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कहानी- पतंग (Short Story- Patang)

Hindi Short Story
‘कितनी स्वार्थी सोच है! पहले लोग भावुक थे, रिश्ते निभाते थे, फिर प्रैक्टिकल हुए, रिश्तों से फ़ायदा उठाने लगे. अब प्रोफेशनल हो गए हैं, फ़ायदा उठाया जा सके, ऐसे रिश्ते बनाते हैं.’

वशिष्ठ अंकल-आंटी को अपने ड्राइवर के संग रवाना करके मैं लौटी, तब तक कीर्ति सहित मेरी एक-दो और सहेलियां निकल चुकी थीं.
“उन्हें कुछ जल्दी थी, इसलिए तुम्हारे बारे में पूछकर निकल गईं.” मुदित ने बताया.
“कोई बात नहीं. कल कॉलेज में बात कर लूंगी. पता है, अंकल-आंटी कितने ख़ुश थे और उन्हें ख़ुश देखकर मुझे लग रहा था कि विकी की बर्थडे पार्टी सफल हो गई.” मेरी प्रसन्नता साफ़ झलक रही थी.
“और तुम्हें ख़ुश देखकर मुझे लग रहा है कि तुम्हारे सुझाव पर सहमति देकर मैंने कोई ग़लती नहीं की.” मुदित भी प्रसन्न लग रहे थे.
विकी बर्थडे के उपहार देखने में तल्लीन हो गया था और हम फटाफट बिखरे उपहार समेटने और होटल का पेमेंट करने में. अब घर लौटने की जल्दी थी. सवेरे जल्दी काम पर भी तो निकलना था.
अगले दिन कॉलेज पहुंचते-पहुंचते थोड़ी देर फिर भी हो गई थी. स्टाफ रूम की ओर बढ़ते मेरे क़दम अंदर चल रहे वार्तालाप में अपना नाम सुनकर बाहर ही ठिठक गए थे.
“वंदना ने कल पार्टी अच्छी दी. काफ़ी महंगा होटल लग रहा था.” कीर्ति का स्वर था.
“अरे, वहां एक प्लेट के अ800 हैं. ऐसे में गेस्ट लिस्ट कम रखनी चाहिए.” तृप्ति का सुझाव था.
“हां, वैसे ज़्यादातर तो हम जान-पहचानवाले परिवार ही थे, जिनके बच्चे विकी के भी दोस्त हैं सिवाय उन बुड्ढे-बुढ़िया के.” सुनैना का स्वर था.
“हां, जाने कौन थे वे? वंदना कुछ ज़्यादा ही ख़ातिरदारी कर रही थी उनकी.” कीर्ति के स्वर में ईर्ष्या के साथ-साथ शिकायत का पुट भी था.
“शायद उसके पति के कोई क्लाइंट्स हों, वरना बिना मतलब आजकल कौन किसी को बुलाता है?” तृप्ति बोली.
मेरा मन खिन्न हो उठा था. ‘कितनी स्वार्थी सोच है! पहले लोग भावुक थे, रिश्ते निभाते थे, फिर प्रैक्टिकल हुए, रिश्तों से फ़ायदा उठाने लगे. अब प्रोफेशनल हो गए हैं, फ़ायदा उठाया जा सके, ऐसे रिश्ते बनाते हैं.’ एक मन तो हुआ उन्हें जाकर ख़ूब खरी-खोटी सुनाऊं, पर एक अर्थपूर्ण चुप्पी अर्थहीन वाद-विवाद से कहीं बेहतर है, सोचकर स्टाफ रूम में जाने की बजाय मैं मुड़कर लाइब्रेरी में चली गई थी. वहां कुछ देर पत्र-पत्रिकाएं उलटती-पलटती रही. लेकिन अशांत मन की सुई बार-बार जाकर वशिष्ठ अंकल-आंटी पर अटक जाती थी.
पिछले माह स्टेशनरी की दुकान से निकलते वक़्त अचानक ही बरसों बाद अंकल-आंटी से मिलना हो गया था. अपना घर बनने से पूर्व हम लगभग पांच साल इन्हीं के यहां किराएदार रहे थे. विकी तो इन्हीं के हाथों पला-बढ़ा था. वशिष्ठ अंकल-आंटी घर चलने का आग्रह करने लगे, जो पास ही था.
