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कहानी- अपने शहर में (Story- Apne Shahar Mein)

        

            उषा वधवा

‘कितनी अजीब-सी उम्र होती है किशोरावस्था की. मासूमियत की दीवार भेद एक अनोखी नई दुनिया भीतर घुसपैठ करने लगती है. भावनाएं डगमगाने लगती हैं. कोई अच्छा लगने लगता है अकारण ही. जी चाहता है वह सराहना करे, ध्यान दे आपकी तरफ़.’
वर्षों बाद पुणे जा रही हूं. मेरे बचपन और किशोरावस्था का शहर पुणे, जो तब पूना कहलाता था. इतने वर्ष हो गए पूना छोड़े, पर आज भी वह शहर बहुत अपना लगता है. ढेर सारी मधुर स्मृतियां जुड़ी हैं उस शहर से. गाड़ी में बैठते ही मैं कल्पना लोक में पहुंच गई हूं. यादों की यही तो ख़ासियत है कि वह दुनियादारी के नियमों की मोहताज नहीं. न टिकट की ज़रूरत, न किसी की इजाज़त की. जब मर्ज़ी और जहां मर्ज़ी पहुंच जाती है वह.
पिताजी की नौकरी ऐसी थी कि अक्सर तबादला होता रहता था. एक बार जब पुणे तबादला हुआ, तो उन्हें वह शहर, वहां का मौसम इतना पसंद आया कि उन्होंने पुणे में ही अपना घर बनवा लिया और रिटायरमेंट के बाद वहीं बस गए. अब बड़े भइया-भाभी भी वहीं रहते हैं. दीदी का ब्याह एक आर्मी ऑफिसर से हुआ, सो आज यहां, तो कल वहां घूमती ही रहती हैं. घर में मैं सबसे छोटी थी. समय आने पर मेरी शादी मेरठ के एक संयुक्त धनी परिवार में हुई. इनका अपना कारोबार है. यहां हर रिश्ता दौलत से तौला जाता है. व्यक्ति का सम्मान उसके बैंक बैलेंस के अनुसार किया जाता है. मेरे मायके के लोग अधिक शिक्षित व संभ्रान्त होते हुए भी इनसे कम हैं. इस परिवार की अपनी परंपराएं हैं, जिसके अनुसार स्त्री घर के भीतर ही शोभा पाती है. ख़ूब ऐशो-आराम, ख़ूब ठाठ-बाट हैं, लेकिन नियम-क़ानून भी बहुत हैं. गहने-कपड़ों का ढेर है, क्योंकि इसी से तो लोगों को पारिवारिक समृद्धि का पता चलता है, लेकिन घर की स्त्रियों की इच्छाओं की कोई क़ीमत नहीं, उनसे राय-मशवरा करने की ज़रूरत कोई महसूस नहीं करता.
हमारे शास्त्रों में स्त्री को देवी का दर्जा प्राप्त है. देवी की मूर्ति को अपनी सामर्थ्य के अनुसार अच्छी तरह सजाया जाता है, असली हीरे-जवाहरात तक पहनाए जाते हैं, पर उसका स्थान घर के भीतर का कोई कोना ही होता है, जहां वह ख़ामोश खड़ी रहती है. ठीक यही स्थिति इस घर में स्त्रियों की भी है.
पति शशांक अपने कारोबार में व्यस्त रहते हैं, पर खाली होने पर भी उनके जीवन में मेरे लिए कोई जगह नहीं है. संयुक्त परिवार है, तो कुछ समय तो कट जाता है, पर समय काटना और जीना दो अलग-अलग बातें हैं न! कभी नहीं सोचा था कि विवाहित जीवन में और भरे-पूरे परिवार में भी इस कदर अकेलापन महसूस हो सकता है. पति का शुष्क व्यवहार पूरे जीवन को रेगिस्तान में बदल सकता है. शरीर की सारी क्रियाएं चलती हैं, फिर भी भीतर ही भीतर सब कुछ मर जाए, उस स्थिति के लिए कौन-सा शब्द है शब्दकोश में? डॉक्टर इस रोग का इलाज क्यों नहीं खोजते?
