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कहानी- शेष जीवन… (Short Story- Shesh Jeevan)

अपने चेहरे की घबराहट को किससे छुपाना चाहती है संध्या. यहां तो उसके सिवाय और कोई भी नहीं. उसकी बेटी श्रेया भी तो सात समंदर पार से उसके चेहरे पर आ-जा रहे भावों को नहीं देख सकती.

फोन पर लम्बी घंटी का स्वर सुनकर संध्या हड़बड़ा गई. ज़रूर श्रेया का फोन होगा. उसकी एकमात्र संतान श्रेया. संध्या जानती थी, फोन उठाते ही श्रेया उससे क्या कहनेवाली है और अगर श्रेया चाहती है कि संध्या अब उसके और यश के पास आकर रहे, तो इसमें ग़लत क्या है? ठीक ही तो कहती है श्रेया, अगर श्रेया की जगह संध्या ख़ुद होती, तो क्या वह अपनी मां को अकेला छोड़ देती. वह भी तो यही चाहती न कि उसकी मां उसके पास आकर रहे. मां होने का धर्म बख़ूबी निभाया था संध्या ने. और अब जब बेटी होने का कर्त्तव्य श्रेया निभाना चाहती है तो संध्या.. अनजाने ही उसके हाथ रिसीवर तक पहुंच गए, “ह….हैल्लो…”
“हैलो, हां… मांजी! मैं, यश… हम लोग कल ही इंडिया के लिए रवाना हो रहे हैं और इस बार हम लोग आपको लिए बिना वापस अमेरिका आनेवाले भी नहीं.”
“क्या?…” आगे कुछ न कह सकी संध्या.
“मां… क्या हुआ? ख़ामोश क्यों हो गईं आप? अ… आप ठीक तो हैं न?” इस बार फोन के दूसरी तरफ़ श्रेया थी.
“हां, बेटा… ठीक हूं.” अपने चेहरे की घबराहट को किससे छुपाना चाहती है संध्या. यहां तो उसके सिवाय और कोई भी नहीं. उसकी बेटी श्रेया भी तो सात समंदर पार से उसके चेहरे पर आ-जा रहे भावों को नहीं देख सकती.
शारदा बाई झाडू लगाना छोड़कर उनकी बातें सुनने लग गई थी. श्रेया के प्रति विशेष लगाव जो था उसके मन में. बचपन से अपनी गोद में जो खिलाया था उसने श्रेया को.
“दीदीजी, क्या श्रेया बिटिया आ रही है?” सामने शारदा को खड़ा पाकर चौंक गई संध्या.
“हां शारदा, आज श्रेया और यश के कमरे की सफ़ाई भी कर देना. खिड़कियां खोल देना, गद्दे वगैरह को धूप दिखा देना. कल शाम तक आ जाएंगे दोनों.”
सच तो यह था कि संध्या अपनी बेटी-दामाद के साथ अमेरिका नहीं जाना चाहती थी. मगर क्यों? यह तो शायद उसे भी नहीं पता, मगर उनसे कहे भी तो क्या?… और कैसे ? मना तो वह पहले भी कई बार कर चुकी है, लेकिन कोई उसके इन्कार को महत्व दे तब ना… कल तक श्रेया और यश दोनों पहुंच जाएंगे यहां… फिर कौन सुनेगा उसकी? श्रेया से फोन पर बात होने के बाद से घर के किसी कोने में भी दिल नहीं लग रहा था संध्या का.