“आंटी, विकी के प्रोजेक्ट का सामान ख़रीदने आए थे. वो तो घर पर होमवर्क कर रहा है. मुझे लौटकर खाना भी बनाना है और उसका प्रोजेक्ट भी तैयार करवाना है.” मैंने विनम्रता से इंकार कर दिया था. इस पर दोनों के चेहरे एकदम बुझ-से गए थे.
“प्रोजेक्ट तो बेटा कल भी तैयार करवाया जा सकता है. कल संडे है.” अंकल ने फिर आग्रह किया, तो हम इंकार नहीं कर सके थे.
घर में प्रवेश करते ही आंटी रसोई में जाकर कॉफी बनाने लगी थीं. मैं ना-ना करती पीछे-पीछे रसोई में पहुंच गई.
“आंटी, ये सब रहने दीजिए. इतने सालों बाद मिले हैं. बस, कुछ देर बैठकर बातें कर लेते हैं.”
“वो भी हो जाएंगी. तुझे मेरे हाथ की कॉफी पसंद है, इसलिए बना रही हूं. भाजी तो बनाकर गई थी. साथ में पाव भी सेंक देती हूं.” कहते-कहते उन्होंने तवा भी चढ़ा दिया था. मैं उनकी याद्दाश्त और उससे भी ज़्यादा उनकी आत्मीयता देखकर
अभिभूत थी.
“आंटी, आपने तो हमारा डिनर करवा दिया.” मुदित ने पानी का ग्लास खाली करते हुए कहा, पर उनसे ज़्यादा तृप्ति मुझे अंकल-आंटी के चेहरों पर नज़र आ रही थी. यही नहीं, आंटी ने रवाना होते वक़्त विकी के लिए भी टिफिन बांध दिया.
“कभी उसे लेकर आ न बेटी. जब तुम लोग गए थे एक साल का था वो. बोलना सीख रहा था. उसके मुंह से अपने लिए
नाना-नानी सुनकर हम तो निहाल हो जाते थे. हम तो उसकी बातें ही करते रह जाते हैं. अब तो ख़ूब बड़ा हो गया होगा, ख़ूब बोलता होगा.”
“हां आंटी, अगले महीने आठ साल का हो जाएगा. आपके भरोसे पल गया, वरना तो...” विकी का छुटपन और अंकल-आंटी की ढेर सारी नि:स्वार्थ मदद यादकर मैं भी अब भावुक हो गई थी.
“अरे नहीं, दुनिया में कोई किसी के भरोसे नहीं पलता, पर किसी का सहारा बनना मन को ढेर सारी ख़ुशियां दे जाता है.” आंटी का सहज व सरलता भरा जवाब मन को छू गया.
“तुम लोग आए बहुत अच्छा लगा, वरना रिटायर्ड आदमी से मिलने आने का वक़्त किसके पास है? सुबह से शाम तक अकेले घर में बैठे-बैठे दोनों बोर हो जाते हैं. सात समंदर पार बैठे बच्चों से फोन और स्काइप पर कितना बतियाएं? फिर हम फ्री हैं, वे थोड़े ही फ्री हैं.” अंकल ने कहा. उनका मन हल्का करने के लिए या शायद अपनी सफ़ाई में मैं बोल उठी.
“अंकल, रिटायरमेंट कोई इश्यू नहीं है. आजकल घर मिलने-मिलाने जाने का ट्रेंड ही नहीं रहा है. दिनभर के थके-मांदे कामकाजी पति-पत्नी जब देर रात अपने-अपने घरों में घुसते हैं, तो न तो मन में फिर से बाहर निकलने की हिम्मत बची होती है और न ही किसी मेहमान की आवभगत की इच्छा.”
“बेटी, मैं तेरी बात समझती हूं, पर इस उम्र में इंसान शरीर के साथ-साथ मन से भी क्लांत हो जाता है. ख़ुद को असहाय, असुरक्षित और नाकारा समझने लगता है. अपनी ज़रा-सी अवहेलना भी उसे भीतर तक बेध जाती है. सामनेवालों को पता भी नहीं चल पाता और वह व्यर्थ ही ख़ुद को आहत महसूस करने लगता है.” आंटी ने मानो एक तरह से अंकल का बचाव किया था.
