Close

कहानी- डायरी का अंतिम पृष्ठ (Short Story- Dairy ka antim prishth)

 Hindi Short Story
मैं तो आजकल कुछ अधिक ही भावुक होती जा रही हूं. इतने प्यारे और आज्ञाकारी बच्चों के रहते भला मैं इतनी चिंता क्यों करूं? इस बीमारी ने तो मेरा मनोबल तोड़कर रख दिया है. मुझे अपने आपको संभालना होगा, तभी तो मैं इस दुनिया के मोह-माया से मुक्ति पा सकूंगी. सचमुच ही यह दुनिया छोड़ना बहुत ही कठिन है.
आज मां को गए पूरा एक माह हो गया. अभी-अभी अनाथालय में बच्चों को भोजन कराकर लौटे हैं. गिरीश तो वहीं से ऑफिस चले गए. मैं थोड़ा आराम करने के विचार से लेटी ही थी कि मां की बातें याद आने लगीं. मां को जब मालूम हुआ कि उन्हें कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी ने जकड़ लिया है और अब उनके पास गिनती के दिन बचे हैं, तभी से उन्होंने मुझे सब कुछ समझाना शुरू कर दिया था, जैसे- उनकी मृत्यु के बाद के सब संस्कार किस प्रकार करने हैं? धर्मकांड पर अधिक ख़र्च करने, पंडितों आदि को देने में उन्हें ज़रा भी विश्‍वास नहीं था. उनका रुझान हमेशा ग़रीबों की मदद करने की ओर ही रहता था. उन्होंने मुझे स्पष्ट कह दिया था, “बहू, मेरे जाने के बाद अपना पैसा दिखावे के लिए बर्बाद मत करना. यदि कुछ करना ही चाहती हो, तो किसी ज़रूरतमंद की मदद कर देना.” उन्हीं के आदेशानुसार तेरहवीं के दिन गिरीश ने अनाथालय की एक लड़की की पढ़ाई का संकल्प ले लिया था. उनका मानना था कि अनाथ लड़के तो बड़े होकर किसी न किसी तरह अपना जुगाड़ कर लेते हैं, लेकिन अनाथ लड़कियों को सहारे की अधिक आवश्यकता रहती है. अतः हमने अगले एक वर्ष तक लड़कियों के अनाथालय में ही हर महीने खाना खिलाने का संकल्प भी लिया है. मां तो पापा को भी समझाती रहती थीं, “देखोजी! मेरे जाने के बाद अपनी सब दवाइयां याद से खा लिया करिएगा. सुमेधा को अधिक परेशान मत करिएगा. उसे तो वैसे ही घर के ढेरों काम रहते हैं. मेरे सारे गहने बच्चों में बराबर बांट दीजिएगा. हां, सुमेधा को मेरा रानीहार अलग से दे दीजिएगा. देर-सबेर घर से बाहर मत जाइएगा. बच्चे परेशान हो जाते हैं.” मां की इस प्रकार की भावुक बातें सुनकर पापा रोने लगते, “गिरीश की मां, तुम मुझे छोड़कर मत जाओ.” यह सुनकर मां भी रोने लगतीं. उस समय बड़ी कठिनाई से उन्हें सांत्वना दे पाते. मां के जाने के बाद तो पापा किसी आज्ञाकारी बच्चे की तरह हो गए हैं. समय पर अपने सब कार्य कर लेते हैं. दवाइयां भी सब ठीक प्रकार से निकालकर खा लेते हैं. यह वही पापा हैं, जो मां के बार-बार कहने पर भी समय पर कोई काम करने को तैयार नहीं होते थे. सच! पापा को देखकर मन करुणा से भर जाता है. काश! मां पापा को छोड़कर ना जातीं... मां-पापा का रिश्ता भी अनोखा था. छोटी-छोटी बातों पर झगड़ने लगना और दूसरे ही पल घुल-मिल कर हंसने-बोलने लगना, मानो कुछ हुआ ही न हो. मैं अक्सर गिरीश से पूछ बैठती कि क्या हम भी बुढ़ापे में मां-पापा की तरह हो जाएंगे? इस पर गिरीश मुस्कुरा भर देते. मां रोज़ रात में डायरी लिखकर