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कहानी- अस्तित्व (Story- Astitav)

"हम औरतों की इस दयनीय स्थिति के लिए कोई और नहीं, हम ख़ुद ज़िम्मेदार हैं. हम महिलाओं को सदियों से शक्ति का रूप माना जाता है, लेकिन आज तक हम अपनी शक्ति को नहीं पहचान पाई हैं. हम समाज से नहीं, समाज हमसे है बेटी. महिलाएं सिर्फ घर नहीं संवारती, बल्कि समाज, देश, दुनिया को एक नई दिशा भी देती हैं. बच्चे को जन्म देने भर से महिलाओं की ज़िम्मेदारी ख़त्म नहीं हो जाती, उसे क़ाबिल इंसान बनाकर हम समाज की दशा और दिशा दोनों बदल सकते हैं. फिर हमारा काम छोटा कैसे हो गया?"

“आदि, पड़ोस की पूजा दीदी हैं ना, आज उनका डांस शो है यशवंत राव चव्हाण हॉल में. मुझे भी इनवाइट किया है, लेकिन मैं कैसे जाऊं? मांजी को ये थोड़े ही कह सकती हूं कि आप यश को संभालो और मैं पूजा दीदी का शो देखने जा रही हूं.”
“कुछ घंटों की तो बात है, चली जाओ.
मां से कह दो, वो यश को संभाल लेंगी.” आदित्य ने बात को संभालते हुए कहा.
“सच कहूं, तो कभी-कभी पूजा दीदी के नसीब पर रश्क होता है. बड़ी क़िस्मतवाली हैं वो. इस उम्र में भी अपने सारे शौक़ पूरे कर रही हैं और परिवार के लोग भी उन्हें पूरा सपोर्ट करते हैं. पिछले महीने ही उनका उपन्यास छपा था, तब भी उनके पति और परिवार वालों ने उनका ख़ूब हौसला बढ़ाया था.
एक मैं हूं, कोई पूछनेवाला नहीं कि मेरी भी कोई ख़्वाहिश है, ज़रूरत है. बस, दिनभर नौकरानी की तरह सबके आगे-पीछे घूमती रहती हूं कि किसी की शान में कोई गुस्ताख़ी न हो जाए मुझसे. किसी काम में कोई कमी न रह जाए… बच्चे की ज़िम्मेदारी भी जैसे अकेले मेरी ही है. तंग आ गई हूं मैं एक जैसी नीरस ज़िंदगी जीते-जीते.”  
“अनु, तुमसे किसने कहा कि नौकरानी की तरह रहो. ये तुम्हारा अपना घर है. तुम जैसे चाहो, रह सकती हो. किसी काम में मदद चाहिए तो बेझिझक कह दिया करो. हां, जहां तक बच्चे की ज़िम्मेदारी की बात है, तो उसमें मैं तुम्हारी ज़्यादा मदद नहीं कर सकता. मां की घुटनों की तकलीफ़ से तुम वाकिफ़ हो. वो यश के आगे-पीछे नहीं दौड़ सकतीं. हम दोनों में से किसी एक को घर पर रहकर बच्चे की देखभाल करनी ही होगी. तुम कहो तो मैं…”
आदित्य की बात को बीच में ही काटते हुए अनु चिढ़कर बोली, “अब उपदेश देकर महान बनने की कोशिश मत करो. मैंने भी आपकी तरह कड़ी मेहनत करके एमबीए की डिग्री हासिल की है, मुझे भी कई बड़ी कंपनियों से जॉब ऑफर आए थे, लेकिन शादी के बाद सब ख़त्म हो गया. औरत हूं ना, मेरी मेहनत, मेरी क़ाबिलियत की क़द्र कौन करेगा? मैं पूजा दीदी जितनी नसीबवाली कहां हूं.”