उसका भविष्य हमेशा से थोपा गया उसके ऊपर. क्या चाहती हैं वह? क्यों चाहती है? कभी पूछा था किसी ने उससे. बी.ए. फ़ाइनल करते-करते घर में उसके ब्याह की चर्चा होने लगी. संध्या तो आगे पढ़ना चाहती थी, पर बाबूजी को कौन समझाता. और वह क्या किसी की सुनते भी? वह सुधीर को पसंद करती है, भला यह सबको कैसे बताती…? उसने तो मानो होंठों पर चुप्पी का ताला लगा लिया था. पहले शादी तय हुई, फिर सगाई की रस्म हुई. सुधीर उसकी सहेली सुधा का भाई था और बचपन से ही दोनों एक-दूसरे को चाहते थे. पर यह कैसी चाहत थी? जब उनके इम्तहान का व़क़्त आया तो संध्या ने ही हथियार डाल दिए. सुधीर, वह बेचारा? क्या करता…? उसको भी तो अपनी बदनामी का वास्ता देकर मजबूर कर दिया था संध्या ने. संध्या इतनी कायर निकलेगी, सुधा ने तो कभी सोचा भी नहीं था. भनक पड़ते ही भड़क उठी, “तुम्हारी कायरता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है? अगर तुझमें सच कहने का साहस नहीं था तो ढोंग क्यों करती रही प्रेम का? क्यों छलती रही उसे? क्या बिगाड़ा था तुम्हारा सुधीर ने? अगर ब्याह किसी और से करना था, तो सुधीर बेचारे की ज़िन्दगी क्यों बरबाद की?”
संध्या के पास उसकी बातों का कोई जवाब नहीं था. कहां कह पाई वह कि यह फ़ैसला उसने परिवार की भलाई के लिए लिया है. कौन तैयार होता इस अंतर्जातीय विवाह के लिए? और फिर सबसे लड़ने की ताक़त कहां से जुटा पाती वह?
खानदान की मान-मर्यादा के लिए उसने अपने प्रेम की आहुति दे दी थी, पर कोई कहां समझ सका था उसके बलिदान की भाषा को, उसके त्याग की भावना को? हां, एक मां थी उसकी, जिनकी नज़रों से नहीं छुपा सकी थी वह अपने ग़म को, “संध्या, तू क्या समझती है- जिस ग़म को तूने अपने सीने में दफना लिया है, वह मुझसे छुपा है? मगर… मैं यह भी नहीं कह सकती कि तेरे हर सही-ग़लत फ़ैसले में मैं तेरे साथ हूं. तूने जो भी फ़ैसला लिया, शायद वह सही था, क्योंकि जो तुम दोनों चाहते थे- वह संभव ही नहीं था…. मैं मां हूं न तेरी, तेरा ग़म दूर नहीं कर सकती तो क्या, तेरा दर्द बांट तो सकती हूं.. इतना अधिकार तो देगी न अपनी मां को?”
उस रात बहुत देर तक मां-बेटी दोनों एक-दूसरे से लिपटकर रोती रही थीं. सब कुछ पहले से ही पता था मां को, फिर भी ख़ामोश रहीं वे. क्यों? क्या सचमुच वह भी मजबूर थीं, उसी की तरह.
संध्या की शादी हो गई. वह अपनी ससुराल चली आई. अब पति के घर को अपना मानना था उसे, सास-ससुर ही उसके माता-पिता के समान थे. जिस पति को वह परमेश्‍वर के समान पूजना चाहती थी वह… वही… उस पर शक़ कर रहा था, “कौन है सुधीर ?… कब से जानती हो उसे? अब यह मत कहना कि तुम्हारा उससे कोई संबंध ही नहीं, वह तो बस तुम्हारी प्रिय सखी, सुधा का भाई है बस…” उसके स्वर में क्रोध कम झुंझलाहट ज़्यादा थी.
अवाक् देखती रह गई संध्या… जिस अतीत को संध्या पीछे छोड़ आई थी, वह न जाने कैसे यहां तक आ पहुंचा. उसके पति योगेश ने न जाने कितने इल्ज़ाम पल भर में ही लगा डाले उसके ऊपर. उसके निश्छल और निस्वार्थ प्रेम को अनैतिक संबंधों का नाम दे डाला.
“मैं अच्छी तरह वाकिफ़ हूं ऐसे रिश्तों से, कोई सफ़ाई नहीं सुनना चाहता तुमसे. और एक बात ध्यान से सुन लो. बड़ी क़िस्मतवाली हो तुम जो इस घर में बहू बन कर आई. बस बहू ही बनी रहना, मेरी पत्नी बनने की कोशिश न करना और न ही मुझसे कोई उम्मीद करना. एक बात बता दूं… यह शादी मेरी मर्ज़ी से नहीं हुई.”
पहली बार जब वह घर आई तो उसकी यही कोशिश थी कि मां को उसके और योगेश के संबंधों के विषय में कुछ भी पता न चले. एक सुधा ही थी, जिसे वह अपने दिल की व्यथा सुना सकती थी. पर सुधा… वह तो सुधीर के इस हाल के लिए उसे ही ज़िम्मेदार मानती थी.
