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कहानी- चार स्त्रियां (Short Story- Char Striyan)

 

मातृत्व- एक छोटा-सा शब्द, जो अपने आप में पूरा संसार समेटे है. यह एक जादुई शब्द है, एक जादुई एहसास, जो कई जीवनों को बदलता है. स्त्री श्रेष्ठ है, क्योंकि प्रकृति ने अपना यह वरदान उसे दिया है, पर… पर ज़रा रुकिए और एक क्षण के लिए सोचिए उन स्त्रियों का क्या, जिन्हें यह वरदान किन्हीं कारणों से नहीं मिला? क्या आप और ये समाज उन्हें अभिशप्त कहेगा? दरअसल वे अभिशप्त नहीं हैं, अभिशप्त तो समाज बनाता है उन्हें मुख्य धारा से अलग करके. मातृत्व एक भावना है, जो कोख से नहीं, वरन् हृदय से बहती है. एक स्त्री तब-तब मां बनती है, जब-जब उसकी ममता- अपने-पराए का भेद किए बिना किसी पर बरसती है. वरदान, एहसास, भावना, अनुभूति, आत्मसम्मान, पूर्णत्व चाहे जो भी कहें- मातृत्व स्त्री का अभिन्न अंग है, वह कभी अभिशाप तो हो ही नहीं सकता. मातृत्व के इन्हीं सारे रंगों में रंगी हैं ये चार सच्ची घटनाओं पर आधारित कहानियां. इनमें मातृत्व का कोई रूप आपको अचंभित करेगा, तो कोई अचरज में डालेगा.