अब आदित्य को भी ग़ुस्सा आ गया था. वो चिढ़कर बोले, “मैं भी तंग आ गया हूं तुम्हारे रोज़ के झगड़े से. आख़िर तुम चाहती क्या हो? तुम्हारी ख़ुशी के लिए मैं यश को बेबी सिटिंग में रखने को तैयार हूं, ताकि तुम जॉब कर सको, लेकिन तुम बच्चे को वहां भी नहीं रखना चाहती. अब तुम ही बताओ, क्या करना चाहिए मुझे? मैं तुम्हारी हर बात मानने को तैयार हूं.”
“कुछ नहीं… बस, मुझे अकेला छोड़ दो,” कहते हुए अनु कमरे से बाहर निकल गई.
मुंबई शहर के हज़ार स्क्वेयर फीट के फ्लैट में अनु और आदित्य का झगड़ा मां के कानों तक न पहुंचता, ये तो संभव नहीं था, फिर भी उन्होंने चुप्पी साधे रखी. बेटे-बहू के झगड़े में वे कम ही बोलती हैं, ताकि घर में शांति बनी रहे.
आदित्य के ऑफिस जाने के कुछ देर बाद जब अनु काम करते हुए गुनगुनाने लगी, यश के साथ खिलखिलाते हुए बातें करने लगी, तो मां ने अंदाज़ा लगा लिया कि अब अनु से बात की जा सकती है. वे जानती हैं, अनु दिल की बुरी नहीं है. बस, जब उसे महसूस होता है कि उसकी सारी पढ़ाई, काम का दायरा घर के भीतर ही सिमटकर रह गया है, तो वह चिढ़ जाती है. उसकी जगह कोई भी लड़की होती, वो भी ऐसा ही करती, इसलिए वे उसकी बातों का बुरा नहीं मानतीं, उल्टे आदित्य को ही चुप रहने और शांति बनाए रखने को कहती हैं.  “अनु, तुम पूजा का डांस शो देखने ज़रूर जाओ. 3-4 घंटे की तो बात है, फिर आदित्य भी आज जल्दी घर आनेवाला है. मैं यश को संभाल लूंगी. वैसे भी तुम कई दिनों से घर से बाहर नहीं निकली हो.” मां ने अनु के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा.

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“थैंक्यू मॉम..! यू आर सो स्वीट ! सच, बहुत मन था शो देखने का. आपने मेरी ख़्वाहिश पूरी कर दी.” कहते हुए अनु मां से लिपट गई.  
अनु की हरक़तें आज भी बच्चों जैसी हैं. पल में तोला, पल में माशा. मन में कुछ नहीं रखती. जो जी में आया कह देती है, इसीलिए मां को उसकी किसी भी बात का बुरा नहीं लगता.
हाल ही में ख़रीदी नई ड्रेस पहनकर जब अनु घर से निकली, तो बिल्कुल गुड़िया लग रही थी. उसकी यही चंचल हरक़तें घर में रौनक बनाए रखती हैं.
रास्तेभर वह पूजा से उसके शो के बारे में बातें करती रही. बातों ही बातों में उसने पूजा से यह तक कह दिया कि उसके नसीब और शोहरत से उसे कई बार ईर्ष्या होने लगती है. पूजा रास्तेभर चुपचाप उसकी बातें सुनती रही.
फिर जब शो शुरू हुआ, तो पूजा के परफॉर्मेंस पर पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. पहली पंक्ति में बैठा उसका पूरा परिवार उसका हौसला बढ़ा रहा था. उनके साथ बैठी अनु भी बहुत ख़ुश थी, लेकिन उसके चेहरे पर छाए मायूसी के बादल लाख छुपाने पर भी साफ़ नज़र आ रहे थे. उसे इस बात का दुख हो रहा था कि इतना पढ़-लिखकर भी वह कुछ नहीं कर पा रही है, उसका अपना कोई अस्तित्व नहीं है.  
शो के बाद पूजा जैसे ही बाहर निकली, उसके प्रशंसकों की भीड़ ने उसे घेर लिया. सब उसकी तारीफ़ों के पुल बांध रहे थे. अपने पति के साथ खड़ी पूजा सभी के साथ बड़ी सादगी से पेश आ रही थी. उसके सास-ससुर भी बहू की तारीफ़ करते नहीं थक रहे थे. अनु चुपचाप यह सब देख रही थी.  
