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हिंदी कहानी- अधूरी तस्वीरें (Short Story- Adhuri Tasveerein)

बस चलते ही अविनाश का मन एक बार फिर कड़वी स्मृतियों से भर गया. आंखें जलने लगीं और उस अपमान को याद कर पूरा वजूद ही तिलमिला उठा. नहीं करनी अब उसे दूसरी शादी. नौ साल हो गये उस बात को. पर मन के छाले हैं कि सूखते नहीं, बल्कि बार-बार फूट कर उसे आहत करते हैं. उसका क्या गुनाह था?

 

विनाश पहुंचते ही फ़ोन कर देना, वरना तुम्हारी मां को चिंता हो जाएगी.”
“जी मामाजी!” और बस चल पड़ी थी.
बस मामाजी और मां की ही ज़िद है, उसका तो बिलकुल मन नहीं था माउन्टआबू जाने का. उसकी एक शादी से मां का जी नहीं भरा जो इस दूसरी शादी के लिए मां ने मामा से कहलवा-कहलवा कर विवश कर दिया है. हालांकि मामा अंत तक कहते रहे हैं कि- “अविनाश तू यह मत समझ कि तुझे शादी के लिए भेजा जा रहा है. वहां मेरे दोस्त ब्रिगेडियर सिन्हा का घर और बाग हैं, वहीं से तू बस उनके परिवार के साथ छुट्टियां बिताने जा रहा है. उन्होंने तुझे बचपन में देखा था. अभी मिलने की?इच्छा जता रहे थे. मैं अगले सप्ताह पहुंच जाऊंगा.”
पर वह जानता है कि यह जाल शादी के लिए ही बिछाया जा रहा है.
बस चलते ही अविनाश का मन एक बार फिर कड़वी स्मृतियों से भर गया. आंखें जलने लगीं और उस अपमान को याद कर पूरा वजूद ही तिलमिला उठा. नहीं करनी अब उसे दूसरी शादी. नौ साल हो गये उस बात को. पर मन के छाले हैं कि सूखते नहीं, बल्कि बार-बार फूट कर उसे आहत करते हैं. उसका क्या गुनाह था?
कितने अरमानों के साथ उसकी विधवा मां ने स्कूल में टीचिंग कर उसे अच्छे आदर्शों के साथ पाला और जब वह आर्मी ऑफ़िसर बन कर मां के सामने आया तो मां कितनी गर्वित थी.?उसने बड़े चाव से ढेरों रिश्तों में से एक बेहतरीन रिश्ता चुना था उसके लिए, एक बहुत बड़े आई.ए.एस. अधिकारी की बेटी अल्पना.
शादी के ताम-झाम के बाद जब अपनी जीवन संगिनी से मिलने व उसे जानने की रात आई तो… शादी के शानदार पलंग पर फूलों की सजावट के बीच उसे लाल जोड़े में अपनी दुलहन नहीं मिली. काली नाइटी में अल्पना पैर सिकौड़े सोई थी.
अल्पना के लिए यह शादी मात्र एक समझौता थी. अगले दिन ही वह घर छोड़कर मायके चली गयी. फिर वकील का नोटिस आया, जिसमें आरोप था कि वह नपुंसक है और विवाह के योग्य नहीं. वह जड़ होकर रह गया. कोर्ट का ़फैसला होने तक अपमान
उसे जलाता रहा. हालांकि वह आरोप साबित न हो सका, पर अब उसका ही मन न था कि यह संबंध बना रहे. उसने तलाक़ मंज़ूर कर लिया.
उसके बाद उसने अपनी पोस्टिंग लेह करवा ली. मां की दूसरे विवाह की ज़िद को टालता जा रहा था, पर अबकी बार वह मना नहीं कर सका.
‘पिछले कई दिनों से यह माउंटआबू प्रकरण मां और मामा चलाए जा रहे थे. इस बार मामा छाछ भी फूंक-फूंक कर पीना चाहते थे, सो वह उसे लड़की और उसके परिवार के साथ पूरे पंद्रह-बीस दिन छोड़ना चाह रहे थे. ब्रिगेडियर सिन्हा मामा के कलीग रह चुके हैं, उनकी एक बहन है अविवाहित, उसने भी किन्हीं कारणों से शादी नहीं की.