1. ममता

सृष्टि एक साधारण विचारशील स्त्री. उसके जीवन का एक ही सपना था- एक हंसता-खेलता परिवार. उसे बच्चे बहुत पसंद थे. शादी के सालभर बाद ही सृष्टि की गोद हरी हो गई. घर में सब बहुत ख़ुश थे. सृष्टि की ख़ुशी तो जैसे सातवें आसमान पर थी. अब वह अपनी कोख में पल रहे बीज के लिए मातृत्व को महसूस करने लगी थी, पर नियति ने सृष्टि के लिए कुछ और ही तय कर रखा था.
कुछ असामान्यताओं के चलते उसका गर्भपात हो गया. सृष्टि तो जैसे टूट ही गई, उसके सारे सपने बिखरकर रह गए.
जब वह अस्पताल से घर आई, तो उसे एहसास हुआ कि स़िर्फ उसकी ज़िंदगी ही नहीं, बल्कि परिवार के लोग भी बदल गए हैं. अभी वह अपने बच्चे को खोने के दुख से, अपनी शारीरिक पीड़ा से उबर भी नहीं पाई थी कि सास के तानों ने कचोटना शुरू कर दिया. अब तो सवालों का मकड़जाल हमेशा उसके आसपास बना रहता.
धीरे-धीरे समाज का एक घिनौना रूप उसके सामने आने लगा. एक ऐसा समाज, जिसमें स़िर्फ औरतें थीं उससे सवाल करनेवाली. उसे ताने देनेवालों में कोई पुरुष नहीं था.
एक दिन सृष्टि की सास ने घर आए उसके माता-पिता को काफ़ी खरी-खोटी सुनाई. उस रात सृष्टि ने भगवान से कहा, “हे प्रभु! एक स्त्री इतनी विद्रूप, इतनी निर्दयी कैसे हो जाती है? एक स्त्री, एक मां होने के नाते तो कम से कम वह मेरा दुख समझ सकती है, पर वह तो मुझे मां न बन पाने की सज़ा दे रही है.”
बच्चे की चाह में सृष्टि ने कोई अस्पताल, कोई डॉक्टर नहीं छोड़ा. न ही शरीर में ऐसी कोई जगह ही छूटी थी, जिसमें सूई चुभने की वेदना न हो, पर असल वेदना तो उसके मन-मस्तिष्क में छुपी हुई थी. समाज का डर, माता-पिता के अपमान का डर, बांझ कहलाए जाने का डर… इन सबके बीच वह अपनी मातृत्व की पीड़ा को भूल गई.
इसी तरह सात साल बीत गए. जीवन में आया तूफ़ान थमने का नाम ही नहीं ले रहा था. सीमेंट से बना बांध भी कई बार पानी में आए तूफ़ान को रोकने में असमर्थ होता है. फिर सृष्टि तो हाड़-मांस की बनी थी. विचारों के तूफ़ान को वह रोक नहीं पाई.
उसने आत्महत्या करने की कोशिश की. पति ने आकर संभाला और कहा, “जो बच्चा दुनिया में नहीं है, उसके लिए तुम जान दे रही हो? मुझे बच्चा नहीं चाहिए, तुम मेरे लिए अधिक अनमोल हो.”
उस दिन सृष्टि और उसके पति ने एक बच्चा गोद लेने का निर्णय लिया. घर में उन्होंने किसी को कुछ नहीं बताया था. उस दिन सृष्टि अनाथाश्रम की काग़ज़ी कारवाई पूरी करने गई तो उन लोगों ने उसे इंफ़र्टिलिटी सर्टिफ़िकेट लाने को कहा.
सर्टिफ़िकेट लेने के लिए वह अपने डॉक्टर के पास गई, तो उसकी ज़ुबान लड़खड़ाने लगी. जब वह सर्टिफ़िकेट लेकर बाहर निकली तो पूरी तरह से खाली थी. बहुत रोई थी उस रात सृष्टि. रो-रोकर अपने भीतर के मैल, दुख सबको धो दिया उसने, यहां तक कि अपने कलंकित मातृत्व को भी.
अगले दिन जब घरवालों को इस बात का पता चला तो सास आस-पड़ोस की महिलाओं के साथ चौपाल लगाकर बैठ गई. वह सबको कह रही थी, “ख़ुद से हो नहीं पाया तो अब पता नहीं किसका पाप उठाकर घर में ला रही है.”
हमेशा चुप रहने वाली सृष्टि उस दिन बोल ही पड़ी, “आप लोग मुझे इस तरह क्यों प्रताड़ित कर रहे हैं? समाज उन स्त्रियों को तो कुछ नहीं कहता, जो अपनी ग़लती छिपाने के लिए गर्भपात कराती हैं या फिर जन्म देने के बाद अपने बच्चे को किसी अनाथाश्रम, कचरे या गटर में छोड़ देती हैं. आप लोगों को क्यों समझ में नहीं आता कि मैंने अपनी मर्ज़ी से यह बांझपन नहीं अपनाया? मातृत्व के लिए कोख की नहीं, बल्कि ममता की ज़रूरत होती है. आज मैंने अपनी पीड़ा को पहचाना है. मैं किसी और की नहीं, बल्कि अपने मातृत्व की क्षुधापूर्ति करना चाहती हूं.” इतना कहकर वह आत्मविश्‍वास के साथ समाज की नकारात्मकता को पीछे छोड़, अपनी सकारात्मकता लिए आगे बढ़ गई.

 