बीच में एक ही बार आ पाई थी पुणे पापा के स्वर्गवास के बाद. मां तो मेरी शादी से पहले ही इस दुनिया से चली गई थीं. उस माहौल में घर से बाहर निकलना नहीं हो पाया, ज़्यादा किसी से बात भी नहीं हुई. अपनी बेटी की शादी में पूरे परिवार को सादर निमंत्रित करने भइया और भाभी स्वयं आए थे, बाकी सबने तो व्यस्तता का बहाना बना दिया, पर मैं ख़ुश थी कि मुझे जाने की अनुमति मिल गई. मेरे लिए यही बहुत था. अब कल्पना लोक से बाहर आने का व़क्त हो गया है, क्योंकि मैं अपने शहर पहुुंच चुकी हूं.
अपने शहर में होने की ख़ुशी में सुबह जल्दी ही नींद खुल गई है. कुछ अजीब-सी मनःस्थिति है. कुछ-कुछ स्वप्न-सी अवस्था ‘क्या मैं सचमुच पुणे पहुंच गई हूं?’ आकाश में बादल हैं और हवा भी चल रही है. मन में उमंग है. ये सब मैं सोकर नहीं गंवाना चाहती, इसलिए जूते पहनकर बाहर निकल आई हूं. स्वयं को एक ऐसे पंछी की तरह महसूस कर रही हूं, जिसे थोड़े दिनों के लिए पिंजरे से बाहर उन्मुक्त उड़ने की आज़ादी मिल गई है. यूं पुणे शहर बदल गया है, पर मेरे आसपास जाने-पहचाने रास्ते हैं, पुराने लैंडमार्क हैं. हमारे घर की लंबी-सी सड़क के बाद दाएं मुड़ते ही पार्क है और उसके बाद पहली कोठी चोपड़ा अंकल की है. उनका कारों का अपना शोरूम है. उनके चार बेटों में सबसे बड़ा बेटा स्कूल में भइया के संग पढ़ता था. इन दोनों की गहरी दोस्ती थी, इसी कारण मम्मी-पापा का चोपड़ा अंकल और आंटी से परिचय हुआ था. आना-जाना शुरू हुआ, जिसने पारिवारिक मैत्री का रूप ले लिया. तीसरे नंबर का बेटा माधव मेरे स्कूल में था, मुझसे दो साल सीनियर. तब शहर इतना फैला नहीं था. स्कूल की अपनी बसें नहीं थीं और हम पैदल ही स्कूल आया-जाया करते थे. हां, माधव के पास अपनी ख़ुद की साइकिल थी. मुझे गाने का शौक़ था और मैंने एक विषय संगीत ले रखा था. स्कूल के कार्यक्रमों में मेरा कोई गीत होता, जिसकी रिहर्सल अथवा कार्यक्रमवाले दिन मुझे देर तक रुकना पड़ता, तो माधव लाइब्रेरी में बैठकर पढ़ता रहता और मुझे संग लेकर लौटता, ख़ासकर सर्दियों में. पुणे में वैसे बहुत ज़्यादा ठंड तो नहीं पड़ती थी, पर फिर भी शाम जल्दी घिर आती थी. माधव की उपस्थिति निश्‍चय ही मुझे सुरक्षा का एहसास दिलाती थी.
चोपड़ा अंकल के गेट तक जाकर मैं रुक गई हूं. यह तो पता है कि अंकल नहीं रहे, लेकिन आंटी से मिलने का मन हो आया है. सूरज अभी अपनी आरामगाह से निकला नहीं है या फिर बादलों की वजह से रोशनी कम है, पता नहीं. मैं इसी पसोपेश में खड़ी हूं कि अभी भीतर जाना ठीक है या नहीं कि तभी उनके घर में भीतर का दरवाज़ा बंदकर कोई बाहर आता दिखाई दिया. पास आने पर ही मैंने पहचाना, “माधव!