बहुत सारे ख़यालों से उसका मन भारी हो चला. वह सर झटक कर बस के बाहर झांकने लगा. शाम हो चली थी, हवा में सर्दी के आगमन की खुनकी महसूस होने लगी. दूर गगन में परिंदे अपने घर को लौट रहे थे. उन्हें देखकर सोचने लगा- कितना सुकून है आज़ादी में. अब उम्र के पैंतीस साल मुक्त रह कर विवाह के पक्ष में वह ज़रा भी नहीं था, पर यहां भारत में जिस तरह बड़ी उम्र की लड़कियों का कुंवारा रहना संदिग्ध होता है, उसी तरह बड़ी उम्र के कुंवारे भी संदेहों से अछूते नहीं रह पाते. समाज का इतना दबाव होता है कि आपको कोई चैन से नहीं बैठने दे सकता.
शाम ढलने लगी थी. पहाड़ों-पेड़ों की सब्ज़ आकृतियां धीरे-धीरे स्याही में बदलने लगी. उसके मन पर अनमनस्कता के साये फिर घिर आए. कहां जा रहा है वह और क्यों बेवजह? क्या समझौते की तरह दो लोगों के बंधने से ज़रूरी काम कुछ और नहीं?
बस ने आठ की जगह साढ़े आठ बजा दिये. बस स्टॉप पर उतरकर वह अपना सामान डिक्की से निकालने लगा तभी उसके कंधे पर उसे हाथ महसूस हुआ, “हैलो, जेन्टलमैन, आय एम ब्रिगेडियर सिन्हा.”
“गुडइवनिंग सर.”
“वेलकम डियर.”
“आपने क्यों तकलीफ़ की सर? मैं पहुंच जाता.”
“तुम हमारे मेहमान हो आख़िर.”
“आपने मुझे पहचाना कैसे?”
“ओह, हा हा हा. यार इतने सारे यात्रियों में एक फौजी अफ़सर को पहचानना क्या
मुश्किल है?”
अंधेरे में पहाड़ी रास्तों से होकर ब्रिगेडियर सिन्हा के बंगले तक पहुंचते-पहुंचते पंद्रह मिनट लग गये.
हॉल की सज्जा कलात्मक थी. किसी के हाथ से बनी सुंदर पेंटिग्स, जिसमें ज़्यादातर राजस्थानी स्त्रियों के चेहरे थे, सांवला रंग लंबोतरे चेहरे, खिंची हुई काजल, भरी आंखें और तीखी नाक वाली. पूरे हॉल पर नज़र घूमती हुई एक जगह आ टिकी. दरवाज़े में हल्के नीले परदों पर बने ऑर्किड्स के जामुनी फूलों के बीच एक पेंटिंग का सा ही चेहरा चस्पां था. वह चकराया, कुछ पल बाद ही उस चेहरे ने पलकें झपकाईं और चेहरा हंस पड़ा…
“ऐ नॉटी गर्ल.” ब्रिगेडियर साहब उस जीती-जागती पेंटिंग को साथ लेकर परदे में से बाहर आए.
“अविनाश, ये मेरी बेटी है नीलांजना. बी.एससी. सेकंड ईयर में पढ़ती है.”
“हैलो.”
“हैलो.”
“बेटा जाओ, मम्मी को भेजो और किचन में चाय और स्नैक्स के लिए कहना.”
श्रीमती सिन्हा के साथ-साथ अरदली चाय लेकर आ गया. श्रीमती सिन्हा एक सुंदर व संभ्रान्त महिला लगीं. चाय की औपचारिकता के बाद वह फर्स्ट फ्लोर पर बने गेस्टरूम में आ गया. रूम क्या था, समस्त सुविधाओं से युक्त छोटा-सा फ्लैट ही था. पूरा घूम-घाम कर देखकर उसे याद आया, दस बजे डिनर के लिए नीचे उतरना है.
