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कहानी- बेजान न जान  (Story- Bejaan Na Jaan)


बनवारीलाल का मन कसक उठा. बेटी के पराये होने और बेटे के पराये होने में कितना अंतर है! बेटी पराई होकर भी माता-पिता का ध्यान रखती है और बेटा पराया होता है, तो माता-पिता बीच मंझधार में डोलती बिना पतवार की कश्ती हो जाते हैं.

धूप बहुत तेज़ थी. स्कूटर से उतर रंजन पोस्ट ऑफिस के बरामदे में आया. तभी वहां बेंच पर बैठे एक वृद्ध सज्जन ने उसे आवाज़ दी, “बेटे, ज़रा सुनना. प्लीज़ मेरा एक काम कर दोगे?”‘….?’ रंजन ने प्रश्‍नवाचक दृष्टि से उनकी ओर निहारा.वृद्ध ने कंपकंपाते हाथ से एक अंतर्देशीय पत्र उसकी ओर बढ़ा दिया, “ज़रा एक छोटी-सी चिट्ठी लिख दोगे? प्लीज़!”‘….?’ रंजन ने आश्‍चर्य से उन्हें निहारा. पढ़े-लिखे लगते हैं, फिर भी? तभी उसकी नज़र उनकी दो उंगलियों पर पड़ी. उन पर पट्टी बंधी हुई थी. ओह! तो इसके कारण…“उंगलियों में चोट लगी है न बेटे, लिखने में…”“कोई बात नहीं!” आत्मीयता से उनके पास बैठ रंजन ने अंतर्देशीय पत्र हाथ में लिया, “क्या लिखना है?”वृद्ध ख़ुश हो गए. गद्गद् स्वर में अपना पेन भी उसे पकड़ाया, “पहले पता लिख देना…”नाम के साथ ‘श्री’ लगा पानेवाले का ‘पोस्ट’ लिखवाया ‘जनरल मैनेजर!’लिखते हुए रंजन ने सोचा, ‘शायद ये सज्जन वहां सर्विस में रहे होंगे. आज किसी काम से…’पूरा पता लिखवाकर, उन्होंने पत्र लिखवाना शुरू किया, “आयुष्मान पुत्र विनित पाल…”ओह! तो ये ‘जनरल मैनेजर’ इनके सुपुत्र हैं! फिर भी नाम के साथ श्री? ख़ैर! मुझे क्या?उसकी कुशलता की कामना लिखवा गला खंखार वृद्ध ने मजमून लिखवाना आरंभ किया, “तुम्हारी मां की तबीयत कुछ माह से ठीक नहीं रहती, अभी दवाइयों का ख़र्चा भी बढ़ गया है. कुछ रुपए भिजवा देते, तो अच्छा रहता…” लिखते हुए रंजन की उंगलियां कांप उठीं. एक पिता की पैसों के लिए अपने ही बेटे से ऐसी गुज़ारिश…? अचानक उसके मन में कोई कील-सी चुभी. जब मेरे दिल को इतना धक्का लग रहा है, तो इस बूढ़े इंसान को? वृद्ध पिता को कैसा लग रहा होगा?उसने महसूस किया, ऐसा लिखवाते हुए उन सज्जन की आवाज़ थर्रा गई थी! गला रुंध गया था. एक पिता के लिए इससे पीड़ादायक स्थिति और क्या होगी कि जिस बेटे पर, उसको लायक बनाने के लिए अपना धन उसकी हर ज़रूरत पर बिना मांगे ख़र्च किया, आज उसी के सामने अपने ख़र्च के लिए हाथ फैला गुज़ारिश करनी पड़ रही है? ‘दाता’ से ‘याचक’ बनने की कैसी पीड़ादायी दुखद स्थिति थी ये?कुछ पलों की तनावभरी शांति छा गई. दो पंक्तियां लिखवा वे चुप हो गए. रंजन आगे के लिए इंतज़ार करने लगा. कुछ क्षण बाद उसने नज़रें उठा उनकी ओर देखा, “आगे?”‘….!’ एक लंबी सांस ले उन्होंने होंठ भींच लिए, “बस बेटे, इतना ही!” और पत्र ख़त्म करने का संकेत किया, “तुम्हारा पिता बनवारीलाल!” रंजन आश्‍चर्य से उन्हें देखने लगा, “जब दो पंक्तियां ही लिखवानी थीं और पैसों की इतनी ही तंगी है, तो ‘अंतर्देशीय’ क्यों लिखवाया? ‘पोस्टकार्ड’ लिखवा देते?” “पोस्टकार्ड वहां अच्छा नहीं लगता बेटे! इतना बड़ा ऑफिसर है वो! और फिर… रिसिट सेक्शनवाला बाबू पढ़ भी लेता.”