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कहानी- अनुभूति (Story- Anubhuti)


  मनीषा कुलश्रेष्ठ

 

 
“प्रेम का यही रूप स्थायी है. मैं जब भी आऊंगा, तुमसे मिले बगैर नहीं जाऊंगा. तुम ही मेरी एकमात्र आत्मीय, रिश्तेदार, दोस्त या जो भी मानो… जो भारत से मुझे सम्पर्क रखवाएगी. तुम मुझे प्रिय हो, अपने इसी अखण्डित और सौभाग्य से सजे पवित्र रूप में.” उसने मेरे हाथों को अपने हाथों में भर लिया और न जाने कितनी देर हम वैसे ही खड़े रहते अगर मेरी फ्लाइट का एनाउंसमेन्ट न हुआ होता.

 

“हाय कविता…”
“हलो उत्कर्ष…”
“वॉन्ट टू चैट?”
“यस. बट डीसेन्ट चैट.”
“ऑफकोर्स.”
“कविता, आर यू इंडियन?”
“मतलब?”
“मेरा मतलब इंडियन-इंडियन या अमेरिकन-इंडियन.”
“यस, इंडियन, टिपिकल इंडियन.”
“इंटेरस्टिंग, नहीं तो अमेरिकन-इंडियन्स कंफ्यूज्ड देसी होते हैं. न इंडियन ही रहते हैं, न अमेरिकन हो पाते हैं.”
“और तुम?”
“मी? एनआरआई… नॉन रिलायबल इंडियन. मैं बोस्टन में सॉफ्टवेयर इंजीनियर हूं. अपने बारे में कुछ कहो. इंटरेस्ट…”
“म्यूज़िक, लिटरेचर…”
“ओह कविता…गुड.”
बस यहीं से हुई थी शुरुआत एक सम्प्रेषण की. तब चाहे इंटरनेट पर हमने अपने सही नाम छुपा लिए हों… पर जब ये सिलसिला रोज़ पर आ गया तो हमने अच्छे मित्रों की तरह अपने जीवन खोलकर रख दिए. वह विवाहिता थी, एक नर्सरी में पढ़ते नन्हें बच्चे कौस्तुभ की मम्मी और एक व्यस्त व सफल डॉक्टर की पत्नी. मैंने भी उसे जल्दी ही बता दिया था कि मैं एक विधुर हूं और दो टीनएज बच्चों का पिता हूं.
हम कई विषयों पर बातें करते- संगीत, कला, साहित्य, अध्यात्म, राजनीति, प्रेम, दांपत्य… अपराध, बच्चों के पालन-पोषण और अपनी ज़िंदगी के सुख-दुख, हार-जीत पर भी. हम तय समय पर इंटरनेट पर मिलते और दो घंटे ज़रूर चैट करते. दिल्ली और बोस्टन की घड़ियों का तेरह-चौदह घंटों का अंतर भी हमें रोक न पाता. मैं यहां बोस्टन में बैठा शाम को ऑफिस से लौटकर उसके जागने का बेसब्री से इंतज़ार करता… वहां सुबह के चार बजे होते. वह छह बजे जागती, पति और कौस्तुभ का नाश्ता बनाती, उन्हें स्कूल व नर्सिंग होम रवाना करती और तब इंटरनेट पर आ पाती, तब हम चैट करते. और जब रात को मैं बेसुध पेड़ के कटे तने की तरह पड़ा सो रहा होता, तब वह ईमेल करती. सुबह मैं उठता, ईमेल पढ़कर नियत समय पर इंटरनेट पर आ जाता. हम बस ऐसे ही व़क़्त चुराते रहते. ख़ूब फालतू बातें करते, “मुझे बारिश पसंद है.”
“मुझे भी तो… देखो हम कितने एक से हैं.”
“मुझे गर्मियां नहीं भातीं.”
“मुझे भाती हैं.”
कुछेक चीज़ों को छोड़कर हम बहुत कुछ मिलते-जुलते से थे. दोनों ही ज़िंदगी को दिल से ज़्यादा तौलते और दिमाग से कम. कला के प्रति दोनों का ही रुझान है. मैं वॉयलिन फुर्सत में बजाता हूं, उसने शास्त्रीय संगीत सीखा है. दोनों को ही अवसर नहीं मिल सके कला में प्रतिष्ठित होने के. दोनों के पास अच्छे मित्र की कमी थी. दोनों ही बहुत अन्तर्मुखी से थे, लोगों के बीच और अकेले में अपने आपसे बहुत मुखर. दिवास्वप्न देखना दोनों की आदत में शुमार था.
