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कहानी- बदलते रंग (Story- Badalte Rang)

ऐसे आदमी के लिए वह ख़ुद को सज़ा देती रही, जिसने रिश्तों को खेल बना रखा था. जैसे वर्जनाएं मात्र नारी के नाम लिख दी गई हों और पुरुष… वह कहीं भी मुंह मारता फिरे, कोई हर्ज नहीं! उस दोगले इंसान के खोखले आदर्श जीवन पर बोझ-से थे.

अपर्णा अपना मोबाइल बजते हुए सुन रही थी. मां का नंबर था. सूनी आंखों से उनके नाम को फ्लैश होते हुए देखती रही. उसका हाथ कांपा और फोन की तरफ़ बढ़ा, पर अपर्णा ने सायास उसे पीछे खींच लिया. विरक्ति होने लगी थी उसे. मां का वही रटा-रटाया प्रश्‍न, “रुड़की कब आ रही हो? लड़केवाले दबाव बना रहे हैं हम पर.” बहाना बनाते-बनाते थक गई थी वह. कभी व्यस्तता का नाटक, कभी कॉलेज की परीक्षाओं के नाम पर, तो कभी शोधकार्य की आड़ में! पर कब तक? विवाह का फंदा कब तक अपने गले से दूर रख पाएगी? कैसे बताए मां को कि दिल पर उसका वश ही नहीं. वह तो कब का खो गया… सदा के लिए!
वह अनमनी-सी उठी और दराज से एक पुरानी डायरी निकाली. हवा सायं-सायं बह रही थी, खिड़कियों के पट डोलने लगे और पेड़ों के पत्ते सिहर उठे, मानो अंतस की उथल-पुथल से तारतम्य हो प्रकृति का. उसने यंत्रवत् डायरी का पहला पन्ना खोलकर देखा. रोमांच हो आया, ऐसे जैसे पहली बार देख रही हो. वही टेढ़ी-मेढ़ी विशिष्ट लिखाई- ‘अपनी प्रिय छात्रा अपर्णा को सस्नेह- दिनेश.’ साथ में सूखे गुलाब की पंखुड़ियां. दिनेश सर की यादें कुलबुलाने लगी थीं. अपर्णा ने ख़ुद को शॉल में कसकर लपेट लिया. पत्तों की सिहरन उसकी देह… यहां तक कि मन में उतर आई थी.
एक हूक-सी उठी भीतर. नैतिकता की गांठ, जो अवचेतन में कहीं गहरे दबी थी, आज फिर कसने लगी. दो जलती हुई आंखें कह रही थीं- ‘अपर्णा तुमसे यह उम्मीद न थी. तुम और…!’ दिल हुआ, फूट-फूटकर रोये और चिल्ला-चिल्लाकर कहे, ‘नहीं दिनेश… आप ग़लत समझ रहे हैं. समित मेरा कोई नहीं, वह बस एक दोस्त है पुराना. हमारी दोस्ती नादानी भरी थी, किशोरावस्था की बचकानी दोस्ती!’ पर जब ये सब कहना था, तब स्वर उसके कंठ में ही घुटकर रह गए. अपने बचाव में एक भी दलील न दे पाई वो. असहाय-सी देखती रही दिनेश को जाते हुए. उनकी घृणा को आज तक जी रही थी अपने भीतर. यह घृणा नत्थी हो गई थी उसके वजूद से. दिनेश की अंतिम स्मृति बनकर मर्म पर, जलती शलाका से लिखे गए इतिहास जैसी!
परिपक्व प्रेम क्या होता है? किसी से बौद्धिक जुड़ाव होना कितना संतोष देता है? उनके बिना ये जान ही न पाती. सर की सबसे मेधावी छात्रा होने का गौरव, उस गहन गंभीर व्यक्तित्व का सान्निध्य उसकी असाधारण मेधा को परिष्कृत करता गया. क्या अजब नशा था… विद्वान गुरु के साथ बौद्धिक चर्चाओं में शामिल होना… यह सौभाग्य किसी और को नहीं मिला. ज़ाहिर था कि एमए में अपर्णा से अच्छे नंबर कोई नहीं ला सकता था. दिनेशजी गंभीरता के आवरण में उसके प्रति अपने कोमल भावों को दबाए रहते थे. एक अध्यापक की गरिमा को खंडित कैसे करते? परीक्षाफल घोषित हुआ, तो अपेक्षानुसार कॉलेज में अव्वल नंबर पर अपर्णा ही थी. एक शिक्षिका के तौर पर जूनियर सेक्शन में उसकी नियुक्ति भी सुनिश्‍चित हो गई.

