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कहानी- अंतिम गुज़ारिश (Story- Antim Guzarish)

Hindi Short Story
औरत का अपने पति के जीवन में क्या इतना ही अस्तित्व है कि वह बच्चा पैदा करनेवाली एक मशीन मात्र है? बच्चा है, तो उसका अस्तित्व पति के जीवन में है, वरना इस एक कारण मात्र से ही पति उसके सारे प्यार और गुणों को भुला देता है.
अंधेरे को चीरती ट्रेन बड़ी तेज़ी से अपने लक्ष्य की ओर भागी जा रही थी. मेरे कंपार्टमेंट के सभी यात्री सो गए थे. बस, एक मेरी ही आंखों से नींद कोसों दूर थी. सुबह-सुबह आए हरीश के फोन ने मन में अजीब-सी हलचल मचा रखी थी, जिससे मेरी समग्र चेतना एकाकार हो हरीश के आसपास ही विचरण कर रही थी. मैं हरीश के सबसे क़रीबी दोस्तों में से एक था. बचपन से ही हम साथ खेल-कूदकर, पढ़कर बड़े हुए थे. बड़े होने पर नौकरी भी हमें एक ही बैंक में मिली. शायद यही कारण था कि हम इतने घनिष्ठ हो गए थे कि एक-दूसरे से कोई बात कभी नहीं छुपाते थे. अगर कोई भी परेशानी हमारे जीवन में आती, हम दोनों मिलकर कोई न कोई रास्ता निकाल ही लेते. हमारी शादी के लिए दुल्हन की तलाश भी एक साथ ही शुरू हुई, लेकिन हरीश की शादी मुझसे पहले हुई. हरीश की पत्नी निशा भाभी बेहद सुंदर, नाज़ुक, नेक और काफ़ी सुलझे विचारोंवाली थीं. घर के काम-काज में भी काफ़ी निपुण थीं. जल्द ही उन्होंने घर की सारी ज़िम्मेदारियां भी संभाल ली थीं. घर में किसी को किसी चीज़ की ज़रूरत होती, तो निशा भाभी के नाम की ही गुहार लगाते. मेहमानों की खातिरदारी में भी वह कभी पीछे नहीं रहतीं. अक्सर शाम को मैं उनके घर पहुंच जाता. वह कुछ न कुछ ख़ास डिश बनाकर मुझे ज़रूर खिलातीं, साथ ही अपनी चटपटी बातों से सबको हंसाती रहतीं. उनकी यही खनकती हंसी उस घर को जीवंतता प्रदान करती थी. कुछ दिनों बाद मेरी भी शादी हो गई. मेरी पत्नी सुनंदा जमशेदपुर के एक स्कूल में पढ़ाती थी, इसलिए मैंने भी अपना ट्रांसफर वहीं करवा लिया. जब भी मैं पटना आता, हरीश और निशा भाभी से मिलने ज़रूर जाता. शादी के मात्र तीन बरस बाद ही मुझे लगने लगा था कि निशा भाभी काफ़ी तनावग्रस्त रहने लगी थीं, जिसके कारण उनकी सुंदरता भी अपनी ताज़गी खोने लगी थी. कामकाज में भी पहले की तरह ऊर्जावान नज़र नहीं आती थीं. भरे-पूरे परिवार में रहने के बावजूद बिल्कुल शांत, गंभीर और अकेली लगतीं. जो लोग कभी उनकी प्रशंसा करते नहीं थकते थे, आज उन्हीं लोगों की व्यंग्यात्मक बोलियां और निगाहें उन्हें आहत करती रहती थीं. उनके व्यक्तित्व की इतनी विपन्नता का कुछ कारण समझ में नहीं आ रहा था. मेरी निगाहों के सवाल पढ़ने में हरीश को देर नहीं लगी थी. एक दिन मौक़ा मिलते ही वह निशा भाभी की उदासी का कारण बताने लगा था- “निशा के मां बनने में काफ़ी अड़चनें हैं. उसके दोनों फैलोपियन ट्यूब जाम हैं. दो बार माइक्रो सर्जरी हो चुकी है. डॉक्टरों का