निर्मला सुरेंद्रन
रीतते-रीतते ज़ख़्म अब भरने लगे थे. सालों से सहेजकर रखी गई व्यथा की आंच अब क्रमशः धीमी होती-होती एक छोटी-सी निश्छल दीप की लौ की भांति हृदय में ऐसे विराजमान हो गई थी कि उसका सुखद एहसास कई बार मन को गुदगुदा तो जाता, पर विरह वेदना से मन के भर्रा आने की स्थिति अब न के बराबर थी.
गृहस्थी की भाग-दौड़ के बीच, पुराने ज़ख़्मों को कुरेदने का व़क़्त नहीं मिल पाता है. कर्त्तव्यपूर्ति को दरकिनार कर किसी आत्मिक संतुष्टि की चाह में कई बार मैं पूरे जीवन को एक चलचित्र की भांति देख तो लेती थी, पर उस फ्लैश बैक का फास्ट मोशन मुझे गहराई में डुबोकर आंसुओं को बहाने का अवसर ही नहीं देता था. कभी फ़ोन की घनघनाहट, कभी बेटी सुवर्णा का होमवर्क करवाना, तो कभी अपूर्व की शर्ट के टूटे बटन मुझे अपने चिंतन से खींचकर अलग कर दिया करते थे.
पर आज मन का आवेग किसी भी अड़चन से बाधित होनेवाला नहीं था. सालों बाद… उसी परिवेश में मुझे लौटना पड़ रहा था, जहां का ख़्याल मेरी पूजा का एक अभिन्न अंग तो था ही, मेरी निश्छल और मौन तपस्या का एक सशक्त गवाह भी था.
भैया की इकलौती बेटी प्राजक्ता का विवाह तय हो चुका था. जिस पिता तुल्य भैया ने मेरा कन्यादान किया था, उनकी इकलौती बेटी की शादी के लिए बहाना बनाना सही न था.
मैं नागपुर की यात्रा पर थी. ट्रेन की तेज़ ऱफ़्तार से अधिक तीव्र थी मेरे हृदय की धड़कन. नागपुर मेरा शहर था, मेरा अपना शहर, जहां मैंने जन्म लिया, पली-बढ़ी. आज अपनी उसी जन्मभूमि में लौटते हुए मैं भी रोमांचित थी और सुवर्णा भी. अतीत बड़े धीमे से मेरे ख़्यालों में अपनी धूमिल छवि को दोहराने लगा था. जहां मेरे जन्म के कुछ सालों के बाद ही मेरे माता-पिता का एक दुर्घटना में देहांत हो गया था.
माता-पिता विहीन मैं अपने भैया पर बोझ थी या नहीं, यह तो पता नहीं, पर भैया को इस बोझ को उठाने के लिए कभी असाध्य प्रयास नहीं करना पड़ा. बेहद शांति से जीवन चलता रहा था. इसके लिए बहुत हद तक मेरा शांत स्वभाव भी ज़िम्मेदार था. भैया की हर इच्छा पर मेरी सहमति ही रहती थी. मेरी कोई आकांक्षा, कोई ज़िद भैया-भाभी के बीच कभी विवाद का कारण नहीं बनी. बगैर किसी भी प्रतिक्रिया के मैं एक रोबोट की तरह अपना कार्य करती रहती थी. घर और कॉलेज तक ही सीमित थी मेरी दुनिया. न सहेलियों के साथ कॉलेज बंक कर कोई फ़िल्म देखने गई, न होटलों के लंच का लुत्फ़ उठाया. मेरे पास दबा-दबा-सा एक ख़्वाब तो था, जिसमें प्यार की दीवानगी को भोगकर रोमांचित होने की आकांक्षा थी. पर उस ख़्वाब को पूरा करने के लिए मैंने कभी कोई कोशिश नहीं की.
किसी भी लड़के को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए मैंने कभी कोई पहल नहीं की. एक धीर-गंभीर प्रवृत्ति के साथ मेरा संकोची स्वभाव भी मुझे सदैव उन आम लड़कियों से अलग बना देता, जिनके बॉयफ्रेंड हुआ करते थे. लेकिन मेरी तटस्थता क्षणिक सिद्ध हुई.