पहचाना मुझे?”
“हां वसु! मुझे पता था, तुम आनेवाली हो. कल रात ही आई हो ना. अभी तुम न आती, तो मैं शाम को तुमसे मिलने आता ही.” उसने बड़े उत्साह से कहा.
‘वसु!’ कितना अपनत्व है इस संबोधन में. यह शहर अपना है, अपने लोगों का है और इसीलिए इस शहर के लिए मैं वसु हूं, मेरठ जाकर वसुंधरा बन जाती हूं.
लॉन में रखी कुर्सियों की ओर इशारा करते हुए माधव ने कहा, “मां की तो अभी आधा घंटा पूजा चलेगी और बाकी लोग सो रहे हैं, तब तक हम यहीं ताज़ी हवा में बैठते हैं. अच्छा है तुम मिल गई. दो मिनट बाद आती, तो मैं भी सैर पर निकल चुका होता.” दो मिनट मौन छाया रहा. मुलाक़ात होती रहती है, तो बातों के सूत्र भी जुड़ते चले जाते हैं. इतने सालों के बाद मिलने पर नए सूत्र तलाशने पड़ते हैं. क्या बोलूं, कुछ समझ नहीं आया, तो बादलों की ओर देखते हुए मैंने कहा- “लगता है बारिश होगी…”
“अच्छा है न! तुम्हें तो बारिश में भीगना बहुत पसंद है ना.”
मैंने हैरानी से उसकी तरफ़ देखा, पर कुछ अधिक देर तक ही. अपनी हैरानी में शिष्टाचार की सीमा भी लांघ गई शायद. इसे याद है अभी तक यह बात? याद है वह दिन? अच्छा मौसम देखकर हम सब पिकनिक के मूड में आ गए थे और दोनों परिवार चल पड़े थे पिकनिक मनाने. कहीं दूर नहीं, पास ही के एक गार्डन में. थोड़ी देर में ही आसमान से बूंदें गिरने लगीं. पहले नन्हीं-नन्हीं, फिर मोटी-मोटी. जब सब लोग इधर-उधर छत खोज रहे थे, तो मैं हथेलियां और चेहरा ऊपर उठाए बारिश का आनंद ले रही थी, जब तक कि मां ने आवाज़ लगाकर छप्पर के नीचे नहीं बुला लिया. मेरी ज़िंदगी कितनी बदल गई है. मेरे पति शशांक को यह सब बिल्कुल नहीं पसंद. कोई मुझे देखे न, इसलिए मैं बारिश का आनंद लेने अपने तिमंज़िले घर की छत पर चली जाती हूं, तब भी ग़ुस्सा हो जाते हैं.
“क्या सड़कछाप लोगों की तरह वाहियात शौक़ हैं तुम्हारे.” उनका कथन है.
उन्हें क्या पता, ये छोटे-छोटे शौक़ ज़िंदगी को कितना जीवंत बना देते हैं.
आज शाम को ही सगाई की रस्म है. मैं तैयार होकर पंडाल में आ बैठी हूं, ताकि अरसे बाद मिल रहे परिचितों से इत्मीनान से बातचीत कर सकूं कि तभी माधव आता दिखाई पड़ा है. भइया ने चोपड़ा परिवार के सभी सदस्यों को कोई न कोई काम सौंप रखा है. माधव को शायद पंडाल की ज़िम्मेदारी मिली है. मुझे बैठा देख वह झट से डीजे की तरफ़ मुड़ गया और वहां से लौटकर बोला, “तुम्हारी पसंद के गाने उन्हें लिखकर दे आया हूं. तुम बैठकर सुनो.” मुझे विश्‍वास नहीं होता कि इतने सालों बाद भी उसे मेरी पसंद के गाने याद होंगे, पर शीघ्र ही हेमंत कुमार साहब की आवाज़ फ़िज़ा में गूंज गई.
“तुम्हें अभी तक याद हैं मेरी पसंद के गाने?” मैंने आश्‍चर्यपूर्वक पूछा.
