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कहानी- भरोसा (Story- Bharosa)

लगता है अजय भी यह जता देना चाहता है कि वह प्रिया को भूला नहीं है, अन्यथा अजय प्रिया के आने की सूचना देते समय कल ही प्रिया के बारे में हर आवश्यक जानकारी दे सकता था. क्या वह आज भी प्रिया से उतना ही प्यार करता है जितना कि पहले करता था? अखिला का हृदय कांप उठा.

“ये प्रिया है अक्की… और प्रिया, ये है मेरी धर्मपत्नी.” अजय ने प्रिया से अपनी पत्नी अखिला का परिचय कराया.
“नमस्ते!” प्रिया ने दोनों हाथ जोड़ कर अभिवादन किया.
“नमस्ते! बैठिए न.” अखिला ने प्रिया का स्वागत करते हुए कहा. यद्यपि अखिला के मन में अजय के शब्द चुभ गए. भला ये कौन-सा तरीक़ा है? प्रिया से परिचय कराते समय पूरा नाम लेने में उन्हें कौन-सा कष्ट हो रहा था… यदि वे अक्की के स्थान पर अखिला कह देते तो इसमें इनका क्या घट जाता? अजय ने प्रिया का नाम कितने प्यार से लिया और उसका… हुंह!
“क्या सोच रही हो अक्की? प्रिया को चाय-वाय नहीं पिलाओगी क्या?” अजय ने अखिला को टोका. वह झेंप गई. उसे लगा कि उसके इस अनमने व्यवहार पर क्या सोचेगी प्रिया?
“अभी लाती हूं. वैसे प्रियाजी, आप क्या लेना पसंद करेंगी… गर्म या ठंडा?” अखिला ने अपने विचारों से उबरते हुए पूछा.
“कुछ भी ले लूंगी… जो आपके लिए सुविधाजनक हो.” प्रिया ने सौम्य भाव से कहा.
“ऐसा है तो अक्की पहले नींबू की चाय ले आओ. प्रिया को दूध की चाय पसंद नहीं है. एम आई राइट प्रिया?”
“तुम्हें आज तक मेरी पसंद-नापसंद याद है, स्ट्रेंज!” प्रिया ने ख़ुश होते हुए कहा.
प्रिया और अजय बातों में व्यस्त हो गए और अखिला चाय-नाश्ता बनाने रसोई में चली आई. उसके हाथ यंत्रवत काम कर रहे थे, किंतु मन में एक फांस चुभी थी. अजय ने कभी किसी दूसरे के सामने यह नहीं कहा कि अखिला को क्या पसंद है, क्या नापसंद है. कौन जाने अब उसे अखिला की पसंद-नापसंद याद भी है या नहीं? प्रिया भी कितनी ख़ुश हो रही थी यह जान कर कि अजय को उसकी पसंद-नापसंद आज तक याद है. लेकिन इसमें प्रिया का क्या दोष? उसे तो ख़ुश होना ही चाहिए. कौन नहीं चाहता अपने पुराने मित्र की स्मृतियों में रहना.
लगता है अजय भी यह जता देना चाहता है कि वह प्रिया को भूला नहीं है, अन्यथा अजय प्रिया के आने की सूचना देते समय कल ही प्रिया के बारे में हर आवश्यक जानकारी दे सकता था. क्या वह आज भी प्रिया से उतना ही प्यार करता है जितना कि पहले करता था? अखिला का हृदय कांप उठा. उसने अपने सिर को झटकते हुए इस भयावह विचार से छुटकारा पाने का प्रयास किया.
“क्यों भई अक्की, चाय बनी कि नहीं?” अजय की पुकार सुनकर अखिला हड़बड़ा गई.
“ला रही हूं.” अखिला ने उत्तर दिया और केतली में चाय छानने लगी.
“अखिलाजी, थैंक्यू! चाय बहुत अच्छी है. ऐसी ही चाय की आवश्यकता महसूस हो रही थी मुझे. आपके हाथ में तो जादू है.”