मेरे अकेलेपन को अपने स्नेह से सराबोर करने के लिए विपुल तूफ़ान की तरह मेरी ज़िंदगी में आ गया. उसके आगमन ने मेरे शांत जीवन में हलचल-सी मचा दी थी. उस रोज़ मैं बेहद शांति से बस की विंडो सीट पर बैठी नागपुर शहर की भागमभाग को निहार रही थी कि ”हाय दुर्वा” कहते हुए मेरे पास आकर बैठ गया वो.
मैं चकित थी, मुझे कैसे जानता है वो? मेरे चेहरे के प्रश्नचिह्न को भांपकर उसने तुरंत अपना परिचय दे दिया था, ”मैं रेणु का भाई विपुल…”
”ओह!” परिचय पाते ही मैं सामान्य हो गई, ”विपुल भैया…”
”प्लीज़ दुर्वा, मुझे भैया मत कहना… प्लीज़…” उसका बोल्ड निवेदन मुझे अंदर तक दहला दिया. मैं संकोच से भर गई थी, मेरे चेहरे पर एक स्त्री सुलभ लज्जा अपने पूर्ण लाली के साथ दमक गई. मुझे अपनी निरीहता पर खीझ भी आई थी कि भावों को छुपाना क्यों संभव नहीं हुआ मुझसे? मेरे चेहरे के भावों ने निःसंदेह उसे भी रोमांचित किया होगा, इसीलिए हम दोनों के बीच कुछ पलों के लिए एक चुप्पी-सी छा गई.
”आप काफ़ी बदल गए हैं…” थर्राते स्वर में मैंने ही बातचीत में पहल की.
”तुम भी तो… कितनी सुंदर हो गई हो अब…” उसने धीरे से कानों में मिश्री घोल दी.
”मैंने तुम्हें कल भी देखा था… पर शक हुआ कि तुम सचमुच दुर्वा ही हो या कोई और? पर आज तुम्हें किसी ने तुम्हारे नाम से पुकारा तो…” उसकी हर बात में शोख़ी थी, जो मुझे निरुत्तर किए जा रही थी.
मैंने सोचा भी न था कि मेरे जीवन में यह बदलाव भी आएगा. उस रोज़ के बाद मुझे लगा कि मुझमें एक चुहलपन आ गया है. हृदय की धड़कन की वृद्धि ने मेरे चेहरे पर एक स्थाई गुलाबी आभा फैला दी थी.
अब मेरी व्यस्तता में एक स्वाभाविक उल्लास का समावेश हो गया था. देर रात तक विपुल के ख़्यालों में जीना और भोर होते ही उससे मिलने की उत्कंठा में अपेक्षाकृत अधिक तेज़ी से अपने कार्यों को अंजाम देना मेरी दिनचर्या बनने लगी.
विपुल से एक ही मुलाक़ात ने हम दोनों के जीवन की दिशा बदल दी. ‘लव ऐट फ़र्स्ट साइट’ का अर्थ अब समझ में आ रहा था. विपुल रोज़ मिलता. अपने मनोभावों को व्यक्त करते हुए वो जब अपने प्रेम की गहनता की व्याख्या करता, तो मैं चकित हो जाती. यूं लगता कहीं उसके प्रेम से कम गहन तो नहीं मेरा प्रेम, क्योंकि मेरी भावनाएं अव्यक्त जो रह जाती थीं. मैं बार-बार विपुल के स्नेह को गहन मान नतमस्तक हो जाया करती थी.
