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कहानी- तुम्हारी मंजूषा (Short Story- Tumhari Manjusha)

काश! पहले यह अंतर समझ आ जाता कि यह ‘पज़ेसिवनेस’ नहीं ‘प्रोटेक्टिवनेस’ है, तो बात कुछ और ही होती. क्यों हम उम्रभर सामनेवाले की भावनाओं को समझ नहीं पाते, उसकी कद्र नहीं करते और फिर उसी चीज़ के लिए बाकी ज़िंदगी तरसते रह जाते हैं. मंजूषा की आंखें अब बरसने लगीं.

 

कॉलेज में प्रिंसिपल ने अचानक सब स्टाफवालों की मीटिंग बुला ली थी. एक घंटा मीटिंग अटेंड करके मंजूषा अपने विभाग की ओर दौड़ पड़ी. परसों से एमए प्रिवियस के वार्षिक प्रैक्टिकल शुरू हो रहे थे. पहला ही प्रैक्टिकल वॉल म्यूरल का था. सारे स्टूडेंट्स से स्केच बनवाकर रखना पड़ेगा, ताकि परसों से पेंटिंग शुरू करवाई जा सके. वो नीचे चली गई थी, तो बच्चे सारे गप्पे मारने बैठ गए होंगे, ये नहीं कि काम करते रहेंगे.
मंजूषा चित्रकला विभाग की विभागाध्यक्ष है. कुल पैंतालीस छात्र-छात्राएं और तीन लोगों का स्टाफ है. एक टीचर छुट्टी पर थी और दूसरी मीटिंग ख़त्म करके नीचे से ही घर चली गई. लिहाज़ा मंजूषा को ही ऊपर दौड़ लगानी पड़ी. जैसा मंजूषा ने सोचा था, वैसा ही हुआ था. सारे छात्र-छात्राएं यहां-वहां झुंड बनाकर गप्पे मार रहे थे. मंजूषा ने सबको डांट लगाई व ख़ुद वहां खड़े होकर उनसे तेज़ी से काम करवाने लगी. साढ़े पांच बज गए. दिन ढलने की कगार पर खड़ा था. मंजूषा ने फटाफट सारा सामान विभाग में रखवाया. अपने सामने सारे छात्र-छात्राओं को घर रवाना किया. प्यून से विभाग में ताला लगवाया और नीचे कार में आकर बैठ गई. ड्राइवर घर की ओर ड्राइव करने लगा. मंजूषा ने घड़ी देखी, “उफ़! सवा छह हो गए. आज वेणु फिर परेशान होकर अंदर-बाहर हो रहे होंगे.”
पंद्रह मिनट में ही गाड़ी घर पहुंच गई. कार से उतरते हुए वह सोच रही थी कि अभी घर में पैर रखते ही वेणु चिंता से भरे स्वर से पूछने लगेंगे, “क्या बात है, आज इतनी देर क्यों हो गई? मैं कब से परेशान हो रहा था.” और मंजूषा अपनी उसी चिर-परिचित खीज में भरकर, “ओह! आप तो बस ज़रा से में ही परेशान हो जाते हैं. मैं क्या बच्ची हूं. अब तो मेरी चिंता करना छोड़ दो.”
“जब मैं बाहर जाऊंगा और तुम दिनभर घर में मेरा इंतज़ार करती रहोगी ना, तब तुम्हें पता चलेगा कि निर्धारित समय पर अपने का न लौटना कितना चिंतित कर देता है.”
“अरे, मैंने फोन कर तो दिया था कि आज देर हो जाएगी…”
अपने विचारों में उलझी मंजूषा आंगन का दरवाज़ा खोलकर जब बरामदे के दरवाज़े तक पहुंची, तो उस पर लगे ताले ने जैसे आंसू भरे स्वर में कहा- ‘कौन चिंता कर रहा होगा मंजूषा, वेणु होते, तो क्या बरामदे के दरवाज़े तक आने तक रुकते? नहीं, वो तो आंगन के दरवाज़े को पकड़े तुम्हारे आने की राह ताकते सड़क पर नज़रें जमाए बैठे रहते.’
और पर्स से घर की चाभियां निकालती मंजूषा की पलकों की कोरें भीग गईं. ढाई महीने हो गए वेणु को गए हुए, पर आज भी कॉलेज में जाकर रोज़ ही वह भूल जाती है कि वेणु अब नहीं हैं. देर होने पर मन वैसे ही छटपटाने लगता है कि वेणु परेशान हो रहे होंगे, वेणु अकेले हैं, बोर हो रहे होंगे… और रोज़ ही घर पर जड़ा ताला उसे याद दिलाता कि अब कोई नहीं है, जो घर पर उसके लिए चिंतित होगा.