“इस इन्टरनेट ने हमें एक बहुत क़ीमती, अनाम रिश्ता दिया है.”
“इसे खोने मत देना कविता, इसी सम्प्रेषण के ज़रिये हम एक-दूसरे में ख़ुद को खोजते रहते हैं.”
कभी-कभी बहस करते और नाराज़ हो जाते, लेकिन जल्दी ही एक-दूसरे को मना भी लेते. बहुत मिन्नतों के बाद उसने एक फ़ोटोग्राफ़ ई-मेल करके भेजा, अपनी भारतीयता की रची-बसी छवि में, हल्दी के रंग की लाल बॉर्डर वाली साड़ी में, लम्बी चोटी आगे किए हुए केन के झूले में बैठे हुए.
तब पहली बार मैंने उसे कहा था-
“कवि, तुम बहुत ख़ूबसूरत और आकर्षक हो, जबकि मैं तो पैंतालीस साला का एक प्रौढ़ हूं.”
“उत्कर्ष, दोस्ती में उम्र के क्या मायने? किसी भी चीज़ के क्या मायने? दोस्ती दोस्ती है.”
तब ख़िड़की से भारी पर्दा हटा बाहर झांका था. बसन्त की प्रतीक्षा में पेड़ नये लाल-लाल पत्तों से भर गए थे. सुबह के पांच बजे थे. सुबह की इस लालिमा में मुझे कविता की परछाईं दिखाई दी और अचानक मैं टाइप कर गया, “और दोस्ती यदि आगे निकल कर आकर्षण या ऐसा ही कुछ अलग रिश्ता बन जाए तो…!”
“उत्कर्ष.”
“कवि…”
वह दो दिन लगातार इंटरनेट पर नहीं आई. मैं परेशान हो गया कि उसकी भावनाओं से खिलवाड़ किया है. मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था. उसने विश्‍वास कर मुझसे मित्रता की थी, साफ़-सुथरी-सी, लेकिन तीसरे दिन वह वहां थी.
“कवि…”
“…”
“कुछ लिखो.”
“उत्कर्ष…”
“मैं बहुत परेशान रहा.”
“मैं भी.”
“तुम क्यों…?”
“आपसे चैट के बाद एक वायरस आ गया था.”
“तुम्हारे कम्प्यूटर में?”
“उं… नहीं… मन में.”
“मतलब?”
“तुम्हारी आकर्षण वाली बात बहुत कन्टीजियस (संक्रामक) थी.”
“मतलब?”
“मतलब वह रोग मुझे भी लग गया.”
और इन्टरनेट पर ही प्रेम ने भक से आग पकड़ ली. कविता के पति के किसी मेडिकल सेमिनार में जापान
चले जाने पर कुछ दिन ये आग धधक कर जली. तन-मन के विकार जल गए और शुद्ध प्रेम सामने आया. वह कैसे यह मैं ही जानता हूं. तब हम प्रेम के ज्वार में लगातार बहते-उबरते.
“कवि, तुम्हारे सादगीभरे सौन्दर्य ने पागल कर दिया है.”
“उत्कर्ष, प्रेम में इतनी दीवानगी पहले कभी महसूस नहीं की. वह भी अनदेखे-अनजाने शख़्स के साथ प्रेम.”
“कवि, यह जो तुम्हारे गाल पर तिल है, क्या मैं उसे कभी छू सकूंगा?”
“वह आर्टिफिशियल है.”
“कवि, तुम्हारे लम्बे बालों की महक…”
“उत्कर्ष, अब वे भी लम्बे नहीं रहे.”
“कवि, मेरे आधे बाल स़फेद हैं.”
“तो क्या…”
“मुझे अपने इस प्रेम से डर लगता है कवि.”
“यह तो सायबर लव है.”
“नहीं! कम-से-कम तुम ऐसे मत कहो. यह सायबर लव या सायबर सेक्स जैसी कोई घटिया चीज़ नहीं है. यह विशुद्ध प्रेम है.”
“मुझे तो यह भी नहीं पता कि ये प्रेम है या कुछ और. उत्कर्ष, कभी प्रेम नहीं
किया, शादी ही की बस और शादी के बाद जो कुछ अच्छा-बुरा हुआ… उसे ही प्रेम मान लिया.”