“अविनाश, अंजना मेरी वाइफ़ से तो तुम मिल ही चुके हो. नीला से भी, ये सुधा है मेरी बहन, जे.जे. आर्ट्स में फाइन आर्ट्स की लैक्चरर है. वैसे बॉम्बे रहती है, पर अभी मेरे साथ वेकेशन्स बिताने आई है.”
उसने पहली बार सुधा को गौर से देखा. ताम्बई रंग, स्निग्ध त्वचा, काजल भरी बड़ी-बड़ी आंखें, भरे होंठ और थोड़ी चौड़ी नाक… चेहरे पर बहुत परिपक्व सधा हुआ भाव. भरे सानुपातिक जिस्म पर बाटिक प्रिन्ट का भूरा कुर्ता और जीन्स, घने-काले लंबे बालों को आकर्षक मगर बेतरतीबी से जूड़े में लपेटा हुआ. एकाएक आप पर छा जाने वाला प्रभावशाली दृढ़ व्यक्तित्व. बात करने के ढंग और शब्दों के चयन से लगता है कि बुद्धिजीवी और कलाकार बात कर रहा है. फिर नज़र घूमी तो नीला पर जा टिकी… चंपई रंग, बुआ की सी ही बड़ी-बड़ी लंबी आंखें, पर नाक और होंठ मां जैसे सुघढ़. पतली-दुबली-सी लंबी काया.
“क्या देख रहे हैं आप? पापा देखो ना आपके मेहमान खाना तो खा ही नहीं रहे.”
“ओह! हां अविनाश लो न.”
सुबह वह देर से उठा. नीलांजना जल्दी-जल्दी ब्रेकफास्ट कर कॉलेज जाने की तैयारी में थी. उसके लिए भी वहीं चाय आ गई.
“मेरा मन नहीं कर रहा कॉलेज जाने का, पर आज मेरा प्रैक्टिकल पीरियड है, बाहर बुआ एक पेंटिंग बना रही है. देखते रहिएगा, बोर नहीं होंगे. शाम को मैं आऊंगी तब घूमने चलेंगे.”
वह हंस पड़ा. चाय पीकर वह बाहर आ गया. सुधा सचमुच एक पेंटिंग में व्यस्त थी. वह पीछे जाकर खड़ा हो गया.
“ओह… आप.”
“जी!”
“आपने छोड़ क्यों दिया इसे? पूरा करिये ना.”
“कोई बात नहीं. वैसे भी यह पिछले साल से चल रही है, पूरी हो ही नहीं पाती. इसके बीच न जाने कितनी पेंटिंग्स बना डालीं. यह अटकी हुई है. दरअसल बॉम्बे होती तो पूरी हो जाती, इसे नीला नहीं ले जाने देती है.”
“फिर तो यह ज़रूर आपका मास्टर पीस होने वाली है.”
दोनों हंस दिये. हंसती हुई सुधा अच्छी लगती है. यह हंसी उसके चेहरे पर से गंभीरता के मुखौटे को खिसका जाती है. उसने पेंटिंग को?ध्यान से देखा, उसे वह नीला की पोट्रेट लगी. चेहरा अभी अधूरा था, बड़ी आंखें, चेहरे पर बिखरे सुनहरे बालों की लटें, लेस वाला गुलाबी टॉप… बाकी पीछे बैकग्राउण्ड अधूरा था… तस्वीर अधूरी होने की वजह से उदास-सी लग रही थी. सुधा ने बालों से लकड़ी का मछली के सिर वाला कांटा निकाला, जो कि उसकी रुचि के अनुसार कलात्मक था, तो बाल कमर तक फैल गये और पहाड़ी बयार में उड़ने लगे. वह गौर से देखे बिना न रह सका.. सुधा ने उसकी नज़र को उपेक्षित कर दिया और ब्रेकफास्ट वहीं लाने के लिये कह कर चली गई. ब्रेकफास्ट बाहर लॉन में लग गया और सभी सदस्य वहीं आ गये. ब्रिगेडियर सिन्हा ने कश्मीर मसले पर बात छेड़ दी तो चर्चा देर तक चलती रही. सुधा ़ज़्यादा रुचि नहीं ले रही थी. वह उठकर लाइब्रेरी चली गई तो ब्रिगेडियर साहब मुद्दे पर आ गये.