चाय की चुस्कियां लेती हुई प्रिया ने अखिला की प्रशंसा करते हुए कहा.
“छोड़ो भी प्रिया! अक्की की यूं तारीफ़ मत करो वरना तुम तो वापस चली जाओगी और ये मुझ पर अपने हुनर की रौब गांठती रहेगी.” अजय ने हंस कर कहा.
“हां प्रियाजी, भला मैं तारीफ़ के काबिल कहां?” प्रिया ने जल-भुनकर कहा. बात हंसी-मज़ाक की थी, लेकिन अखिला उसे हंसी-मज़ाक में नहीं ले सकी. प्रिया के सामने उसे कम करके दिखाने का अजय का यह प्रयास एक ओछी हरकत के समान लगा. माना कि प्रिया अजय की पुरानी प्रेमिका है, लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं है कि वह अपनी पुरानी प्रेमिका के सामने अपनी पत्नी को नीचा दिखाने लगे. अखिला को वहां अब और बैठ पाना कठिन लगा.
“आप दोनों बातें कीजिए, तब तक मैं खाना बनाती हूं.” यह कहती हुई अखिला उठ खड़ी हुई.
“प्रिया से पूछ तो लो कि वह क्या खाना पसंद करेगी.” अजय ने अखिला को टोका.
“इनसे क्या पूछना आप ही बता दीजिए कि ये क्या खाना पसंद करेंगी. आपको तो इनकी पसंद-नापसंद अच्छी तरह याद है.”
“जी, मैं खाना नहीं खाऊंगी. जहां मुझे ठहरना है, वहीं एक छोटी-सी डिनर पार्टी भी रखी गई है. आप व्यर्थ में परेशान न हों.” प्रिया ने संकोच भरे स्वर में कहा.
“डिनर में तो अभी बहुत देर है. तब तक क्या आप भूखी रहेंगी. कुछ न कुछ तो खाना ही पड़ेगा. अच्छा, पनीर-पकौड़े कैसे रहेंगे?” अब तक अखिला को भी अपने ग़लत व्यवहार का आभास हो गया था. उसने अपनी अभद्रता पर पर्दा डालते हुए प्रिया से पूछा.
“पनीर-पकौड़े? बहुत बढ़िया रहेंगे. मुझे तो बेहद पसंद हैं.”
अखिला रसोईघर में आकर पनीर-पकौड़े बनाने में जुट गई. साथ ही उन बातों को याद करने लगी जो अजय ने उसे रानीखेत में बताई थीं. विवाह के बाद अजय और अखिला हनीमून पर रानीखेत गए थे. वहीं अजय ने एक दिन अपनी गुज़री ज़िंदगी के पन्ने पलटते हुए बताया था कि वह अपने साथ पढ़नेवाली एक लड़की प्रिया से प्यार करता था. वह उससे शादी करना चाहता था, लेकिन उसके माता-पिता को वह पसंद नहीं थी. कारण स़िर्फ इतना था कि वह विजातीय थी. अजय ने अपने माता-पिता को मनाने का बहुत प्रयास किया. उसने तो यहां तक धमकी दे डाली कि यदि उसे विवाह करने की अनुमति नहीं दी गई, तो वह घर छोड़ देगा और अपने माता-पिता से सदा-सदा के लिए नाता तोड़ लेगा. स्थिति की गंभीरता देखते हुए प्रिया ने ही अजय को समझाया कि उसका यह क़दम उचित नहीं है. माता-पिता को दुख देकर वह ख़ुश नहीं रह सकेगा. साथ ही वह भी जीवनभर स्वंय को अपराधी अनुभव करती रहेगी. प्रिया ने स्पष्ट शब्दों में जता दिया कि जिस प्रकार उसके अपने माता-पिता उसके लिए आदरणीय हैं, उसी प्रकार अजय के माता-पिता भी उसके लिए सम्माननीय हैं. वह उनके दुख की नींव पर अपने सुख का महल खड़ा करने की कल्पना नहीं कर सकती है.
