आज से साढ़े चार दशक पहले किसी के प्यार में रूमानी होकर रेशमी रिश्तों में बंध जाना आसान नहीं था. वह भी वहां, जहां मुहब्बत वाली फिल्में ही नहीं, बल्कि रेडियो सुनने पर भी पाबंदी हो. यह बात और थी कि बाबूजी की नज़रों से छुपकर हम दो बार उस ज़माने की मशहूर फिल्म मुग़ल-ए-आज़म देख आए थे और वैसे ही प्यार में डूब जाने के लिए मन बेताब हो उठा था. किन ख़ूबसूरत लम्हों में कब, कहां, कैसे और क्यों कोई चुपके से आकर दिल में कैद हो जाता है, आज तक शायद ही कोई जान सका है. किसी की नज़रों ने मुझे छुआ था कि मेरे ख़्वाबों में चांद-सितारों भरे आसमान ही उतर गए. उनकी अनछुई छुअन ने मेरे जीवन को इंद्रधनुषी आभास दिया, तो मैं इतरा उठी.
भौतिक शास्त्र एमएससी का प्रथम साल था मेरा. पिछले साल के टॉपर, जिनकी नियुक्ति उसी कॉलेज में हुई थी, हमें प्रैक्टिकल करवाने आते थे. उनकी ज़हीनता, सिखाने की कुशलता और दक्षता पर मैं मुग्ध हो उठी. मैं सरस्वती की पुजारन उनकी दीवानी हो गई. वे मेरे पास ही बने रहें, इसलिए मैं जान-बूझकर ग़लतियां करती थी. वे अपनी तिरछी नज़रों से मुझे बेधते हुए मुस्कुराकर मेरी ग़लतियां ठीक करते.
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यह भी इत्तेफ़ाक़ रहा कि वे मेरे पिताजी के जिगरी दोस्त के बेटे निकले और उनके आग्रह पर सप्ताह में दो दिन वो आकर मेरी कठिनाइयों को देख जाते थे. उनकी ऋषि-मुनि जैसी एकाग्रता ने मेरा सुकून छीन लिया था. मुझ पर गिरती उनकी निगाहें प्यारभरी हो जाएं, यही तमन्ना मैं दिन-रात करती थी, लेकिन असफल ही रही. पढ़ने से ज़्यादा उनके साथ ज़्यादा समय बिताने की उत्सुकता रहती थी. ऐसे ही बेक़रारी से मैंने एक दिन अपनी हथेलियों पर मेहंदी रचाई. उस दिन उन्होंने हंसकर मेरी दोनों कलाइयों को थामा और देर तक निहारते रहे. इधर मेरे दिल की बढ़ती बेताब धड़कनों ने मुझे बेसुध ही कर दिया था.
फिर क्या था, मेहंदी के रंग में हमारे प्यार के ख़ूबसूरत फूल खिल उठे. हमारा प्यार ऐसे परवान चढ़ा कि हमें होश ही न रहा. हमने प्रेम-पत्र भी ख़ूब लिखे. हां, यह और बात थी कि हमारे अनोखे प्रेम-पत्र में प्यार-मुहब्बत की बातें न होकर फिज़िक्स के कठिन न्यूमेरिकल्स के प्रश्न-उत्तर हुआ करते थे. इश्क़ छुपाए नहीं छुपता, लेकिन हमारे इश्क़ से सभी अनजान ही रहे.
मैं इनके घरवालों को ज़रूरत से ज़्यादा ही पसंद थी, इसलिए जब तक हमारे प्यार की ख़ुशबू से दुनिया रू-ब-रू होती, यूनिवर्सिटी एग्ज़ाम होते ही सारे जहान की ख़ुशियां अपने दामन में समेट मैं इनकी परिणीता बन गई. हमारा परिवेश, हमारी जाति एक थी, हम दोनों ही एक-दूसरे के परिवार को पसंद थे, कहीं कोई फसाद नहीं हुआ.
आज उम्र की इस दहलीज़ पर जब भी हम झगड़ते हैं, तो जीवनसाथी बनने का एहसान एक-दूसरे पर अवश्य ही जताते हैं… “मुझ पर कितनी लड़कियां फ़िदा थीं, मैं बेव़कूफ़ कहां फंस गया.” तो मैं भी यह कहे बिना नहीं रहती कि न जाने कितनी आंखें बिछी हुई थीं मेरे लिए, कहां बंध गई मैं…
– रेणु श्रीवास्तव
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