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कहानी- बूढ़ा वृक्ष (Short Story- Boodha Virksh)

आरव की बातें सुन वह बिल्कुल जड़ हो गई. बेटे के मुख से निकला एक-एक शब्द उसकी आत्मा पर प्रहार कर रहा था. वह स्त्री जिसने अपने जीवन के दस साल उसकी गृहस्थी पर होम कर दिए. जी जान से उसके बेटे की देखभाल की. उसके घर को संभाला, तभी तो निश्‍चिंतता से वह अपनी जॉब कर पाई. बिल्कुल एक दादी जैसा ही फ़र्ज़ पूरा किया है मौसी ने और वह बदले में क्या देने जा रही है उन्हें.

पिछले दो दिनों से मन में विचारों का झंझावात चल रहा था. बुद्धि और भावनाओं के बीच एक अजीब-सा अंतर्द्वंद्व जारी था. जब भी भावनाएं पिछले 10-11 वर्षों की संवेदनाओं को समेटने लगतीं, तो बुद्धि उसे व्यावहारिकता का पाठ पढ़ाने लगती. पिछली ज़िंदगी के संघर्षों की दुहाई देकर अपने बारे में सोचने और निर्णय लेने को विवश करने लगती. दो दिन पहले गीता दी ने आकर जब उससे बात की थी, तभी से उसका मन इस नई दिशा में सोचने को बाध्य हो रहा था, अन्यथा अब तक तो सब कुछ सामान्य चल रहा था.
कुछ भी तो नहीं था उसके मन में. आराम से वह और मौसी नए घर में जाने की तैयारियां कर रहे थे, पर तभी गीता दी ने आकर उसके मन में हलचल मचा दी थी. उन्होंने कहा था, “तनु, बहुत दायित्व निभा लिए तूने. कितना समय बीत गया संघर्ष करते-करते. अब वक़्त आ गया है कि तू कुछ अपने बारे में सोच. नए घर में शिफ्ट होने से पहले अपनी ज़िम्मेदारियों को दरकिनार कर.” और भी न जाने क्या-क्या कहा था उन्होंने. सुनकर अटपटा-सा लगा था उसे. हैरान रह गई थी वह दी की प्रैक्टिकल सोच पर, लेकिन बाद में गंभीरता से विचार किया, तो एहसास हुआ कि उनके कथन में सच्चाई थी.
भावनाएं सदैव इंसान को कमज़ोर बनाती हैं. भावुक व्यक्ति सदैव लूज़र रहता है. सच ही तो है, जब से रवि से उसका विवाह हुआ, वह कभी स्वयं के आराम के बारे में सोच नहीं पाई. कुछ ही माह बीते थे उसके विवाह को कि एक रात उसकी सास को सीवियर हार्टअटैक आ गया. तुरंत ही उन्हें इमर्जेंसी में एडमिट किया गया. दस दिन हॉस्पिटल मेंं रहकर वह घर तो आ गईं, पर फिर बिस्तर से उठ न सकीं. एक के बाद एक बीमारियां उन्हें घेरे रहीं. दो साल तक वह सास की सेवा में लगी रही. उनके स्वर्गवास के पश्‍चात् अगले वर्ष उसने बेटे आरव को जन्म दिया.
रवि अब अपनी छोटी बहन चारू के लिए लड़का ढूंढ़ रहे थे. एक दिन चारू ने अपने कलीग अजय से उसे मिलवाकर कहा था, “भाभी, मैं अजय से शादी करना चाहती हूं. आप भैया से बात करो न.” रवि को अजय पसंद आया, पर उसकी मम्मी अपने बेटे की शादी धूमधाम से करना चाहती थीं, जिसमें काफ़ी ख़र्चा आना था. रवि हिचकिचा रहे थे. मां की बीमारी में काफ़ी पैसा ख़र्च हो चुका था. तब उसी ने रवि को लोन लेने की सलाह दी थी और चारू की धूमधाम से शादी करवाई थी.
