यह शाश्वत सत्य है कि ख़ुशियां क्षणिक होती हैं. यह भी उतना ही सत्य है कि जीवन में दुखों का होना भी आवश्यक है. अगर दुख ही न होंगे तो ख़ुशियों की क्या महत्ता? पर क्या कभी आपने सोचा है कि कोई दुख, कोई पीड़ा आजीवन कारावास बन जाए, तो जीवन में किसी ख़ुशी के कोई मायने नहीं रह जाते.
कहानियां ब्यौरा होती हैं रिश्तों की. कहानियां- कभी जन्म लेती हैं विसंगतियों से, तो कभी विडंबनाओं से. कभी ये सुख के रंग में रंगी होती हैं, तो कभी दुख के. समाज के कई पहलू इन कहानियों में उजागर होते हैं. ऐसी ही विसंगतियों, विडंबनाओं और दुख-सुख में रची-बसी है यह कहानी.
छोटे-से कस्बे के इस बड़े घर का आंगन सुबह ही सुबह गीला हो जाता है और आने- जाने वालों का स्वागत करने के लिए उस पर सज जाती है प्यारी-सी रंगोली. एक तरफ़ चूल्हे पर चाय उबल रही है तो वहीं दूसरी ओर मिसेज़ शर्मा अपना पूजा-पाठ बस ख़त्म करने को हैं. पूजा ख़त्म करते ही बाहर गार्डन में मेज़-कुर्सियां चाय के लिए सजाई जाती हैं और फिर मिसेज़ शर्मा सबको आवाज़ लगाती हैं, “चलो बच्चों, फटाफट नीचे आ जाओ. चाय तैयार है.” यह मिसेज़ शर्मा की दिनचर्या का हिस्सा है. सूरज की पहली किरण का स्वागत रोज़ वो इसी प्रकार करती हैं.
मिसेज़ शर्मा का पूरा नाम है संजीवनी शर्मा. अपने नाम के ही अनुरूप वह पूरे घर के लिए संजीवनी ही थीं. वे दिखने में औसत, पर व्यवहार और स्वभाव से अद्भुत थीं. उनका घर-परिवार ही उनके लिए कर्मभूमि था. शादी के बाद उन्होंने कभी कुछ और सोचा ही नहीं. जो भी किया घर-परिवार के लिए ही किया. आज पचास साल की उम्र में भी वह थकी नहीं हैं. किसी नवयुवती की भांति उछल-कूद कर अपने परिवार के सारे काम वह ख़ुद करती हैं.
संजीवनी जी का परिवार काफ़ी बड़ा है, जिसमें एक बेटे-बहू, बेटी-दामाद और पोते-पोतियों के अलावा एक कुत्ता, एक तोता, पास-पड़ोस के लोग, उनकी कामवाली, दूधवाला आदि कई लोग शामिल हैं. वे अपने घर की आधारशिला हैं, पर उनकी एक कमज़ोरी भी है. वे अकेलेपन से घबराती हैं, इसलिए हमेशा अपने लोगों से घिरी रहना चाहती हैं.
एक दिन वे अख़बार पढ़ रही थीं कि तभी उनकी बहू ने आकर कहा, “ममा, मैं स्कूल के लिए निकल रही हूं, आज सोनू को भी मैं ही ड्रॉप कर दूंगी. आप प्लीज़ उसके लिए पूड़ी बना दीजिएगा.” उनकी बहू स्कूल में टीचर है, पर यहां सास-बहू वाला कोई ड्रामा नहीं चलता, दोनों ही अपने रिश्ते को लेकर काफ़ी सुलझी हुई हैं. सोनू… उनकी चार साल की पोती है, जिसकी देखभाल वह ख़ुद करती हैं.
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सबके अपने-अपने काम पर निकलने के बाद घर में लगभग पांच-छह घंटे कोई भी नहीं होता, पर मिसेज़ शर्मा कभी अकेली नहीं होतीं. खाना बनाते-बनाते वे अपनी कामवाली की समस्याएं सुनती हैं और फिर उनके निदान भी देती हैं. उसके बाद दूधवाले की गाय आजकल कौन-सा चारा खा रही है, गाय का बछड़ा कैसा है? आदि पर चर्चा होती है. उनके स्वभाव की एक ख़ासियत उन्हें सबके बीच प्रिय बनाती कि वे सबके साथ होते हुए भी किसी के साथ नहीं होतीं, मतलब वे सबकी मदद करतीं, पर कभी किसी के निजी मामलों में नहीं पड़तीं, यहां तक कि बेटे-बहू के भी नहीं.
