सारे रसों के लिए महाबली निंदा रस कोरोना साबित हुआ है. ये एक ऐसा रस है, जिसका ज्ञान जेनेटिक होता है. किसी से पूछने की ज़रूरत नहीं पड़ती. हमारे वर्माजी कद में छोटे हैं, पर घाव करें गंभीर की ख़ासियत रखते हैं. उनके पास निंदा रस का पूरा गोदाम रहता है. पहले आओ-पहले पाओ की सहूलियत भी है. वो बगैर दोस्ती-दुश्मनी के भी बिल्कुल निर्विकार भाव से निंदा करते हैं.
अगर कोई मुझसे पूछे कि रस कितने प्रकार के होते हैं, तो मेरा जवाब होगा, “चाहे जितने तरह का हो, पर निंदा रस के सामने सारे भिन्डी हैं. मीडिल क्लॉस में दाखिले से पहले ही मैं इस रस की महानता से परिचित हो गया था. जब हम लंच में क्लॉस से बाहर जाते, तो गणित और विज्ञान के अध्यापकों की निन्दा करते और फीस टाइम पर ना देने के लिए अध्यापक के सामने अपने मां-पिता की निन्दा करते, “मेरी कोई ग़लती नहीं, फीस मांगने पर अब्बा ने कान ऐंठ दिया था (ये सरासर झूठ था). निंदा रस की लज्जत का क्या कहना. अनार और आम के जूस को मूर्छा आए-जाए, गन्ना बगैर काटे गिर जाए और संतरा सदमे से गश खा जाए.
साहित्यिक रस (वीर रस, श्रृंगार रस, वीभत्स रस, सौन्दर्य रस, करुण रस आदि) मिलकर भी निन्दा रस का मुक़ाबला नहीं कर सकते. निंदा रस ने सदियों से सबका टीआरपी गिरा रखा है. सारे रसों के लिए महाबली निंदा रस कोरोना साबित हुआ है. ये एक ऐसा रस है, जिसका ज्ञान जेनेटिक होता है. किसी से पूछने की ज़रूरत नहीं पड़ती. हमारे वर्माजी कद में छोटे हैं, पर घाव करें गंभीर की ख़ासियत रखते हैं. उनके पास निंदा रस का पूरा गोदाम रहता है. पहले आओ-पहले पाओ की सहूलियत भी है. वो बगैर दोस्ती-दुश्मनी के भी बिल्कुल निर्विकार भाव से निंदा करते हैं.
पिछले हफ़्ते की बात है, मोहल्ले के कवि बुद्धिलाल पतंग के लिए चंदा लेने वर्माजी मेरे घर आए. मैंने पूछा, “उनके कविता की पतंग मोहल्ले से बाहर भी उड़ती है या नहीं?”
बस निंदारस का क्रेटर खुल गया. वर्माजी बगैर नफ़ा-नुक़सान के अमृत उगलने लगे, “सारे मंचों से धक्का देकर खदेड़ा हुआ कवि है. पूरे शहर से इसकी पतंग कट गई है, वो तो मैंने हाथ पकड़ लिया. तुम्हें तो पता है कि मैं कितना दयालु और कृपालु हूं. कोई कुछ भी मांग ले, मैं मना नहीं कर पाता.”
“मुझे अर्जेंट पांच हज़ार रुपए की ज़रूरत है.”
वर्माजी के निंदा रस की पाइप लाइन मेरी तरफ़ घूम गई,” बाज़ार लगी नहीं कि गिरहकट हाज़िर… ” इतना कहकर वो बगैर चन्दा लिए झपाक से निकल लिए.
कुछ लोगों ने तो अपनी जीभ को निंदा रस का गोदाम बना लिया है. दिनभर बगैर ऑर्डर के सप्लाई चलती रहती है. उनके रूटीन में निंदा ही नाश्ता है और निंदा ही उपासना. उपासना पर हैरत में मत पड़िए, वो गाना सुना होगा, कैसे कैसों को दिया है, ऐसे वैसों को दिया है… यहां बन्दा ईश्वर की निन्दा कर रहा है कि तूने अपने बंदों को छप्पर फाड़कर देने में बड़ी जल्दबाज़ी की है.. पात्र-कुपात्र भी नहीं देखा.. मेरे जैसे होनहार और सुयोग्य के होते हुए भी सारी पंजीरी ‘ऐसे वैसों’ को बांट दी ( कम-से-कम पूछ तो लेते).
कुछ लोग निंदा रस को अपनी ज़िंदगी का आईना बनाकर जीते हैं. वो अपनी निंदा में अपने चरित्र की परछाईं देखते हैं, ‘निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय!’ @जब निंदा रस का ज़िक्र होता है, तो महिलाओं को कैसे इग्नोर कर दें. इस विधा में भी महिलाओं ने बाज़ी मार रखी है. अपनी आदत से मजबूर कुछ महिलाओं ने इस कला में डिप्लोमा और डिग्री दोनों ले रखी है, ख़ासकर गांवों में कुछ महिलाओं के योगदान स्वरूप अक्सर दो परिवारों में लाठियां चल जाती हैं. गांव हो या शहर निंदा रस लबालब है. लगभग हर आदमी भुक्तभोगी है. अपने फ्रैंड सर्कल में कंघी मार कर देखिए, कोई-ना-कोई बरामद हो जाएगा, जिसने आपको आकार कभी ज़रूर ये कहा होगा, “फलां आदमी से आपके रिश्ते ख़राब चल रहे हैं क्या. परसो ऐसे ही मुलाक़ात हो गई, तो कह रहा था, किसी से बात ही नहीं करते, बड़े सड़े दिमाग़ के आदमी हैं.”
आप कई दिन बेचैन रहते हैं. बार-बार ख़ुद को सूंघते हैं, क्या पता, कहीं सचमुच तो नहीं सड़ गया!..
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