शायद ठीक ही कह रही थी सुधा. उसी का फल तो आज भोग रही थी संध्या. यूं तो वह भी ख़ुद को सुधीर का गुनहगार मानती थी. सुधीर भी उसे कुछ कहने-सुनने का अवसर न देता. वह तो सामना हो जाने पर भी उससे कतराता, शायद किसी और की अमानत समझ कर… नज़रें उठाकर देखता तक नहीं संध्या की ओर, मानो देखने भर से अपवित्र हो जाएगी वह.
कुछ दिन रह कर संध्या अपनी ससुराल वापस चली आई थी. उसने निश्‍चय कर लिया था अब वह वापस लौटकर यहां कभी नहीं आएगी. यहां कौन है अपना? किसके लिए आएगी वह? सबने तो उसे पराया कर दिया है. सुधा ने भी, सुधीर ने भी. सब कुछ भूल कर रम जाना चाहती थी वह अपनी ससुराल में, पर संध्या को यहां का सुख-वैभव संतुष्ट नहीं कर सका. सब कुछ सामान्य हो जाएगा, इसकी उम्मीद भी ना के बराबर थी. फिर भी सब कुछ उसने भाग्य समझ कर समेट लिया था. धीरे-धीरे योगेश के विषय में और भी बातें मालूम चलीं, जो संध्या के लिए असहनीय थीं, जैसे-पराई औरतों से उसके संबंध, उसका शराब पीना, दोस्तों की महफ़िलों में घर को भुला देना. दो-दो, तीन-तीन रातें वह घर से लापता रहता. योगेश के जीवन में उसका क्या महत्व था, अब तक वह अच्छी तरह जान चुकी थी. अगर उससे नहीं सही जाती थी तो वह थी – अपनी उपेक्षा, अपना अपमान. उसने संध्या को उन सभी अधिकारों से वंचित रखा, जिस पर एकमात्र पत्नी का ही अधिकार होता है. हां, संध्या का पति होने के सभी सुखों को साधिकार भोगता रहा, जिसके परिणामस्वरुप शादी के एक वर्ष के भीतर ही श्रेया का जन्म हो गया.
शेष-जीवन यूं ही गुज़रता रहा… योगेश से भी उसे कोई शिकायत नहीं थी, अनजाने में हुए पापों का प्रायश्‍चित मान कर ही तो जीए जा रही थी वह… तभी एक दिन भाग्य ने उसके साथ एक क्रूर मज़ाक किया. उसके हिस्से की बची-खुची ख़ुशियां भी मौत के दामन में डाल दीं.. एक दिन योगेश, एक कार एक्सीडेंट में मारा गया. सबके लाख मना करने पर भी संध्या की मां नहीं मानीं, उसे और श्रेया को अपने साथ घर ले आईं. अपने ही घर में एक परायेपन के एहसास से सिमटती-सी गई संध्या. ना श्रेया का ही ध्यान रहता ना ख़ुद का.
“संध्या क्या हो गया है तुझे? अपनी ना सही, इस नन्हीं-सी जान की तो परवाह कर!” एक दिन संध्या की मां ने लगभग उसे झकझोरते हुए कहा, “पता है, तुझे यहां ले कर मैं क्यों आई ! ताकि ख़ुद को संभालने में तुझे मदद मिले. श्रेया की अच्छी परवरिश हो सके और तू है कि..”
कई दिन-ह़फ़्तों संध्या घर क्या, कमरे से बाहर नहीं निकली. सुधा ने समझाया, सुधीर ने भी.
कितने दिनों बाद सुधीर ने नज़र उठाकर उसे देखा था, शायद पूरे दो वर्षों बाद, “संध्या, तक़दीर से कोई नहीं लड़ सकता… फिर तुम… उठो… प्लीज़… बाहर कहीं नहीं, चलो छत पर चलते हैं. बस थोड़ी देर के लिए.”
