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कहानी- और वो चला गया (Story- Aur Woh Chala Gaya)

 

स्वप्निल अब उसके लिए इस तरह हो गया था, जिस पर न कोई अधिकार है, न उलाहना. प्रेम अब भी उसे ही करती है, पर इस तरह नहीं जैसे एक औरत मर्द को प्रेम करती है, बल्कि इस तरह जैसे कोई इंसान ईश्‍वर से प्रेम करता है.

यह कहानी है एक औरत की, जिसमें वही चेतना बसती थी, जो आम औरतों में होती है. बस, उसकी क़िस्म अलग थी… उसका नाम था ‘तितिक्षा’. उसने प्रहर सचदेवा के साथ घर बसाया था, लेकिन एक अबूझ कसक हमेशा उसके मन में बनी रहती. कैसा विचित्र जुड़ाव था वो? काया का संपूर्ण समर्पण भाव था, पर मन फिर रह-रहकर इस कदर उचाट क्यों हो जाता था? पति के सारे काम करना, लोगों से बातें करना, पति के मित्रों से मिलना- ये सारे काम आराम से करती थी. पर ये सब करते हुए भी एक बेचैनी-सी पूरे अस्तित्व पर छाई ही रहती थी.
तितिक्षा अति संवेदनशील थी- ख़ुद के प्रति भी और दूसरों के प्रति भी. उसका मानना था कि भावनाओं की अभिव्यक्ति एक कला है, जो जीवन से धीरे-धीरे सीखी जा सकती है.
अक्सर वह एक सपना देखती है कि वो दौड़ रही है, उसके पीछे लोग दौड़ रहे हैं और अंत में सामने समंदर है, लोग हंस रहे हैं और पूछते हैं, “अब कहां जाओगी?” घबराकर वह पानी पर पैर रखती है, तो देखती है कि पानी तो नर्म बिछौने जैसा है और वो बड़ी सहजता से पानी पर चलती जा रही है. उस पार कोई है, जो बांहें फैलाए उसकी प्रतीक्षा में खड़ा है, लेकिन उसका चेहरा साफ़-साफ़ नज़र नहीं आ रहा है.
शुरू-शुरू में वह इस सपने से चौंक पड़ती थी, फिर धीरे-धीरे उसे लगने लगा था कि उसके शरीर में एक नहीं, दो स्त्रियां हैं. एक- जिसका नाम तितिक्षा था, जो किसी की बेटी थी, श्री प्रहर सचदेवा की पत्नी थी, जिसकी जाति हिंदू थी, देश भारत था और जिस पर कई नियम-क़ानून लागू होते थे. और दूसरी- जिसका नाम औरत के सिवा और कुछ न था, जो धरती की बेटी थी और आकाश का वर ढूंढ़ रही थी, जिसका धर्म प्रेम था और देश-दुनिया थी और जिस पर एक ‘तलाश’ को छोड़ कोई नियम-क़ानून लागू नहीं होता था. फिर धीरे-धीरे उसे इस स्वप्न में आनंद आने लगा.

फिर एक दिन अचानक एक घटना घटी. वह किसी के घर गई थी. वहीं एक व्यक्ति से मुलाक़ात हुई. शक्ल-सूरत, क़द-काठी सामान्य थी, मगर उसकी आंखें बिल्कुल उसके सपनोंवाले बुत की तरह थीं- गहरी और बोलती हुई. वह कितनी देर उसे देखती रही थी. फिर पता चला कि उसका नाम स्वप्निल था. तितिक्षा ने चिकोटी काटी ख़ुद को कि कहीं यह सपना तो नहीं था. मेरा मन शायद वर्षों से कुछ मांग रहा था. सूखे पड़े जीवन के लिए मांग रहा था- थोड़ा पानी और अचानक बिन मांगे ही सुख की मूसलाधार बारिश मिल गई.