“तो घर के पते पर भेज देते? वहां तो कोई द़िक्क़त…”“वो मेरी बहू है न, मेरी चिट्ठियां फाड़कर फेंक देती है. बेटे तक पहुंचने ही नहीं देती, इसलिए…” भावना के अतिरेक में बनवारीलाल के मन का दर्द छलक उठा. गला रुंध गया. किसी मासूम माता-पिता से बिछड़े बच्चे की तरह बदहवासी उनके चेहरे पर छा गई! यह सुनकर रंजन का कलेजा मुंह को आ गया. एक पिता, जिसने अपनी पूरी जवानी, अपनी दौलत अपने बेटे को पालने, बढ़ाने और इतने ऊंचे ओहदे के लायक बनाने में ख़र्च कर दी, आज उसी बेटे से अपने मन की पी़ड़ा अभिव्यक्त कर पाने में कितना असमर्थ है? वो भी स़िर्फ अपनी बहू के कारण…? जिसका उनके बेटे को पालने लायक बनाने में कोई योगदान नहीं है? उसे तो ‘ऑलरेडी सेटल्ड’ पूर्ण लायक एक इंसान पति के रूप में मिला था! और उस पर पूर्ण अधिकार जमा उसकी पूरी कमाई पर कुंडली मार वह सास-ससुर को ठेंगा दिखा रही थी, जिनके त्याग के कारण ही पति इस कमाई के लायक बना था?कुछ क्षणों तक पीड़ादायी स्तब्धता छाई रही. फिर बनवारीलाल ने होंठों-होंठों में ‘थैंक्स’ बुदबुदा उसके हाथ से पत्र लिया, सामने खिड़की पर रखे गोंद से चिपकाया और डाक के डिब्बे में डाल थके-हारे क़दमों से गेट की ओर धीमी गति से बढ़ गए. रंजन की ओर उन्होंने गर्दन उठाकर देखा तक नहीं.रंजन उनकी विक्षत मनोस्थिति समझ रहा था. यदि एक बार भी रंजन से उनकी निगाह मिल जाती, निश्‍चित था उनकी आंखों से आंसू ढुलक पड़ते. बनवारीलाल के जाने के बाद भी रंजन कुछ देर तक वहीं जड़वत बैठा रहा. आधे घंटे बाद अपने काम निपटा रंजन घर की ओर रवाना हुआ. चौराहे पर रेड सिग्नल होने पर ज्यों ही वह रुका, बाईं ओर बनवारीलाल जाते दिखे. पसीने से लथपथ, छड़ी टेकते, कांपते क़दमों से!रंजन स्तब्ध रह गया. बनवारीलाल ने अपने पते में ‘गणेश कॉलोनी’ लिखवाया था. गणेश कॉलोनी यहां से अभी एक किलोमीटर और दूर थी, तो इतनी दूर इतनी गर्मी में? पैसों की तंगी के कारण, पैसे बचाने की ख़ातिर, बेचारे टेंपो भी नहीं कर रहे थे.कोई रिश्ता न होते हुए भी रंजन ने स्कूटर उनकी ओर मोड़ दिया. उनके पास पहुंच उसने बैठने का इशारा किया, “आइए बाबा, आपको छोड़ दूं.”“बेटा, तुम काहे नाहक तकलीफ़…” “तकलीफ़ कैसी? मैं गणेश कॉलोनी के आगे जा रहा हूं. वहां मेरी साइट है. आपको उतार दूंगा.” बनवारीलाल का हृदय गद्गद् हो गया. इतनी धूप में अजनबी होते हुए भी? आशीर्वाद में उसकी पीठ थपथपा वे उसके पीछे बैठ गए.जब घर आया, उन्होंने आग्रह से उसका हाथ पकड़ लिया, “दो मिनट घर तो चलो बेटे!” रंजन समझ गया. वे उसे कुछ नाश्ता करवाना चाह रहे होंगे, मगर उनकी आर्थिक अवस्था भांप ‘जल्दी’ का बहाना बना जाने लगा, तो उन्होंने कसकर हाथ पकड़ लिया, “‘देखो तो, मेरे हाथ के लगाए  नींबू-आंवला हैं. इनका शरबत गर्मी में बहुत राहत देगा.” इन्हें अतिरिक्त ख़र्चा नहीं करना पड़ेगा, आश्‍वस्त हो रंजन अंदर आया.