जब आरव तीन साल का हो गया और स्कूल जाने लगा, तब रवि ने उसे जॉब करने की सलाह दी, ताकि लोन उतारने में मदद मिल सके और उनकी आर्थिक स्थिति सुधर जाए. वह सोच में पड़ गई, क्या करे? घर के पास कोई क्रैच भी नहीं था, जहां स्कूल के पास आरव रह सके. इसी उधेड़बुन में काफ़ी समय निकल गया. उस दिन मम्मी का श्राद्ध था. रवि सुबह पंडितजी के पास जाने लगे, तो उसने कहा, “रवि, पंडितों का पेट भरने से अच्छा क्या यह नहीं रहेगा कि हम किसी वृद्धाश्रम में जाकर बड़े-बुज़ुर्गों में स्नेह बांटें और उनका आशीर्वाद लें.” रवि को बात जंच गई.
वृद्धाश्रम में बुज़ुर्गों को खाना खिलाकर उन्हें अपार संतोष मिला था. कितने ही बुज़ुगर्र्, कुछ अपनों द्वारा ठुकराए हुए और कुछ हालात के मारे हुए. उन्हीं में से एक थीं दमयंतीजी. अत्यंत मृदु एवं विनम्र. कोई संतान तो थी नहीं. पांच वर्ष पूर्व पति भी एक्सीडेंट में चल बसे थे. अकेलेपन और असुरक्षा की भावना उन्हें वृद्धाश्रम तक खींच लाई थी. उसने घर आकर रवि से कहा था, “क्यों न दमयंतीजी को हम अपने घर ले आएं. पढ़ी-लिखी अच्छी फैमिली की महिला हैं. उन्हें एक परिवार मिल जाएगा और मैं आरव की चिंता से मुक्त होकर जॉब कर सकूंगी.” थोड़ी देर सोचकर रवि बोले थे, “तनु, वृद्धाश्रम से किसी को अपने घर पर लाना बहुत बड़ी बात है. इसका अर्थ है, तुम सदैव के लिए एक इंसान का दायित्व उठाने के लिए तैयार हो. कहीं ऐसा न हो, कल को तुम्हें अपने निर्णय पर पछतावा हो.”
“मैं सोच-समझकर ही कह रही हूं रवि.”
“ठीक है, किंतु दमयंतीजी तैयार होंगी क्या इसके लिए?” रवि ने शंका ज़ाहिर की थी.
“तुम बात करके तो देखो.” दमयंतीजी को भला क्या आपत्ति हो सकती थी, वह सहर्ष तैयार हो गईं. वृद्धाश्रम के संचालक ने हिदायत दी थी, “मि. रवि, ऐसा न हो, अपना काम निकल जाने पर आप इन्हें वापिस यहीं छोड़ जाएं. अगर ऐसा हुआ, तो उस निराशा से ये उबर नहीं पाएंगी. आप समझ रहे हैं न, मैं क्या कह रहा हूं.”
रवि ने उन्हें आश्‍वस्त कर दिया था और इस तरह दमयंतीजी उसके घर आ गई थीं. जल्द ही उन्होंने साबित कर दिया था कि उन्हें घर पर लाने का ़फैसला लेकर उसने कोई भूल नहीं की थी. उन्होंने न केवल अपनी ममता और स्नेह से आरव को अपना बना लिया, बल्कि उसके घर को भी अच्छी तरह संभाल लिया था. आरव को अच्छे संस्कार देने में भी वह कभी पीछे नहीं रहीं.


धीरे-धीरे दमयंतीजी कब उन दोनों की मौसी और आरव की दादी बन गईं, उन्हें पता ही नहीं चला. अक्सर रवि कहते, “जितनी अहमियत ख़ून के रिश्तों की होती है, उतनी ही अहमियत उन रिश्तों की भी होती है, जिन्हें हम भावनाओं से सींचते हैं.” ऐसे रिश्ते कभी-कभी ख़ून के रिश्तों से भी गहरे बन जाते हैं, किंतु आज… आज उसका अपना मन इस रिश्ते से दूर भागना चाह रहा है. उसे याद आया, तीन वर्ष पूर्व मौसी का गॉल ब्लैडर का ऑपरेशन करवाया था. उस दौरान वह इतनी कमज़ोर हो गई थीं कि दो माह तक बिस्तर से उठ नहीं पाई थीं. कितनी परेशानी हुई थी उसे. ऑफिस से एक माह की छुट्टी तो लेनी ही पड़ी थी, उस पर आए दिन हॉस्पिटल के चक्कर लगाने प़ड़े वह अलग.