अब उसमें बदलाव आने लगा था. जब एक तितिक्षा अपने पति के पास बैठी होती, दूसरी स्वप्निल के पास बैठी होती. एक तितिक्षा के पास शरीर का अस्तित्व था, दूसरी तितिक्षा के पास कल्पनाओं की अपनी दुनिया थी.
अब वह कल्पना की जगह सचमुच स्वप्निल से बातें करना चाहती थी, उससे मिलना चाहती थी. फिर एक दिन उसने दोस्तों के साथ स्वप्निल को भी चाय पर बुलाया. सभी गपशप कर रहे थे, तभी एक मित्र ने कहा, “मेज़बान की तारीफ़ में सभी लोग एक-एक वाक्य काग़ज़ पर लिखकर दें. देखें, कौन कितना अच्छा लिखता है?” सभी ने लिखकर दिया, जब स्वप्निल की बारी आई, तो उसने हाथ में ली हुई क़लम से खेलते हुए तितिक्षा की तरफ़ देखा और धीरे से तितिक्षा के कान के पास आकर बोला, “मुझे लिखना नहीं आता, क्योंकि किसी के दिल की कोई भाषा नहीं होती. मुझे तो बस आंखों की भाषा पढ़नी आती है.” और तितिक्षा ने पहली बार जाना कि आंखें मौन रहकर भी कितनी स्पष्ट बातें कर जाती हैं और वह कांप गई थी. मगर उसने महसूस किया कि बचपन से जिस उदासी ने उसके अंदर डेरा जमा रखा था, वो आज दूर चली गई थी. एक उत्साह, एक उमंग-सी भर गई थी उसके रोम-रोम में.
सबके चले जाने के बाद तितिक्षा ने स्वप्निल के जूठे प्याले में बची हुई ठंडी चाय का घूंट लेकर सोचा कि क्या मैं दीवानी हो गई हूं? जैसे उसने एक ऐसी वस्तु का आस्वादन कर लिया था, जो पहले कभी नहीं पी थी. फिर ख़ामोशी से कितने ही दिन बीत गए.
एक शाम वो घर में अकेली थी कि दरवाज़े पर दस्तक हुई, दरवाज़ा खोला तो सामने स्वप्निल खड़ा था. उसकी जो दृष्टि तितिक्षा की ओर उठी थी, वह असावधान नहीं थी, वह मूक भी नहीं थी. आंखों में ज़ुबान उग आई थी. वह एक पुरुष की मुग्ध दृष्टि थी, जो नारी के सौंदर्य के भाव से दीप्त थी. दृष्टि तितिक्षा की आंखों पर टिकी थी. उसकी आंखें झुक गईं, पर वह इस तथ्य के प्रति पूरी सचेत थी कि स्वप्निल की दृष्टि ने अब संकोच छोड़ दिया है. वह ढीठ हो गई है. उसकी दृष्टि जैसे देखती नहीं थी, छूती थी. वह जहां से होकर बढ़ती थी जैसे रोम-रोम को सहला जाती थी. तितिक्षा का शरीर थर-थर कांप रहा था. उसकी समझ में बिल्कुल नहीं आ रहा था कि उसका मन इतना घबरा क्यों रहा है? वह पहली बार किसी पुरुष से नहीं मिली थी, न ही पहली बार किसी पुरुष के सान्निध्य में आई थी. उसने पुरुष दृष्टि का न जाने कितनी बार सामना किया था, मगर ये दृष्टि उसे व्याकुल कर रही थी. स्वप्निल की दृष्टि में प्रशंसा थी और वह प्रशंसा तितिक्षा के शरीर को जितना पिघला रही थी, उसका मन उतना ही घबरा रहा था.
“आप बहुत सुंदर हैं, तन और मन दोनों से.” स्वप्निल ने धीरे-से मुस्कुराते हुए कहा. अपने रूप की प्रशंसा सबको अच्छी लगती है. युवक उसके रूप की प्रशंसा कर रहा था और वह ऐसे भयभीत थी, जैसे कोई संकट आ गया हो. वह सम्मोहित-सी देखती रही. पर उसका विवेक लगातार हाथ में चाबुक लिए उसे पीट रहा था, ‘यह ठीक नहीं है तितिक्षा! ये ठीक नहीं है! संभल जा.’