“मैंने तो प्रेम-विवाह किया था कविता, पर अपने प्यार के साथ जी पाता, ये ईश्‍वर से देखा नहीं गया.”
“ईश्‍वर को मत कोसो.”
“मैं नहीं जानता, ईश्‍वर कौन है. मेरे लिए तो तुम ही आराध्य की तरह मन में बस गई हो. तुम्हारे आने ही से तो मेरे जीवन ने फिर से सांस ली है.”
“कभी हम मिलेंगे?”
“पता नहीं.”
“आप भारत नहीं आते?”
“तीन साल में एक बार, बच्चों को उनकी नानी से मिलवाने.”
“और आपका परिवार?”
“मेरा वहां अब कोई नहीं रहा कविता, एक भाई है, वह यहीं है अमेरिका में,
न्यूजर्सी में.”
“मैं हूं ना!”
“तुम तो अब बहुत कुछ हो. कल ऑफ़िस में भी तुम्हारे बारे में सोचता रहा और अकेला मुस्कुराता रहा.”
“उत्कर्ष, मैं भी बहुत ख़ुश रहने लगी हूं आजकल.”
“पतिदेव जापान गए हुए हैं इसलिए?”
“नहीं, उनसे बहुत प्यार है. बड़े अच्छे इन्सान हैं वे, हमेशा मुझे ख़ुश देखना चाहते हैं. बस, समय की ही कमी है उनके पास.”
“कवि… एक बार… बस एक बार तुम्हें देखना, मिलना और छूना चाहता हूं.”
“देखना, मिलना तो ठीक है, पर छूना… वह कठिन है.”
“कठिन ही ना… असंभव तो नहीं. एक पल के लिए एक आलिंगन ही सही.”
“उत्कर्ष..पलकें शर्म से भारी हैं.”
“यानी इजाज़त है?”
“नहीं… अच्छा मुझे साइन ऑफ़ करने दीजिए, ब्रेकफास्ट बनाना है.”
फिर कभी ऐसा भी होता कि मुझे ऑफ़िस जाना होता और वह लिखती-
“बाहर चांदनी रात में चमेली महक रही है, वही गंध मेरी देह में बस गई है. तुम यहां होते तो हम लॉन में संगमरमर की बेंच पर बैठे बतियाते. तुम्हारी बांहें मुझे घेरे होतीं. मैं बहक रही हूं उत्कर्ष.”
“कवि, यहां दिन की धूप पसरी है… ऑफ़िस जाने दो अब…”
“अच्छा जाओ… पर अब जब लौटोगे तब सुबह मैं जल्दी नहीं जगनेवाली, ऑन लाइन नहीं मिलूंगी.”
पर वह मिलती और जब वह सुबह छ: बजे कौस्तुभ को स्कूल भेजने के चक्कर में ऑफ़लाइन जाने को कहती तो मैं रोकता.
“रुक जाओ ना… देखो, दिल कितना शोर मचाता हुआ धड़क रहा है.”
“अपने दिल को मनाएं… आज
आप कौस्तुभ की स्कूल-बस मिस
करवाएंगे. रोहन और निकिता के एक्ज़ाम्स कैसे हुए?”
हमें एक-दूसरे के बच्चों के नाम, स्कूल, क्लास सब याद हो गए थे. मेरे बच्चे बदलाव महसूस कर रहे थे. पन्द्रह साल की निकिता कह ही बैठी-
“डैड, वाय डोन्ट यू रीमैरी…!”
और अकस्मात मेरे आगे भीगे बालों की लम्बी चोटी गूथती, पीले रंग की साड़ी पहने कविता का चित्र सजीव हो गया. जब मन में प्रेम आकार लेने लगा तो भारत जाने का संयोग भी बन गया. जब मैंने बच्चों को बताया तो वे बहुत ख़ुश हुए.