अजय को पहले तो उसकी बातें बहुत बुरी लगीं, लेकिन फिर उसकी बातों की गहराई समझ में आते ही उसने प्रिया का कहना मान लिया. बस, उस दिन से दोनों के रास्ते अलग-अलग हो गए. अजय ने प्रिया से नाता तोड़ लिया, किंतु वह उसे भुला नहीं सका. विवाह के बाद कई माह तक अजय के होंठों पर प्रिया का नाम आता रहा. अखिला अपने पति के मुख से पराई औरत का नाम सुनकर भी यह सोचकर चुप रह जाती कि वियोग का यह घाव धीरे-धीरे भर जाएगा और एक दिन अजय को स़िर्फ अखिला का नाम याद रह जाएगा. हुआ भी यही. अजय का मन धीरे-धीरे अखिला में ही रमता चला गया. ईशा और ईशान के जन्म लेने के बाद तो अजय प्रिया का नाम ही भुला बैठा, किंतु यह सच नहीं था. अजय के अंतर्मन में प्रिया के प्रति लगाव आज भी यथावत था. इस सच्चाई का एहसास अखिला को कल उस समय हुआ जब अजय ने चहकते हुए स्वर में सूचना दी थी कि प्रिया आनेवाली है. उसी क्षण से अखिला के मन में झंझावात उमड़ने लगा था.
प्रिया अजय के जीवन में दोबारा क्यों आ रही है? क्या ज़रूरत है उसे अजय से मिलने की? यदि वह इस शहर में अपने कार्यालय के काम से आ रही है तो अपना काम करे और चली जाए. अजय से मिलकर पुरानी यादें ताज़ा क्यों करना चाहती है? क्या वह अजय को उससे छीन लेना चाहती है? नहीं-नहीं, ऐसा नहीं हो सकता… अगर प्रिया अजय को पाना चाहती, तो वह पहले ही उसे छोड़ती क्यों? अपने पुराने मित्र या फिर पुराने प्रेमी से मिलने की ललक हर किसी में होती है, फिर प्रिया के मन में यह ललक क्यों नहीं हो सकती? न जाने कितने प्रश्‍न और उत्तर अखिला के मन-मस्तिष्क में आते-जाते रहे.
आज प्रिया को अपने सामने पाकर, उसकी सुंदरता और सौम्यतापूर्ण व्यवहार देखकर अखिला को समझ में आ गया कि अजय की जगह कोई और पुरुष होता तो वह भी प्रिया को भुला नहीं पाता. पकौड़े तलते-तलते अखिला ने तय कर लिया कि वह अब किसी प्रकार की अभद्रता का प्रदर्शन नहीं करेगी. वह अजय और प्रिया को टोकेगी भी नहीं. यदि अजय और प्रिया ने एक-दूसरे से मिलने का निर्णय लिया है, तो वे परिस्थितियों को भी भली-भांति समझते ही होंगे. अजय नहीं तो कम से कम प्रिया पर तो भरोसा किया जा सकता है. यदि उसे अखिला का घर उजाड़ना होता तो वह कब का उजाड़ चुकी होती.
“कल चलो न, तुम्हें वन-विहार घुमा लाता हूं.” अजय प्रिया से कह रहा था.
“नहीं, रहने दो. वहां शेर-भालू देखने कौन जाए.” प्रिया ने कनखियों से अखिला की ओर देखते हुए उत्तर दिया.
“अरे नहीं, बड़ा अच्छा लगता है वहां. आप अवश्य घूम आइए.” पकौड़ों की प्लेट मेज पर रखते हुए अखिला ने कहा. एक बार अजय ने उसे बताया था कि प्रिया को वन और वन्य प्राणियों से लगाव है. स्पष्ट था कि वह अखिला के कारण वन-विहार जाने से मना कर रही थी.
