कभी-कभी हम अपनी डायरी के पन्नों में घुसपैठ करने लगते हैं. कोई न कोई शब्द या उसकी गुहार या फिर दबी राख सामने उभर आती है. भीतरी रिसते घाव को छेड़ने का हमारा यह क्रम सतत चलता रहता है. ऐसे में डायरी में लिखे शब्द पुरानी यादों को छेड़ते ही नहीं, बल्कि हमें चौंका जाते हैं. ठीक उस दिन की तरह जब उमेश ने मेरी आंखें बंद कर मुझे चौंकाया था. उठी थी मन में बुलबुलों-सी गुदगुदी और मैं उसकी बांहों में झूल गई थी. हमारा साथ बस एक साल पुराना था. कॉलेज में ही परिचय हुआ था हमारा. ऊंचा क़द, गठीला बदन, सांवला रंग, तेज़ कटीले नैन-नक्श… कुछ कहती नशीली आंखें…
हर पल वह मेरे वजूद पर हावी रहता. मैं कब उसे मन-मंदिर में रमा बैठी, नहीं जानती. बस, हर व़क़्त वो मेरे तसव्वुर में आसमानी धुंध-सा छाया रहता. आज वर्षों उपरांत वो नीला रंग मेरे शरीर के रंगों में पिघलने लगा है. डायरी के पन्नों पर उसकी धुंधली तस्वीर मुझे मुंह चिढ़ा रही है. काश… पहले प्यार के इस पन्ने को डायरी से अलग कर पाती.
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लगता है जैसे कल ही की बात हो. उमेश अचानक ही मेरे घर पर आ धमका था. मां को प्रणाम करने के बाद मुझे कोने में ले जाकर जो ख़बर सुनाई, वह किसी धमाके से कम नहीं थी.
“निशा सुनो, कल शाम को घर पर मेरी सगाई की रस्म है. चाहता हूं तुम वहां मेरे साथ रहो…” उसने बात का सिरा वहीं काट दिया था. आगे के शब्द मुंह में ही घुल गए थे शायद. और… और मेरे शरीर में तो जैसे सीसा पिघलने लगा था. “अरे, न कोई भूमिका, न शब्दों का घुमाव-फेर. सीधे सगाई का निमंत्रण. वाह! कैसा विधि का विकट विद्रूप.”
मन किया उमेश को पकड़ ज़ोर से रो पड़ूं. उसके शब्दों से बासी अंधेरा पसरा था मेरे भीतर. जैसे किसी ने तिलस्मी चादर डालकर मेरे पहले प्यार को मेमना बना दिया है. उमेश वापस लौट चुका था. मुझे लगा जैसे पूरी क़ायनात मेमना बन गई है.
आज मैं डायरी के अधखुले पन्नों में उलझी हूं. ऐसा क्यों होता है कि कभी हमारी चाहतें ख़ुद ही तबाही का पैग़ाम बन हमारे नसीब की सांकले खटकाने आ पहुंचती हैं और हम गूंगे-बहरे बन उस आवाज़ को घूरने लगते हैं. तभी कोेई पीछे से धक्का देकर हमें माज़ी की गुफा में धकेल देता है और हम अपने पहले प्यार को पहलू में दबाए भीतर ही भीतर उबलते रहते हैं. तब उस खाई से बाहर आने का कोई विकल्प नहीं रहता हमारे पास!
दिल टूटने से थोड़ी तकलीफ़ तो हुई
मगर तमाम उम्र को आराम हो गया.
– मीरा हींगोरानी
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