घर दो मंज़िला था. तीस साल पूर्व जब इधर सुनसान था, नई कॉलोनीज़ बनना शुरू हुई थीं,  बनवारीलाल ने सस्ते में 40 व 50 के दो प्लॉट ख़रीद लिए थे. एक में बैंक लोन ले घर बनवा लिया, दूसरे में बगीचा लगा लिया.शरबत से रंजन को वाक़ई बहुत तरावट मिली. जाने लगा, तो बनवारीलाल की पत्नी जमुनादेवी प्लास्टिक थैली में 25-30 नींबू ले आईं. रंजन को संकोच हुआ. अभी गर्मी में नींबू, वो भी इतने बड़े-बड़े, दो रुपये में एक बिक रहे थे. बनवारीलाल बेचते तो…बनवारीलाल ताड़ गए. आत्मीयता से उसका हाथ पकड़ा, “तीन पेड़ हैं, फूलों के भी हैं. आस-पड़ोस में सबको बांट देता हूं…” सही तो है. पड़ोसियों से आत्मीयता भी बनी रहती है, वरना बेटा तो सैकड़ों किलोमीटर दूर! वो भी निर्मोही!धन्यवाद दे रंजन चला आया.बनवारीलाल का मन बेहद अशांत था. वे बेचैनी से घर में इधर-उधर चकरघिन्नी से घूम रहे थे. मस्तिष्क में विचारों का झंझावात मच रहा था. कुछ निर्णय नहीं कर पा रहे थे, क्या करें? उस दिन के बाद इन पंद्रह दिनों में रंजन तीन बार उनके घर आया था. दो बार पत्नी को भी साथ लाया. एक आत्मीयता बन गई थी उनके बीच. उसकी पत्नी कुंतल के कारण पहली बार उन्हें ‘बहू का सुख’ मिल रहा था. भले ही वो पराई थी, पर सास-ससुर के समान सम्मान दे रही थी उन्हें.मगर आज जब रंजन आया, तो उन्हें विचारों के भंवर में डूबता-उतराता छोड़ गया. वे कुछ तय नहीं कर पा रहे थे कि रंजन के प्रस्ताव का क्या जवाब दें?ऐसे व़क्त में उन्हें अपनी बिटिया सेवंती की बहुत याद आई. काश! यहां होती तो उससे सलाह-मशविरा कर लेते. तभी बाहर रिक्शा रुकने की आवाज़ आई. खिड़की से झांककर देखा, तो सेवंती, निखिल संग उतर रही थी. बेटी-दामाद को देखते ही उनकी बूढ़ी रगों में जान आ गई. दौड़कर दरवाज़ा खोला. तब तक सेवंती-निखिल बरामदे में आ गए थे. बेटी को गले लगा वे भावुक हो गए. “बिटिया, तुझे ही याद कर रहा था.”“और मैं आ गई!” ख़ुशी से किलक सेवंती ने उनके चरण स्पर्श किए. उन्हें लिवा बनवारीलाल अंदर आए. कुशल-क्षेम पूछने के बाद बनवारीलाल के मुंह से निकल गया, “एक उलझन में हूं बेटे…”“इसीलिए तो हम आए हैं बाबूजी!” सेवंती ने पूरी बात सुने बिना कहा, “आपको रंजनजी का प्रस्ताव मान लेना चाहिए!”‘….?’