“ठीक है. मैं एक शर्त पर जाऊंगी कि आप भी मेरे साथ चलेंगी.” प्रिया ने कहा.
“मैं ख़ुशी से आपकी शर्त मान लेती, लेकिन ईशा और ईशान की परीक्षाएं चल रही हैं आजकल. सो मेरा जाना तो संभव नहीं है, लेकिन आप दोनों ज़रूर हो आइए.” अखिला ने सहज स्वर में आग्रह किया. प्रिया उसके इस आग्रह पर चौंकी. संभवतः अजय भी चकित हुआ. किंतु अखिला के चेहरे पर छाई सहज मुस्कान को देखकर दोनों आश्‍वस्त हो गए.
लगभग चार दिन प्रिया उस शहर में ठहरी. अजय प्रिया की आवभगत में ही लगा रहा. वे दोनों वन-विहार गए. सिनेमा देखने गए. रेस्तरां में खाना खाने गए. प्रिया का साथ पाकर अजय तो मानो समय का बंधन भी भूल बैठा. तीसरे दिन की बात है, अजय ने शहर के सबसे प्रसिद्ध रेस्तरां में प्रिया को रात्रि भोजन कराने का निश्‍चय किया. उसने अखिला से भी आग्रह किया, किंतु अखिला अपने पूर्व निश्‍चय पर अडिग रही. उसने ईशा और ईशान की परीक्षाओं का बहाना करके खाने पर जाने से मना कर दिया. अजय प्रिया के साथ डिनर पर गया. रात्रि बारह बजने को आए, लेकिन अजय घर वापस नहीं आया. अखिला का विश्‍वास डगमगाने लगा. वह अपने मन से यह पूछने को विवश हो गई कि वह अजय और प्रिया को छूट देकर कहीं आग से तो नहीं खेल रही? इस पर उसके मन ने उत्तर देकर शांत कर दिया कि अगर आग लगनी ही होगी, तो उसकी सहमति अथवा असहमति से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा. घड़ी का कांटा जैसे-जैसे आगे खिसकता गया, वैसे-वैसे अखिला का अंतर्द्वंद्व बढ़ता गया. रात के लगभग दो बजे अजय घर लौटा. अखिला ने कोई प्रश्‍न नहीं किया, किंतु अजय ने ख़ुद ही बताया कि रेस्तरां से लौटते समय उनकी कार ख़राब हो गई थी, जिसे ठीक करवाने में इतनी देर हो गई. एक बार तो अखिला के मन की शंकाओं ने सिर उठाने का प्रयास किया, किंतु उसके विश्‍वास ने शंकाओं को निर्ममतापूर्वक दबा दिया. कभी-कभी किसी को खो देने का भय आर या पार की लड़ाई ठान बैठता है. कुछ ऐसी ही लड़ाई अखिला अंतर्मन में लड़ रही थी.
ऐसा नहीं है कि अखिला का नारी-मन प्रिया से भयभीत न हुआ हो. दूसरी शाम को प्रिया जब गुलाबी रंग की साड़ी पहनकर आई, तो उसके सौंदर्य के सामने अखिला को अपना रूप-रंग बुझा-बुझा-सा लगा. प्रिया अविवाहित जीवन जी रही है. उसने अजय को खोने के बाद किसी और को नहीं अपनाया. अपने अकेलेपन से भरे जीवन में उसे अपनी देहयष्टि को सजाने-संवारने का भरपूर समय मिल जाता है. वह नौकरीपेशा भी है, इसलिए सज-संवर कर चुस्त-दुरुस्त रहना उसके लिए ज़रूरी भी है. इन सबके विपरीत अखिला आम भारतीय गृहिणी की भांति पति और दो बच्चों के सार-संभाल में ही उलझी रहती. प्रिया की पतली कमर को देखकर उसे अपनी कमर के बढ़ चुके घेर का पश्‍चाताप हुआ. उसका मन यह मानने को कदापि तैयार नहीं हुआ कि उसकी स्थूल कमर के लिए उसके बच्चे ज़िम्मेदार हैं. जितना समय प्रिया अपने द़फ़्तर के कामकाज में देती है, उससे एक चौथाई समय भी यदि अखिला अपनी देह को व्यवस्थित रखने में दे पाई होती, तो आज उसे अपनी देह के बेडौल होने की लज्जा का अनुभव नहीं करना पड़ता. अखिला में यही तो एक ख़ूबी है कि वह अपनी कमियों को न केवल समझ जाती है, अपितु उन कमियों को स्वीकार करने में हिचकिचाती नहीं. उसने तय किया कि अगर प्रिया के जाने के बाद उसका पारिवारिक जीवन ठीक-ठाक रहा, तो वह अपने ऊपर ध्यान देना शुरू कर देगी. अभी भी वह प्रिया जैसी सुघड़ देहयष्टि पा सकती है.