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दिनेश तब रोक न सके आकुल भावनाओं के प्रस्फुटन को. उन्होंने सम्मान स्वरूप अपर्णा को एक डायरी दी और उसमें दबा एक सुर्ख़ गुलाब भी, जिसने उनके लगाव को बिना बोले ही व्यक्त कर दिया. फिर तो प्रेम पूरे वेग से पेंगे लेने लगा था. हालांकि उन्होंने शालीनता की सीमा रेखा कभी नहीं लांघी, पर चोरी-छुपे मिलना शुरू हो गया. अपर्णा के पीएचडी की रूपरेखा भी बनने लगी, साथ ही साथ यह भी तय हुआ कि अब विवाह के बारे में अभिभावकों से बात कर लेनी चाहिए. तब न जाने कहां से उनके बीच किसी दुस्वप्न की तरह समित कूद पड़ा. वह दिनेश के निर्देशन में शोध करना चाहता था. अपनी पुरानी ‘मित्र’ से टकराना स्वाभाविक ही था और एक दिन… जब वह अपर्णा से कह रहा था, “कम ऑन डियर, माना पहले हमारा ब्रेकअप हो चुका है, पर उस कारण तुम सीधे मुंह बात ही न करो, ये तो…” उसे चुप होना पड़ा, क्योंकि चोरों की तरह दम साधकर सर उसकी ही बात सुन रहे थे. उन्हें देखते ही वह वहां से खिसक लिया. रह गई अपर्णा, अपनी सफ़ाई में कुछ कह पाने का उसे मौक़ा ही नहीं मिल पाया. दिनेश के हाव-भाव से छलकती घृणा, अकल्पनीय थी! उसकी ज़ुबान मानो तालु से चिपककर रह गई थी. उन चंद पलों में ही सब कुछ मिट गया हो जैसे!
वह कहना चाहती थी, ‘आप ग़लत समझ रहे हैं. सहेलियों की देखा-देखी मैंने भी बॉयफ्रेंड बनाया ज़रूर था, पर वो बस एक जुनून था, दिखावा मात्र था. मैंने कोई मर्यादा नहीं तोड़ी, बल्कि मेरी तो हिम्मत ही नहीं थी ऐसा कुछ भी करने की.’ लेकिन ‘कारवां गुज़र गया’ और ‘गुबार’ ही देखती रह गई! हर दिन ख़ुद को कोसती रहती कि मैंने दिनेश सर जैसे नैतिकतावादी इंसान से प्रेम ही क्यों किया? सर नहीं जानते थे, पर मुझे तो पता था कि छिछोरापन उन्हें पसंद नहीं होगा. उनका गहरा व्यक्तित्व किसी भी प्रकार की उच्छृंखलता को सह न सकेगा. वह ही मूरख थी, जो यह जानते हुए उनके प्यार में पड़ गई.
मन में एक कुंठा घर करने लगी, जो रोज़ उसे कठघरे में खड़ा करती. रोज़ उससे कहती- ‘तू गुनहगार है. तूने एक सच्चा प्रेम करनेवाले का दिल दुखाया. अपना अतीत छुपाकर उन्हें अंधेरे में रखा.’
वो भी कितनी नादान थी. विगत बातों को समाज की संकरी सोच से जोड़ पाती, तो उनके निकट जाने की ग़लती ही क्यों करती? उनकी नज़रों में गिरना मौत से भी बदतर लग रहा था. मां-बाऊजी उस पर शादी के लिए ज़ोर डाल रहे थे, पर वह अपनी मनःग्रंथि से कहां उबर पा रही थी, फिर शादी के लिए तैयार कैसे होती? इसी तरह साल निकल गया. दिनेश सर ने जान-बूझकर, दूसरे किसी संस्थान में नियुक्ति ले ली थी. शायद भागना चाहते थे उससे!
सुनने में आया कि उनका विवाह किसी ख़ूबसूरत और परंपरावादी युवती से हो गया था. सुनकर पहले तो दिल में टीस-सी उठी, पर फिर सोचा- ‘चलो अच्छा ही हुआ, उन्हें उनकी आदर्श पत्नी मिल गई. वे ख़ुश रहेंगे, तो शायद मैं भी… उनकी ख़ुशी में ही मेरी…’ चिंतन प्रक्रिया इससे आगे नहीं बढ़ पाती. कैसे बढ़ती? कैसे मान लेती कि उनकी ख़ुशी, उसे उसके दुख, उसके अपराधबोध से उबार सकती थी.
“सर ने सबको बुलाया है. विदेश से एक मैडम आई हैं. उन्होंने अपने पुराने हिंदी ग्रंथों पर रिसर्च कर रखी हैं और कॉलेज में चर्चा के लिए भी आ रही हैं.”