तभी स्वप्निल ने कहा, “उस दिन ग़लती से आपकी क़लम मेरे पास रह गई थी.” उसने कलम निकालकर तितिक्षा की ओर बढ़ा दी. मुहब्बत में सारी शक्तियां होती हैं, एक बस बोलने की शक्ति नहीं होती! तितिक्षा ने इतना ही कहा, “यह जहां है, इसे वहीं रहने दीजिए ना!”
“तभी इतने दिनों तक लौटाने नहीं आया था.” उसने शरारतभरी निगाहों से कहा. थोड़ा आगे झुककर उसे ध्यान से देखा और बोला, “आप अपना महत्व नहीं जानतीं, कैसे जानेंगी? आपके पास अपनी नज़र है मेरी नहीं. मेरी नज़रों से देखेंगी तो जानेंगी कि आप क्या हैं? पता है, आपको देखा तो मुझे यह समझ में आया कि मां की आवश्यकता पुरुष को तभी तक होती है, जब तक वो अबोध होता है. बोध होने पर उसे मां नहीं, प्रियतमा की आवश्यकता होती है, जिससे वो अपने वयस्क प्रेम की प्रतिध्वनि पा सके.” और हाथ की सिगरेट बुझाकर उसने तितिक्षा की ओर इतनी उदास नज़रों से देखा कि तितिक्षा को लगा था- वह एक औरत नहीं थी, एक सिगरेट थी, जिसको स्वप्निल ने एक ही नज़र से सुलगा दिया था और वह चला गया.
उस दिन के बाद से तितिक्षा तितिक्षा नहीं रही, एक सुलगती सिगरेट बन गई थी, जिसे स्वप्निल ने सुलगा दिया था, पर पीने का अधिकार नहीं लिया था. वह कला में निपुण नर्तकी की तरह अपने यथार्थ और कल्पना दोनों के साथ खेल रही थी और फिर एक दिन उसे पता चला कि स्वप्निल को कोई दूसरी नौकरी मिल गई है और वो मुंबई जा रहा है. वो स्वप्निल से मिलने गई और पूछा, “तुम्हें इसी तरह चले जाना था? मुझे बता नहीं सकते थे?” जाने उसकी आवाज़ किन गहराइयों से निकल रही थी कि उसे ख़ुद भी सुनाई न दी थी.
“मैं रात को आया था आपके घर, कमरे की लाइट ऑफ थी. मैंने सोचा, आप लोग सो रहे होंगे, सो मैं बाहर से ही लौट आया.”
“काश! आप मिले ही न होते.” तितिक्षा के मुंह से अनायास ही निकल गया. वो देखता रह गया और फिर बोला, “इसीलिए तो जा रहा हूं, क्योंकि यहां रहना अब मेरे लिए बहुत मुश्किल है.” और वो विदा लेकर घर लौट आई.
उस रात तितिक्षा अपने पति के साथ बस लेटी हुई थी. उसके शरीर को अपने शरीर से सटाकर ये पलंग पर लेटा हुआ कौन-सा आदमी था? यह वही रात थी, उसे अच्छी तरह याद है कि जब एक मासूम उसकी कोख में आया. उसकी चेतना में स्वप्निल ही था. इसके बाद उसने डायरी लिखनी शुरू की और फिर ये डायरी उसकी ऐसी आवश्यकता बन गई थी जैसे दर्पण, जिसमें वह ख़ुद को देख सकती थी. एक दिन अचानक ये ख़याल आया कि अगर ये डायरी किसी ने पढ़ ली तो…?