फिर जब सब घर चलने लगे, तो अनु को पूजा का व्यवहार कुछ अजीब लगा. उसने अपने परिवार को दूसरी गाड़ी में घर चलने को कहा और अपनी गाड़ी में सिर्फ अनु को बिठाया. ड्राइव करती हुई पूजा उसे और भी कॉन्फिडेंट नज़र आ रही थी. अनु कुछ बोल नहीं रही थी, इसलिए पूजा ने ही बात शुरू की.
“हां, तो क्या कह रही थी तुम? मेरे भाग्य से तुम्हें ईर्ष्या होती है. क्यों भला? तुम तो मुझसे ज़्यादा पढ़ी-लिखी हो, सुंदर हो, गुणी हो, तुम्हारे पति, सास सब तुम्हें प्यार करते हैं, फिर किस बात की कमी है तुम्हें?”
“आपकी तरह अपनी पहचान बनाने का मौक़ा कहां मिला है मुझे? मेरी ज़िंदगी तो जैसे घर की चारदीवारी में सिमटकर रह गई है. दिनभर घर के काम और बच्चे की देखभाल में उलझी रहती हूं. मैंने और आदि ने साथ पढ़ाई की थी. हम दोनों पढ़ाई में अव्वल थे, लेकिन शादी के बाद मेरी सारी पढ़ाई धरी की धरी रह गई है. नौकरानी बनकर रह गई हूं मैं.”

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अनु की बात सुनकर पूजा हंस दी, लेकिन अनु को उसका हंसना अच्छा नहीं लगा. उसने चिढ़ते हुए कहा, “आपको इस तरह मेरा मज़ाक नहीं उड़ाना चाहिए.” अनु मुंह फुलाए चुपचाप गाड़ी में बैठी रही. तभी पूजा ने गाड़ी एक कॉफी हाउस के बाहर पार्क की और अनु का हाथ पकड़कर उसे अपने साथ ले गई.
दो कॉफी ऑर्डर करके उसने बड़े प्यार से अनु का हाथ सहलाते हुए कहा, “देखो अनु, तुम मेरी छोटी बहन जैसी हो. तुम्हारे जैसी प्यारी लड़की को इस तरह कुढ़ते देख मुझे बहुत दुख होता है. मैं तुमसे अकेले में बात करना चाहती थी इसलिए तुम्हें यहां ले आई.” अनु आश्‍चर्य से पूजा को देख रही थी. उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था.  
वेटर उनकी कॉफी लेकर आया, तो कॉफी का सिप लेते हुए पूजा ने बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ाया, “चलो, आज मैं तुम्हें अपने अतीत से मिलवाती हूं. कभी मैं भी तुम्हारी तरह बिंदास और चुलबुली हुआ करती थी. मैं पढ़ाई में भी अच्छी थी और डांस में भी. साथ ही लिखने का भी शौक़ था, लेकिन ग्रेज्युएशन ख़त्म होते ही अच्छा रिश्ता आया और मेरी शादी तय कर दी गई. मैं और पढ़ना चाहती थी, कुछ कर दिखाना चाहती थी, लेकिन घरवालों ने कहा, ऐसा रिश्ता बार-बार नहीं आता. लड़का मुझे पसंद था, इसलिए मैंने भी हां कर दी.
शादी के बाद मेरी हालत भी तुम्हारे जैसी थी. ज़िंदगी जैसे चारदीवारी में सिमट गई थी. फिर बेटी के जन्म के बाद तो जैसे सांस लेने की फुर्सत नहीं होती थी. इन्हें अक्सर टूर पर जाना होता था. ऐसे में घर के प्रति मेरी ज़िम्मेदारियां और बढ़ जाती थीं. अपने लिए जीना तो जैसे मैं भूल ही गई थी.