वेणु अब नहीं हैं. बरामदे का दरवाज़ा, फिर हॉल का दरवाज़ा खोलकर मंजूषा घर के अंदर गई. पूरे घर में सन्नाटा पसरा हुआ था. ड्राइवर कार पार्क करके चाबी देकर चला गया. ढाई महीने हो गए हैं, पर मन अभी भी मानने को तैयार नहीं होता. मंजूषा समझ ही नहीं पाई कि उसे सचमुच याद नहीं रहता या फिर वह अपना दर्द बर्दाश्त न कर पाने के कारण अपने आपको भुलावे में डालकर बहलाती रहती है कि…
वेणु घर पर उसकी राह देख रहे हैं, वेणु देर होने के कारण चिंतित हो रहे होंगे.
पर्स टेबल पर रखकर मंजूषा रसोईघर में जाकर दो कप चाय बना लाई. कमरे में आकर एक कप टेबल पर वेणु की फोटो के सामने रखा और दूसरा कप हाथ में लेकर सामने कुर्सी पर बैठ गई. वेणु चाय के बेहद शौक़ीन थे, पर शाम की चाय कभी भी मंजूषा के बिना नहीं पीते थे, चाहे कितनी ही शाम क्यों ना हो जाए. वैसे तो मंजूषा का कॉलेज का समय साढ़े दस से चार बजे तक का था. सवा चार या साढ़े चार तक वो घर पहुंच जाती थी, पर मीटिंग आदि में कभी-कभार देर हो ही जाती थी. तब वह वेणु को कहती भी थी कि वे चाय पी लिया करें, उसकी राह न देखा करें, पर वेणु नहीं मानते थे.
“नहीं, अकेले चाय पीने से ताज़गी की जगह और उदासी महसूस होने लगती है. देर से ही सही, पर मैं तुम्हारे साथ ही चाय पियूंगा.”
पर तब मंजूषा के पास समय कहां होता था, कभी खाना बनानेवाली आ जाती, तो उसके साथ रसोई में घुस जाती या फोन पर लग जाती या फिर…
कुछ न कुछ रोज़ ही होता और वो कभी चैन से वेणु के पास बैठकर चाय नहीं पी पाती थी. और आज!
आजकल वेणु के पास बैठे बिना मंजूषा के गले से चाय नीचे नहीं उतरती. उनकी फोटो के पास से हटने का मन नहीं होता कि वो अकेले रह जाएंगे. इंसान की मनःस्थिति भी कैसी अजीब होती है, जब तक कोई सशरीर सामने होता है, हम लापरवाही की हद तक निश्‍चिंत रहते हैं, लेकिन उसके जाने के बाद? हम तब समय न दे पाने की पीड़ा का पश्‍चाताप करते हुए उन पलों को जीवंत कर लेने की असीम कोशिश करते रहते हैं.
अब मंजूषा का खाना, चाय-नाश्ता सब वेणु के साथ ही होता है. पहले, जब वेणु थे कॉलेज से आने के बाद भी कहीं ना कहीं किसी प्रदर्शनी में, आर्ट गैलरी में या आर्ट वर्कशॉप में भागती रहती थी वो, लेकिन अब नहीं. अब कॉलेज से घर आकर कहीं जाने का मन नहीं करता. इस घर में वेणु के साथ बिताए पल जीती रहती.
एकबारगी मन हुआ था कि नौकरी छोड़ दे. अब क्यों भागदौड़ करे वह? इकलौता बेटा अमेरिका में सेटल हो चुका है, वो भी वहीं चली जाए, पर मन नहीं माना. यह सरकारी क्वार्टर मंजूषा के नाम है, पहले वेणु के नाम था. इस घर में उनकी तीस बरस की गृहस्थी का अधिकांश भाग बीता है, उसके और वेणु के जीवन की तमाम अच्छी-बुरी, खट्टी-मीठी यादें इसकी ईंटों में जड़ी हुई हैं. तीस वर्ष तक उन दोनों के साथ ही यह घर हर सांस जिया है और अभी सात साल हैं उसे रिटायर होने में. तब तक वो इस घर की ईंटों में बसी यादों को सहलाकर जी ले.
बैठे-बैठे कब रात घिरने लगी पता ही नहीं चला. कान में मच्छर भुनभुनाने लगे, तब मंजूषा उठी. एक मच्छरमार टिकिया जलाई और फिर बैठ गई. यादों के काफ़िले फिर सफ़र पर निकल पड़े. ऐसे ही कभी गर्मी की शामों में वेणु बनियान पहनकर बैठते थे, तब उनके कंधों या बांहों पर मच्छर बैठा दिखने पर मंजूषा उसे मार देती.
वेणु तब हंसकर कहते, “चलो, कम से कम मच्छर मारने के बहाने से ही सही, तुमने मुझे छुआ तो सही.”
तब मंजूषा उनकी स्वर की आर्द्रता पर द्रवित होकर उनसे पास बैठकर थोड़ी देर बदन पर हाथ फेर देती या कंधे पर सिर टिकाकर बैठ जाती.