“तो अविनाश तुम्हारा सुधा को लेकर क्या ख़याल है?” वह अचकचा गया. क्या कहे?
“देखो बेटा, मुझे तुम्हारा अतीत मालूम है, सुधा को भी मैंने बताया है. मैं चाहता हूं तुम दोनों अधिक से अधिक समय साथ बिताकर अपना-अपना निर्णय बता दो.”
कमरे में आने के बाद अविनाश देर तक इस विषय पर सोच-सोच कर उलझता रहा. सुधा आर्मी के माहौल में रही है, अच्छी लड़की है. क्या करे? हां कह दे?
“हाय! क्या सोच रहे थे? बुआ के बारे में?”
“नीला तुम कब आईं?”
“अरे कब से आकर खड़ी हूं, कॉफ़ी लेकर. आप हैं कि गहरी सोच में गुम हैं.”
सलवार-कुर्ते में नीला बड़ी-बड़ी लगी. दोनों ने कॉफ़ी पी ली तो नीला ने उसे खींच कर उठा दिया-
“जाइए, जल्दी चेन्ज करिये ना. हम घूमने चलेंगे.”
“हम कौन-कौन?”
“जाना तो मुझे भी है, पर मम्मी कहती है आप और बुआ ही जाएंगे. प्लीज़ अविनाश अंकल आप कहिए ना मम्मी को कि मैं भी चलूंगी.”
“अंकल? क्या मैं इतना बड़ा
लगता हूं?”
“लगते तो नहीं पर…. तो क्या कहूं… फिलहाल अविनाश जी चलेगा?”
“हां.”
उसने नीला को साथ ले ही लिया. सुधा ने भी पैरवी की, क्योंकि दोनों ही टाल रहे थे एकांत का साथ. एक उम्र के बाद कितना मुश्किल हो जाता है किसी को अपनाना, प्रेम करना और ज़िंदगीभर निभाने का प्रण लेना, महज़ कुछ शारीरिक ज़रूरतों और सहारे के लिए. वह भी शायद यही सोच रही होगी… अपनी-अपनी आज़ादियों की लत लग गई है हमें. और उम्र में तो वह मुझसे भी दो साल बड़ी ही है. उम्र कोई मायने नहीं रखती. पर फिर भी… नहीं कर सकेगा अभी वह हां.
“हाय अविनाश जी, चलें!” नीला ने आकर हाथ पकड़ लिया, एक उष्ण और उत्साह भरा स्पर्श!
“आपकी बुआ जी कहां हैं?”
“उन्हें तैयार होने में बहुत व़क़्त लगता है.”
सुधा आ गई. साड़ी में भी वही कलात्मक स्पर्श. नीला ने बताया यह उड़ते सरसों वाली साड़ी सुधा ने ही पेंट की है.
सारे रास्ते नीला ही बोलती रही, दोनों ख़ामोश थे अपने-अपने दायरों में. एक मंदिर की सीढ़ियों के पास जाकर सुधा ने गाड़ी रोक दी. ऊपर चढ़ते हुए उसने कहा, “मैं अभी आई.”
“क्या तुम्हारी बुआ जी बड़ी धार्मिक हैं?”
“अं… ज़्यादा तो नहीं.. अभी तो वह इस पुराने मंदिर में अपने एक स्केच के लिए फ़ोटो लेने गई हैं. आपने क्या सोचा कि वे मन्नत मांगने गई हैं कि हे भगवान इस हैंडसम फौजी से अब मेरी मंगनी हो ही जाए. ग़लतफ़हमी में मत रहियेगा. मेरी बुआ ही सबको रिजेक्ट करती है.. वरना कब से शादी हो जाती. वो तो मिस बॉम्बे भी रह चुकी हैं अपने ज़माने में… बुरा तो नहीं लगा न?”
“नहीं नीला, बच्चों की बात का बुरा मानते हैं क्या?”
“बाय द वे अविनाश जी मैं बच्ची नहीं हूं, एक बार अंकल क्या कह दिया, आपने तो मुझे बच्चों में शुमार कर लिया.”