जब मैं मायके जाती, तो अपने माता-पिता को ख़ूब कोसती, उन्हें ताने देती कि आप लोगों ने मुझे खुलकर जीने का मौक़ा तक नहीं दिया. मेरी सहेलियां करियर बना रही हैं और मैं चूल्हा-चौकी कर रही हूं. मेरी शादी करके आप लोग अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त होना चाहते थे वगैरह-वगैरह. मेरे माता-पिता चुपचाप मेरी बातें सुनते, कभी कुछ कहते नहीं थे.
फिर एक दिन जब मैं मायके गई थी, तो मेरी बुआ भी हमारे घर आई हुई थीं. मुझे यूं खिन्न देखकर जब उन्होंने मां से इसकी वजह पूछी, तो मां ने उन्हें सब बता दिया.
तब बुआजी ने मुझे अपने पास बिठाकर जो बातें समझाईं, उनसे मेरे जीने का नज़रिया बदल गया.
बुआजी ने कहा, “पूजा, हम औरतों की इस दयनीय स्थिति के लिए कोई और नहीं, हम ख़ुद ज़िम्मेदार हैं. हम महिलाओं को सदियों से शक्ति का रूप माना जाता है, लेकिन आज तक हम अपनी शक्ति को नहीं पहचान पाई हैं. हम समाज से नहीं, समाज हमसे है बेटी. महिलाएं सिर्फ घर नहीं संवारती, बल्कि समाज, देश, दुनिया को एक नई दिशा भी देती हैं. बच्चे को जन्म देने भर से महिलाओं की ज़िम्मेदारी ख़त्म नहीं हो जाती, उसे क़ाबिल इंसान बनाकर हम समाज की दशा और दिशा दोनों बदल सकते हैं. फिर हमारा काम छोटा कैसे हो गया? यदि हर मां अपने बच्चों को सही परवरिश, सही संस्कार दे, तो दुनिया की तमाम समस्याएं ख़त्म हो जाएंगी. बलात्कार, चोरी-डकैती, धोखाधड़ी, ख़ून-खराबा जैसी तमाम सामाजिक बुराइयां ख़त्म हो जाएंगी.

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क्या पढ़ाई-लिखाई सिर्फ नौकरी पाने के लिए की जाती है, ज्ञान पाने के लिए नहीं? और उस ज्ञान का सही उपयोग यदि घर से शुरू हो, तभी तो समाज बदलेगा. तुम जैसी पढ़ी-लिखी, होनहार महिलाएं अपने बच्चों को सही ज्ञान देकर समय का रुख़ बदल सकती हैं. अपने अस्तित्व को नई पहचान दे सकती हैं. अपने काम को छोटा मत समझो बेटी, तुम्हारे हाथों में ही भविष्य की नींव है.”
बुआजी की बातों में मुझे सच्चाई नज़र आ रही थी, इसलिए मैं उनका विरोध नहीं कर पाई. सच ही तो कहा उन्होंने, हम औरतें ही समाज का नक्शा बदल सकती हैं.
बुआजी अपनी रौ में बोले जा रही थीं, “समय हमेशा एक जैसा नहीं रहता बेटी. औरत की ज़िंदगी में कई पड़ाव आते हैं, जहां उसे अलग-अलग रूप में अपनी ज़िम्मेदारियां निभानी होती हैं. बेटी, बहू, पत्नी, मां, बहन, सास… हर रूप में उसे एक नया अनुभव मिलता है.
अपने अनुभव के आधार पर मैं तुम्हें बताना चाहती हूं कि शादी के शुरुआती कुछ साल भले ही संघर्ष भरे हों, लेकिन उन सालों में यदि तुमने अपनी ज़िम्मेदारियां बख़ूबी निभा दीं, तो उसके बाद तुम्हें उसका प्रतिसाद मिलना शुरू हो जाता है. पूरा परिवार, रिश्तेदार सभी तुम्हें अच्छी पत्नी, बहू, मां… जैसी तमाम उपाधियों से नवाज़ना शुरू कर देते हैं.
35 की उम्र के बाद औरत की ज़िंदगी का एक नया अध्याय शुरू होता है, जहां परिवार का हर सदस्य उसके काम की सराहना करता है और उसकी ख़ुशी को भी महत्व देता है.