2. बिन ब्याही मां

भारत में ऐसे कई गांव हैं, जिनका अपना एक अलग समाज होता है. इस समाज में कई वर्जनाएं बनती हैं, तो कई टूटती भी हैं. यह समाज कई तरह की विडंबनाओं और विसंगतियों से भरा होता है, जिसका भार स्त्रियों के सिर पर होता है. यह कहानी ऐसे ही बोझ तले दबी ‘मुनिया’ की है.
15 वर्षीया मुनिया स्वभाव से चंचल होने के साथ-साथ बहुत समझदार भी थी. दिखने में सुंदर तो नहीं, पर औसत नैन-नक्शों वाली थी. वह अपने पिता की इकलौती संतान थी और मां गरीबी से तंग आकर उसे दो साल का छोड़ किसी और के साथ भाग गई थी. पर मुनिया ख़ुश थी अपने जीवन से.
उसके पिता दूसरों के खेतों में काम करते और मुनिया घर का ख़याल रखती. इस कहानी की एक और कड़ी है यशोदा चाची, जिसने मुनिया की मां के जाने के बाद उसे पालने-संभालने में उसके पिता की मदद की थी.
समृद्ध परिवार की यशोदा चाची, मुनिया के पड़ोस में ही रहती थी. चाची का 28 वर्षीय बेटा राजू मुनिया को अपनी बहन मानता था. उसकी शादी तय हो चुकी थी. मुनिया को तो जैसे ये घर दो नहीं, बल्कि एक ही लगते.
एक दिन मुनिया यशोदा चाची के घर कुछ मांगने आई और उस दिन वो हुआ, जिससे समाज की सारी वर्जनाएं टूट गईं. घर में कोई नहीं था, नशे में धुत्त राजू के सिवाय. उसने मुनिया का बलात्कार किया. मुनिया को तो यह भी बोध नहीं था कि आख़िर उसके साथ हुआ क्या?
सब कुछ पता लगने के बाद मुनिया के पिता यशोदा चाची के पास गए तो बेटे की ग़लती को नज़रअंदाज़ करते हुए वह बोली, “भैया, अब बच्चों से ग़लती तो हो ही जाती है और फिर मुनिया तो अपनी ही बेटी है. आगे भी उसकी शादी का ख़र्चा मुझे ही तो उठाना है…” लाचार व गरीब पिता हाथ बांधे वापिस आ गया.
अगले दो महीनों में राजू की शादी धूमधाम से हो गई, लेकिन इन सबके बीच मुनिया एकदम ख़ामोश हो गई. न किसी से कोई शिकायत करती, न कोई शिकवा. राजू उसके सामने ही उसका मखौल उड़ाता फिरता. तीन महीने बाद मुनिया को एहसास हुआ कि वह गर्भवती है. यशोदा चाची के सिवाय वह किसी और को जानती भी नहीं थी. बच्ची ही तो थी, वह घबरा गई. यशोदा चाची बच्चा गिराने के लिए उसे अस्पताल ले गई, पर गर्भ विकसित होने के कारण यह संभव नहीं था. अब तो मुनिया को और उसके बेबस पिता को सहना ही था. यशोदा चाची के दरवाज़े अब मुनिया और उसके पिता के लिए बंद हो गए थे. वह अपने आप में घुलती रहती. लोग तरह-तरह के ताने देते. हालांकि सच सबको पता था. कुछ दिनों बाद दोनों बाप-बेटी को जात-बिरादरी से ही नहीं, बल्कि गांव से भी बाहर कर दिया गया.
मुनिया, जो केवल 15 साल की बच्ची, मातृत्व का अर्थ भी नहीं जानती थी, अब मां बननेवाली थी और वह भी इस अपमानजनक तरी़के से. भगवान का वरदान उसके लिए श्राप बन गया था.
एक दिन अप्रत्याशित तरी़के से यशोदा चाची उनके पास आई और प्यार से बहला-फुसलाकर उन्हें गांव में ले गई. यशोदा चाची ने कहा, “देखो भैया, हमारी बहू कभी मां नहीं बन पाएगी. इसलिए राजू उसे उसके मायके छोड़ आया है. अब हम चाहते हैं कि मुनिया से इसकी शादी धूमधाम से हो जाए, ताकि उसका कलंक भी मिट जाए.” यह बात सुनकर मुनिया के पिता की ख़ुशी का ठिकाना न रहा.
कुछ महीनों के बाद मुनिया ने एक बेटे को जन्म दिया. बेटे के जन्म की बधाई देने पहुंची चाची मुनिया के पिता से बोली, “भैया, अब मुनिया हमारे घर ही रहेगी और मेरा पोता भी.” यह सुनते ही मुनिया शेरनी की भांति दहाड़ी, “किसने कहा यह आपका पोता है? यह किसी का कोई नहीं है, स़िर्फ मेरा बेटा है. जिसे आप देख रही हैं, वह स़िर्फ मातृत्व है, इसमें पितृत्व का कोई अंश नहीं है. मुझे या मेरे बच्चे को किसी की ज़रूरत नहीं. मैं बिनब्याही मां बन गई, पर आपका बेटा कभी पिता नहीं बन पाएगा. मुझे किसी समाज की फ़िक्र नहीं.” इस पर चाची उसे अगले दिन बच्चे को ले जाने की धमकी देकर वहां से चली गई. पर दूसरे दिन अख़बार में ख़बर छपी कि एक लड़की अपने बच्चे को लेकर अस्पताल से भाग गई. मातृत्व ने मुनिया जैसी अनपढ़, गंवार लड़की को भी संघर्ष करने की शक्ति दे दी थी.