कुछ याद नहीं, उस दिन संध्या कितने दिनों बाद छत पर आई थी. थोड़ी देर के लिए ही सही, पर सुधीर का साथ अच्छा लगा था. उस दिन के बाद सुधीर अक्सर आ जाता. संध्या के साथ घंटों बैठता, श्रेया से खेलता, फिर सबके आगे चुपचाप सहज ही हथियार डाल देने वाली संध्या की मां, संध्या की ख़ातिर बगावत पर उतर आई. अपनी ज़िद के आगे किसी की भी न सुनी उन्होंने. किसी की भी परवाह नहीं की, ना बाबूजी की, ना ही दादाजी-दादीजी और ना ही समाज की. एक दिन एलान कर दिया उन्होंने, “संध्या आगे पढ़ेगी. जिस दिन वह अपने पैरों पर खड़ी होगी, उसी दिन मुझे चैन मिलेगा.”
मां की इच्छा के अनुसार दो साल में संध्या ने बी.एड. भी कर लिया और एक क़रीब के ही स्कूल में पढ़ाने भी लगी. देखते-देखते लंबा व़क़्त गुज़र गया. श्रेया बड़ी होने लगीं. उसकी तोतली बातें सबका मन मोहने लगीं. हां, वह मां से ज़्यादा नानी से घुली-मिली थी. पता नहीं पर, सुधा उससे नाराज़ रहती, क्योंकि उसका, उसका क्या… उसके घर के सभी लोगों का यही मानना था कि सुधीर, संध्या के कारण शादी से इन्कार कर रहा है, और सुधा ! वह तो कहती कि जब तक सुधीर ब्याह नहीं करता, वह भी कुंवारी ही बैठी रहेगी.
एक दिन संध्या घर लौटकर आई तो मां-बाबूजी के साथ सुधीर को बैठा देख अजीब ही लगा, आख़िर बात क्या थी !… दीवान पर मां और बाबूजी बैठे थे और सुधीर सोफे पर.
“क्या बातें हो रही थीं?… मुझसे कुछ छुपा रहे हैं आप लोग….”
“बेटा, हम तुम्हारे भविष्य को लेकर चिन्तित हैं.” संध्या की मां ने कहा.
“तो?…”
“तो… हम चाहते हैं कि सुधीर से…”
“सुधीर से, क्या बाबूजी? क्या आप लोग चाहते हैं कि मैं और सुधीर…”
“हां, बेटा.. सु… सुधीर को कोई ऐतराज़ नहीं है.. उसके घरवाले भी तैयार हैं.”
“बाबूजी, क्या बस सुधीर का तैयार हो जाना ही काफ़ी है? मेरी मर्ज़ी, मेरा तैयार होना न होना, कोई मायने नहीं रखता आप लोगों के लिए? कल जब मैंने चाहा था सुधीर से ब्याह करना, तो आप सब लोगों को ऐतराज़ था और आज आप लोगों ने मुझसे पूछा तक नहीं कि मैं क्या चाहती हूं?”
मां-बाबूजी ने संध्या को बहुत समझाया, लेकिन संध्या पर इन बातों का कोई असर न हुआ. वैसे भी उसका जीवन कोई बाग नहीं, जिसमें कि लौट-लौटकर बहार आए.
एक दिन अचानक सुधीर से सामना हो गया, होना ही था. संध्या जानती थी वह उससे नज़रें नहीं मिला सकेेगा. वह तो उसे आदर्श पुरुष समझती थी न, फिर वह… उसकी मर्ज़ी जाने बगैर…
“स्…. सॉरी संध्या, मुझे माफ़ कर दो प्लीज़. शायद मुझे पहले तुमसे बात करनी चाहिए थी. ग़लती मेरी थी. लेकिन एक बात जानना चाहूंगा, तुम्हारे इन्कार की वजह क्या थी?”
“… श्रेया माना सुधीर, मेरे भाग्य में पति का सुख नहीं और उसके भाग्य में पिता का प्यार नहीं, पर उसे मां के प्यार से क्यों वंचित कर दूं? तुम्हीं बताओ, क्या यह अन्याय नहीं होगा? मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगी जिससे उस नन्हीं-सी जान को ठेस पहुंचे… उसका प्यार बंटे.”
“… और मेरा प्यार !”
“….” अपनी ख़ामोशी को कोई ज़ुबान नहीं दे सकी संध्या !