प्रिया के आने से अखिला को इस बात का भी एहसास हुआ कि अब वह अजय की पत्नी मात्र बनकर रह गई है. अब उसमें अजय की प्रेयसीवाली बात नहीं रही, जैसा कि ईशा के जन्म के पहले तक थी. ईशा के जन्म से पहले अखिला स्वयं को अजय की पत्नी ही नहीं प्रेयसी भी मानती थी और उसी प्रकार अजय की भावनाओं का ध्यान रखती थी. उसे प्रेयसी के रूप में पाकर ही तो अजय प्रिया की यादों के प्रभाव से उबर सका था. अखिला को लगा कि चलो अच्छा हुआ, जो उसने एक रूढ़िवादी पत्नी की भांति प्रिया को लेकर अजय से झगड़ा नहीं किया. प्रिया तो चार दिन के लिए आई है. चार दिन बाद वह चली जाएगी, लेकिन उसे लेकर झगड़ने से उत्पन्न होनेवाली कटुता जीवनभर अखिला और अजय के बीच कांटे की भांति चुभती रहेगी. अगर वह पराई औरत चार दिन के लिए उसके अजय से अपनत्व पा भी लेगी तो उस पर कौन-सा पहाड़ टूट पड़ेगा?
एक पत्नी के लिए अपने मन को समझाना बड़ा कठिन होता है, किंतु अखिला ने यह कमाल कर दिखाया. उसने अपने मन को अपने वश में रखा और चार दिन व्यतीत होने की प्रतीक्षा करती रही.
चौथे दिन, दोपहर को अजय ने बताया कि प्रिया शाम सात बजे की गाड़ी से जानेवाली है. चूंकि छः बजे तक उसकी मीटिंग चलनी है, अतः उसे मीटिंग स्थल से सीधे रेलवे स्टेशन जाना पड़ेगा. अजय ने यह भी बताया कि प्रिया ने जाने से पहले अखिला से मिलने की तीव्र इच्छा ज़ाहिर की है. अतः उसे प्रिया से मिलने चलना होगा. अखिला को भी लगा कि उसे प्रिया को विदा करने जाना चाहिए. वह शाम को साढ़े छः बजे अजय के साथ रेलवे स्टेशन जा पहुंची. कुछ ही पलों में प्रिया भी आ गई.
“मुझे विश्‍वास था कि आप अवश्य आएंगी.” प्रिया ने अखिला को देखकर उत्साहित होते हुए कहा.
“तुम जब भी मुझे बुलाओगी मैं अवश्य हाज़िर हो जाऊंगी.” अखिला ने भी आत्मीय स्वर में उत्तर दिया.
“मुझे आपसे एक बात कहनी है. यदि मैं आज यह नहीं कह पाई, तो मेरा मन मुझे चैन नहीं लेने देगा.” प्रिया ने अखिला को अजय से परे ले जाते हुए कहा.