उसने निश्‍चय किया कि वो डायरी को पराए हाथों से बचाने के लिए जला देगी. मगर जब वो डायरी को तीली लगाने लगी, तो उसके हाथ बिलख उठे- अगर कभी एक बार इस डायरी को स्वप्निल पढ़ लेता- मैं भले ही मर जाऊं, तब भी कभी उसे ध्यान आता और सोचता… एक थी तितिक्षा.
फिर एक दिन वो भी आया, जब तितिक्षा ने एक सुंदर बच्चे को जन्म दिया. और एक अजीब इत्तेफ़ाक हुआ कि स्वप्निल का कल्पित मुख और बच्चे का यथार्थ मुख मिलकर एक हो गया था. बच्चे की शक्ल हूबहू स्वप्निल से मिलती थी. उसके अंदर की प्रेमिका और मां मिलकर एक हो रही थीं. एक संतुष्टि थी, जिससे अंदर की दरार मिटती जा रही थी. वह सोचने लगी थी कि अब वो पति के साथ न्याय कर सकेगी. आख़िर वो एक नेक आदमी था और वो उसके बच्चे का बाप था. भले ही वो और उसका पति कभी उलझे नहीं थे. दोनों एक-दूसरे की बातों में सहमति देते थे. और दिखने में दोनों का जीवन शांत पानी-सा दिखता था, पर अंदर ही अंदर दोनों को पता था कि ये शांत ठहरा पानी गंदलाने पर आ गया है. इस पानी पर ख़ामोशी की काई जमने लगी थी, क्योंकि पति को अभिव्यक्ति की कला आती ही नहीं थी.
विभोर- यही नाम रखा था उसने अपने बच्चे का! विभोर जब स्कूल जाने लगा तो तितिक्षा की विकलता बढ़ गई. धीरे-धीरे वो ख़ुद से बातें करने लगी थी. एक दिन अचानक स्वप्निल उसके दरवाज़े पर खड़ा था. उसे महसूस हुआ जैसे उसके पैरों के नीचे ज़मीन नहीं है.
“कब आए?” कुछ देर बाद तितिक्षा ने कहा.
“कल आया.”

“अब तो शादी कर ली होगी?” अचानक सोफे पर बैठते हुए तितिक्षा ने पूछा.
“जिसके साथ शादी करना चाहता था, उसने मुझसे पहले ही किसी के साथ शादी कर ली है… फिर मैं किससे शादी करूं?” तितिक्षा ने संभलकर उसकी तरफ़ देखा. न जाने क्यूं उसकी आंखों का सामना न कर सकी और सिर झुका लिया. दोनों के बीच गहरी ख़ामोशी छाई रही. तितिक्षा को पता ही नहीं चला कि स्वप्निल कब उसके पीछे आकर खड़ा हो गया था और उसकी सांसें उसकी गर्दन को छू रही थीं. उसने कोशिश की, मगर उससे कुछ बोला न गया. तितिक्षा के होंठों पर स्वप्निल के होंठ झुके हुए थे और तितिक्षा, उसे तो जैसे याद ही नहीं कि उसके शरीर में किसी और के प्यार की स्मृति है भी या नहीं!
“यह तुमने मेरे साथ क्या किया?” तितिक्षा की आवाज़ कांप रही थी. स्वप्निल ने उसे उठाकर पलंग पर बैठा दिया था और ख़ुद पलंग के एक कोने पर बैठ गया. “तुमने मुझसे कभी भी बात नहीं की. मैं इतने सालों तक ख़ुद से बातें करती रही हूं.” तितिक्षा ने धीरे-से कहा.
“मैं सोचता था तुम्हारी शादी हो चुकी है… एक बसे हुए घर को उजाड़ना नहीं चाहता था.”
“पर जब कोई किसी की कल्पना में आ जाए और जीवन में न आए, तो मेरे ख़याल से वो एक बसता हुआ घर नहीं रह जाता. आंखें बंदकर जब कोई औरत किसी और को याद करती है, पर आंखें खोलकर किसी दूसरे का चेहरा देखती है तो इससे बड़ा झूठ और क्या हो सकता है?” तितिक्षा ने नज़रें स्वप्निल के चेहरे पर गड़ा दीं. “मैं क़ानून नहीं समझती, धर्म नहीं समझती, समझती हूं तो स़िर्फ इंसान को और इंसान के सरल स्वभाव को.”