आज तुम्हें मेरी बातें भले ही कोरी बकवास लगे, लेकिन कुछ सालों बाद तुम्हें मेरी बातें याद आएंगी. बस, अपने कर्त्तव्य से मुंह मत मोड़ना बेटी. ससुराल में ख़ूब नाम कमाना. तुम ऐसा करोगी ना?”
सहमति में सिर हिलाने के अलावा मेरे पास और कोई चारा नहीं था. क्या कहती? बुआजी की एक-एक बात सच ही तो थी. इंसान की पहचान उसके घर से होती है और चारदीवारी के मकान को घर औरत ही बनाती है.
बस, उसके बाद से मैंने कुढ़ना छोड़ दिया और अपने परिवार की उन्नति व ख़ुशहाली के लिए हर मुमक़िन कोशिश करने लगी. पति, सास-ससुर, बेटी के हर काम में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगी.  
आज मेरे पति एक मशहूर मल्टी नेशनल कंपनी के डायरेक्टर हैं, मेरी बेटी मेडिकल की पढ़ाई कर रही है और मेरे सास-ससुर पूरी तरह स्वस्थ हैं तथा हर काम मुझसे पूछकर करते हैं.
मेरे डांस और लिखने के शौक के बारे में जानने के बाद मेरे पति ने ही मुझे प्रोत्साहित किया और कहा कि अब मैं अपने लिए जीऊं, अपने शौक पूरे करूं और पूरे परिवार ने इसमें मेरा साथ दिया.  
पहले मैं अपनी जिन सहेलियों को देखकर कुढ़ती थी, आज मैं उन सभी से आगे निकल आई हूं. मेरी कुछ सहेलियां, जिन्होंने 35 की उम्र के बाद शादी करने का मन बनाया, उनमें से कुछ को मनचाहा जीवनसाथी नहीं मिला, तो कुछ औलाद की ख़ुशी पाने के लिए संघर्ष कर रही हैं.

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हम जब-जब कुदरत के साथ खिलवाड़ करते हैं, तब-तब हमें उसका भारी नुक़सान उठाना पड़ता है. करियर तो तुम फिर शुरू कर सकती हो, लेकिन तुम्हारे बच्चे का बचपन क्या फिर लौटकर आएगा? बस, कुछ सालों का संघर्ष है, उसके बाद तुम्हारा परिवार ही तुम्हारी ख़्वाहिश पूरी करेगा. औरत होने के गौरव और उसकी ज़िम्मेदारियों को समझो अनु. हमें मिलकर एक नए समाज का निर्माण करना है, अपनी पढ़ाई का सही इस्तेमाल करना है. अपने ज्ञान को पैसों से मत तोलो. तुम वो कर सकती हो, जो तुम्हारे पति कभी नहीं कर सकते. क्या वो तुम्हारी तरह बच्चे को जन्म दे सकते हैं? उसे अपना दूध पिला सकते हैं? लोरी गाकर सुला सकते हैं..? नहीं ना!
अनु, ऐसे कई गुण हैं, जो कुदरत ने सिर्फ औरत को दिए हैं, उनके महत्व को समझो. तुम हर तरह से क़ाबिल और गुणी हो. यूं चिढ़-कुढ़कर अपने घर का माहौल मत बिगाड़ो, न ही अपने आत्मविश्‍वास को डगमगाने दो.
मुझे पूरा विश्‍वास है कि जिस तरह बुआजी की बातों ने मेरा जीने का नज़रिया बदल दिया, तुम पर भी मेरी बातों का असर ज़रूर होगा. होगा ना अनु?”  
जवाब में अनु की आंखें नम थीं. वो पूजा से लिपटकर ख़ूब रोई, तब तक, जब तक मन की सारी कड़वाहट धुल नहीं गई.
अब वो एक नई अनु बन चुकी थी, जिसे अपने परिवार के साथ-साथ समाज, देश, दुनिया का भविष्य संवारना था. औरत की शक्ति का परिचय देना था. अपने अस्तित्व को एक नई पहचान देनी थी.

कमला बडोनी

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