पर सालों बाद आज लगता है कहां गहरा था वो प्रेम? गहरा होता तो मुझे किसी और की पत्नी बनने से रोक न लेता. विवाह के निश्चित होते ही मेरे भैया से मेरे लिए गिड़गिड़ाता नहीं. मैं तो दुल्हन बनने तक राह जोहती रही थी, जब तक फेरे न पड़ गए तब तक, जब तक मांग न भरी गई तब तक, जब तक बिदा न हो गई तब तक मैं इंतज़ार ही तो कर रही थी… अपने भाइयों का विरोध करना मेरे लिए संभव नहीं था. मैं अपने प्रेम का दम जिन हथेलियों को थामकर भरना चाहती थी, वो हथेली मेरे पास थी ही नहीं. कब और कैसे वो मुझसे दूर हो गया, पता ही नहीं चला.
अब लगने लगा है कि प्यार तो मेरा निःस्वार्थ था, गहन था, इसीलिए तो आज भी एक स्नेहदीप अपने अंतस में जलाए बैठी हूं बड़ी निष्ठा से, बड़ी आस्था से.
नागपुर आ गया था- मेरा शहर, मेरी जन्मभूमि. यहां की मिट्टी में मुझे अपनी ही ख़ुशबू महसूस होती है. यहां की हवा में मैं मातृत्व-सी आत्मीयता महसूस करती हूं. मेरे चेहरे पर एक गहन मुस्कान आ गई थी. जैसे मैं पुनः एक नवयौवना बन गई हूं.
घर पहुंची तो देखा, घर दुल्हन की तरह सजा हुआ था. एक शिकायत प्रायः सभी के मुंह से सुननी पड़ रही थी, ङ्गकितने दिनों के बाद आई है?फ ङ्गकभी याद नहीं आई हमारी?फ प्राजक्ता दुल्हन बनने के सपने लिए उल्लासित थी. सारे रस्मों-रिवाज़ों के बीच भी मेरा अंतर्मन एक तटस्थ भाव लिए हुए था. मैं जैसे वहां होकर भी नहीं थी. मेहंदी की रस्म हुई, संगीत की रस्म हुई और गौरी पूजा भी. पर मैं किसी भी आयोजन में पूरी तरह से शरीक न थी. जाने कैसा संकोच था, कौन-सा भाव था, जो मेरे मन के रोमांच पर एक उदासी का कवच डाल मुझे निरुत्साहित करने पर तुला हुआ था.
बारात आई तो भैया-भाभी बारातियों के बीच जाकर ऐसे नाचने लगे थे जैसे वो लड़की के माता-पिता नहीं बाराती हों. अपूर्व और सुवर्णा भी मुझे कई बार भीड़ के बीच में खींचने का प्रयास कर रहे थे. पर मैंने बड़ी होशियारी से स्वयं को भीड़ से अलग कर रखा था.
इतना उत्साहपूर्ण माहौल भी मुझे आकर्षित नहीं कर पा रहा था. बारातियों के आवभगत का व़क़्त आया, तो कुछ देर की व्यस्तता ने मुझे अपनी गिऱफ़्त में ले लिया. मैं भी तेज़ी से बारातियों के आवभगत में जुट गई. दूल्हे की आरती, बारातियों का मान-सम्मान और बड़े-बुज़ुर्गों को उचित स्थान पर बिठाने की ज़िम्मेदारी मैंने उठा ली थी. पर मेरी भाग-दौड़ पर तब विराम लग गया, जब बड़े भैया को किसी से उलझे देखा.
मैं धीरे से वहीं चली गई और देखकर स्तब्ध रह गई. काटो तो ख़ून नहीं. मेरे आगे विपुल खड़ा था. अपने दिमाग़ पर नियंत्रण खो चुका विपुल, एक पागल के रूप में भैया के आगे खड़ा उनसे उलझ रहा था, ”मुझे लड्डू दिला दो भैयाजी, फिर मैं चला जाऊंगा, प्लीज़ मुझे…” भैया बार-बार अपना हाथ छुड़ा रहे थे और वो फिर से उनके हाथ को कसकर पकड़ लेता, ”लड्डू दिला दो न भैया…” अचानक भैया की नज़र मुझ पर पड़ी, उनका चेहरा स़फेद पड़ गया. जैसे कोई चोरी पकड़ ली गई हो. मेरी आंखें डबडबा गईं, ”विपुल… ये क्या हो गया है तुम्हें?” मैंने कसकर उसका हाथ पकड़ लिया. अपने निश्छल, पावन स्नेह की पराकाष्ठा पर सदैव गौरवान्वित रहनेवाली मैं स्तब्ध थी. विपुल पागल हो चुका था, कहीं मेरे प्यार में ही तो नहीं? क्या हुआ होगा? मैं सोचना चाहती थी, समझना चाहती थी, पर सामर्थ्य ख़त्म होने लगा, मैं बेहोश होती चली गई. फिर कुछ याद नहीं रहा. निढाल शरीर में शायद कई प्रतिक्रियाएं हो रही थीं, जिसे आत्मा तो महसूस कर रही थी, पर दिमाग़ शून्य हो गया था.
