ओस से भीगा वह कमरा, लगा हवा ने मुट्ठी में मनहूसियत को दबोच लिया है. मौसम की वह नमी अचानक कमरे में बौछारों को ले टपकी. यह अचानक शब्द… बहुत से हालात पर हावी रहता है. कोई किसी से अपना दर्द नहीं बांटता. बस, बादल देख कोई अपनी गगरी भी नहीं फोड़ता. मैंने टेबल पर रखा काग़ज़ का वह पुर्ज़ा उठाया, जिसने मेरे जीवन की धारा मोड़ दी थी. बस, हाथ यूं ही काग़ज़ पर रेंगते रहे… मन तो बादलों संग दूर उड़ने को आतुर था.
आज जान पाया हूं कि सागर के इतने क़रीब रहकर भी रेत इतनी प्यासी क्यों है? उस काग़ज़ पर लिखे अक्षर, मेरी वेदनाओं को मथने लगे. शब्द भी अपने अर्थों का शोक मनाते रहे. रिश्तों को बांधने में कई सदियां बीत जाती हैं, पर टूटने में एक पल लगता है. मैं अपने आप ही सवालों के घेरे में घिरा हूं. यही मेरी ख़ता थी कि मानसी के प्यार में मैं दीवाना बना. मानसी- मेरा पहला प्यार और मैं बस उसका दीवाना…
मेरे पिता सरकारी स्कूल में साइंस के टीचर थे और मैं बेचारा एक प्राइवेट कंपनी में इंजीनियर. बस यहीं पर मार खा गया. उसके पिता कपड़ा मिल के मालिक और देव… इन सबका इकलौता वारिस.
जानता हूं यादों से बंधे लोग कभी अतीत का हिस्सा नहीं बन सकते. इस तरह पहले प्यार को मन के किसी तहखाने में दफ़नाना कहां की कारीगरी है? मानसी की चुपचाप मंदिर में विवाह रचाने की ज़िद मुझे जंची नहीं. चाहता था कि बुज़ुर्गों के आशीर्वाद के साथ ही अपना नया जीवन शुरू करें हम दोनों.
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सच कहने की ख़ातिर जाने कितने दर्पण टूटे… मैंने खिड़की के बाहर झांका… बादलों का एक झुंड मेरे क़रीब झुक आया. मैं उनकी बनती-बिगड़ती तस्वीरों में मानसी को तलाशता रहा. भीगे बाल लिए छत पर खिलखिलाकर हंसती मानसी… मेरे गले में बांहें डालकर झूलती मानसी… मदमस्त आंखों से बहुत कुछ कहती मानसी… कभी समंदर किनारे मौजों से अठखेलियां करती मानसी… जाने कितने रूप बनते चले बादलों के.
कभी-कभी मुझे बड़े ही बेतुके सपने आते, जैसे मैं बेतहाशा भाग रहा हूं… सामने अथाह सागर है, जो बेहद ख़ूबसूरत तो है, लेकिन उतना ही डरावना भी… जैसे उसकी गहराई मुझे पुकार रही है… मेरा पैर फिसला और मैं… मानसी का ठहाका मारकर हंसना… बहुत बाद में जाना कि क्यों हर बार मैं ही रेत सा प्यासा, लहरों के थपेड़े झेलता रहा. हर बार लहरें आ-आकर वापस मुड़ जातीं… और मुझे अपना वजूद हिलता नज़र आता. उसकी सहेली मोना का लाया वो ख़त आज भी नागफनी-सी गहरी चुभन देता है. पत्र क्या था- एक सीधा-सादा ऐलान!
प्रिय देव,
मरते पिता की आज्ञा की अवज्ञा करना मेरे लिए नामुमकिन था.
तुम संग बिताए वो हसीन लम्हे मेरी धरोहर हैं. हो सके तो मुझे माफ़ कर देना!
तुम्हारी मानसी.
सुना था सपने कभी साकार नहीं होते. अब माज़ी के खंडहर
चीख-चीख कर कह रहे हैं… मूर्ख देव! तुम्हारा गिरना, मानसी की वो क्रूर हंसी… सब सच में बदल गया… अंदर से एक रुलाई फूट रही है. आज भी मानसी का वो खिला-खिला चेहरा… सोच रहा हूं बादलों की तरह इंसान भी इतने रूप बदलते हैं?
“क्यों आज भीगा-भीगा-सा है दामन दरवाज़ों का…
शायद फूट-फूट कोई रोया है रातभर!”
– मीरा हिंगोरानी
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