व़क़्त गुज़रता रहा. दिन… महीने… साल… संध्या के मां-बाबूजी बहुत सारी ख़्वाहिशें पलकों में संजोये इस संसार से विदा ले चुके थे. सुधा भी ब्याह कर अपनी ससुराल चली गई. न जाने कौन-सी डोर थी जिसने बांधे रखा था संध्या और सुधीर को. वह फिर भी आता रहा. हर-दिन उसके क़रीब रहा, हर पल… ऐसा नहीं कि उसकी मौजूदगी से संध्या अनजान थी. हां, उस सत्य को स्वीकारने का साहस नहीं जुटा पा रही थी वह… संध्या जानती थी, शायद उससे ज़्यादा श्रेया को ज़रूरत थी सुधीर की और श्रेया उसको तो आदत-सी पड़ गई थी सुधीर की. जब-तब श्रेया ही उसके पास दौड़ी चली आती. उसका तो काम ही नहीं चलता था सुधीर के बिना.
सारी रात यूं ही बेचैनी में कटी संध्या की. उदास गुमसुम-सी बैठी रही बस. शारदा के जाने के बाद भी कुछ नहीं खाया गया था उससे.
“दीदी, नाश्ते में क्या बना लूं?” सुबह-सुबह शारदा की आवाज़ सुन कर संध्या चौंक गई.
“… अरे… नाश्ते की चिंता मत कर… खाने में कुछ भी बना ले न, तेरा जो जी चाहे. हां, बस इतना याद रखना, आज सुधीर बाबू भी खाना हमारे साथ ही खाएंगे. जो भी बनाना, ज़रा उनकी पसंद का भी ध्यान रखना. नमक-मिर्च कम ही डालना.”
“हां, ठीक है दीदी, ध्यान रखूंगी. वैसे दीदी, एक बात बताऊं सुधीर बाबू आते ही होंगे… मैं जब बाहर पौधों में पानी दे रही थी न, तो वे दिखे थे. मैंने उन्हें बताया भी कि श्रेया और यश आ रहे हैं. और सच कहूं दीदी, यह सुन कर आपसे ज़्यादा ख़ुश वो दिख रहे थे. देखिए, वो आ भी गए.” शारदा ने उस ओर इशारा करते हुए कहा.
“अच्छा!” संध्या ने बनावटी आश्‍चर्य दिखाया. वह तो जानती ही थी कि सुधीर आते ही होंगे. वह भी उतने ही ख़ुश होंगे, जितनी कि वह ख़ुद. आज तक किसी भी अवसर पर कभी अकेला छोड़ा है उन्होंने उसे, चाहे ख़ुशी हो या ग़म. हां, यह सच था कि इस बार बहुत दिनों बाद सुधीर आए थे संध्या के घर.
शारदा ने झटपट सुधीर के पसंद की अदरक वाली चाय भी बना ली, “ये लीजिए सुधीर बाबू… और संध्या दीदी ने कल से कुछ नहीं खाया, उनसे कहिए न कुछ खा लें.. पता नहीं, ख़ुशी मनाने का यह कौन-सा नया तरीक़ा है.”
“शारदा जो कह रही है, वह सच है संध्या..?”
“अरे… नहीं… ये, शारदा भी…” संध्या ने उसे यूं घूरा, मानो नज़रों से ही खा जाएगी.
सुधीर, संध्या के चेहरे में उदासी की वजह तलाशता रहा, “क्या बात है संध्या? बच्चे आ रहे हैं, फिर भी तुम्हारे चेहरे पर ये उदासी क्यों?..”
संध्या की चुप्पी विचलित कर रही थी सुधीर को,“तुम्हें तो ख़ुश होना चाहिए संध्या… बच्चों की जुदाई भी अब सहनी नहीं पड़ेगी तुमको. इस बार तो वह तुम्हें भी अपने साथ ले जाएंगे.” संध्या चौंकी, तो क्या बच्चों ने सुधीर से भी बातें की होंगी. सब कुछ पहले से ही पता था उन्हें.
सुधीर आराम से बैठा रहा. चाय की चुस्कियां भरता रहा, जैसे पहले से ही तय कर रखा हो उसने कि संध्या जो भी फैसला लेगी, मंज़ूर होगा उसे. इस विषय में कुछ नहीं बोलेगा वह… ये भी नहीं पूछा कि संध्या ने क्या कहा बच्चों से…? क्या वह बच्चों के साथ जाएगी?