“हां-हां, बोलो क्या बात है?” अखिला का दिल तेज़ी से धड़कने लगा.
“बात ये है कि मैं आपको धन्यवाद देना चाहती हूं.”
“धन्यवाद? किस बात के लिए?” अखिला ने चकित होते हुए पूछा.
“अजय और मुझ पर भरोसा करने के लिए. मुझे अजय के साथ दो पल बिता लेने देने के लिए. अखिलाजी, आप विश्‍वास रखिए कि हमने आपके इस भरोसे को तोड़ा नहीं है. सच तो ये है कि जहां मनाही हो, वहीं इंसान ताक-झांक करता है. जहां तानाशाही हो, वहीं विद्रोह सिर उठाता है. जब आपने हम दोनों पर विश्‍वास किया तो भला हम आपके विश्‍वास को कैसे तोड़ते?” कहते-कहते प्रिया का गला भर आया.
“मैं तुम्हारी भावनाएं समझती हूं प्रिया! अगर मैं यह कहूं कि मैं तुमसे ज़रा भी भयभीत नहीं हुई तो यह सरासर झूठ होगा, लेकिन यह पूरी तरह सच है कि मैं अजय को तौल लेना चाहती थी. मैं यह प्रमाणित हो जाने देना चाहती थी कि अगर अजय अपनत्व की सच्ची परिभाषा जानता है, तो वह तुम्हारे और मेरे दोनों के साथ न्याय कर सकेगा. वरना तुम ही नहीं कोई भी प्रिया उसे मुझसे छीन सकती है. मैं कहां-कहां उसके पीछे भागूंगी? एक पत्नी को अपने पति पर महज़ अधिकार जमाना ही नहीं, बल्कि उस पर विश्‍वास करना भी आना चाहिए. आख़िर हर रिश्ते अवैध नहीं होते.” अखिला ने प्रिया को समझाते हुए कहा.
“मुझे ख़ुशी के साथ-साथ गर्व का अनुभव हो रहा है अखिलाजी कि अजय को आप जैसी पत्नी मिली. आज तक मैं यही सोचकर किसी और को अपना नहीं सकी कि मैंने अजय को ठुकराकर उसके साथ अन्याय किया है. अब मेरे मन में अजय को लेकर किसी भी प्रकार की चिंता नहीं रहेगी. अब मैं अपराधबोध से मुक्त होकर किसी को अपना जीवनसाथी बनाने के बारे में विचार कर सकती हूं.” प्रिया ने अपनी बात पूरी की ही थी कि गाड़ी के रवाना होने की सीटी बजी.
“चलो प्रिया, गाड़ी रवाना होनेवाली है.” अजय ने पास आते हुए कहा.
“अच्छा, चलती हूं अखिलाजी!” प्रिया मुस्कुराई और लपककर ट्रेन में सवार हो गई. उसके चढ़ते ही गाड़ी चल पड़ी.
“जैसे ही कोई मिले ज़रूर बताना.” अखिला ने प्रिया को आवाज़ देते हुए कहा.
“बिल्कुल. सबसे पहले आपको ही बताऊंगी” प्रिया ने भी तुरंत जवाब दिया.
“कौन मिल जाए? किसकी बात कर रही हो तुम लोग?” अजय ने चकित होते हुए पूछा.
“है कोई, कहीं. जब मिल जाएगा, तब वह मुझे बताएगी और मैं तुम्हें.” कहकर अखिला खिलखिलाकर हंस पड़ी. उधर गाड़ी ने गति पकड़ ली थी.
“तुम औरतों की बातें ईश्‍वर ही समझे!” अजय ने झुंझलाहट भरे स्वर में कहा. अजय की झुंझलाहट देखकर अखिला का मन शरारत से भर उठा. आख़िर उसके भरोसे की जीत हुई थी. उसका अजय उसके पास था, किसी पराई औरत के पास नहीं.

– डॉ. सुश्री शरद सिंह

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Usha Gupta

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