अब तो मौसी की उम्र भी बढ़ गई है. उस पर डायबिटीज़ की पेशेंट भी हैं. कहीं कल को बीमार पड़ गईं तो क्या होगा? कौन करेगा उनकी सेवा? नहीं… नहीं… वह रवि से बात करेगी और मौसी को वापिस वृद्धाश्रम भेजने के लिए राज़ी करेगी. कौन-सा उसका कोई सगा रिश्ता है मौसी के साथ, जो वह उनकी चिंता में अपनी ज़िंदगी ख़राब करे. दो वर्ष बाद आरव अपना करियर बनाने बाहर चला जाएगा, उस समय वह अपनी ज़िंदगी अपने हिसाब से जीएगी. रवि के साथ अकेली रहेगी, तो अपने लिए भरपूर समय होगा उसके पास. अपने शौक़ पूरे करेगी. सहेलियों के साथ मौज-मस्ती करेगी. उस समय मौसी का बोझ उठाकर वह क्यों अपने मन को मारे.
पार्क में बैठकर यही सब सोचती हुई वह उठ गई और घर जाने के लिए बढ़ी, तो दरवाज़े पर ही पांव ठिठक गए. अंदर से आरव और उसके दोस्त पंकज की आवाज़ें आ रही थीं.
आरव पूछ रहा था, “आख़िर तुम अपने दादा-दादी के पास क्यों नहीं जाना चाहते?”
“यार, दादा-दादी बहुत टोका-टाकी करते हैं. यह करो, यह मत करो. यहां जाओ, वहां मत जाओ. समय से घर आओ… आदि. किंतु छोड़, तू नहीं समझेगा. तेरे दादा-दादी कहां हैं.”
“अरे वाह, समझूंगा क्यों नहीं? मेरी भी दादी हैं.”
“किंतु वह तुम्हारी सगी दादी नहीं हैं.” पंकज बोला.
“ऐसा मत कह पंकज. सगी दादी जैसा ही प्यार दिया है उन्होंने मुझे. चार वर्ष का था मैं, जब वह हमारे घर आई थीं. मम्मी जॉब पर जाती थीं. स्कूल से मैं घर लौटता, तो मम्मी को घर में न पाकर उदास हो जाता था. खाना खाने का मन नहीं होता था. तब दादी मुझे खाना खिलाने के लिए कितने यत्न किया करती थीं. कभी मेरे साथ कैरम खेलतीं, कभी कहानी सुनातीं. मेरी पसंद की तरह-तरह की चीज़ें बनाकर खिलातीं. धीरे-धीरे वह मेरी दोस्त बन गईं.
स्कूल की एक-एक बात जब तक मैं उन्हें बता नहीं देता था, मुझे चैन नहीं पड़ता था. वे भी पूरी रुचि के साथ मेरी बातें सुनतीं और ज़रूरत पड़ने पर उचित सलाह भी देती थीं और यह तुमसे किसने कहा कि वह मुझे टोकती नहीं हैं. कुछ दिनों पहले मेरी फ़िज़ूलख़र्ची की आदत को उन्होंने यह कहकर छुड़वाया कि मम्मी-पापा कितनी मेहनत से पैसा कमाते हैं. मुझे पैसे की कद्र होनी चाहिए. पंकज, मैं तो दादी के बिना अपने घर की कल्पना भी नहीं कर सकता.
मम्मी-पापा भी उनसे बहुत स्नेह रखते हैं.”
आरव की बातें सुन वह बिल्कुल जड़ हो गई. बेटे के मुख से निकला एक-एक शब्द उसकी आत्मा पर प्रहार कर रहा था. वह स्त्री जिसने अपने जीवन के दस साल उसकी गृहस्थी पर होम कर दिए, जी जान से उसके बेटे की देखभाल की, उसके घर को संभाला, तभी तो निश्‍चिंतता से वह अपनी जॉब कर पाई. बिल्कुल एक दादी जैसा ही फ़र्ज़ पूरा किया है मौसी ने और वह बदले में क्या देने जा रही है उन्हें.