एक दिन पड़ोस वाली मिसेज़ कपूर उनके घर आईं. उन्होंने कहा, “मिसेज़ शर्मा, कल मेरी शादी की पचासवीं सालगिरह है. आप कल हमारी पार्टी में ज़रूर आइएगा. अच्छा मैं चलती हूं.” इतना कहकर वे तो वहां से चली गईं, पर आज उन्हें बिल्कुल अकेला कर गईं. मिसेज़ कपूर ने उनकी दुखती रग पर हाथ रख दिया था. ‘शादी’, ‘पति’ इन शब्दों का उनके जीवन में बहुत महत्व था, पर पांच साल पहले अकस्मात् हुई पति की मौत ने उनके जीवन को लगभग निरर्थक बना दिया था. उनका पूरा जीवन सिर्फ़ उनके पति के इर्द-गिर्द घूमता था. आज वे कई दिनों के बाद अपने पति के फोटो के साथ अकेली कमरे में बैठी फोटो से बात कर रही थीं, तभी सोनू ने आकर कहा, “दादी, आप क्या कर रहे हो? चलो, मुझे खाना खिलाओ ना.”
“हां-हां, चलो-चलो, मैं तो यूं ही बस.” इतना कहकर वे सोनू के साथ चल दीं. सोनू को खाना खिलाते-खिलाते वे सोच रही थीं कि बाल मन कितना निर्मल व मासूम होता है. किसी प्रकार का दुख, कोई भी परिस्थिति इन्हें कभी छू भी नहीं पाती. किसी प्रकार का द्वेष-दंभ इनमें नहीं होता. “दादी, अब चलो खेलने.” उनके विचारों की रेल रुक गई और फिर से अपने पूर्व रूप में आ गईं. अपने भीतर के शून्य को उन्होंने एक बार फिर से अपनी पोती की अठखेलियों से भर दिया.
दूसरी शाम मिसेज़ कपूर की पार्टी में वे अपनी पीड़ाओं को पूरी तरह से भुलाकर उनकी ख़ुशियों में शामिल हुईं, पर यह शाश्वत सत्य है कि ख़ुशियां क्षणिक होती हैं. यह भी उतना ही सत्य है कि जीवन में दुखों का होना भी आवश्यक है. अगर दुख ही न होंगे तो ख़ुशियों की क्या महत्ता? पर क्या कभी आपने सोचा है कि कोई दुख, कोई पीड़ा आजीवन कारावास बन जाए तो जीवन में किसी ख़ुशी के कोई मायने नहीं रह जाते. पार्टी में खाना खाते-खाते मिसेज़ शर्मा अचानक बेहोश होकर गिर पड़ीं. लगभग आधे घंटे की हलचल व असमंजस की स्थिति के बाद उन्हें अस्पताल ले जाया गया. अस्पताल में सात दिन बिताने के बाद मिसेज़ शर्मा ने अपने बेटे जय से कहा, “बेटा, अब मैं बिल्कुल ठीक हूं, मुझे घर ले चलो. मुझे यहां घुटन-सी होती है. थोड़ा सिरदर्द और थोड़ी खांसी है बस. वह तो घर पर रहकर भी ठीक हो जाएगी. भला नज़ला-ज़ुकाम के लिए भी कोई अस्पताल आता है.” बेटे ने कहा, “हां मां, बस, दो-तीन रिपोर्ट्स आज आने वाले हैं, फिर हम घर चलेंगे.” मिसेज़ शर्मा का बेटा तब यह नहीं जानता था कि वह अपना वादा पूरी तरह से नहीं निभा पाएगा. ख़ुशियां आने से पहले दरवाज़े पर दस्तक ज़रूर देती हैं, पर पीड़ाएं हमेशा दबे पांव ही घर में दाख़िल होती हैं.