3. बेटी की चाह

40-42 साल की परिपक्व घरेलू स्त्री थी सुधा. भरापूरा परिवार था. धन-धान्य की कोई कमी नहीं थी. सुधा भी ख़ुश ही थी अपने घर-संसार में, लेकिन कभी-कभी अचानक बेचैन हो उठती. इसका कारण वह ख़ुद भी नहीं जानती थी. पति उससे हमेशा पूछते कि उसे क्या परेशानी है? पर वह इस बात का कोई उत्तर न दे पाती.
तीनों ही बच्चे बड़े हो गए थे. सबसे बड़ा बेटा इंजीनियरिंग के तीसरे वर्ष में, मंझला पहले वर्ष में और छोटा दसवीं में था. तीनों ही किशोरावस्था में थे. अब उनके रुचि के विषय अपने पिता के विचारों से ज़्यादा मेल खाते. वे ज़्यादातर समय अपने पिता, टीवी और दोस्तों के साथ बिताते. सुधा चाहती थी कि उसके तीनों बेटे उसके साथ कुछ समय बिताएं, पर उनकी रुचियां कुछ अलग थीं. अब वे तीनों ही बच्चे नहीं रह गए थे, धीरे-धीरे वे पुरुष बनते जा रहे थे.
एक सुबह सुधा ने अपने पति से कहा, “मेरी ख़ुशी के लिए आप कुछ करेंगे?” पति ने कहा, “हां-हां क्यों नहीं? तुम कहो तो सही.” सुधा सहमते हुए बोली, “मैं एक बेटी गोद लेना चाहती हूं.” पति को आश्‍चर्य हुआ, पर सुधा ने कहा, “सवाल-जवाब मत करिएगा, प्लीज़.” तीनों बच्चों के सामने भी यह प्रस्ताव रखा गया, किसी ने कोई आपत्ति तो नहीं की, पर सबके मन में सवाल था “क्यों?”
जल्द ही सुधा ने डेढ़ महीने की एक प्यारी-सी बच्ची अनाथाश्रम से गोद ले ली. तीन बार मातृत्व का स्वाद चखने के बाद भी आज उसमें वात्सल्य की कोई कमी नहीं थी. बच्ची के आने की ख़ुशी में सुधा और उसके पति ने एक समारोह का आयोजन किया. सब मेहमानों को संबोधित करते हुए सुधा बोली, “मैं आज अपने परिवार और पूरे समाज के ‘क्यों’ का जवाब देना चाहती हूं. मेरे ख़याल से हर घर में एक बेटी का होना बहुत ज़रूरी है. बेटी के प्रेम और अपनेपन की आर्द्रता ही घर के सभी लोगों को एक-दूसरे से बांधे रखती है. तीन बेटे होने के बावजूद मैं संतुष्ट नहीं थी. मैं स्वयं की परछाईं इनमें से किसी में नहीं ढूंढ़ पाती. बेटी शक्ति है, सृजन का स्रोत है. मुझे दुख ही नहीं, पीड़ा भी होती है, जब मैं देखती हूं कि किसी स्त्री ने अपने भ्रूण की हत्या बेटी होने के कारण कर दी या उसे कचरे के डिब्बे में कुत्तों के भोजन के लिए छोड़ दिया. मैं समझती हूं कि मेरे पति का वंश ज़रूर मेरे ये तीनों बेटे बढ़ाएंगे, पर मेरे ‘मातृत्व’ का वंश तो एक बेटी ही बढ़ा सकती है.”

