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कहानी- अधूरी कहानी (Story- Adhuri Kahani)

‘मेरे उस अधूरे प्यार के नाम, जिसे मैंने जीवनभर पूरी संपूर्णता से चाहा’ चित्रलेखा का पूरा वजूद थरथरा गया. आंखें जैसे गंगा-जमुना बन गईं. प्यार का प्रत्युत्तर... इतनी लंबी तपस्या का फल... मिला भी तो कब, जब ज़िंदगी का लंबा सफ़र तय कर लिया. क्यों किया चित्रगुप्त आपने ऐसा? वह फफक पड़ी. क्यों रखा हमारी कहानी को अधूरा..?  Hindi Kahani एयरपोर्ट की सभी औपचारिकताओं को पार कर, सामान चेक इन काउंटर पर जमा करवाकर, चित्रलेखा के हाथ में बोर्डिंग पास आ गया. फिर सिक्युरिटी को पार कर वह एयरपोर्ट के वेटिंग लॉज में आकर बैठ गई. वह चेन्नई जा रही थी बेटी के पास. बेटी आईआईटी इंजीनियर थी और वहां पर जॉब कर रही थी. कुछ दिनों से तबीयत ख़राब होने व उसमें सुधार न होने की वजह से उसे अचानक चेन्नई जाने का प्रोग्राम बनाना पड़ा था. वह जल्द से जल्द बेटी के पास पहुंच जाना चाहती थी. बेटी के पास जल्दी पहुंचने की बेचैनी उसके अंदर उथल-पुथल मचा रही थी. तभी बगल की कुर्सी पर बैठे सज्जन उसकी तरफ़ मुख़ातिब हुए, “अरे तुम? चेन्नई जा रही हो क्या...?” वह बुरी तरह चौंक गई. उस आवाज़ की सनसनाहट दिल के तारों में जलतरंग छेड़ गई थी. “हां मैं... पर आप कौन..? क्या आप मुझे जानते हैं?” वह उन सज्जन की तरफ़ मुड़कर देखने लगी. “तुम तो वैसी ही हो अभी भी चित्रलेखा... इसलिए पहचान में आ गई, पर मुझे कैसे पहचानोगी...” वे सिर से हाथ फेरते चेहरे तक ले आए. अब तक वह भी उन्हें पहचान चुकी थी. “ओह! आप? अचानक मिले न... मिलने की उम्मीद नहीं थी, इसलिए...” चित्रलेखा किंचित शर्मिंदा हो गई. “लेकिन आप बहुत बदल गए हैं. शादी भी नहीं की, फिर भी सिर के बाल उड़ गए..?” यह भी पढ़ेबर्थडे से जानें लव मैरिज होगी या अरेंज मैरिज (Love Or Arranged Marriage: Your Birthdate Can Predict) इस बार हास्य से उठकर ठहाका मारकर हंस पड़े थे चित्रगुप्त, “यह सिर के बालों का शादी न होने से कनेक्शन समझ में नहीं आया...” “कनेक्शन तो गहरा है, पर आप नहीं समझेंगे.” “क्यों?” “क्योंकि आपने शादी जो नहीं की.” चित्रलेखा खिलखिलाकर हंस पड़ी थी. “फिर तो तुम्हारे पति भी...?” “ज़ाहिर है.” दोनों हंस पड़े. “आपकी नई किताब का ज़िक्र पढ़ा आपकी प्रोफाइल पर... पर उपलब्ध नहीं हो पाई. कैसे मिलेगी?” “एक सम्मेलन में भाग लेने जा रहा हूं चेन्नई. परसों रात की फ्लाइट है वापसी की, अगर उससे पहले मिल पाओ तो दे जाऊंगा.” “फोन नंबर बताइए अपना. बेटी का पता भेज देती हूं, जब भी समय मिले आ जाइए. इस बार कॉफी मेरे हाथ की पी लीजिए.” एक दिन बाद हाथ में किताब लिए उसके दरवाज़े पर हाज़िर थे