अब तो मैं रातभर उसे बांहों में पाता. उसकी बातें मुझे बेचैन करतीं. मैं करवटें बदलता, कल्पनाओं में उसे अपना पाता. न जाने क्यों दिल हक़ीक़त की ओर देखना ही नहीं चाहता था. इस ढलती उम्र में मेरा यह बदलाव ख़ुद मुझे हैरान करता. मन मानता ही नहीं कि वह विवाहिता कैसे मुझे अपना सकती है? उससे अकेले मिलना संभव होगा? मन कहता, प्रेम है तो वह आउट ऑफ़ दि वे जाकर मुझसे मिलेगी. मैंने उसे फ़ोन किया और उसने मेरे प्रस्ताव को स्वीकार भी किया कि वह मुझसे मिलेगी, एक बार तो मिलेगी ही. उसने मेरी मित्रता के बारे में डॉक्टर साहब को भी बताया है और उन्होंने इस मित्रता को उदारता से स्वीकार किया है. मन विपरीत भावों से भरा था. मैं सोचता- क्या यह संभव है कि वह अपने व्यस्त डॉक्टर पति से तलाक़…! फिर अगले ही पल लगता कि नहीं… मैं यह क्या सोच रहा हूं? एक भोली-भाली महिला को नहीं बहकाना है मुझे. उसके सुन्दर बसे संसार में दरार हो, यह मेरा सच्चा प्रेम नहीं चाहेगा. फिर कभी लगता कि मैं विधुर हूं, इसीलिए युवा स्त्री के शरीर की कामना में मरा जा रहा हूं, फिर दूसरे ही पल लगता-नहीं, यह विशुद्ध प्रेम है.
फिर वह दिन भी आ गया. हम सभी ने अपने बैग्स बड़े उत्साह से जमाए. बच्चों ने अपने कज़िन्स के लिए ढेरों उपहार ख़रीदे. मैंने भी चुपचाप से प्लैटिनम में जड़ा नन्हें-नन्हें हीरों और रूबी का एक तितली के आकार का नन्हा-सा पैण्डेन्ट मखमली डिबिया में रख छुपा लिया. प्लेन में भी बच्चे उत्साह में बातें करते, किताबें पढ़ते रहे, मैं अपनी चंचला प्रेमिका की कल्पनाओं में खोया रहा- कैसी होगी वास्तव में वह, कैसी होगी उसकी प्रतिक्रिया! कैसा होगा वो पहला स्पर्श…? व़क़्त ना बीतता प्रतीत होकर भी न जाने कब बीत गया. बच्चों को मुम्बई उनके ननिहाल छोड़ अगले दिन सुबह की ही फ्लाइट से मैं दिल्ली पहुंचा.
जब मैंने उसे पहली बार उसके घर के ड्रॉइंग रूम में देखा तो मेरी कल्पना की वह मूर्ति वैसी ही थी, जैसा उसे होना था, वही दमकता रंग, आकर्षक रूप. पर इस मासूम आकृति में मेरी चंचला, बांहें फैलाए आमन्त्रित करती प्रेयसी कहां थी? कौस्तुभ उसका दुपट्टा पकड़े खड़ा था, वह एक ममतामयी मां थी. डॉक्टर साहब बड़ी विनम्रता से मिले, उनके पास बैठी वह एक सौम्य पत्नी थी.
“अनुपमा के मित्र मेरे ही मित्र होते हैं उत्कर्ष जी, मुझे तो मित्र बनाने का समय ही नहीं मिलता. सारे सोशल ऑब्लीगेशन्स यही निभाती हैं.”
जिस्म का ताप सामान्य हो चला था. मैं सहज होकर उनसे मिला, अपने आत्मीयों की तरह. एक अच्छे मेज़बान की तरह उन्होंने मेरे लिए आरामदेह आतिथ्य का शिष्ट इन्तज़ाम किया था.
अगली सुबह जब मैं उठा तो वह लॉन में पानी दे रही थी. दूधिया कुर्ते-चूड़ीदार
और दुपट्टे में उसका पवित्र रूप मुझमें शीतलता भर गया. मुझे देख वह पाइप छोड़ कर क़रीब आ गई.
“गुड मॉर्निंग.” उसकी आंखों में एक संकोच झलका.
“गुड मॉर्निंग.”
क्यारियों में ढेरों गुलाब खिले थे. वहीं संगमरमर की बेन्च! हमने साथ बैठ कर चाय पी. आश्‍चर्यजनक रूप से मेरा हृदय सात समुन्दर पार जिसके सान्निध्य मात्र की कल्पना से धड़क जाता था, वही यहां एकदम मेरे सामने थी. इस संगमरमरी बेंच पर उसके साथ बैठकर भी मैं शांत था. सहज और प्राकृतिक संकोच से उसकी पलकें भारी थीं. कोई बनावट नहीं. हम बहुत औपचारिक बातें करते रहे.