वह कुछ देर तक सोचता रहा फिर बोला, “मुझे तो बहुत कुछ…” और फिर वाक्य बीच में ही छोड़ दिया, पर अधूरा रह गया वाक्य अधिक अर्थपूर्ण हो गया है. सच है, कभी-कभी ख़ामोशी शब्दों से अधिक बोल जाती है और एक के बाद एक गाने बजने लगे सब मेरी पसंद के. गीत-संगीत मुझे मां से विरासत में मिला है. बस, गानों की पसंद अलग-अलग है. मां पंजाबी टप्पे, शादी-ब्याह के गीत, भजन आदि को शौक़ से गाती थीं और मैं नई क़िस्म के गाने पसंद करती थी.
“याद है तुम्हें, तुम्हारे भइया की शादी में तुम्हारे काले सूट पर दही वड़े का पूरा डोंगा ही उलट गया था. तुम्हें तो रोना आ गया था. तब मैंने नई-नई कार चलानी सीखी थी और तुम्हें कपड़े बदलवाने घर ले आया था.”
याद कैसे नहीं होगा. सारा दृश्य अंकित है मानसपटल पर आज तक. मैं नौंवी कक्षा में थी. जब माधव स्कूल पासकर पिलानी चला गया था और उसके बाद अमेरिका ऑटोमोबाइल की ट्रेनिंग लेने, ताकि कारों के बिज़नेस में नई तकनीक काम में लाई जा सके. पर भइया की शादी गर्मियों की छुट्टी में हुई थी, इसलिए माधव भी उस समय घर पर आया हुआ था.
तब कुंआरी लड़कियां आज की तरह बनाव- शृंगार नहीं करती थीं. कपड़ों पर बेहिसाब पैसा ख़र्च नहीं किया जाता था. दीदी ने मेरे लिए घर पर ही काले क्रेप का सूट सिलकर उसके गले और दुपट्टे के चारों ओर स़फेद सीपियां लगा दी थीं. मेरे लिए वही नायाब ड्रेस बन गई थी. पहनकर बाहर निकली ही थी कि सामने माधव पड़ गया और कुछ देर खड़ा देखता ही रह गया. मुंह से कुछ न बोलकर भी उसकी आंखें हज़ारों कॉम्प्लीमेंट्स दे गईं. बारात में भी मैंने उसे अपनी ओर देखते पाया. विवाह स्थल पर बारात पहुंचे काफ़ी समय हो गया था और ज़्यादातर लोग खाना खाकर लौट भी चुके थे. रस्में शुरू होनेवाली थीं और अभी परिवारवालों का भोजन नहीं निपटा था. उसी अफ़रा-तफ़री में बैरे की असावधानी वश दही वड़े से भरा डोंगा मेरे कपड़ों पर उलट गया. अच्छा था कि विवाह स्थल हमारे घर से अधिक दूर नहीं था, लेकिन घर के सभी लोग व्यस्त थे, तो चोपड़ा अंकल ने माधव से कहा कि कपड़े बदलवाने मुझे घर ले जाए.
‘कितनी अजीब-सी उम्र होती है किशोरावस्था की. मासूमियत की दीवार भेद एक अनोखी नई दुनिया भीतर घुसपैठ करने लगती है. भावनाएं डगमगाने लगती हैं. कोई अच्छा लगने लगता है अकारण ही. जी चाहता है वह तारीफ़ करे, ध्यान दे आपकी तरफ़. शशांक के साथ इतने बरस रहकर भी मन के तार उस तरह कभी नहीं झनझनाए, जैसे कभी माधव को देखकर झनझनाया करते थे, पर उसने इतने वर्षों बाद भी क्यों याद रखा यह सब?’ इसका उत्तर तो वही दे सकता है.
हम पुरानी यादें ताज़ा कर रहे हैं. कुछ भूली बातें भी अनायास याद आ रही हैं, आते ही चली जा रही हैं. इतने में माधव की पत्नी रेणुका आ गई है. फूलों की महक लिए खिला-खिला-सा चेहरा और चेहरे पर बौद्धिकता की स्पष्ट छाप. मैं पहली बार उससे मिल रही हूं. “कॉलेज में मनोविज्ञान पढ़ाती है.” माधव ने सगर्व उसका परिचय दिया.