सोया करती थीं. पूछने पर कहतीं, “बहू डायरी लिखने से नींद अच्छी आती है. मन भी हल्का हो जाता है.” उनके जीवित रहते तो उनकी डायरी पढ़ने का प्रश्‍न ही नहीं उठता था, लेकिन आज जब वह हमारे बीच नहीं हैं, उनकी डायरी पढ़ने की उत्सुकता रोक नहीं पा रही हूं. मैं जानना चाहती हूं कि अंतिम समय में मां की कैसी मानसिकता थी? अंतिम पन्नों से शुरू करती हूं. उस पर मृत्यु से दो माह पूर्व की तारीख़ पड़ी है. उन्होंने लिखा है... 12.2.2010 इधर कुछ समय से मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा है. डॉक्टर मुझे तो स्पष्ट कुछ बताते नहीं, लेकिन बच्चों से गुपचुप बात करते हैं. तब मन में संशय होता है कि अब मेरा अंत निकट है. कैंसर है ही ऐसी बीमारी, जिसमें कोई ठीक नहीं हो पाता है. फिर मेरा कैंसर ऐसी जगह पर है, जो मुश्किल से ठीक होता है. एक तरह से यह अच्छा ही है. यही तो मैं हमेशा से चाहती थी कि अपने पति के सामने इस संसार से विदा लूं. मांग में सिंदूर भरकर अर्थी पर ले जाया जाए. मेरे पति अपने हाथों से मेरा शृंगार करें. अब जब जीवनभर की संचित आशा पूरी होने को है, तब यह अगर-मगर क्यों? बार-बार मन में एक ही विचार उठता है कि संजना! तू तो मुक्ति पा जाएगी, लेकिन तेरे बाद इनका क्या होगा? कैसे संभालेंगे अपने आपको? यही चिंता मुझे खाए जा रही है. ऐसी मानसिकता लेकर कैसे मर पाऊंगी? आज तक ऐसा एक पल भी नहीं गया, जब भगवान से मैंने अपने परिवार की मंगल कामना से इतर कुछ मांगा हो. मुझे याद है जब मैंने जवानी की दहलीज़ पर पहला क़दम रखा, तब मां का पहला आदेश था, “संजना! अब तुझे सावन के सोलह सोमवार के व्रत करने चाहिए. इन्हें करने से लड़कियों को अच्छा घर-वर मिलता है. साथ में अखंड सौभाग्यवती होने का वरदान भी.” मैंने बड़े चाव से मां के आदेश का पालन किया. विवाह के बाद के सारे व्रत, चाहे करवाचौथ हो या गणगौर पूजा, सबके पीछे बस एक ही भाव- अटल सौभाग्य. मैंने गौरी कवच मंत्र का जाप वर्षों तक नित्य बड़ी श्रद्धा से किया. सासू मां के कहने पर- अचल होई अहिवात तिहारा। जब लगि गंग-जमन जलधारा॥ चौपाई का संपुट लगाकर कई बार रामायण का पाठ किया है. अतः हर सांस के साथ एक ही प्रार्थना कि मैं सौभाग्यवती ही मरूं. लेकिन आज जब प्रभु ने स्वयं मुझे बुलावा भेजा है, तब यह अगर-मगर व बेचैनी क्यों? बेचैनी का बस एक ही कारण है, इनका गिरता स्वास्थ्य, वृद्धावस्था एवं दिन-ब-दिन मुझ पर बढ़ती निर्भरता. नहाने से पहले कपड़े निकालने हों या कहीं बाहर जाना हो, बस एक ही पुकार, “अरे भई संजना, कहां हो? ज़रा हमारे कपड़े तो निकाल देना.” “संजना, अभी तक हमारी चाय नहीं आई, कब से टकटकी लगाए रसोई को निहार रहे हैं?” “हमारी दवाइयां कहां हैं?” छोटी से छोटी बात मेरे बिना अधूरी है. देखा जाए, तो हमारा भरा-पूरा परिवार है. प्यार करनेवाला बेटा, जान से ़ज़्यादा चाहनेवाले पोता-पोती और सबसे बढ़कर केयरिंग नेचर की बहू. इससे अधिक और क्या चाहिए भला. संजना, तू मर भी गई, तो क्या? बच्चे अपने पापा का ख़ूब ख़्याल