लौटते हुए हम दोनों ही के मन बहुत भारी थे. एक अजीब-सी चुप्पी दोनों के बीच पसर गई थी, जिसे आख़िरकार मैंने ही तोड़ा.
“ग़लती हमारी है. अंकल-आंटी हमारा अपने बच्चों की तरह ख़्याल रखते थे. मैं प्रेग्नेंट थी, तो आंटी मेरे लिए रोज़ कुछ न कुछ बनाकर ले आती थीं और प्यार से पूरा खिलाकर ही मानती थीं. विकी को तो दोनों गोद से नीचे नहीं उतरने देते थे. मैं भी कितने अधिकार से विकी को उनके भरोसे छोड़ कॉलेज चली जाती थी. कहने को तो हमारे परिवार में भी इतने संभालनेवाले हैं, पर सब दूर हैं. वक़्त पर काम तो अंकल-आंटी ही आए. उसी तरह हमें भी उनका ख़्याल रखना चाहिए था. क्या हुआ, जो उनके बच्चे विदेश में हैं. हम तो इसी शहर में हैं.”
“मैं तुम्हारी बात से सहमत हूं. अब से हम उन्हें समय-समय पर संभालते रहेंगे.” मुदित ने सहमति दी, तो मैं खिल उठी थी.
“अगले महीने विकी का बर्थडे है. इस अवसर पर उन्हें भी आमंत्रित कर लेते हैं.”
और इस तरह वशिष्ठ अंकल-आंटी हमारे मेहमान बने थे. अंकल-आंटी का उस दिन कहा एक-एक शब्द मेरे दिमाग़ में घर कर गया था. इसलिए मैंने उनके आने से उनके जाने तक उनका भरसक ख़्याल रखा, ताकि एक पल को भी वे ख़ुद को पार्टी में अवांछित और अवहेलित महसूस न करें. मेरा प्रयास सफल रहा था. विदाई के वक़्त अंकल-आंटी बेहद प्रफुल्लित थे. विकी सहित उन्होंने हम दोनों को भी आशीर्वादों से सराबोर कर डाला था. तब मुझे आभास भी नहीं था कि बुज़ुर्ग दंपति को ज़रा-सी तवज्जो देना मेरी सहेलियों को इतना अखर जाएगा.
“अरे वंदना, तू यहां लाइब्रेरी में बैठी है और हमने पूरा कॉलेज छान मारा. कब आई?” कीर्ति ने पीछे से मेरे कंधे पर हाथ रखा, तो मैं वर्तमान में लौट आई.
“आ तो जल्दी ही गई थी. कुछ जर्नल्स देखने थे, तो इधर आ गई.”
“हम लोग कलवाली पार्टी की बात कर रही थीं. बहुत मज़ा आया. अच्छा गेट-टुगेदर हो गया था. वैसे पार्टी में वो बुज़ुर्ग दंपति कौन थे, जिनकी तुम आवभगत में लगी हुई थी?”
“हमारे पुराने मकान मालिक.”
“ओह! पर तुम्हारा तो अपना मकान बने ही कई साल हो गए. अभी तक उनसे रिश्ता रखे हुए हो?”
“हां तो?” मैं उनका मंतव्य भली-भांति समझ रही थी, इसलिए न चाहते हुए भी मेरे स्वर में थोड़ी कड़वाहट उभर आई थी, जिसे भांपकर उन्होंने तुरंत टॉपिक बदल दिया.
“नहीं, नहीं. तुम ग़लत समझ गई. हम तो कह रही थीं कि ऐसा गेट-टुगेदर होते रहना चाहिए. इसी बहाने बच्चे और सब साथ एंजॉय कर लेते हैं. अरे तृप्ति! अपने प्रिंसिपल सर भी तो अभी विदेश जाकर बेटे की शादी करके आए हैं. क्यूं न सब चलकर उनसे पार्टी मांगें?” कीर्ति बोली.
“देख लो, जैसा सब ठीक समझो. वैसे वह तो वहां बरसों से लिव इन में रह रहा था. वहीं उसने पढ़ाई पूरी की, वहीं नौकरी करने लगा और वहीं लड़की भी पसंद कर ली.” तृप्ति ने बताया.