माधव के बाकी भाई तो बीए कंप्लीट करते ही पिता का हाथ बंटाने लगे थे, पर माधव अमेरिका से उच्च शिक्षा प्राप्त करके आया था, इसलिए उसके लिए लड़की भी शिक्षित ढूंढ़ी गई. “वैसे तो मुझे नौकरी करने की कोई आर्थिक ज़रूरत नहीं थी, लेकिन मनोविज्ञान पढ़ाना मेरा शौक़ है. माधव ने न स़िर्फ ख़ुद अनुमति दी, वरन् मम्मी-पापा को भी राज़ी करवा लिया.” रेणुका ने गर्व एवं नेह मिश्रित भाव से उसकी ओर देखते हुए बताया.
ज़िंदगी का दरिया न स़िर्फ अपनी गति से चलता है, बल्कि वह अपनी राह भी स्वयं बनाता है. हमें ही उसके अनुरूप ढलते रहना होता है. उस पर मैं तो किसी को दोष भी नहीं दे सकती, समय को भी नहीं. हमारी दोस्ती इस बिंदु तक पहुंची ही नहीं थी, जहां वादे किए जाते हैं. प्रीत-प्यार की, स्त्री-पुरुष संबंधों की कोई समझ ही नहीं थी तब मुझमें. वह अच्छा लगता था बस और जब तक यह बात समझ में आई, वह जा चुका था. माधव मुझसे कुछ बड़ा था. हो सकता है उसके मन ने कुछ अधिक महसूस किया हो. ख़ैर जो भी था, उसके मन के भीतर ही था. उसने कभी स्पष्ट रूप से कुछ कहा नहीं. हर उम्र का अपना एक सच होता है. वह हमारे किशोरवय का सच था, जब माधव और मेरी मैत्री थी. वह मुझे बहुत अपना-सा लगता था. आज का सच यह है कि हम दोनों को अपने-अपने परिवार से निष्ठा निभानी है- और बुझे मन से भी नहीं, बल्कि ख़ुशी-ख़ुशी, क्योंकि अब हम किशोरवय नहीं रहे, परिपक्व हो चुके हैं. कविगण कहते हैं कि ‘कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता’ इस आधे-अधूरे मिले जहान को हमें स्वयं पूर्ण करना होता है. रेणुका ने अपनी अस्मिता तलाश ली है. ठीक है, उसे अपने पति का सहयोग प्राप्त है, पर मैं भी इतनी अक्षम तो नहीं कि ज़िंदगी से हार मान लूं. मेरे पास मेरा संगीत है, अपनी पहचान बनाने के लिए. घर पर अभ्यास करने की इजाज़त न मिली, तो उसके लिए किसी संगीत विद्यालय जा सकती हूं.
पिछले दस दिनों में कितना कुछ संजो लिया है मैंने. हालांकि देखा जाए, तो हुआ कुछ भी नहीं, पर मैं ख़ुश हूं, बहुत ख़ुश! क्या नाम दूं अपनी इस ख़ुशी को? क्या होती है ख़ुशी की असली परिभाषा? ख़ुशियों के छोटे-छोटे असंख्य क्षण होते हैं, जो मिलकर जीवन को अर्थ देते हैं. मेरी किशोरवय का एक टुकड़ा किसी ने अपनी स्मृति में संजो रखा है एक फ्रेम जड़ी तस्वीर की मानिंद, यही काफ़ी है मेरा खोया आत्मविश्‍वास लौटाने के लिए और मैं माधव की याद को दीये की लौ-सा मन में संजो आई हूं. आश्‍चर्य! यह लौ तपिश नहीं दे रही, ठंडक पहुंचा रही है मन को. सुकून दे रही है, आगे की राह दिखा रही है.

 

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Meri Saheli Team

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