नरम-गरम सेहत के चलते वेणु ने समय से पूर्व ही नौकरी से रिटायरमेंट ले लिया था. बाहर आना-जाना भी कम ही हो पाता था. बेटा जब अमेरिका से आता था, तभी वेणु को दिनभर के लिए किसी का साथ मिल पाता था. कॉलेज की विभागाध्यक्ष और उस पर भी शीर्षस्थ चित्रकार होने के कारण मंजूषा की व्यस्तताएं असीमित थीं. हर समय भागदौड़ में व्यस्त. अपनी व्यस्तताओं में उलझी मंजूषा को कभी एहसास ही नहीं हुआ कि घर पर पूरा दिन अकेले रह जाने पर वेणु कितना ऊब जाते होंगे. आज उसे अकेलेपन के ये कुछ घंटे काटने को दौड़ते हैं.
तब क्या पता था उसे कि वेणु चार दिन की मामूली बीमारी में यूं अचानक ही चले जाएंगे. कुछ सोचने का मौक़ा ही नहीं दिया उन्होंने. बेटा ही अमेरिका से बड़ी मुश्किल से आ पाया था. जड़ रह गई थी. कभी कल्पना ही नहीं की थी कि वेणु के बिना भी रहना पड़ सकता है. पैंतीस बरस लंबा साथ जीवन के साथ कुछ ऐसे घुल-मिल जाता है कि वह हमारा अभिन्न हिस्सा बन जाता है. हमारे शरीर, हमारे विचारों की तरह, जब तक हम हैं, हमारा शरीर व विचार भी रहेंगे. ऐसा ही कुछ वेणु को लेकर मंजूषा के मन में था कि वे तो हमेशा साथ रहेंगे…
मगर नहीं…
रात के साढ़े आठ बज गए थे. ऐसा लगा वेणु कह रहे हैं, “चलो खाना खा लो. रात में देरी से खाना खाना ठीक नहीं है. तुम अपनी सेहत को लेकर बहुत लापरवाह हो.”
और पलकों की भीगी कोरों को पोंछते हुए मंजूषा उठकर रसोई में जाकर अपने लिए थाली में सब्ज़ी-रोटी परोसकर ले आई.
जब भी सुबह सात बजे कॉलेज में परीक्षाएं होती थीं, तब वेणु रसोइए से रात में ही खाना बनवाकर रख देते थे और सुबह मंजूषा से कहते, “चलो तुम खाना खा लो. मुझे पता है तुम्हें भूख जरा भी सहन नहीं होती है. ग्यारह बजे तक तो तुम्हारी तबीयत बिगड़ जाएगी.”
और वह चुपचाप उनकी बात मानकर सुबह के साढ़े छह बजे ही खाना खा लेती थी. मंजूषा को नहीं पता था, लेकिन वेणु को पता था कि उससे भूख सहन नहीं होती. मंजूषा को मंजूषा से भी अधिक पहचानते थे वेणु.
और उसके बाहर रहने पर वेणु का उसके लिए चिंतित होना, फोन करना, सौ तरह की हिदायतें देना. तब यह सब ‘परवाह’ या ‘प्रोटेक्शन’ नहीं ‘पज़ेसिवनेस’ या ‘शक’ जैसा कुछ लगता था. व्यक्तिगत स्वतंत्रता में हस्तक्षेप लगता था. तब कभी-कभी इस ‘प्रोटेक्टिव नेचर’ पर मंजूषा खीज जाती थी, ग़ुस्सा भी हो जाती थी.
“डोंट बी सो पज़ेसिव. क्या जब देखो, तब जासूस की तरह ख़बर लेते रहते हो.”
आज मंजूषा कभी भी आए, कितनी भी देर से आए… ख़्याल करनेवाला कोई नहीं है. कोई पूछनेवाला नहीं है. चिंता के मारे कोई दरवाज़े पर आंख लगाकर राह नहीं ताकता, आंगन के गेट को पकड़े कोई उत्सुकता से मंजूषा की कार की आहट पर मन अटकाकर खड़ा नहीं रहता. कोई व्यग्र होकर नहीं पूछता, “आज इतनी देर क्यों हो गई मंजूषा?”
काश! पहले यह अंतर समझ आ जाता कि यह ‘पज़ेसिवनेस’ नहीं ‘प्रोटेक्टिवनेस’ है, तो बात कुछ और ही होती. क्यों हम उम्रभर सामनेवाले की भावनाओं को समझ नहीं पाते, उसकी कद्र नहीं करते और फिर उसी चीज़ के लिए बाकी ज़िंदगी तरसते रह जाते हैं. मंजूषा की आंखें अब बरसने लगीं.
‘ओ… वेणु, तुम कहां चले गए. देखो ना आज कितनी देर हो गई थी मुझे. तुमने एक बार भी नहीं पूछा कि मंजूषा कहां हो? कब आओगी? जल्दी आओ…! आज कोई नहीं है मंजूषा की परवाह करनेवाला. किसी को सरोकार नहीं है. तुम कहां चले गए वेणु? देखो, तुम्हारे बिना कितनी अकेली हो गई है ‘तुम्हारी मंजूषा’…
सामने लगी तस्वीर में वेणु स्थिर भाव से मुस्कुरा रहे थे.


          डॉ. विनिता राहुरीकर
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