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रजनी की बकबक ने उसे विचारों के सागर से खींच निकाला. ज़्यादा कुछ तो नहीं, पर इतना समझ पाई कि उसकी प्रिय साहित्यिक चर्चा होनेवाली थी, एक निराले ही अंदाज़ में. उसने जल्दी-जल्दी ख़ुद को व्यवस्थित किया और हॉस्टल से हॉल की तरफ़ बढ़ चली. रजनी का हाथ उसके हाथ में था. सीटें पहले ही काफ़ी कुछ भर चुकी थीं. अभी दोनों बैठे ही थे कि प्रिंसिपल सर उस विदुषी को स्टेज पर लेकर आए. उसे देख अपर्णा की तो सांस ही रुक गई! साड़ी में वह बेहद ख़ूबसूरत लग रही थी. विदेशी होते हुए भी ऐसा मर्यादित पहनावा! दीपदान में दीये जलाकर कार्यक्रम का शुभारंभ होना था. जलती हुए मोमबत्ती लेकर कोई पीछे से स्टेज पर आया. कौन था वह, जिसने अपर्णा के होश उड़ा दिए? जो उस युवती को दीप प्रज्ज्वलित करने के लिए मोमबत्ती थमा रहा था. यह तो वे ही थे, जिनकी स्मृतियां उसे कभी सहज न होने देती थीं… उसके परम प्रिय दिनेश सर!
सभी दर्शक मंत्रमुग्ध-से उस विदेशी कन्या डोना को हिंदी में बोलते हुए सुन रहे थे. बीच-बीच में वह अंग्रेज़ी का सहारा भी लेती. सब कुछ अच्छे से चल रहा था, बस अपर्णा का ही मन नहीं ठहर रहा था उन गतिविधियों में. कई वक्ता आए और अपने-अपने विचार व्यक्त करके चले गए, लेकिन अपर्णा के पल्ले कुछ भी न पड़ा.
कार्यक्रम के अंत में जो फुसफुसाहटें सुनाई दीं, उनसे अलबत्ता उसके कान ज़रूर खड़े हो गए. “पता है, लंदन में दिनेश सर को टेम्परेरी अपॉइंटमेंट मिला था, वहीं के किसी कॉलेज में…”
“तो क्या उधर ही टकरा गए इस डोना से?”
“टकरा गए! अरे भई, वे वहां लिव इन में रह रहे थे…!”
“ओह गॉड! और उनकी पत्नी?”
“उनको अपनी पत्नी से कोई मतलब नहीं है. दिनेश सर तो परमानेंटली वहीं सेटल होने की कोशिश में हैं.” आगे सुन नहीं सकी अपर्णा. दिमाग़ जैसे सुन्न पड़ गया था. जिस ग्लानि ने उसके जीवन को अधूरा रखा, पलभर में तिरोहित हो चला! ऐसे आदमी के लिए वह ख़ुद को सज़ा देती रही, जिसने रिश्तों को खेल बना रखा था. जैसे वर्जनाएं मात्र नारी के नाम लिख दी गई हों और पुरुष… वह कहीं भी मुंह मारता फिरे, कोई हर्ज नहीं! उस दोगले इंसान के खोखले आदर्श जीवन पर बोझ-से थे. अपर्णा ने तुरंत मां को फोन
लगाया और कहा, “मैं जल्द से जल्द रुड़की आ रही हूं. लड़केवालों को इत्तला कर देना…”

      विनीता शुक्ला

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Usha Gupta

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