कहना है कि उसे मां बनने में थोड़ा व़क़्त लगेगा. अगर फिर भी वह मां नहीं बन सकी, तो अंतिम उपाय टेस्ट ट्यूब बेबी है. मेरी मां है कि उन्हेंे सब्र ही नहीं है, कुछ न कुछ बोलती रहती हैं.” “तू चिंता क्यूं करता है? विज्ञान ने इतनी तऱक्क़ी कर ली है कि कोई न कोई रास्ता निकल ही आएगा.” आश्‍वासन तो मैं दे आया था, पर कहीं न कहीं मेरे मन में भी कुछ खटक रहा था. देखते-देखते हरीश की शादी को पूरे आठ वर्ष गुज़र गए, पर निशा भाभी की गोद सूनी ही रही. इस दौरान मेरा ट्रांसफर भी जमशेदपुर से बाहर हो गया, जिससे बहुत दिनों तक पटना जा ही नहीं पाया. जब अपनी भतीजी की शादी में पटना जाने का मौक़ा मिला, तो दूसरे ही दिन मैं हरीश से मिलने उसके घर जा पहुंचा. वहां पहुंचते ही मुझे लगा, जैसे यहां सब कुछ बदल गया है. पहलेवाली रौनक़ ही नहीं थी. पूरा परिवार शाम के समय बाहर बरामदे में ही बैठा था. पहली बार वहां ठंडे ढंग से मेरा औपचारिक स्वागत हुआ. हरीश के बुलाने पर थोड़ी देर में निशा भाभी भी वहां आकर बैठ गईं. कांतिहीन, कृष्णकाय निशा भाभी को देखकर मैं हक्का-बक्का रह गया. थोड़ी देर में ही वह उठते हुए बोलीं, “मैं चाय बनाती हूं.” इतने में ही उनकी बड़ी ननद सीमा दी ने तुरंत अपने नौकर शंकर को बुलाकर चाय-नाश्ता बनाने की हिदायत दे दी. ठिठककर भाभी रुक गईं और चुपचाप वहीं बैठ गईं. जल्द ही शंकर सब के लिए चाय ले आया. स़िर्फ निशा भाभी को चाय नहीं मिली. जब मैंने उसे एक कप चाय और लाने के लिए कहा, तो वह सहमी-सी निगाह हरीश की मां और दीदी पर डालता हुआ वापस किचन में चला गया. थोड़ी देर के इंतज़ार के बाद भी जब शंकर निशा भाभी के लिए चाय नहीं लाया, तो न जाने क्यूं मेरा मन खिन्न हो गया और मैं चाय का अधूरा प्याला वहीं छोड़कर जाने के लिए उठ खड़ा हुआ. मेरे साथ हरीश भी टहलता हुआ सड़क तक आ गया. मुझे लगा उसके अंदर कुछ अनकही बातों का मंथन चल रहा था, जिसे वह अपनी खिसियानी हंसी से दबाने की कोशिश करते-करते बोल ही पड़ा था, “यार... केशव मैं अजीब से दोराहे पर खड़ा हूं. मां ने मेरी शादी बड़ी भाभी की विधवा बहन नेहा से तय कर दी है. मैं सरकारी नौकरी करता हूं, तो तलाक़ लिए बिना दूसरी शादी करने पर आफत में फंस सकता हूं. निशा मुझे तलाक़ देने को तैयार ही नहीं है. मैं बार-बार उसे समझा रहा हूं कि तलाक़ स़िर्फ काग़ज़ पर होगा. निशा के सारे अधिकार वैसे ही रहेंगे, जो एक पत्नी के होते हैं, लेकिन वह किसी भी शर्त पर तलाक़ देने को तैयार नहीं है.” “ये तू कैसी बातें कर रहा है यार? हमेशा से महिला सशक्तिकरण की बातें करनेवाला तू, आज अपनी पत्नी के साथ ही इतना बड़ा अन्याय करने जा रहा है?” “मैं भी क्या करूं? निशा का इलाज करवाते-करवाते धन और शक्ति, दोनों चुक गए हैं. बच्चों के लिए अब ज़्यादा इंतज़ार करूंगा, तो उनका भविष्य संवारने में परेशानी आएगी.” “बच्चे गोद भी तो लिए जा सकते