मुंह पर फेस मास्क है जुबान पर नहीं. कलम चले ना चले जुबान को अच्छी रचना की दरकार है. अपने व्यंग्य में कंक्रीट हो ना हो, व्यंग्य और व्यंग्यकार की परिभाषा यही तय करेंगे. अब मुझसे भी नहीं रहा जा रहा, इसलिए मैं भी थोड़ी अभिव्यक्ति की आज़ादी छींकता हूं. मेरा मानना है कि जितने भी स्थापित व्यंग्यकार हुए हैं, उन्होंने किसी निर्धारित मानदंड का कभी पालन नहीं किया. वो मानदंड पर सिर खपाते, तो इतना बढ़िया कभी ना लिख पाते.
अगर कोई संपादक या प्रकाशक इस ज़िद पर अड़ जाए कि अच्छी रचना भेजिए, तो लेखक क्या करे? और अगर रचनाकर व्यंग्यकार हो तो..? व्यंग्यकार के इतर कोई लेखक होगा, तो वो संपादक के बचपने को सीरियसली ले लेगा, किन्तु व्यंग्यकार तो संपादक की विधिवत कुंडली चेक करेगा कि उन्हें कब से अच्छी रचना की आदत पड़ी है. मुख्यधारा में चल रहे किसी ज़िंदा व्यंग्यकार की भेजी गई रचना पर ऐसी टिप्पणी करना कि अच्छी रचना भेजिए, महफ़िल में पाजामे का नाड़ा खींच लेने जैसा है. लेखक माशाअल्लाह लोकल अख़बार से लेकर नेशनल तक वोकल हो रहा हो, तो करैला नीम चढ़ा समझो. लेखक तब से आगबबूला है, “मुझसे अच्छी रचना मांग रहा है. गोया मैंने आज तक जो लिखा है वो सब धन धूरि समान. तब से व्यंग्यकार अंगारों पर लोट रहा है.
उसने संपादक की मैगज़ीन को ऑपरेशन टेबल पर रखकर पिछले एक साल के सारे अंक को दुबारा पढ़ डाला. विषय, शैली, शब्द चयन, प्रवाह और पंच पर बहुत ईमानदारी से नज़रें इनायत की. (यह बडा़ मुश्किल काम होता है, क्योंकि व्यंग्यकार को अपने अलावा सबके गेहूं में घुन ढूंढ़ने की आदत है) पढ़ कर उसे लगा कि कई लोगों की रचनाएं बगैर रीढ़ के चल रही हैं. अब उसका क्रोध भड़क उठा. वो जानना चाहता था कि संपादक की नज़र में अच्छी रचना का पैमाना क्या है.
मामला व्यंग्य रचना का था, वरना वो छोड़ भी देता. संपादक ने आख़िर साहित्य के दूर्वाषा को छेड़ा था. व्यंग्यकार ने संपादक के व्हाट्सऐप पर जाकर देखा, वहां आज भी वो टिप्पणी हस्बे मामूर नज़र आ रही थी, अच्छी रचना भेजिए.. अचानक उसे लगा कि इबारत गायब हो गई और उस जगह संपादक जुबान निकाल कर उसे चिढ़ा रहा है. बड़ी मुश्किल से उसने फोन को पटकने से अपने आप को रोका.
तीसरे दिन उसने अपने एक व्यंग्यकार मित्र से इस राष्ट्रीय आपदा पर बात की, “साला मुझसे अच्छी रचना मांग रहा है.”
“अरे, ये तो सरासर हिमाकत है. उसे आपसे मज़ाक नहीं करना चाहिए था. कहां से लाओगे?”
“मैंने उसे सबक सिखाना है. संपादक होने से ये मतलब तो नहीं कि उसे हमसे ज़्यादा व्यंग्य की समझ है. अभी उसकी खाल उतारता हूं.”
“कैसे?”
“उसके व्हाट्सऐप पर जाकर लिखता हूं, “आपको कब से अच्छी रचना सूट करने लगी? आदत मत ख़राब कीजिए मान्यवर. हमने तो पत्रिका की मर्यादा का ध्यान रखा है. अच्छी रचना, वो परी कहां से लाऊं.”
“आजकल कुछ देवता व्यंग्य विधा में विंध्याचल डाल कर मथ रहे हैं. वो अलग बात है कि अमृत की जगह मतभेद का हलाहल निकल आता है. दरअसल इस विद्या को पोषित, पल्लवित और प्रसारित करने की अपेक्षा व्यंग्य के कई भूगर्भ शास्त्री इस विद्या की जड़ें हिलाकर देखना चाहते हैं कि उसमें हास्य कितना है और व्यंग्य कितना. एक बार दिख जाए, तो उसी हिसाब से रचना में गोबर और यूरिया डाला जाए.”
“व्यंग्य में नया प्रयोग क्यों नहीं?”
“ये हमारी साहित्यिक परंपरा के विरुद्ध है. महाजनों येन गता: सा पंथा: हमने व्यंग्य विद्या में जिन्हें पितामह मान लिया सो मान लिया. बस हमने सदियों के लिए आंख और विवेक पर गांधारी पट्टी बांध ली है. तुम्हीं हो माता-पिता तुम्हीं हो! नई परिभाषा और नए कीर्तिमान के किसी अंकुर को हम ऑक्सीजन नहीं देंगे. दूर जाकर सन्नाटे में शब्द फेंको.”
लावा उगल कर दोनों क्रेटर अब ख़ामोश हैं.
मुंह पर फेस मास्क है जुबान पर नहीं. कलम चले ना चले जुबान को अच्छी रचना की दरकार है. अपने व्यंग्य में कंक्रीट हो ना हो, व्यंग्य और व्यंग्यकार की परिभाषा यही तय करेंगे. अब मुझसे भी नहीं रहा जा रहा, इसलिए मैं भी थोड़ी अभिव्यक्ति की आज़ादी छींकता हूं. मेरा मानना है कि जितने भी स्थापित व्यंग्यकार हुए हैं, उन्होंने किसी निर्धारित मानदंड का कभी पालन नहीं किया. वो मानदंड पर सिर खपाते, तो इतना बढ़िया कभी ना लिख पाते. व्यंग्यकार पैदाइशी विद्रोही होता है. ख़ुद्दारी और आज़ादी उसके खून में बहती है. (मानदंड का अनुपालन असली व्यंग्यकार की फ़ितरत में नहीं आता) व्यवस्था, ब्यूरोक्रेसी, बदलाव, घटनाक्रम, तंत्र और हालाते हाजरा उसकी कलम को शब्द और दिशा देते हैं, ना कि मापदंड!
हास्य और व्यंग्य अलहदा करके देखने की योग्यता मुझमें नहीं है. व्यंग्य का प्रयोग लगभग हर इंसान करता है, पर विरले ही इस फन को शब्द दे पाते हैं. इस फन को सीखने या सिखाने का कोई स्कूल नहीं है. व्यंग्यकार नास्तिक की हद तक निर्भीक होता है, इसलिए उसे सहमत करने की ज़िद ना करो. व्यंग्यकार अपने अलावा (कभी-कभी ) सिर्फ़ ईश्वर का लिहाज़ करता है. (ऐसे जीव से मापदंड और परंपरा का अनुपालन करने की उम्मीद कौन करेगा) लीक तोड़ने पर आमादा ऐसे महामानव से अच्छी रचना मांगने वाला संपादक मेरी नज़र में तो अक्ल से आत्मनिर्भर नहीं हो सकता.
… कि मैं कोई झूठ बोल्या!
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