बनवारीलाल अवाक् उसे देखते रह गए. ये रंजन को कैसे जानती है? और उसका प्रस्ताव? इसकी भी उसे जानकारी?“अरे बाबूजी!” सेवंती ने लाड़ से उनका असमंजस दूर किया, “पिछले हफ़्ते रंजनजी के मोबाइल से ही तो आपने हमसे बात की थी…” “हां… हां…” बनवारीलाल को याद आ गया. मगर वो प्रस्ताव? इसकी जानकारी इन दोनों को?“बाबूजी!” निखिल उनके पास खिसक धीर-गंभीर स्वर में समझाने लगा, “रंजनजी ने जो सुझाव दिया है, हमें बहुत उचित लगा. इसीलिए कल उनका फोन आने पर हम आए हैं, आपको समझाने.” बनवारीलाल आश्‍चर्य से उन्हें देखते रह गए. तो ये खिचड़ी इनके बीच पहले ही पक चुकी थी?बनवारीलाल गहरी सोच में डूब गए. बेटी-दामाद के अनुमोदन के बाद तो उनका दिल ही किसी गहरे अंधे गह्वर में धंसता चला गया. उन्हें इस सुझाव पर विचार करना ही बेहद मर्मांतक लग रहा था कि वे अपना ये ‘घर’ बेच दें.घर! वो मनोरम स्थल, जहां इंसान सुरक्षा से रह भविष्य के सपने बुनता है. अपनी गृहस्थी चलाता है. कोई एक याद जुड़ी होती है इसके संग? हर पल की सैकड़ों-हज़ारों यादें! उन सबको एक झटके में तिरोहित कर कैसे बेच दें इसे?उनका कलेजा मुंह को आ गया. निखिल का हाथ पकड़ वे कातर आंखों से उसे निहारने लगे, “बेटे, दामाद की बात आज तक टाली नहीं, लेकिन ज़रा मेरे मन की हालत सोचो! सेवंती से ही पूछ लो. पांच-छह साल की थी ये. शायद कुछ याद हो. कितने चाव से, कितनी हसरतों से मैंने ये घर बनवाया था. मां से पूछो, एक-एक ईंट मैंने अपने सामने लगवाई है…”“मैं मानता हूं बाबूजी.” निखिल ने उनके हाथों को अपनी मुट्ठी में भींच लिया, “लेकिन ऐसा कठोर निर्णय लेने के लिए हम आपके भले के वास्ते ही कह रहे हैं…”“अरे, काहे का भला?” बनवारीलाल का गला अवश विवशता से भर आया, “उस घर को बेचने के लिए बोल रहे हो, जिसे मैंने बड़े चाव से बनवाया था…” “चाव से तो बाबूजी आपने भैया को भी पढ़ाया था!” दख़ल देती सेवंती की आवाज़ थोड़ी तिक्तता के साथ दर्द में डूब गई. “क्या मिला आपको?” सैकड़ों टन पत्थरों के नीचे दब गया बनवारीलाल का मन. बिपिनपाल के लिए कितने सपने बुने थे उन्होंने! उसके उच्च अध्ययन के लिए इसी घर पर बैंक लोन लिया था उन्होंने. उसे चुकाने की ज़ेहमत तक नहीं उठाई बिपिनपाल ने. सारा कर्ज़ बनवारीलाल ने चुकाया. ब्याज समेत. स्तब्ध! मूर्तिवत्! जड़वत् रह गए बनवारीलाल. सेवंती की शादी में पैसा भी तो नहीं लगाने दिया था बिपिनपाल को उस कुंडली मारकर बैठी बहू ने. सारी ज़िम्मेदारियां बनवारीलाल ने उठाई थीं. जब रिटायर हुए… एडवांस में आधा खाली हो चुका पीएफ का पैसा पिछली देनदारियां चुकाने में पूरा हो गया! बस, अकेली पेंशन का सहारा है.