कुछ रिश्ते इतने ख़ूबसूरत होते हैं कि ज़िंदगी महक उठती है. मेरा और मुजीब का रिश्ता भी कुछ ऐसा ही था. उस समय मैं बी.ए. द्वितीय वर्ष में थी. मुजीब मुझसे दो वर्ष सीनियर थे और हिंदी साहित्य के स्टूडेंट थे. उन्हीं दिनों कॉलेज में एक स्वरचित कविता पाठ प्रतियोगिता शुरू होनेवाली थी. इसी सिलसिले में मैं मुजीब से मिली. शांत किंतु आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक थे मुजीब. उन्होंने बड़ी तन्मयता के साथ मेरी कविता पढ़ी और उसमें कुछ सुधार भी किया.
पहली ही मुलाक़ात में इतनी कशिश थी कि घर लौटने तक मैं उनकी गिऱफ़्त में ही रही. मुजीब की बदौलत मैंने प्रथम स्थान प्राप्त किया. अगली बार जब उनका शुक्रिया अदा करने गई तो मुलाक़ातों के सिलसिले शुरू हो गए, जो धीरे-धीरे नज़दीकियों में बदल गए.
इससे हमारे रिश्ते को एक नई दिशा मिली. हमारे इश्क़ को तो जैसे पंख ही लग गए थे और हम दुनिया-जहान से बेख़बर सुदूर आसमान में उड़ रहे थे. सब कुछ बेहद हसीं लग रहा था और हम मुहब्बत के एहसास में डूबते चले गए. कब हम दोनों एक-दूसरे के इतने क़रीब आ गए, पता ही नहीं चला.
वह मुजीब के कॉलेज का आख़िरी साल था, जब हमारे कॉलेज के एक हिंदू लड़के और मुस्लिम लड़की का प्रेम प्रसंग उजागर हो गया. इस बात पर कुछ गुटों ने कॉलेज विभाग पर पथराव कर अपना रोष प्रकट किया. हर तरफ़ इश्क़ करने वालों पर थू-थू हो रही थी. मजबूरन विभाग ने दोनों को ही कॉलेज छोड़ने का आदेश दे दिया.
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इस वाकये ने मेरे दिल में दहशत भर दी थी. हमारा मज़हब अलग था और यही हमारे इश्क़ की पहली रुकावट थी. अब मुजीब से मिलते समय मैं नज़रें चुराने लगी थी. धीरे-धीरे मुजीब भी मेरे हालात और मजबूरी को समझने लगे थे. उन्हीं दिनों इम्तिहान भी शुरू हो गए थे और हम दोनों ही अपनी-अपनी पढ़ाई में रम गए.
मेरे आख़िरी इम्तिहान के दिन वे मुझे गेट के पास खड़े मिले. बड़ी हिम्मत के साथ मैं उनकी तरफ़ बढ़ी, मगर कुछ बोल नहीं पाई. मुजीब भी अपना दर्द छिपाकर मुझसे बोले, “कुछ कहना चाहता हूं तुमसे. लेकिन अगर कुछ कहूंगा तो तुम आज सुनोगी, कल भूल जाओगी, इसलिए यह ख़त दे रहा हूं, पढ़ लेना.” यह कहकर उन्होंने एक लिफ़ाफ़ा मेरी तरफ़ बढ़ा दिया, और मुस्कुराते हुए चले गए.
मैं उन्हें जाते हुए देखती रही, फिर कांपते हाथों से लिफ़ा़फे से ख़त निकाला. उसमें लिखा था, ङ्गइश्क़ वह है, जो किसी की ज़िंदगी को रोशनी दे, न कि उसे अंधेरों की तरफ़ ढकेल दे. मुझे नाज़ है… इस इश्क़ पर… तुम पर… कि तुमने हमें, हम दोनों के इश्क़ को ज़माने भर में बदनाम होने से बचा लिया. बेहतर होगा कि अब मुझे भूलकर अपनी नई सुबह के शबाब का पूरी गर्मजोशी से इस्तकबाल करो. मेरी दुआ तुम्हारे साथ है. अलविदा.
यह पढ़कर मैं सकते में आ गई. कितना कुछ कहना था उनसे, मगर सब अनकहा ही रह गया. आज जब मैं अपने घर-परिवार में बेहद ख़ुश हूं तो लगता है शायद यही सही था हम दोनों के लिए और अब मुझे भी नाज़ है इस इश्क़ पर… जो आज भी मुझे अंधेरों में रोशनी दिखाता है.
वो जो गया है आज हमसे बिछड़ के
मेरे वजूद में रहता है रोशनी की तरह…
– आरती चौरसिया
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