तभी नर्स ने आकर उनके बेटे जय से कहा, “सर, आपको डॉक्टर ने केबिन में बुलाया है. आपकी मां की रिपोर्ट्स आ गई हैं.” इतना सुनते ही मिसेज़ शर्मा ने अपना सामान समेटना शुरू कर दिया. जय भी लंबे डग भरता हुआ डॉक्टर के पास पहुंचा. उसे देखते ही डॉक्टर ने कहा, “आइए मि. शर्मा, मिसेज़ शर्मा के सारे रिपोर्ट्स आ गई हैं, ख़बर कुछ अच्छी नहीं है. हमने कुछ टेस्ट्स आपको बिना बताए किए हैं, जिसमें से उनका एचआईवी टेस्ट पॉज़िटिव आया है. सिर्फ़ इतना ही नहीं उनका इंफेक्शन अब स्टेज-3 एड्स में तब्दील हो चुका है, जिसकी वजह से उनके शरीर के कई अंग, जैसे- किडनी, ब्रेन आदि प्रभावित हुए हैं. उनकी खांसी भी कोई साधारण खांसी नहीं, उन्हें टीबी है.” जय सिर्फ़ सुनता जा रहा था, उसे ऐसा लग रहा था जैसे कोई ट्रेन तेज़ गति से उसकी ओर बढ़ती आ रही है. उसके मुंह से सिर्फ़ इतना ही निकला, “कैसे? मेरी मां तो काफ़ी धार्मिक प्रवृत्ति की महिला हैं.” इस पर डॉक्टर ने कहा, “मि. शर्मा, आपके मुंह से यह सवाल अच्छा नहीं लगा. आप तो पढ़े-लिखे हैं. धर्म और एड्स का क्या लेना-देना? क्या शारीरिक संबंध ही एक ज़रिया है एचआईवी फैलने का? और अब… कब, क्यों, कैसे से महत्वपूर्ण है कि उनकी जान कैसे बचाई जाए? आज कई तरह की दवाएं हैं, जिनसे इसकी रोकथाम की जा सकती है, पर सबसे ज़रूरी है उन्हें इस बारे में बताना, ताकि वे ख़ुद भी सारी सावधानियां बरतें और इलाज में हमारा साथ दें, क्योंकि अब हमें उन्हें एड्स सेल में शिफ्ट करना पड़ेगा.”
कमरे में डॉक्टर और जय ने जैसे प्रवेश किया तो मिसेज़ शर्मा अपने पूरे सामान के साथ तैयार थीं. उन्होंने सवालिया नज़रों से उनको देखा और कहा, “बेटा, चलो और एक दिन भी अब इस जेल में नहीं रहा जाएगा.” जय ने कहा, “मां, तुम्हें दूसरे वार्ड में शिफ्ट किया जा रहा है.”
“मगर क्यों?”
जय ने एक लिफ़ाफ़ा उनके हाथ में धर दिया. रिपोर्ट पढ़ते ही वे पलंग पर बैठ गईं. आंखें बंद, फिर भी नम थीं. लगभग आधा घंटा उन्होंने किसी से कोई बात नहीं की. उसके बाद वह ख़ुद डॉक्टर के पास गईं, जहां जय पहले से मौजूद था. उन्होंने डॉक्टर से पूछा, “कितना समय है मेरे पास?” डॉक्टर ने कहा, “ऐसा नहीं है. आप इलाज के बाद ठीक हो सकती हैं. बस, आप अपनी सकारात्मकता बनाए रखें.”
मिसेज़ शर्मा की प्रतिक्रियाएं अप्रत्याशित थीं. भगवान के उड़ाए इस मखौल का उन्हें अचरज नहीं था, ऐसा लगता था मानो उन्हें सब पहले से पता था. वे बड़ी शांति से एड्स सेल में जाने की तैयारी कर रही थीं, तभी जय आया. उन्होंने कहा, “जय, तुम्हें याद है, जब पापा सख़्त बीमार थे और तुम मुंबई में हॉस्टल में पढ़ते थे और फिर एक दिन अचानक पापा चल बसे. किसी को नहीं समझ में आया कि आख़िर बीमारी क्या थी. मैंने तुम्हें भी यही बताया था न, झूठ कहा था मैंने. मैं जानती थी पापा को क्या हुआ है. उनकी मौत एड्स की वजह से हुई थी.” कमरे में पसरा सन्नाटा तोड़ने के लिए जय के पास कोई शब्द नहीं थे. उसने कहा, “पर क्यों मां, तुमने क्यों नहीं बताया?”