“अच्छा मिस नीलांजना… तो आप क्या कह रही थीं?”
“शशऽऽ… बुआ आ गईं.” कहकर उसने मेरा हाथ दबा दिया.
वह अब नीला के बारे में सोच रहा था, कितनी जीवंत है यह लड़की. कितनी निश्छल.
नक्की लेक पर पहुंचते-पहुंचते शाम हो गई थी. सुधा को बोटिंग में ज़रा भी दिलचस्पी नहीं थी, सो वह शॉल लेकर किनारे रखी एक बेन्च पर बैठ गई, मैं न चाहकर भी नीला के साथ बोटिंग पर चला गया.
“अविनाश जी, सन सेट के वक्त सबकी आंखों का रंग बदल जाता है, देखो… आपकी… और मेरी…”
नीलांजना की आंखों में समुद्र उफान पर था. उसके खुले सीधे-सीधे भूरे बाल सोने के तार जैसे लग रहे थे. हवा में उड़ता उसका लेसी कॉलर…
“अविनाश जी! क्या देख रखे थे?”
“यही कि तुम बहुत सुंदर हो.”
“हां हूं तो. पर उससे क्या फ़र्क़ पड़ता है. प्रकृति में हर चीज़ सुंदर है. मुझे तो हर चीज़ सुंदर लगती है.”
“हां तुम्हारी उम्र में मुझे भी सब कुछ सुंदर लगता था.”
“अब….”
“अब! नज़रिया बदल गया है. रियैलिटीज़ अलग होती हैं.”
“अविनाश जी, पापा से सुना था आप कविताएं लिखते थे… फिर छोड़ क्यों दीं?”
“तुम्हें रुचि है?”
“हां, बहुत. पर आपने क्यों छोड़ा…?”
“वही…”
“रियैलिटीज़.” नीला ने दोहराया और दोनों हंस पड़े.
नीला तुम जैसी वास्तविक प्रेरणा होती तो शायद लिखता रहता. तुम्हें क्या मालूम ज़िंदगी कितनी बड़ी रियैलिटी है, जिसे तुम्हें बताकर डराना नहीं चाहता. ईश्‍वर करे तुम्हें ज़िंदगी उन्हीं सुंदर सत्योंें के रूप में मिले, डरावने मुखौटे पहन कर नहीं.
“अविनाश जी, चलिये किनारा आ गया.”
“कैसी रही बोटिंग अविनाश जी?” सुधा चलकर पास आ गई थी.
“इंटरेस्टिंग.”
थोड़ी चढ़ाई चढ़कर हम सेमीप्रेशियस स्टोन और चांदी की ज्वेलरी की दुकान पर आ गए. मैंै और नीला बाहर की ओर बैठ गये.
“तुम्हें ज्वेलरी में इंटरेस्ट नहीं.”
“बुआ जैसी ज्वेलरी में नहीं. कहां-कहां से आदिवासियों के डिज़ाइन कॉपी करवा के, सिल्वर को ऑक्सीडाइ़ज़्ड करवाकर पहनती हैं. मेरा बस चले तो कानों में बबूल के गोल फूल पहनूं, बालों में रंगबिरंगे पंख लगा लूं.”
“वनकन्या की तरह…(दोनों हंस दिये).. वैसे नीला, सुंदर स्त्रियों को जेवरों की ज़रूरत ही कहां होती है?”
“हां! जैसे मुझे! (फिर एक साझी हंसी खिली).. जब से आप आए हैं, हम कितना हंसे हैं ना. हमारे घर में किसी को हंसने का शौक ही नहीं है.”
“नीलू.”
“जी बुआ.”
“देख ये एमेथिस्ट जड़ा कड़ा पसंद है तुझे? तेरे परपल सूट के साथ मैच करेगा.”
“अच्छा है बुआ.”
“अविनाश जी यह आपके लिए.”
“मेरे लिए.. क्या?”
“देख लीजिये.”
एक्वामेराइन स्टोन के बहुत सुंदर कफलिंक्स थे.
“थैंक्स!”