हैं.” “मां बच्चा गोद लेने के पक्ष में नहीं हैं. उनका कहना है मेरा एक ही बेटा है, मैं अपने वंश को डूबने नहीं दूंगी. निशा किसी भी शर्त पर न तलाक़ देने को तैयार है, न ही घर छोड़ने को. इसी वजह से उसका पूरे परिवार से सामंजस्य ही बिगड़ गया है. घर के लोगों के लिए उसका घर में होना या न होना कोई मायने नहीं रखता है, वे उसे बुरी तरह अपमानित भी करते हैं कि वह घर छोड़कर चली जाए, पर वह भी हार माननेवालों में से नहीं है. उसका यूं अपमान मुझे भी कम आहत नहीं करता है, क्योंकि मैं उसे बहुत प्यार करता हूं. मैं उसे बार-बार समझाता हूं कि आपसी सहमती से तलाक़ के लिए हस्ताक्षर कर दो. हमारा रिश्ता काग़ज़ी-खानापूर्ति का मोहताज नहीं है, पर उसे न मेरे प्यार पर भरोसा है, न ही हमारे रिश्ते पर, खीझकर कभी-कभी मैं भी उसे अपमानित कर बैठता हूं.” “एक बात कहूं हरीश... रिश्ते तो प्यार से बंधे होते हैं, जिसे हम ही बनाते हैं और हम ही तोड़ते हैं. उसे आधा-अधूरा बनानेवाले भी हम ही होते हैं, फिर रिश्तों से शिकायत कैसी? कभी रिश्तों का आकलन निशा भाभी की तरफ़ से भी कर लिया करो. एक औरत चाहे अपने सारे रिश्ते तोड़ दे, पर अपने पति के साथ बंधे रिश्ते को मरते दम तक निभाने की कोशिश करती है. अगर निशा भाभी के साथ कुछ ग़लत हो रहा है, तो विरोध जताना स्वाभाविक है. एक बार खुले दिमाग़ से सारी परिस्थिति को सोच, अपने शादी के वचनों को याद कर, जिसका मतलब ही होता है कि जब एक कमज़ोर पड़ जाए, तो दूसरा उसका साथ देगा. फिर तू कैसे अपने वचनों से मुकर सकता है?” “मेरे ़फैसले को चाहे तू जो नाम दे, मुझे स्वार्थी समझ, पर मुझे भी मां की बातों में दम लगता है. अपने वंश को आगे बढ़ाने के लिए अपना एक बच्चा तो होना ही चाहिए. अगर निशा तलाक़ नहीं देगी, तो उस पर चरित्रहीन होने का झूठा आरोप लगाकर भी तलाक़ प्राप्त करूंगा. अगर तू उसे समझा सकता है, तो समझा कि वह अपनी ज़िद छोड़ दे. इससे उसे कोई फ़ायदा नहीं होनेवाला है.” उसकी बातों से मैं अचंभित था. वास्तव में जब तक आदमी के मन में स्वार्थ नहीं आता है, तभी तक उसकी आत्मा का उसके कर्मों पर नियंत्रण रहता है. जैसे-जैसे उसकी आंखों पर बच्चे के मोह की पट्टी बंधती जा रही थी, वैसे-वैसे उसका पतन भी होता जा रहा था. मैं हाथ जोड़ते हुए उसे बोला, “तू मुझे माफ़ कर. मुझसे यह काम नहीं होगा.” पटना से वापस आए छह महीने गुज़र गए थे, लेकिन हरीश के कृत्य से आहत मैंने एक बार भी उसे फोन नहीं किया. उसका भी कोई फोन नहीं आया. आज सुबह-सुबह अचानक हरीश का फोन आया, “केशव... एक ख़ुशख़बरी है, ईश्‍वर ने अपना चमत्कार दिखाया है, निशा मां बननेवाली है.” “बधाई हो! ईश्‍वर ने दूसरी शादी के पाप से तुझे बचा लिया.” “वो तो ठीक है, पर दूसरी समस्या आ गई है.” “बोल-बोल, मैं तेरे लिए क्या कर सकता हूं? मेरी जान भी हाज़िर है.” “क्या बताऊं, कई बरसों से बेचारी बनी तुम्हारी