“दोनों मियां-बीवी ख़ूब कमाते और ऐश करते हैं. भई मानना पड़ेगा, ऊंचा उठना है, तो घर-परिवार, मिट्टी इन सबका मोह छोड़ना होगा. बंधनों में जकड़ा इंसान कभी भी ऊंचाइयों को नहीं छू सकता.” कीर्ति ने कहा.
उनके विचारों से सहमत न होते हुए भी मैंने अपने होंठ सिले रखना ही बेहतर समझा. पैसे की चकाचौंध में जब इनके लिए अपना घर-परिवार और वतन ही कोई मायने नहीं रखता, तो ये पड़ोसी के प्यार के मायने क्या समझेंगी?
प्रिंसिपल से पार्टी मांगने की बात तो वहीं रह गई और बीच में ही मकर संक्रांति की पार्टी की योजना बनने लगी. तय हुआ कि हमारी कॉलोनी के टेरेस पर पतंगबाज़ी और चाय-नाश्ते का आयोजन किया जाएगा. मैंने वशिष्ट अंकल-आंटी को भी आमंत्रित कर लिया था.
अंकल-आंटी नियत दिन ठीक समय पर पहुंच गए थे. आंटी गुड़, तिल और मूंगफली के ख़ूब सारे व्यंजन बनाकर लाई थीं. उनके हाथों में वाकई जादू था. जिसने भी खाया, उनकी पाककला का मुरीद हो गया, लेकिन आज भी अपनी सहेलियों की आंखों में मेरा उन्हें इज़्ज़त और महत्व देना खटक रहा था. उनकी संकुचित सोच ने हर्षोल्लास के वातावरण में भी मेरा मन कुंठित कर दिया.
बच्चे पतंगबाज़ी में व्यस्त हो गए थे. सारे पुरुष ख़ुशी-ख़ुशी इसमें सहयोग कर रहे थे. पतंगों में मांझा बांधकर वे एक बार पतंग आसमां में चढ़ा देते और फिर उत्साह में लबरेज़ बच्चों को डोर थमाकर आपस में बतियाने लगते. हम महिलाओं ने तब तक चाय-पकौड़ी की प्लेटें और कप सजा दिए थे. सारे पुरुष आकर नाश्ता करने लगे, तो हम महिलाएं भी बच्चों के साथ पतंगबाज़ी का लुत्फ़ उठाने लगीं.
विकी ख़ूब जोश में पतंग उड़ा रहा था. पतंगबाज़ी का यह उसका पहला अवसर था. मैंने उसकी चरखी थाम ली. पतंग जैसे-जैसे खुले आसमां में ऊपर उठती, वह ज़ोर से चिल्लाने लगता, “ढीला ममा, और ढीला... और ऊंचा जाने दो, और ऊंचा.” उसकी पतंग सबसे ऊपर पहुंच चुकी थी. चरखी समाप्त होने को थी, पर वह मान ही नहीं रहा था.
“ममा, पूरा छोड़ दो और ऊंचा जाना है... और ऊंचा.”
मैं उसे रोकनेवाली थी कि मैंने ग़ौर किया कि सारे बच्चों और उनकी मांओं की नज़रें हम पर ही टिकी हैं. यकायक मेरे दिमाग़ में कुछ कौंधा. मैंने एक झटके में चरखी छोड़ दी. पतंग एकबारगी ऊपर, ख़ूब ऊपर गई, पर फिर बल खाती, लहराती नीचे आने लगी. और अगले कुछ ही पलों में वह सड़क पर थी. विकी हैरान-परेशान कभी पतंग को देख रहा था, तो कभी मुझे. उसे समझ ही नहीं आ रहा था, यह सब कैसे हो गया.
कीर्ति तेज़-तेज़ कदमों से मेरे पास आई, “यह तूने क्या किया? विकी तो नादान है, तू तो समझदार है. तूने डोर क्यों छोड़ी?”
“मैं उसे दिखाना और समझाना चाहती थी कि डोर से बंधे रहकर ही ऊंची उड़ान भर पाना संभव है.”
सारे घटनाक्रम और उसके नेपथ्य से वाक़िफ़ मुदित आकर नई पतंग में मांझा बांधने लगे थे, तो वशिष्ठ अंकल और आंटी सहज, सरल मन से चॉकलेट देकर विकी को मनाने लगे थे

 

 

 
संगीता माथुर

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