पहली बार सुधा ने अपनी आंखों में आत्मीयता भर मुस्कुरा कर उसे देखा था. यानी? फिर भी…. अभी भी वह व़क़्त लेगा हां करने से पहले. ऐसे ही न जाने तीन दिन कब बीत गये. वो और नीला बहुत आत्मीय हो गये थे- दो दोस्तों की तरह.
“मैं बुआ की जगह होती तो बहुत पहले आपसे शादी के लिए हां कह देती.”
“मैं किस की जगह होता फिर..” फिर एक हंसी.
“आपके बारे में कुछ सुना था.”
“सच ही सुना होगा.”
“कैसी होगी वह लड़की, जिसने आपको बिना जाने…”
“छोड़ो न नीला, शायद उसकी ही कोई विवशता हो.”
“क्या वह किसी और से प्यार करती थी?”
“शायद.”
“ऐसा क्यों होता है अविनाश जी? शादी ज़बरदस्ती का सौदा नहीं होनी चाहिये ना! ऐसे तो अधूरे रिश्तों की कतार लग जाएगी. आप से वह प्यार नहीं करती थी और शादी हुई, आप किसी को प्यार करें और शादी किसी से हो जाए, फिर उसकी जिससे शादी हो… वह…! ऐसे जाने कितनी प्यार की अधूरी तस्वीरें ही रह जाती होंगी हमारे समाज में और फिर शादी एक औपचारिकता बनकर रह जाती है.”
“तुम अभी छोटी हो नीला, ज़िंदगी के सच समझने के लिये. प्यार से परे दुनिया और समाज बहुत बड़ा होता है, जिसके कर्त्तव्य भावनाओं पर आधारित नहीं होते.”
“यही तो… अच्छा आप बुआ से शादी करेंगे?”
“पता नहीं नीला. दरअसल मैं यह सब सोचकर ही नहीं आया हूं. बस, मामा की बात रखने के लिये चला आया.”
“आप बहुत भावुक हैं और बुआ बहुत प्रैक्टिकल.”
“मैं भावुक हूं, कैसे जाना?”
“जिन्हें आप एडमायर करते हैं, उन्हें आप जान भी लेते हैं. आप बहुत अच्छे हैं.” नीला की आंखें तप रही थीं. होंठ अधखुले… नाइट सूट के ढीले कुर्ते में धड़कते सुकुमार नन्हें दिल की धड़कन ख़ामोशी में मुखर हो गई थी.
“नीला! रात हो गई अब जाओ.”
“कॉफ़ी!”
“नहीं.”
“गुडनाइट.”
मेरा मन अंजानी आशंका और एक अंजाने भाव से थरथरा रहा था. ठंडी रात में भी वह पसीने में डूब गया.
सुबह देर से उठा, बाथरूम से मुंह-हाथ धोकर निकला तो सामने सुधा चाय और ब्रेकफास्ट लेकर खड़ी थी.
“देर तक सोये आज आप. लगता है यह नॉवेल पढ़ते रहे देर रात तक.” सुधा ने नॉवेल उठाकर देखा, फिर रख दिया. वह हतप्रभ था, नॉवेल? यह कहां से आ गया?
“आज आपके मामा जी का फ़ोन आया था, रात को पहुंच रहे हैं.”
“ओह हां.”
चुपचाप चाय पी गई. ब्रेकफास्ट भी हुआ. अचानक सुधा ने पूछा.
“आज हम दोनों को कन्फ्रन्ट किया जाएगा. आपने क्या सोचा है?”
“मैंने तो कुछ सोचा ही नहीं.”
“तो सोच लीजिये, जवाब तो देना ही है. यही प्रयोजन है कि आप यहां आए और मैंने अपनी छुट्टियां बढ़वा लीं.”
“सुधा… हम जानते ही क्या हैं अभी एक-दूसरे के बारे में?”
“जानने की मुहलत बस इतनी ही थी अविनाश जी, फिर ज़िंदगी भर साथ रह कर भी लोग क्या जान लेते हैं?”