निशा भाभी अब पूरी आरी बन गई है. जब सब कुछ ठीक हो गया है, तो ज़िद किए बैठी है कि वह अब मुझे तलाक़ देकर ही दम लेगी. पहले मैंने इसे मज़ाक समझा था, लेकिन एक दिन बिना किसी को बताए अपना सारा सामान समेट मायके चली गई. इतना ही नहीं, उसने वकील के साथ कोर्ट में जाकर अपने ऊपर लगाए गए सारे चरित्रहीनता के आरोप को स्वीकार कर केस को नया मोड़ दे दिया. उसका यही रवैया रहा, तो हम दोनों का तलाक़ निश्‍चित है. मैं किसी तरह केस के डेट बढ़वा रहा हूं. तू जल्दी से आकर अपनी भाभी को समझा.” और मैं बिना देर किए पटना के लिए चल पड़ा था. पटना पहुंचते ही मैं सबसे पहले निशा भाभी से मिलने उनके मायके जा पहुंचा. मुझे देखते ही एक व्यंग्यात्मक हंसी उनके होंठों पर छा गई. थोड़ी-सी औपचारिक बातों के बाद अपने स्वभाव के विपरीत मौक़ा मिलते ही मुझे अपने शब्दों के बाणों से बेधने लगीं, “तो तुम अपने सारे काम छोड़ मुझे समझाने आ ही गए. निश्‍चित रूप से हरीश ने हम दोनों के तलाक़ को रोकने के लिए तुम्हें भेजा होगा. हरीश के कहने पर तुम यहां तक दौड़े चले आए, पर तुम तब कहां थे, जब इसी तलाक़ के कारण घोर मानसिक और शारीरिक पीड़ा झेलती मैं घायल पंछी-सी व्यथित और व्याकुल अकथनीय मानसिक पीड़ा का सामना कर रही थी?” “भाभी... आप ग़लत समझ रही हैं. मैं तो स़िर्फ आप दोनों की भलाई चाहता हूं. पहले भी मैंने हरीश के ग़लत ़फैसले का विरोध किया था, आज भी आपके ़फैसले के विरुद्ध नहीं हूं. मैं तो यह सोचकर अचंभित हूं, जब हरीश ने आपसे तलाक़ का ़फैसला लिया था, तब आपने डाइवोर्स पेपर पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया था, अपने ऊपर लगाए गए सारे झूठे आरोपों का डटकर अकेले ही मुक़ाबला किया था और तलाक़ नहीं देेने के लिए अडिग थीं. आज जब ईश्‍वर ने पूरी परिस्थिति को आपके अनुकूल कर दिया, पति और घरवाले आपको हाथोंहाथ लेने को तैयार बैठे हैं, फिर आपका यह विपरीत ़फैसला क्यूं? कुछ समझ नहीं पा रहा हूं.” “समझोगे कैसे? पुरुष हो, तो पुुरुषत्व का अहम् तो रहेगा ही. किसी औरत का छलनी आत्मसम्मान तुम्हें कैसे दिखेगा? घरवाले चाहे कितना भी प्रताड़ित करते, अगर पति ने मेरा साथ दिया होता, तो मैं सारी प्रताड़ना भुला देती. लेकिन जब मेरे पति ने ही अपनी शराफ़त छोड़कर, अपने परिवार के लोगों के साथ मिलकर मेरे सामने बेहयाई पूर्ण प्रस्ताव रखा था, जिसके अनुसार एक छत के नीचे अगर मैं दूसरी औरत के साथ उसको बांटूं, तो मेरी रोटी, कपड़ा और मकान की समस्या हल हो जाएगी, तो सोचो, क्या गुज़री होगी मेरे दिल पर? सैकड़ों नश्तर जैसे एक साथ मेरे दिल में उतार दिए गए, जो मेरी आत्मा तक को छलनी कर गए. औरत का अपने पति के जीवन में क्या इतना ही अस्तित्व है कि वह बच्चा पैदा करनेवाली एक मशीन मात्र है? बच्चा है, तो उसका अस्तित्व पति के जीवन में है, वरना इस एक कारण मात्र से ही पति उसके सारे प्यार