“जय, हमारा समाज ऊपर से परिपक्व दिखता है, पर अंदर से है नहीं. एड्स को लेकर हमारा समाज आज भी कई तरह के पूर्वाग्रहों से पीड़ित है. मैं तुम्हारे पापा की मृत्यु को कलंकित नहीं होने देना चाहती थी.”
अगली सुबह एड्स सेल में उनकी शिफ्टिंग हुई. वे उस वार्ड को देखकर सोच रही थीं कि यह बीमारी इतनी भयानक नहीं है, जितना कि इससे बननेवाला माहौल. सभी अपनी-अपनी पीड़ाओं से व्यथित थे. उस वार्ड में 70 साल के बूढ़े भी थे और 18 साल के युवा भी. मिसेज़ शर्मा की हालत, उस माहौल से कहें या फिर बीमारी से, बद से बदतर होती जा रही थी. रोज़ किसी न किसी टेस्ट के लिए उनका ख़ून वेदनापूर्ण तरी़के से निकाला जाता, सैकड़ों दवाइयां रोज़ दी जातीं, उस पर पचासों इंजेक्शन. वे दिनभर बस अपने पलंग पर पड़ी रहतीं, छत को ताकती रहतीं. अब उनके साथ बस उनका अकेलापन था. बेटे-बहू दो दिन में एक बार ज़रूर मिलने आते, इस पर उन्हें संतोष होता, क्योंकि उनके साथ वाले बिस्तर पर, जो व्यक्ति था उनसे मिलने पिछले तीन महीने से कोई नहीं आया था.
आज एक महीने के बाद उनकी हालत पूरी तरह से ख़राब हो चुकी थी. कई तरह की बीमारियों ने उन्हें जकड़ लिया था, वे दवाइयों को भी रिस्पांड नहीं कर रही थीं. पर उन्हें कहीं न कहीं जीने की इच्छा थी, अपनी पोती के पास अपने घर में वापस जाने की इच्छा थी. इसी इच्छाशक्ति के ज़ोर पर वे चमत्कारिक रूप से ठीक होने लगीं और छह महीने बाद वे पूरी तरह से स्वस्थ और सामान्य हो गईं. डॉक्टर ने घर जाने की इज़ाज़त भी दे दी. वह बहुत ख़ुश थीं, एक बड़ा युद्ध जीतकर मृत्यु को पराजित कर वे घर लौट रही थीं. पर वे यह नहीं जानती थीं कि इन छह महीनों में सब कुछ बदल चुका था. बाहर की दुनिया अब उन्हें स्वीकार करने को तैयार नहीं थी. घर जाते ही उन्होंने महसूस किया कि जितनी ख़ुश वह थीं, उनका घर नहीं था. फिर भी उन्होंने पूर्ववत् अपने घर की कमान संभालने की कोशिश की. बेटे-बहू ने कभी कुछ नहीं कहा, पर फिर भी एक लकीर ज़रूर बन गई थी. अब न तो वे रसोई में कुछ बनातीं और न ही अपनी पोती को अपने हाथों से खाना खिला पातीं. वे जानती थीं कि ये सब ज़रूरी है, पर ये सावधानियां उन्हें ठेस पहुंचाती थीं. न तो पास-पड़ोस वाले आते और न ही कोई बात करता, यहां तक कि कामवाली बाई भी अपना काम ख़त्म करने की जल्दी में रहती. सोनू भी अब स्कूल से ड्राइंग क्लास जाती थी टिफिन लेकर. घर का यह अकेलापन अब उन्हें अस्पताल के सन्नाटे से भी भयावह लगने लगा था.
एक दिन उन्हें फिर से चक्कर आया और वह गिर पड़ीं. अस्पताल में सारे चेकअप के बाद डॉक्टर ने उनसे कहा, “मिसेज़ शर्मा, आप तो बिल्कुल ठीक हैं.” उन्होंने
कहा, “हां मुझे पता है.” डॉक्टर ने कहा, “फिर?”
“मैं मृत्यु से लड़ाई तो जीत गई, पर समाज के मोर्चे पर मैं हार गई. अब यह सब बर्दाश्त नहीं होता. अपनों से ऐसे व्यवहार से तो अच्छा है कि मैं अपने जैसे लोगों के साथ रहूं. अब मुझे लगता है कि मेरे पति भाग्यशाली थे, जो इस व्यथा के साथ जीए नहीं. ऐसे जीवन से तो इस अस्पताल का आजीवन कारावास ही भला है…”
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