक लेकर आया, सभी ने ले ली, मेरे पास कोल्ड ड्रिंक खिड़की की तरफ़ से आई और देनेवाले को देखकर मेरी आंखें डबडबा गईं. कोल्ड ड्रिंक के साथ एक काग़ज़ मेरे हाथ में थमा दिया.
एकांत पाकर मैंने पढ़ा…
‘तुमने मुझे एक प्यारा-सा एहसास दिया है. इतनी दिन दूर रहकर भी तुम्हें अपने पास महसूस करता रहा. आज मन बहुत बेचैन है. तुम अभी नासमझ हो, हमारे बीच बहुत-सी दूरियां हैं. जाति की, उम्र की, परिवार की. मैं जो दर्द महसूस कर रहा हूं, तुम्हें भी होगा. तुम्हारा प्यार, मेरा वो प्यार है, जिसे ताउम्र न भुला सकूंगा. तुम्हारा भी यह पहला प्यार है न…’
मेरी आंखों से आंसुओं की बरसात हो रही थी. आज भी वो पहले प्यार का दर्द होता है… तुमसे दूर जाने के बहाने बन गए, अपने होकर भी तुम बेगाने बन गए… पास आने से पहले ही ठिकाने बदल गए, पर दर्द बनकर तुम दिल में बस गए…
– हर्षिता सिंह
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