जब आंख खुली तो प्राजक्ता को अपने पैरों के पास दुल्हन के रूप में बैठे हुए देखा. शायद शादी की रस्म पूरी हो चुकी थी. मैं उठ बैठी, शरीर थका-थका-सा लग रहा था. अपूर्व ने कंधे को थामकर उठने में मदद की.
”कैसी हो दुर्वा?” अपूर्व की आंखों में चिंता के भाव थे.
”अपूर्व… वो… मैं बाहर जाना चाहती हूं.”
”विपुल से मिलना चाहती हो?” मेरे कंधे पर अपने हाथ को थोड़ा-सा कसते हुए अपूर्व ने पूछा. मैं चकित-सी ताकती रह गई कि उसे कैसे पता चला विपुल के बारे में?
”भैया ने मुझे सब कुछ बता दिया है दुर्वा… तुम्हारे भाइयों ने बड़ी बेदर्दी से विपुल को तुमसे अलग किया था. पर अब विपुल की इस स्थिति को देख वो अपने ग़लत फैसले पर शर्मिंदा भी हैं और जहां तक विपुल की बात है, प्रेम में त्याग है, तभी तो प्रेम को पूज्यनीय कहा जाता है न. प्रेम की पराकाष्ठा का सबूत ही तो है न विपुल की यह स्थिति…” मैं अपूर्व के कंधे से लग गई. यदि विपुल का स्नेह गहरा है, तो अपूर्व का विश्वास आकाश से भी ऊंचा. मैं अपने भाग्य पर इतरा उठी.
शादी के दूसरे ही दिन हमें लौटना था. देखा, विपुल भैया के गेट को थामे खड़ा हमारे घर की धूमिल हुई रौनक को अपलक देख रहा था. मैं नयनों में नीर लिए विपुल के पास जाकर खड़ी हो गई, ”विपुल…” भर्राए स्वर में मैंने कहा, ”पिछली बार गई तो तुमसे अनुमति नहीं ले पाई थी, इस बार अनुमति दे दो.”
विपुल कुछ पलों तक मेरे चेहरे को देखता रहा. रुंधे स्वर में जवाब दिया, ”जाओ… पर फिर आओगी न? मेरी शादी है दुर्वा के साथ…”
मैं झेंप-सी गई. अपूर्व के सामने ही विपुल द्वारा कही गई इस बात से मैं सकुचा-सी गई. अंदर की एक पतिव्रता नारी को जैसे यह बात रास ही न आई. मन में एक प्रकार की ऐसी खीझ आई कि विपुल को कसकर एक तमाचा जड़ दूं. पर मेरे अंतर की व्यथा को जैसे अपूर्व ने भांप लिया था, बोला, ”दुर्वा, विपुल होश में थोड़े ही है. बेचारा… चलो, निकलने का समय हो गया है.”
सच ही तो है. मुझे भी लगने लगा, विपुल होश में नहीं है. इसीलिए स्नेह में त्याग की बात नहीं समझ सकता. प्रेम की पराकाष्ठा को हृदय में लिए एक सहज जीवन जीना अग्निपथ पर चलने जैसा कठिन है, यह तो स़िर्फ मैं ही जानती हूं. विपुल की अनुमति मिल गई थी, अतः मैं पुनः अपने संसार में लौट गई.
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