“मैंने ये सोचा ही नहीं था कि तुम भी मुझसे प्यार कर सकती हो, क्योंकि समाज के इस ढांचे को तोड़ना सरल नहीं होता. मैंने कई वर्ष सोचने में ही बिता दिए. मैं अंदर और बाहर से एक होकर जीना चाहता हूं, पर आज मेरा सब्र टूट गया है.” स्वप्निल बोलते-बोलते मेरे सामने घुटनों के बल बैठ गया. उसके हाथ तितिक्षा के घुटनों पर थे और आंखें जैसे तरल होकर उसकी आंखों में समाई जा रही थीं. उसे हैरानी हो रही थी- विश्‍वास नहीं हो रहा था कि यह उसके जीवन से जुड़ा कोई दृश्य है. उसे अच्छा लग रहा था. ऐसा पल उसकी कल्पना में ही था. कहीं कोई पुरुष अहं नहीं! प्रेम आदमी को और ज़्यादा इंसान बनाता है.
स्वप्निल के निर्मल प्रेम ने उसे ये एहसास कराया था.
वो एक रूढ़िवादी परिवार की लड़की थी और उससे भी ज़्यादा रूढ़िवादी परिवार की बहू! वो ख़ुद यह नहीं समझ पा रही है कि उसके लिए यह कैसे संभव है कि घर में सक्षम-संपन्न पति के रहने के बावजूद वो ग़ैर मर्द के स्पर्श को उत्सुक हो रही है? कहां गए वर्षों पुराने संस्कार, जिन्हें खून में संचारित करते हुए इतने वर्षों में किसी पुरुष के प्रति कोई आकर्षण तक न जागा था? आंखें मूंदकर उसने अनुभव किया कि ये कोई अपरिचित पुरुष नहीं है, बल्कि उसका स्वप्न पुरुष है.


तितिक्षा ने पाया कि एक हाथ सिरहाने रखकर दूसरे हाथ से स्वप्निल ने उसे आलिंगन में लेना चाहा, “नहीं स्वप्निल, नहीं.” तितिक्षा ने हाथ पकड़कर उसे रोक दिया.
“क्यों…?” स्वप्निल की आवाज़ अटक गई. मगर उसने कोई उत्तर नहीं दिया. उसकी विचारशक्ति स्तब्ध थी. वह धीरे-से उठा और खिड़की के पास खड़ा हो गया, उसकी तप्त श्‍वासों को शीतल वायु की ज़रूरत थी. फिर वहीं खड़े-खड़े बोला, “चलो तितिक्षा, मुझे दरवाज़े तक छोड़ आओ.” उसने देखा स्वप्निल का रंग स़फेद पड़ गया था. उसकी आवाज़ आज्ञा की तरह थी. तितिक्षा उसके साथ बाहर तक आ गई और वो चला गया. अंदर आकर वो सोफे पर गिर पड़ी. उसे लगा मिनटों में ये क्या से क्या हो गया? क्या यह किसी का अपराध है? मेरा या स्वप्निल का? या फिर यह मेरी विवेकहीनता थी? या फिर अचानक होनेवाली कोई भूल? कोई दुर्घटना…? क्या कहेंगे इसे? यह मैंने क्या कर दिया? जिन हाथों की इतने वर्षों तक प्रतीक्षा करती रही, आज खाली लौटा दिया? देह के भीतर अच्छा लगने की इतनी तीव्र अनुभूति क्यों? अब क्या करूं इस शरीर का? इसे पवित्र रखकर मैंने क्या संवार लिया? क्या पवित्रता यही होती है? यह शरीर उसको अर्पित न हुआ, जिसके लिए बना था. स्त्रियों के चरित्र और चरित्रहीनता का मामला स़िर्फ शारीरिक घटनाओं से क्यूं तय किया जाता है? कितना विचित्र नियम है? सोचते-सोचते उसकी आंख लग गई, जैसे उसमें हिलने की भी शक्ति नहीं रही थी.