ज़िंदगी के दांव में सब कुछ हार चुके जुआरी की तरह निस्तेज निढाल बेटी-दामाद को कातर नज़रों से देखते रहे.“बाबूजी!” पिता को गले लगा सेवंती की आंख भर आई, “उम्र के साथ बीमारी के ख़र्चे भी तो बढ़ रहे हैं! कहां से पूरे करोगे? हमसे लेते नहीं, भैया भेजता नहीं!”“… कहने को लाखों की मिल्कियत… मगर इलाज को… दवा, डॉक्टर को?… एक रुपया ख़र्चने में कंजूसी?… ये देखो… देखो ज़रा..” सेवंती उनकी कलाई थाम उनकी उंगलियां सहलाने लगी, “ चोट लग गई थी, कट गई थी… मगर डॉक्टर के पास नहीं गए… तो नहीं गए… घर पर पुराना कपड़ा फाड़… उसी की पट्टी बांध ली!”बनवारीलाल ने होंठ भींच लिए. अब वे ठंडे मन व शांत चित्त से सोचने लगे. सेवंती-निखिल वाकई सही सलाह दे रहे हैं. लाखों की संपत्ति होते हुए भी वे अभावों में जी रहे हैं. इलाज तक नहीं करवाते. पूरी ज़िंदगी यूं ही तकलीफ़ों में निकल जाएगी. मर जाएंगे. उसके बाद…? उसके बाद वो ख़ुदगर्ज़ बेटा बिपिनपाल आएगा… सब ले जाएगा- जो आज झांकता तक नहीं. फिर क्यों तरस-तड़प कर रहें?भारी… हताश… निरुपाय मन… उन्होंने घर बेचने का निर्णय ले लिया.सारी रात नींद नहीं आई. सुबह उठे भी तो बुझे-से. मौन चुप रह नित्यकर्म निपटाते रहे. ग्यारह बजे के लगभग रजिस्ट्री करने के लिए निकले. घर के बाहर आ उदास-बुझी आंखों से अपने घर को देखने लगे. अभी ये ‘मेरा’ है… ‘मेरा अपना घर!… जब लौटेंगे… किसी और का ‘पराया’ हो जाएगा… हमेशा… हमेशा के लिए…हठात् पास खड़ी सेवंती को निहारने लगे. उसकी शादी का ‘विदाईवाला’ दृश्य याद आ गया. ये भी उस दिन ‘पराई’ हो गई थी. लेकिन इसके पराए होने और घर के पराए होने में कितना अंतर है? बेटी के पराया होने में रत्तीभर दुख नहीं था. मालूम था, पराए घर की होकर भी मायके से जुड़ी रहेगी. लेकिन यहां तो?उनका ‘प्रेमकुंज’ सदा सर्वदा के लिए पराया हो जाएगा. एक ठंडी सांस ले उन्होंने होंठ भींच लिए.  पास खड़े निखिल ने संरक्षक भाव से उनके कंधे थपथपा रंजन की भेजी कार में बैठाया. वस्तुत: ये घर रंजन ही ख़रीद रहा था. उसका प्रॉपर्टी का बिज़नेस था. ज़मीन-पुराने मकान ख़रीदना, मल्टीस्टोरी बनाना और फ्लैट्स बेचना. बनवारीलाल के उस ‘दो पंक्ति’ के पत्र ने उसे बुरी तरह हिला दिया था. कोई रिश्ता, जान-पहचान न होते हुए भी वह उनकी सज्जनता से द्रवीभूत हो उनका जीवन संवारने को तड़प उठा. निखिल को फोन कर सारी योजनाएं समझाईर्ं. रजिस्ट्री के बाद वे सब रंजन के घर गए. दोपहर व रात का भोजन रंजन के घर ही था.देर रात वे लौटे. ‘प्रेमकुंज’ में प्रवेश करते समय बनवारीलाल के क़दम हठात् ठिठक गए. सुबह गए थे, तब बेटी का ख़्याल मन में आया था, अभी लौटे तो बेटे का आ गया.