श्रेया और यश आ गए. घर का कोना-कोना ख़ुशी से झूम उठा. बेजान चीज़ों में भी मानो जान आ गई. व़क़्त की तेज़ ऱफ़्तार से डर-सा लगने लगा था संध्या को.
“देखा मां, कल सोमवार हो जाएगा. पिछले सोमवार को आए थे हम लोग. मंगल…बुध बस .. दो रोज़ और बृहस्पतिवार को तो चलना ही है.” यश ने उंगलियों पर हिसाब लगाते हुए कहा.
“चलना है!” संध्या चौंक पड़ी.
“हां-आं… मतलब, उस दिन को क्या गिनना?” संध्या के चौंकने का अर्थ समझ कर भी नासमझ बना मन-ही-मन मुस्कुराता रहा वह, “श्रेया ने तो आपके जाने की पूरी तैयारी भी कर ली है.”
“क्या? यह कैसे हो सकता है बिना मुझसे पूछे ही?” उसकी बात का जवाब देने के लिए वहां अब था ही कौन? यश तो जा चुका था वहां से. शायद उसने ‘क्या’ बहुत धीरे से कहा होगा या बहुत देर बाद. वैसे भी क्या कभी किसी ने उससे पूछकर कोई निर्णय लिया था, जो यश लेता!
“मां! क्या हुआ?” श्रेया ने संध्या के बिल्कुल क़रीब आकर पूछा, “मां एक बात पूछूं – क्या आप इस बार हम लोगों के यहां आने से ख़ुश नहीं हैं या फिर हमारे साथ चलना नहीं चाहतीं. कुछ-न-कुछ तो बात अवश्य है. क्या चाहती हैं आप?.. हमसे कहिए… माना आज तक आप के बारे में किसी ने नहीं सोचा. माना आज तक आप पर दूसरों की इच्छाएं थोपी जाती रही हैं.” श्रेया की बातों से संध्या का ध्यान हट गया.
अपने ही ख़यालों में खो गई वह… किसकी भाषा बोल रही थी श्रेया. क्या… सुधीर की…श्रेया अपनी ही धुन में कहे जा रही थी.
“पर.. अपनी बची हुई ज़िंदगी पर आप का अधिकार है मां… अपना शेष जीवन कैसे जीना चाहती हैं आप, मुझे नहीं बताएंगी?….जानती हूं… कुछ नहीं कहेंगी आप. सच तो यह है कि कुछ कहने का साहस ही नहीं बचा है आपमें…” संध्या के गालों पर लुढ़कते आंसुओं को देखकर थमी श्रेया, “मुझमें इतनी क्षमता है मां, बिना कहे भी मैं उन भावों को समझ सकती हूं, जिनका संबंध मेरी मां से है. मैं जानती हूं, आप हमारे साथ नहीं जाना चाहतीं… यहीं रहना चाहती हैं… है ना?”
“हां…” आंसुओं पर नियंत्रण रखते हुए संध्या ने ‘हां’ के संकेत में सिर हिलाया.
“बस आपको हमारी एक शर्त माननी होगी.” कब से ख़ामोश बैठे यश ने कहा.
“क्या?” बहुत देर बाद संध्या के चेहरे पर हंसी थिरकी.
“मम्मा आपको सुधीर अंकल के साथ रहना होगा.” श्रेया ने तपाक से कहा.
“नहीं.. यह कैसे संभव होगा…?” संध्या विचलित हो उठी.
“होगा न मां, यश ने कोर्ट की सारी औपचारिकताएं पूरी कर ली हैं. बस आपको और सुधीर अंकल को काग़ज़ात पर दस्तख़त करने के लिए कोर्ट चलना होगा.” श्रेया ने तत्परता से कहा.
संध्या ने नज़र उठा कर देखा… सुधीर दरवाज़े पर खड़े मुस्कुरा रहे थे. उनके हाथों में फूलों का गुलदस्ता था. सोचने पर मजबूर हो गया संध्या का मन- तो क्या? सुधीर को… सब कुछ पहले से ही पता था!

– शची
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