अचानक विभोर की आवाज़ से वो हड़बड़ाकर उठी और उसे गले लगा लिया और सोचा कि इसे लेकर उसके पास जाऊंगी और कहूंगी कि देखो, बिल्कुल तुम्हारी अपनी सूरत है विभोर में. मगर दूसरे ही क्षण उसे लगा कि भला वह किस तरह मेरी बात मानेगा? आज से पहले तो मैंने कभी उसका हाथ भी नहीं छुआ था, कौन-सा विज्ञान ये मानेगा भला? और आज भी कौन-सा छुआ है? मैंने उसके स्वाभिमान को बहुत चोट पहुंचाई है. सालों से उसने जब्त किया था. ये प्रेम में कुछ पाना नहीं था, बल्कि ख़ुद को समर्पित करना था. वो ये क्यूं नहीं समझ सका कि औरत के इंकार में उसके संस्कार भी तो होते हैं. औरत जब किसी से प्यार करती है तो पूरा प्रेम करती है. फिर वह अपने पास कुछ नहीं रखती. आगे के कुछ दिन याद नहीं कैसे बीते थे. दिल की बात किसी से कह नहीं सकती थी. और एक दिन पता चला कि स्वप्निल शहर छोड़कर कहीं और चला गया. उस रात अधिकांशतः नींद तितिक्षा के सिरहाने ही बैठी रही.
तितिक्षा को अपनी पराजय को स्वीकार करने का एक अजीब साहस हुआ. उसने सोचा कि कम से कम मैं अपने पति से सच तो बोल सकती हूं.
एक रात तितिक्षा ये साहस अपने होंठों पर ले आई, “मैं यहां नहीं रहना चाहती.”
“क्यों?” उसके पति ने आश्‍चर्य से पूछा.
“मैं सदा आपका आदर करती हूं, पर सोचती हूं कि किसी का आदर करना ही काफ़ी नहीं होता.” प्रहर पथराई आंखों से उसे देख रहा था.
“तुम्हें क्या तकलीफ़ है तितिक्षा?”
“आपकी दी हुई कोई तकलीफ़ नहीं है.”
“फिर…? ये सब क्या है?”
“बस, इतना कि मुझे यहां सब कुछ निर्जीव-सा लगता है.” और फिर अपनी ही बात पर मुस्कुराकर तितिक्षा बोली, “यहां मुझे ऐसा लगता है कि मैं जीये बिना ही मर जाऊंगी. मुझे मरने से डर नहीं लगता, पर मैं मरने से पहले कुछ दिन जीकर देखना चाहती हूं. भले ही वो थोड़े-से दिन हों.” तितिक्षा ने थके हुए स्वर में कहा.
प्रहर को किसी प्रश्‍न या उत्तर से डर नहीं लगा था, लेकिन आज तितिक्षा से प्रश्‍न करने में उसे डर लग रहा था. उसने डरते-डरते पूछा, “तुम्हारे जीवन में कोई और है?”
“है भी और नहीं भी.” तितिक्षा ने जवाब दिया. “क्योंकि वह आदमी मेरे जीवन में उतना नहीं है, जितना मेरी कल्पना में है.”
“मैं स़िर्फ इतना जानना चाहता हूं कि वो कौन है?”
“स्वप्निल…” तितिक्षा जैसे नींद में बोल रही थी.
“उसे तो शहर से गये कई वर्ष हो गए हैं..”
“हां..”
“इन सालों में कभी वो यहां आया है?”
“एक बार. मुझे नहीं पता वो कितने दिन रहा, बस मैं उससे 2 घंटे के लिए मिली थी.”
“क्या वो तुम्हें पत्र लिखता है?”