“मेरे बारे में सुना होगा…”
“हां, वह अतीत था अविनाश आपका, सबका कुछ न कुछ होता है. उसे छोड़िये…”
“क्या तुम्हें पसंद आएगा इतने दिनों की आज़ाद ज़िंदगी के बाद बंधना?”
“उम्मीद है आप ऐसा नहीं करेंगे. मैं भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता में विश्‍वास करती हूं.”
“तुम्हारी जॉब?”
“जॉब तो मैं नहीं छोड़ सकती अविनाश.”
“तो… सुधा तुमने फैसला ले लिया है?
“हां अविनाश थक गई हूं, लोगों की सहानुभूति और सवालों से.”
“थक तो मैं भी गया था सुधा, पर क्या यह समझौता नहीं?”
“शायद अविनाश हम एक-दूसरे को पसंद करने लगें.” मुस्कुराकर सुधा प्लेट्स उठाने लगी.
सुधा के जाते ही उसने नॉवेल उठाया,?‘सेवेन्थ हेवेन’ एक रोमांटिक नॉवेल था, उसके अंदर एक पन्ना…. ‘मुझे नहीं पता मैं कहां बह रही हूं. लेकिन जब से आप आए हैं, मुझे अपना होना अच्छा लगने लगा है. आप बहुत बड़े हैं, यह ख़त पढ़कर जाने क्या प्रतिक्रिया करें. पर अगर मैंने न लिखा तो मैं घुटन से मर जाऊंगी. आप वो पहले पुरुष हैं… और मैं खुद हैरान हूं कि क्यों खिंची जा रही हूं मैं आपकी ओर… कल रात न जाने क्यों लगा कि सौंप दूं अपने हाथों की नमी और धड़कनों के स्पन्दन आपको… लेकिन…”
नीला! ओह! उसे लगा कि वह चक्रवात में घिर गया है. उफ यह पेपर सुधा के हाथ लग जाता तो? वह घबरा कर तैयार होकर बाहर निकल आया. वह पैदल तीन-चार किलोमीटर चला आया. पहाड़ी ढलवां रास्ते और पहाड़ी वनस्पति, बड़े पेड़ और उन पर उछल-कूद मचाते बंदर. वह एक चट्टान पर सुस्ताने लगा और आंखें मूंदते ही नीला का चेहरा सामने आ गया. मासूम आंखें, सीधे रेशमी बालों में खुल-खुल जाती लाल साटिन के रिबन की गिरह, तिर्यक मुस्कान. वह सोचने लगा-
‘नीला तुम मुझे प्रिय हो, तुम्हारी निश्छलता मुझे पसंद है… तुम वह अनगढ़ कोमल स्फटिक शिला हो, जिसे मैं मनचाहा गढ़ सकता हूं. तुम्हारा समर्पण बहुत क़ीमती और नाज़ुक है और नियति बहुत क्रूर है नीला. जिस संभावना को हम सोचते डरते हैं…. वह संभव तो हो ही नहीं सकती ना. मैं कल ही यहां से चला जाऊंगा.’
जब बहुत देर भटक लिया तो लौटने लगा. वह ब्रिगेडियर सिन्हा के घर के ज़रा नीचे वाले मोड़ पर मुड़ा ही था कि नीला सायकल पर उतरती दिखाई दी. पास आई तो परेशान लगी.
“क्या हो गया आपको? पता है पापा और बुआ परेशान थे. मेरा इन्टेशन वह नहीं था, अविनाश जी बस, कन्फेस किये बिना न रह सकी.”
“और मैं किससे कन्फेस करूं?”
“आप…. ओह अभी यहां से चलिये… घर नहीं…. मुझे आपसे बात करनी है.”
हम एक घने पेड़ों से भरे एकांत में उतर आए. उसने एक जगह रोक कर
उसका हाथ पकड़ नीची पलकों में एक आंसू छिपा कर कहा- “अविनाश जी, जो कुछ मैंने लिखा वह सच था. मेरे लिए आप ‘फर्स्ट क्रश’ हैं. आपको देखकर मुझे पहली बार अपोज़िट सेक्स वाला आकर्षण हुआ था. मैं कभी आपको नहीं बताती, पर कल रात आपको एकदम क़रीब बैठा पाकर… अविनाश आय एम पज़े़ज़्ड बाय यू….”