और गुणों को भुला देता है. मैं हरीश से कितना प्यार करती थी. उसकी उन्नति, सफलता और उसकी दीर्घायु के लिए कितने ही व्रत-त्योहार करती. मंदिरों में प्रार्थना करती और उसके बदले मुझे क्या मिला? अपने रिश्तेदारों के बीच तिल-तिल मरने के लिए मुझे छोड़कर, मेरा रक्षक, मेरा भवतारक वो मेरा पति दूर खड़ा मुझे टूटता, हारता और अपमानित होते देख रहा था. उसका प्रेम अब अहंकार में बदलता जा रहा था.” “सच कहूं केशव, तो मैं तब न उसके साथ रहना चाहती थी, न अब. वह तो यह सोचकर ख़ुश हो रहा था कि मैं सुविधा भोगी थी, इसलिए घर छोड़कर दर-दर की ठोकरें नहीं खाना चाहती थी. वह यह नहीं सोच सका कि ज़रूरत से ़ज़्यादा अत्याचार औरत को साहसी और कठोर बना देता है. मैं अपमान, दुख और बदले की आग में झुलसती उसकी दूसरी शादी में पूर्णतः बाधक बनी, उसके मनसूबों पर पानी फेर रही थी और इसी कारण से घोर प्रताड़ना का सामना भी साहस से कर रही थी.” मेरी एक कमज़ोरी उसकी ताक़त बन गई थी, जिसके बलबूते पर वह मेरे धैर्य की परीक्षा ले रहा था. आज उसकी कमज़ोरी यानी उसकी संतान मेरी ताक़त बन गई है, जिसे मैं उसे कभी छूने नहीं दूंगी. उसके झूठे चरित्रहीनता के आरोप को मैंने कोर्ट में सच्चा बना दिया है, जो हमारे तलाक़ का कारण बनेगा और यह तलाक़ अब होकर रहेगा. वह शौक़ से दूसरी शादी कर अपना घर बसा ले और भूल जाए मुझे और अपने अजन्मे शिशु को, जो अब मेरे जीने का मक़सद है. विवाह के मंत्रों को पढ़े जाने से एक स्त्री-पुरुष सात जन्मों के बंधन में नहीं बंध जाते हैं. इस संबंध को निभाने के लिए सबसे ज़रूरी शर्त है, एक-दूसरे के लिए दिल में समर्पित प्यार और विश्‍वास का होना. लेकिन हरीश ने तो मेरे विश्‍वास को ही छला था. मैं कहती हूं केशव, अगर कोई दूसरा जन्म होता भी है, तो मैं ईश्‍वर से यही प्रार्थना करूंगी कि मेरा किसी भी जन्म में हरीश से सामना न हो. अपना घर मैं ख़ुद बनाऊंगी अपने बलबूते पर.” “एक अंतिम गुज़ारिश है, जो उस तक पहुंचा देना. उसे कहना कि आगे वह किसी और के साथ ऐसा न करे. किसी भी स्त्री को अपने जीवन में, अपने ही घर में पराया न बनाए, क्योंकि भले ही उस घर को बनाने में पुरुष ने पैसे ख़र्च किए हों, पर उसके कण-कण से स्त्री की पूरी अस्मिता जुड़ी होती है.” मैं चाहकर भी निशा भाभी को वापस लौटने के लिए नहीं बोल पाया. आख़िर औरत हमेशा दूसरों के इशारे और दूसरों की मर्ज़ी से क्यों जीए? हरीश की तरह मेरे लिए स्त्री स्वतंत्रता और महिला सशक्तिकरण की बातें स़िर्फ काग़ज़ी नहीं थीं. मैं वहां से उठते हुए बोला, “मेरी ईश्‍वर से यही प्रार्थना है कि आप अपने मक़सद में पूरी तरह क़ामयाब हों. जीवन में आपको कभी भी किसी सहायता की ज़रूरत हो, तो निःसंकोच मुझे याद कीजिएगा. मैं और मेरा पूरा परिवार आपके साथ हैं.” rita kumar
      रीता कुमारी
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