चित्रगुप्त. वे लगभग 25 साल बाद मिल रहे थे, इसलिए वार्तालाप गति नहीं पकड़ पा रही थी उनके बीच. कॉफी पीते, विचारों में डूबे चित्रगुप्त को देखती हुई चित्रलेखा सोच रही थी कि ज़िंदगी तो बीत ही गई और बीत ही जाएगी तुम्हारे बिना भी, पर तुम्हारे साथ बीतती तो कुछ और बात होती. छिटपुट बातें कर चित्रगुप्त उठ खड़े हुए, “चलता हूं अब.” “ठीक है.” वह भी अनमनी-सी उठ खड़ी हुई. “जाने अब कब मुलाक़ात होगी?” चित्रगुप्त एकाएक बोल पड़े. “जाने कब?” चित्रलेेखा के होंठ एक मजबूर स्मित हास्य में हल्के से फैले. प्रत्युत्तर में एक स्मित मुस्कान उसकी तरफ़ उछाल, हाथ जोड़, वे पलटकर चले गए और वह मेज़ पर रखी किताब को हताश-सी घूरती रह गई. रात का नीरव अंधकार भले ही अकेलापन बढ़ाता हो, पर किसी को याद करने के लिए साथी की तरह होता है. उसकी ज़िंदगी की कहानी की तरह चित्रगुप्त की नई किताब का नाम भी ‘अधूरी कहानी’ था. रात में किताब पढ़ने बैठी, तो ख़ुद अपनी ज़िंदगी की किताब के पन्ने पलटने लगी. जिस संस्थान से चित्रगुप्त पीएचडी कर रहे थे, वहीं से चंद कदम की दूरी पर स्कूल था, जहां से चित्रलेखा दसवीं की पढ़ाई कर रही थी. पर उसे पता नहीं था कि चित्रगुप्त उसके इतने पास हैं. वह तो उस उम्र से ही उनकी रचनाओं की इतनी दीवानी थी कि उनका लिखा जहां कहीं भी देखती, भूखों की तरह पढ़ती. उसकी अभिन्न सहेली विदिषा के भाई भी चित्रगुप्त के साथ ही पीएचडी कर रहे थे. उसी से चित्रलेखा को चित्रगुप्त के उस संस्थान में होने का पता चला. उस छोटी-सी उम्र में भी वह कभी उनको आते-जाते देख लेती, तो मदहोश हो जाती. लेकिन चित्रगुप्त के लिए दसवीं में पढ़नेवाली चित्रलेखा निहायत ही बच्ची थी. सहेली विदिषा जब-तब उसे छेड़ देती, “पता नहीं क्या दिखता है तुझे इस काले कलूटे में... नाम भी तो देखो चित्रगुप्त. लगता है जैसे इतिहास के पन्नों से सीधे बाहर निकल आया हो... वैसे तेरा नाम भी चुनकर रखा है अंकल-आंटी ने...” यह भी पढ़े: 5 तरह के होते हैं पुरुषः जानें उनकी पर्सनैलिटी की रोचक बातें (5 Types Of Men And Interesting Facts About Their Personality) “चुप... ख़बरदार, मेरे सांवले-सलोने को काला-कलूटा कहा तोे... टॉल, डार्क एंड हैंडसम कितना शानदार लगता है... और उसके बाल जब उलझे हुए उसके माथे पर गिरे रहते हैं... और वैसे भी मैं तो उसके मन-मस्तिष्क की दीवानी हूं, जिसमें इतने तरह के भाव व विचार आते हैं...” “देख, देख... वो आ रहा है, तेरा टीडीएस...” एक दिन स्कूल के गेट से बाहर निकलते हुए सामने से आ रहे चित्रगुप्त को देखकर विदिषा चिल्लाई. चित्रगुप्त विदिषा के भाई के दोस्त थे. इसलिए आज उसने चित्रलेखा को धकेलते हुए ले जाकर चित्रगुप्त के सामने खड़ा कर दिया. “भइया, यह मेरी सहेली चित्रलेखा. आपसे बहुत दिनों से मिलना चाहती थी...” “मुझसे? कहिए क्यों मिलना चाहती हैं आप मुझसे?