कितना सुकून रहा होगा मौसी के मन में कि वह एक परिवार के संरक्षण में हैं. उनके सुख- दुख इस परिवार से जुड़े हुए हैं. किंतु अब वह इस सुकून को छीन रही है. फिर से उन्हें उसी असुरक्षित अंधकारमय भविष्य की ओर धकेल रही है. आरव मौसी को कितना प्यार करता है! वह बच्चा होकर भी उनकी ममता को नहीं भूला और वह इतनी बड़ी होकर उनके उपकारों को भुला बैठी.
उसे स्मरण हो आई कुछ वर्ष पूर्व की वह घटना. वह और रवि आरव की
ज़िम्मेदारी मौसी पर छोड़ कितने लापरवाह हो गए थे. ऑफिस के बाद घूमना-फिरना, दोस्त, पार्टीज़. तब मौसी ने ही चेताया था, “आरव अब बड़ा हो रहा है. उसे तुम्हारे साथ की आवश्यकता है. तुम्हारे लाए ये महंगे-महंगे खिलौने उसे वह ख़ुशी नहीं दे सकते, जो तुम्हारा साथ दे सकता है.” और वह संभल गई थी, किंतु अब… अब वह एक बार फिर रास्ता भटकने जा रही है. स्वयं के लिए एक उन्मुक्त दायित्वविहीन भविष्य की चाह में वह भूल ही बैठी कि उसके इस क़दम से उसके बेटे पर क्या असर पड़ेगा. क्या शिक्षा मिलेगी उसे? यही न कि उम्र हो जाने पर माता-पिता बोझ बन जाते हैं. कल को आरव भी उन्हें बोझ समझने लगा तो? इस ख़्याल से ही उसके समूचे शरीर में झुरझुरी-सी दौड़ गई.
संस्कारों के जो बीज आज वह बोने जा रही है, कल वैसे ही फलों का कसैलापन उसे भी चखने को मिलेगा. मौसी तो उसके परिवार के प्रति पूरी तरह समर्पित हो गईं, वही उनसे दिल से नहीं जुड़ पाई. अगर जुड़ी होती, तो उन्हें वापिस वृद्धाश्रम भेजने के बारे में सोचती भी नहीं. उसे मौसी का ऑपरेशन और छुट्टी लेकर अपनी की हुई सेवा तो याद रही, पर आए दिन ऑफिस से लौटकर अपना सिरदर्द और फिर मौसी द्वारा माथे पर बाम लगाना, सिर दबाना और भी न जाने क्या-क्या… वे सब बातें याद नहीं आईं. क्या वह उस देखभाल का, अपनत्व भरे स्पर्श का मोल चुका सकती है?
बचपन में वह अपने मम्मी-पापा के साथ ऋषिकेश जाया करती थी. वहां परमार्थ निकेतन घूमते हुए उसके बाहर लिखा शिलालेख कई बार पढ़ती थी. वही इस समय उसकी स्मृतियों में कौंध रहा था, “आंगन में लगे हुए बूढ़े वृक्ष को कभी मत काटो. भले ही वह तुम्हें फल न दे, पर अपनी छाया अवश्य देगा.” सोचते-सोचते उसकी आंखों में आंसू आ गए.
आत्मविश्‍लेषण के इन क्षणों ने उसके भटकते क़दमों को रोक दिया. उसकी सुप्त अंतरात्मा को जागृत कर दिया. मन में उठ रहा तूफ़ान अब शांत हो चुका था.
वह घर के अंदर आई. देखा, मौसी टेलीविज़न देखते हुए आरव का स्वेटर बुनने में व्यस्त हैं. मन ही मन उसने ईश्‍वर का धन्यवाद किया, जिसने उसे इतनी बड़ी भूल करने से रोक दिया था. आत्म सुकून के साथ वह नए घर में जाने की तैयारियों में व्यस्त हो गई.

            रेनू मंडल

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