कितनी उम्मीदों से पाला था उसे! कर्ज़ा लेकर उच्च अध्ययन के लिए भेजा, शादी में पत्नी के गहने भी बहू को चढ़ा दिए, लेकिन बेटा सुंदर पत्नी के मोहपाश में ऐसा बंधा कि माता-पिता के मोह के बंधन को भूल गया. भूले-बिसरे याद भी नहीं करता? पराया हो गया! इस घर की तरह!बनवारीलाल का मन कसक उठा. बेटी के पराये होने और बेटे के पराये होने में कितना अंतर है! बेटी पराई होकर भी माता-पिता का ध्यान रखती है और बेटा पराया होता है, तो माता-पिता बीच मंझधार में डोलती बिना पतवार की कश्ती हो जाते हैं.ठंडी सांस ले बनवारीलाल अंदर दाख़िल हुए. सारी रात बनवारीलाल को नींद नहीं आई. बार-बार उठ पागलों की तरह पूरे घर के चक्कर लगाते. कभी दरवाज़ों से लिपटते, कभी दीवारों से. फ़र्श पर निढाल हो, शून्य आंखों से छत को टकटकी लगाए घूरते. खून-पसीने की कमाई से बनाए अपने घर को बेच देने की टीस से उनके मन का संताप निरंतर बढ़ता जा रहा था. जब व्यग्रता का लावा मन में उबलने लगा, तो एक खंभे से लिपट फूट-फूटकर रो पड़े, “आज तुमने भी मेरा साथ छोड़ दिया. उस पर अपनी कमाई लुटाई, तुम पर भी… उसने तो कब का किनारा कर लिया… आज तुम भी धोखा दे गए…”“ऐसा मत कहो बाबूजी!” हठात् बनवारीलाल को लगा वो खंभा झूठे इल्ज़ाम की पीड़ा से तड़प उठा है. “हमने आपको कोई धोखा नहीं दिया… हमने तो आपका जीवन संवार दिया है.”“हां बाबूजी!”बनवारीलाल को लगा खंभे के साथ अब घर की दीवारें, खिड़की, दरवाज़े सब रो-रोकर गुहार लगा रहे हैं, “ज़रा गहराई से सोचो!… अब आपको किसी भी तरह की चिंता नहीं करनी पड़ेगी…”बनवारीलाल विस्फारित नज़र सोचने लगे. चालीस लाख में रंजन ने उनका घर ख़रीदा. पंद्रह लाख में उसकी एक मल्टीस्टोरी बिल्डिंग में फ्लैट दिलवा दिया. पंद्रह लाख की बैंक में एफडी, दस लाख में उसकी नई बन रही मल्टी में एक फ्लैट बुक कर दिया कि सालभर में मल्टी बनने पर भाव बढ़ने पर उसे बेच फिर दूसरी नई बिल्डिंग में बुक कर देंगे…!“अब सोचो बाबूजी… आपको ख़र्च की रत्ती भर भी चिंता रहेगी?” हतप्रभ् बनवारीलाल की बूढ़ी हड्डियों में जान आई. बेटे ने तो ‘बेजान जान’ यादों के कूड़ेदान में फेंक दिया था, लेकिन इस ‘बेजान’ घर ने उनमें जान डाल दी. बनवारीलाल अब आह्लाद से उन बेजान दीवारों-खंभों-खिड़कियों और दरवाज़ों को दीवानों की तरह चूमने लगे. “नहीं-नहीं, मेरे ‘प्रेमकुंज’, तुम बेजान नहीं, तुम तो अपने बाबूजी में जान डालनेवाले सच्चे सपूत हो!

  प्रकाश माहेश्‍वरी

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Usha Gupta

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