“ गंभीर चेहरे पर स्मित हास्य रेखा, विद्वता की चमक से प्रद्वीप्त आंखों से टकराकर, उसकी किशोर निगाहें अनायास ही झुक गईं. नाजुक़ गुलाबी अधर किसी तरह फड़फड़ाए. “जी आपका ऑटोग्राफ चाहिए था. आपकी सारी रचनाएं पढ़ती हूं मैं...“ बच्चों की बात समझ मंद-मंद मुस्कुराते चित्रगुप्त ने अपना ऑटोग्राफ दे दिया था. लेकिन वह और भी तड़प गई थी. पूरे समय न जाने कितनी बार अपने नाजुक़ अधरों से उनका नाम चूमती रहती. अगले दो सालों में चित्रलेखा ने 12वीं के बाद उसी कॉलेज में दाख़िला ले लिया, जहां से चित्रगुप्त पीएचडी कर रहे थे, लेकिन चित्रगुप्त उसे कभी नज़र नहीं आए. शायद उनकी पीएचडी पूरी हो गई थी. चित्रलेखा तड़पती रह गई थी, ‘न जाने कहां रहते हैं’ पत्रिकाओं में उनकी तस्वीर देखती, दिल से लगा लेती. आंखें भीग जातीं, पर यह कहानी शायद तब ख़त्म हो भी जाती, पर इसे तो ख़त्म होना ही नहीं था, बल्कि अधूरी रहना था. ग्रैजुएशन के बाद एमबीए कर वह एक एफएमसीजी कंपनी में नियुक्त हो गई. और उस समय ब्रैंड मैनेजर के पद पर पदस्त थी. जब अपने किसी प्रोडक्ट की शिकायत को लेकर, बार-बार उससे मिलने को उतारू ज़िद्दी कस्टमर की ज़िद पर वह अपनी कंपनी की रिसेप्शनिस्ट को एक दिन डांट रही थी. “अरे, आप मुझसे कैसे किसी को मिलाने की बात कर रही हैं.” चित्रलेखा रिसेप्शनिस्ट मिस रीमा पर झुंझला रही थी. “प्रोडक्ट मैंने नहीं बनाया है, कंपनी ने बनाया है. उन्हें कहो कि जाकर कस्टमर केयर में शिकायत करें.” “लेकिन मैम, वे तो ज़िद पाले बैठे हैं कि वे आपसे मिलकर ही रहेंगे. बड़े अजीब से इंसान हैं. कुछ-कुछ दार्शनिक टाइप के... कहते हैं, आपके हेयर कलर ने उनके बालों को ख़राब कर, उनकी सामाजिक छवि को नुक़सान पहुंचाया है.” “ये कैसी शिकायत है. उन्हें उनके पुराने प्रोडक्ट के बदले नया प्रोडक्ट मिल जाएगा.” “पता नहीं, कहते हैं, नया प्रोडक्ट उनकी बिगड़ी हुई सामाजिक छवि की भरपाई नहीं कर सकता. बाल स्ट्रेट से कुछ-कुछ कर्ली हो गए हैं...” कहते-कहते रीमा हंसने लगी. मुस्कुरा तो चित्रलेखा भी गई. “मैम, एक बार मिल लीजिए मिस्टर चित्रगुप्त से. कई चक्कर लगा चुके हैं. आज भी यहीं बैठे हैं धरना देकर.” नाम सुनकर कुछ कसमसा गया चित्रलेखा के अंदर, “ठीक है, भेज दो उन्हें.” थोड़ी देर बाद आगंतुक उसके सामने था. “कहिए.” लैपटॉप पर नज़रें गड़ाए चित्रलेखा बोली. “मैडम, आप पलभर के लिए आंखों को थोड़ा विराम देंगी, तो मैं अपनी बात कह सकता हूं.” जानी-पहचानी आवाज़ कहीं हृदय की गहराइयों से रास्ता टटोलती हुई, सतह पर आकर कानों में रस घोल बैठी. उसने तड़पकर