“कभी नहीं..” प्रहर को ये बड़ा अजीब लगा. उसने ये भी पूछ लिया जो उसने सोचा भी न था.
“तुम और स्वप्निल कभी…?”
“जिन अर्थों में आप पूछना चाह रहे हैं, उन अर्थों में कभी नहीं.”

प्रहर को क्रोध की बजाय निराशा ने घेर लिया. तितिक्षा को लगा, यदि प्रहर सख़्ती से पेश आते तो अच्छा होता, क्योंकि जो आदमी सख़्ती करे, उससे घृणा की जा सकती है और जिससे घृणा हो जाए, उससे टूटने में देर नहीं लगती.
घर में एक ख़ामोशी ने घर कर लिया था और इस माहौल में तितिक्षा को घुटन होती थी. अपनी घुटन से निकलने के लिए एक दिन वो अपनी सहेली के घर गई, जहां उसे पता चला कि यहां से जाने के बाद स्वप्निल का नर्वस ब्रेक डाउन हो गया था और वह अभी तक बीमार है, सुनकर तितिक्षा कांप गई थी. उसे लगा उसकी इस हालत की ज़िम्मेदार वही है. वह घर आकर अपनी बेबसी पर बहुत रोई. रोते-रोते उसका ध्यान विभोर की तरफ़ गया, जो उसके आंसू पोंछने की कोशिश कर रहा था. उसे लगा वो एक बच्चे का मुंह नहीं, बल्कि एक शक्तिशाली और जवान मर्द का मुंह है. एक सच्चे दोस्त का मुंह, जो इस समय एक मां को ढाढ़स नहीं बंधा रहा था, एक औरत की मजबूरी से बातें कर रहा था. बच्चे को मां के दुख का ज्ञान नहीं था. उससे केवल मां के आंसू न देखे गए और वह एक शाश्‍वत मर्द बनकर एक शाश्‍वत औरत के आंसू पोंछ देना चाहता था. तितिक्षा ने तड़पकर विभोर को आलिंगन में कस लिया.
समाज में हर स्त्री को घुट-घुटकर मर जाना तो आता है, पर सांस लेने के लिए किसी भी खिड़की या दरवाज़े को तोड़ देना नहीं आता है.
उसने अपनी डायरी में लिखा, ‘अगर कहीं मुझे स्वप्निल न मिलता, तो मैं कल्पना की दुनिया में जीती और मर जाती. स्वप्निल! अपने जीवन की राह पर चलते-चलते उस स्थान पर आ गई हूं, जहां से कई राहें अलग-अलग दिशाओं में जाती हैं. मैं नहीं समझ पा रही कि मैं किधर जाऊं? मुझे लगता है, सभी राहें तुम्हारी तरफ़ जाती हैं. आज किसी एक राह में खड़ा कोई मुझे पुकार रहा है और किसी राह से कोई आवाज़ नहीं आती, इसीलिए मैं उस एक राह की ओर मुड़ रही हूं…!’
उसकी ज़िंदगी ने एक और नया मोड़ ले लिया था. अब उसकी शेष आयु स़िर्फ पानी का बहाव बन गई थी. इस बहाव में कुछ पल सांस लेने के लिए दो किनारे थे… एक विभोर और दूसरी दुनियाभर की क़िताबें, जो उसके हाथ में आकर छूटने का नाम नहीं लेती थीं. स्वप्निल अब उसके लिए इस तरह हो गया था, जिस पर न कोई अधिकार है, न उलाहना. प्रेम अब भी उसे ही करती है, पर इस तरह नहीं जैसे एक औरत मर्द को प्रेम करती है, बल्कि इस तरह जैसे कोई इंसान ईश्‍वर से प्रेम करता है. वह अब प्रेम से प्रेम करने लगी थी. उसका प्रेम वहां पहुंच चुका था, जहां वो ख़ुद ईश्‍वर बन जाता है.

      ज्योत्सना ‘प्रवाह’

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Usha Gupta

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