“नीला मैं उलझ रहा हूं. मैं जा रहा हूं यहां से. यही उचित होगा तुम्हारे मेरे लिए. मुझमें साहस नहीं है, एक साथ बहुत लोगों का विश्‍वास तोड़ने का!”
“और बुआ…”
“क्या बुआ, बेवकूफ लड़की, वो ख़त जो छोड़ आई थीं, उसके हाथ पड़
जाता तो? मुझे नहीं करनी शादी-वादी. कहां फंस गया मैं?”
बुरी तरह झल्ला गया अविनाश और सर पकड़ कर पुलिया पर बैठ गया. नीला सुबकने लगी. वह उसके पास उठ आया, उसके मुंह पर ढंके हाथ हटाकर बोला,
“क्या करूं मैं नीला? तुम्हारे मासूम से प्यार ने भी मेरे मन में जगह बना ली है. और मुझे अच्छी तरह पता है कि यह हम दोनों के लिए ही घातक है. मुझे जाना ही होगा.”
नीला उसकी बांह पर टिक गई और रोते हुए बस इतना कह सकी-
“आप बुआ से शादी कर लो अविनाश जी. आज आपके यूं चले आने पर मैंने उन्हें पहली बार टूटकर बिखरते हुए देखा है. वो पापा से कह रही थीं, “दादा, अविनाश को देखकर पहली बार लगा कि शादी कर लेनी चाहिये, और देखिये ना मेरी क़िस्मत… उसे मैं पसंद ही नहीं. वह चुपचाप निकल गया.”
“और तुम….”
“मैं… मेरा क्या अविनाश जी….”
ओह ये स्त्रियां! अजूबा हैं. नहीं समझ पाता मैं इन्हें. नीला को सीने से लगा लिया उसने. नीला की पतली बांहों ने उसे कस लिया. कुछ देर बाद अविनाश ने नीला को अलग किया-
“चलो नीला. मुझे खुद नहीं पता, शाम को क्या होना है. पर तुम अब कोई बेवकूफी नहीं करोगी.”
वह लगभग उसकी बांह पकड़कर खींचता हुआ ले आया. दोनों जब घर पहुंचे तो सब नीला की लाल आंखें और तनावग्रस्त अविनाश को देखकर ख़ामोश हो गये. क्या सोचा सबने पता नहीं. किसी ने कुछ पूछा नहीं, यही राहत थी. लंच के लिए अविनाश ने मना कर दिया. शाम को जब मामा जी आए, सब सामान्य दिखने के प्रयास में थे. डिनर के समय सुधा और नीला दोनों नदारद थीं. मामा जी और ब्रिगेडियर साहब के घेरे में अविनाश ‘ना’ नहीं कर सका. उसके हां में सर हिला देने के बाद का समय अविनाश के लिए यूं बीता जैसे वह दर्शक हो सारी प्रक्रिया का और अविनाश का किरदार निभाता कोई और है. सगाई, शादी… उसे बस याद है शादी की रस्मों के बीच नीला की हंसी और कहकहों के बीच हिचकी-सा बिखर जाता दर्द. घर का वही हिस्सा जो गेस्टहाउस था, शादी के बाद अविनाश और सुधा का हो गया. तीन दिन के बाद दोनों को अलग-अलग दिशाओं में जाना है. उसकी बांहों में अलसाती सुधा ने उसका हाथ खींच अपने वक्ष पर रख लिया. उसके घड़ी में दो बजे थे, उठकर सिगरेट जलाई और उठकर खिड़की के सामने आ गया. नीला के कमरे की लाइट जली है. कुछ टूट-सा गया उसके मन के भीतर. उसे नीला के शब्द याद आ गए.
‘मन का क्या है अविनाश, वह तो टूट कर फिर जुड़ जाता है.’
कहते व़क़्त अपनी अधूरी तस्वीर-सी ही लग रही थी वह.


       मनीषा कुलश्रेष्ठ

 

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Usha Gupta

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Usha Gupta

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