आगंतुक की तरफ़ देखा, “आप?” उसकी आंखें आश्‍चर्य से फैल गईं. “हां मैं, पर मैं कौन? क्या आप मुझे जानती हैं?” वह सामने कुर्सी पर बैठते हुए बोले. यह भी पढ़ेलघु उद्योग- चॉकलेट मेकिंग- छोटा इन्वेस्टमेंट बड़ा फायदा (Small Scale Industry- Chocolate Making- Small Investment Big Returns) चित्रलेखा जड़ हो गई. भला इन्हें वह 15-16 वर्षीया दो चोटी हिलाती, स्कर्ट पहने लड़की कहां याद होगी. आज वह 25 वर्षीया एमएनसी में कार्यरत युवती है. “जी मैं, आपकी एक पाठिका. हमेशा पढ़ती हूं आपको. जहां से आपने पढ़ाई और पीएचडी की, वहीं से मैंने भी पढ़ाई की है. विदिषा मेरी फ्रेंड थी. शायद याद होगा आपको. मैंने तब आपका ऑटोग्राफ भी लिया था.” “अच्छा वो.” आज स्मित हास्य रेखा मुस्कान में बदल गई, “तो वह आप थीं. बहुत बदल गईं हैं आप.” चित्रलेखा अनायास पुलकित हो गई, “याद है आपको?” वे कुछ नहीं बोले. “पर आप बिल्कुल नहीं बदले... आपकी सारी किताबें पढ़ती हूं. अभी लेटेस्टवाली भी पढ़ ली.” “कैसे समय निकाल लेती हैं?” “बस जुनून होता है, तो निकल जाता है, जैसे आप लिखने के लिए निकाल लेते हैं, वैसे मैं स़िर्फ आपकी ही किताबें पढ़ती हूं.” “अच्छा!” वे खुलकर मुस्कुरा दिए थे. सांवली रंगत पर दिलकश मुस्कुराहट उसके दिल को थोड़ा और बींध गई. “शाम को क्या कर रही हैं. अगर अन्यथा न लें, तो अपनी इस अज़ीज़ पाठिका के साथ एक कप कॉफी अवश्य पीना चाहूंगा.” “लेकिन आपको तो... शायद कुछ शिकायत थी कंपनी के प्रोडक्ट से.” “शिकायत को रहने दीजिए, शाम की कॉफी साथ पीकर शिकायत दूर कर दीजिए.” दिल ख़ुशी से झूम उठा उसका, “जी मैं पहुंच जाऊंगी...” शाम को वह कॉफी हाउस पहुंच गई. चित्रगुप्त जितना अच्छा लिखते थे, उतनी ही विशिष्ट उनकी शख़्सियत, उतने ही महान उनके विचार, उतनी ही उच्च उनकी भावनाएं, पर वह तो कुछ और ही चाहती थी. उनकी कुछ मुलाक़ातें हुई. घर में उसके विवाह की चर्चा अपने अंतिम चरण पर थी. “मेरा विवाह होनेवाला है.” कॉफी हाउस में एक दिन कॉफी का घूंट भरते हुए वह बोली. “अच्छा!” पलभर के लिए चित्रगुप्त चौंके. उसकी आंखों में झांका. जैसे कुछ ढूंढ़ना चाह रहे हों, फिर कप उठा लिया. “क्या करता है?” “मेरी तरह एमएनसी में काम करता है. आईआईटियन है...” “कब है शादी?” वह अंदर से फट पड़ी. क्या लेखक इतने हृदयहीन होते हैं. सारी संवेदनाएं स़िर्फ रचनाओं में ही दिखती हैं. उनका सारा आदर्शवाद, कोमल भावनाएं, कोरी कल्पनाएं होती हैं, जो उनकी पुस्तकों के नायक-नायिका ही बोलते हैं और उनकी प्रेम कहानियों में वर्णित वे कोमल प्रेम भावनाएं..? “दिसंबर में.” वह निर्विकार स्वर में बोली. “मेरी अग्रिम बधाई कबूल करो. शादी में बुलाना मत भूलना...” कहकर वे उठ खड़े हुए. बहुत कुछ बोलना चाहती थी वह, पर चित्रगुप्त के विराट व्यक्तित्व, कुछ उनका मितभाषी स्वभाव, कुछ उन दोनों के बीच आयु के बड़े अंतराल ने होंठों पर चुप्पी के ताले लगा दिए. चित्रगुप्त उसकी ज़िंदगी से चले गए और मीरा-सी लगन हृदय में लिए उसका विवाह हो गया. वह उनकी किताबें पढ़ती. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित उनकी रचनाएं पढ़ती. अकेले में उनका प्रोफाइल खंगालकर न जाने क्या ढूंढ़ती रहती और उनके प्रेम में हृदय की दीवानगी और बढ़ती रहती. पति बच्चों या गृहस्थी से प्यार न हो, ऐसा तो हो ही नहीं सकता. ये तो सांसों के आरोह-अवरोह हैं. जो हर पल एहसास में समाए रहते हैं, पर इनके साथ प्यार में अचानक कहां डूबते हैं. इनके साथ तो प्यार की शुरुआत होती है और चित्रगुप्त के प्यार में तो वह अचानक आकंठ डूब गई थी और संभलने का मौक़ा तक न मिला था. बहुत चाहा ख़ुद को बहलाना, पर मीरा तो कृष्णमय हो चुकी थी. दिन-महीने-साल गुज़रते चले गए और फिर आज मिले 25 साल बाद. वह चित्रगुप्त में आते हुए परिवर्तन को देखती रहती थी उनकी फोटो के ज़रिए. बाल गिरते जा रहे थे. चांद दिखने लगा था. सांवली रंगत गहरी होती जा रही थी. विदिषा की बात अक्सर याद आ जाती. ‘आख़िर क्या दिखता है तुझे इस काले कलूटे में’ पर जो उसकी आंखें देखती थीं, वह उसे कहां दिख पाता था. एकाएक वह स्मृतियों के कारागार से वर्तमान के कठोर धरातल पर आ गिरी, जहां चित्रगुप्त बस अब एक परछाईं की तरह थे. उसने किताब का पहला पन्ना पलटा. लिखा था... ‘मेरे उस अधूरे प्यार के नाम, जिसे मैंने जीवनभर पूरी संपूर्णता से चाहा’ चित्रलेखा का पूरा वजूद थरथरा गया. आंखें जैसे गंगा-जमुना बन गईं. प्यार का प्रत्युत्तर... इतनी लंबी तपस्या का फल... मिला भी तो कब, जब ज़िंदगी का लंबा सफ़र तय कर लिया. यह भी पढ़े… क्योंकि गुज़रा हुआ व़क्त लौटकर नहीं आता (Lost Time Is Never Found Again) क्यों किया चित्रगुप्त आपने ऐसा? वह फफक पड़ी. क्यों रखा हमारी कहानी को अधूरा..? क्या कमी थी मेरी तपस्या में कि विश्‍वामित्र की समाधि भंग न कर पाई? अब इस छटपटाहट के साथ बाकी की ज़िंदगी कैसे जीऊंगी? आंसुओं में डूबी चित्रलेखा ने किताब को दोनों बांहों में भींच छाती से चिपका लिया, जैसे प्रिय को बांहों में समेट लिया हो. आंखें बंदकर जल धाराओं को अविरल बह जाने दिया और महसूस करने लगी जैसे चित्रगुप्त ने अपनी चित्रलेखा को बहुत कोमलता से अपनी बांहों में समेटकर सीने में छिपा लिया हो. ‘काश, एहसास के ये लम्हे कभी ख़त्म न होते... जैसे उनकी कहानी फिर भी ख़त्म नहीं हुई थी, बल्कि अधूरी रह गई थी. sudha jugaran     सुधा जुगरान

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