4. मातृत्व सुख

‘मातृत्व’ हर मां के लिए अलग-अलग होता है. यह केवल एक सुखद अनुभूति है, नकारात्मक तो हो ही नहीं सकती. बस, मातृत्व के बारे में सबका अपना-अपना दृष्टिकोण होता है. इसे पाने के लिए कुछ लोग मंदिरों के चक्कर काटते हैं, तो कई आधुनिक तकनीकों का सहारा लेते हैं.
‘बुधिया’ देहात में पली-बढ़ी 50 साल की एक प्रौढ़ महिला है. शादी को लगभग 33 साल हो चुके थे, लेकिन इन 33 सालों में उसने किन-किन प्रताड़नाओं और मानसिक वेदनाओं का सामना किया था, यह स़िर्फ वही जानती थी. कारण…? कारण वही पुराना था, उसका मां न बन पाना. पास-पड़ोस की महिलाओं की जैसे दिनचर्या बन गई थी रोज़ आकर बुधिया को कोसना. 33 साल वह सभी शादी-समारोहों में वर्जित रही, ख़ासकर जब किसी के घर गोदभराई या बच्चा होता तो सबसे पहले उसे ही घर में बंद कर दिया जाता. गर्भवती स्त्रियां तो उसकी परछाईं से दूर भागतीं. उसके पति को भी यह बात पता थी कि कमी उसकी पत्नी में नहीं, उसमें है. फिर भी वह पति के सम्मान की ख़ातिर सब कुछ सहती गई.
हमारा समाज पुरुष प्रधान है, जिसके कुछ अपने नियम हैं, जो कहते हैं कि पुरुष कभी ग़लत हो ही नहीं सकता. 33 साल तक उसके भीतर एक ज्वालामुखी धधक रहा था. आज 50 साल की उम्र में भी उसकी मां बनने की इच्छा ने दम नहीं तोड़ा था. गांव में शहर से आई डॉक्टर उसकी मानसिक स्थिति समझती थी.
उसने बुधिया से कहा, “अगर कुछ समय पहले मैं तुमसे मिलती तो शायद मैं तुम्हारी मदद कर पाती. शहर में कई ऐसी तकनीकें हैं, जिनसे पति में कमी होने के बावजूद स्त्री मां बन सकती है.”
उसकी ज़िद के चलते डॉक्टर उसे शहर में स्त्री रोग विशेषज्ञ के पास ले गई. शहरी डॉक्टर ने इलाज शुरू किया. सबसे पहले अप्राकृतिक रूप से बुधिया की माहवारी शुरू करवाई गई. फिर लगातार पांच सालों तक आईवीएफ (टेस्ट ट्यूब बेबी) के लिए प्रयत्न किए गए, जो तीन बार विफल हुए. इसके लिए स्पर्म बैंक का इस्तेमाल किया गया. फिर चौथी बार बुधिया का 38 साल का इंतज़ार और अंतत: डॉक्टरों की मेहनत सफल हुई. फिर वह हुआ जो ‘भूतो न भविष्यति’ था.
55 साल की उम्र में बुधिया एक बच्चे की मां बनी. आज जब वह बच्चे को लेकर गांव वापस आई तो उसके चेहरे पर गर्व था, अपने बांझ न होने का गर्व. उसे अपने इस कलंक को धोने में 38 साल लगे. मातृत्व बुधिया की ज़रूरत बन गई थी. समाज में सिर उठाकर जीने की अनुमति थी उसके लिए ‘मातृत्व’. आज उसके भीतर का ज्वालामुखी हमेशा-हमेशा के लिए शांत हो गया.
‘मातृत्व’ को लेकर समाज में फैली विडंबनाओं-विसंगतियों पर हंसा जाए या रोया जाए, यह तो समझ में नहीं आता. पर हां, यह तो परम सत्य है कि बदलते परिवेश में, स्त्री में आए जैविक बदलावों के चलते मातृत्व की परिभाषा को बदलना ज़रूरी है. आज जिस समाज में ‘मातृत्व’ के उदाहरण मदर टेरेसा और सुष्मिता सेन हों, वहां स्त्री के मातृत्व का अपमान होना भी शर्मनाक है. गाहे-बगाहे, अगर आपको कोई ऐसी व्यथित स्त्री मिले तो उसके मातृत्व को कोसने की बजाय उसकी पीड़ा को समझने की कोशिश करें. फिर देखिए, आप ख़ुद को निश्छल, निर्मल और एक प्रगतिशील समाज की ओर अग्रसर पाएंगी.

 
        विजया कठाले निबंधे

 

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