“दिल्ली का प्रदूषण तो जानलेवा है.”
“जी, बोस्टन कैसा है?”
“व्यस्त शहर है, लेकिन पोल्यूशन इतना नहीं.”
“आप क्या करती रहती हैं, जब डॉक्टर साहब नहीं होते?”
“बस… घर और कुछ शौक़ पाल रखे हैं…”
“जैसे इंटरनेट चैटिंग?”


हम साथ खुलकर हंसे. मैंने वह मखमली डिबिया उसे देनी चाही तो अगले ही पल उसने पंख समेटती हंसिनी की तरह अपनी हंसी समेट ली.
“एक प्रेममय दोस्ती का उपहार है बस, स्वीकार कर लोगी तो अच्छा लगेगा.”
शेष सब कुछ बहुत सुखद था. पर वह आग ठण्डी हो चली थी. वो बांहें उठी ही नहीं, जिन्होंने उसकी कल्पना में कई बार तकिये को भींचा था. धूप निकल आई थी, हम अन्दर आ गए. वही ग़ज़लें चल रही थीं, जिनके शेर हम एक-दूसरे को लिखते थे.
अब वह एकदम पास थी, समर्पिता सी, होंठ भी लरज़ रहे थे, दुपट्टा भी सरक आया था, पलकें भी उठ-उठ कर गिर रही थीं. उसकी भीगी-सी देह में से फूटती गंध भी ताज़ा खिली चमेली-सी मधुर थी. पर आज… मेरे लिए यह गंध अंदर कहीं पूजा घर में से आती धूप बत्ती की पावन गंध में घुल पवित्र हो गई थी. वह स्वयं एक जलती देवज्योति-सी मेरे सामने थी… कैसे हाथ बढ़ा कर उसे अपवित्र कर देता? मैंने उसे हृदय से लगाया ज़रूर, पर वैसे जैसे आरती के दीए से आरती लेते हैं, ठीक वैसे ही भाव से, उसके मस्तक पर चूमा… और उसे हतप्रभ छोड़ कर कहा-
“अनुपमा, ब्रेकफास्ट नहीं कराओगी? छोले-भटूरों की ख़ुशबू आ रही थी रसोई से…”
वह सम्मोहन से जागी हो मानो-“ओह… सॉरी! अभी मंगवाती हूं.”
दोपहर डॉक्टर साहब यानी अनुराग के आने पर हमने और भी अच्छे पल बिताए. वे बेहद ज़िन्दादिल व्यक्ति लगे.
अगली सुबह वह अकेली एयरपोर्ट पर छोड़ने आई थी. उदास हम दोनों ही थे… मुझे तो संतोष था कि इस निष्पाप, किसी के सौभाग्य से सजी स्त्री को अपमानित करता, अगर छू लेता. वह पता नहीं क्या सोच रही थी.
लम्बी चुप्पी के बाद वही बोली-“उत्कर्ष, जब आप आ रहे थे, तब बड़ी दुविधा में थी कि…कैसे मैं आपसे मिलूंगी… आप न जाने किस उम्मीद से आ रहे होंगे… पर आपने…”
“किसी क्लैरीफिकेशन की ज़रूरत नहीं अनुपमा.”
“आपने मुझे सहेज लिया. मैं कृतज्ञ हूं.” मैंने देखा, वह पेण्डेन्ट उसके गले में झूल रहा था.
“प्रेम का यही रूप स्थायी है. मैं जब भी आऊंगा, तुमसे मिले बगैर नहीं जाऊंगा. तुम ही मेरी एकमात्र आत्मीय, रिश्तेदार, दोस्त या जो भी मानो… जो भारत से मुझे सम्पर्क रखवाएगी. तुम मुझे प्रिय हो, अपने इसी अखण्डित और सौभाग्य से सजे पवित्र रूप में.”
उसने मेरे हाथों को अपने हाथों में भर लिया और न जाने कितनी देर हम वैसे ही खड़े रहते अगर मेरी फ्लाइट का एनाउंसमेन्ट न हुआ होता.
“और वह भावनाओं-बातों… अनुभूति… एक से लोगों की एक-सी बातों का सम्प्रेषण?”
“वह जारी रहेगा कवि…”

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Meri Saheli Team

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