रखेंगे. यही भाव मुझे संभाले है. सुमेधा बहू की क्या कहूं? सुबह का उसका सारा समय बच्चों एवं गिरीश को समर्पित होता है. उनके कार्यों के चलते वह अपनी निजी आवश्यकताओं तक को अनदेखा कर जाती है. उन सबके जाने पर ही वह अपनी तरफ़ ध्यान दे पाती है. उस पर मेरी ग़ैरमौजूदगी में अपने ससुरजी के पूरे काम...? सोचकर ही मेरा तो दिल बैठने लगता है. सुमेधा का काम क्या यहीं समाप्त हो जाता है? “सुमेधा आज बिजली का बिल जमा करना है. फोन के बिल की आख़िरी तारीख़ आ गई है.” गिरीश कार स्टार्ट करते-करते सुमेधा को मानो आदेश दे रहा होता है. इस सबके बाद भी बाज़ार हाट के हज़ारों काम सुमेधा की ज़िम्मेदारी हैं, क्योंकि ऑफिस जाने के बाद गिरीश क्या गिरीश रह जाता है. वहां तो बस, वह होता है या फिर उसका काम. कुछ वर्ष पूर्व तक तो गिरीश के पापा बाहर के कामों में सुमेधा का हाथ बंटा देते थे. इनमें तो जब तक सामर्थ्य रहा, बहू को बाहर के काम करने ही कहां दिए? लेकिन अब यह बाहर जाते हैं, तो डर लगा रहता है कि कहीं गिर न जाएं. जब तक आ नहीं जाते, तब तक हम दोनों सास-बहू को क्या चैन आता है? 20.2.2010 आज कई दिन बाद ज़रा तबीयत संभली है. सोचा थोड़ी मन की बातें लिख दूं. फिर समय मिले न मिले. आजकल कितना कुछ मन में उमड़ता-घुमड़ता रहता है. आज सुबह सुमेधा का हाथ थामकर अपने पास बैठाकर कहा, “बेटी, मेरी इच्छा अभी और कुछ दिन जीने की है. अपने लिए नहीं, बस तुम्हारे पापा के लिए जीना चाहती हूं. यह मेरे सामने चले जाते तो...? तुम सब कुछ अकेले कैसे संभाल पाओगी? सच बताना बेटी, अब कितना समय बचा है मेरे पास? लगता है डॉक्टर तो बहुत जल्दी मचाए हैं.” सुमेधा मुझसे लिपटकर रोने लगी, “मां, आपको कुछ नहीं होगा. डॉक्टर अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश कर रहे हैं न. जहां तक पापा का सवाल है, आप उनकीे बिल्कुल भी चिंता न करें. आप अपनी बेटी पर इतना विश्‍वास तो कर ही सकती हैं कि आपके बाद मैं पापा को कोई भी कष्ट नहीं होने दूंगी. हां, आपकी कमी तो हम पूरी नहीं कर सकते. मैं और गिरीश पापा का पूरा ध्यान रखेंगे, यह आज आपसे मेरा वादा है.” सुमेधा की बातें सुनकर मुझे सांत्वना तो मिली ही, साथ ही उस पर मुझे बहुत प्यार आया. दिल की गहराइयों से उसके लिए ढेरों आशीष निकल आए. मैं तो आजकल कुछ अधिक ही भावुक होती जा रही हूं. इतने प्यारे और आज्ञाकारी बच्चों के रहते, भला मैं इतनी चिंता क्यों करूं? इस बीमारी ने तो मेरा मनोबल तोड़कर रख दिया है. मुझे अपने आपको संभालना होगा, तभी तो मैं इस दुनिया के मोह-माया से मुक्ति पा सकूंगी. सचमुच ही यह दुनिया छोड़ना बहुत ही कठिन है. मुझे लगता है कि अब जो काम मुझे प्राथमिकता पर करना है, वह है गिरीश के पापा को मानसिक रूप से तैयार करना, जिससे मेरे जाने को वह सहजता से ले पाएं. बच्चों को इससे बड़ी राहत मिलेगी. अब लिखना बंद करती हूं. आज थकान कुछ ़ज़्यादा ही लग रही है. कल सुबह कीमो थेरेपी के लिए अस्पताल भी तो जाना है. पता नहीं फिर कभी डायरी लिख पाऊं या न लिख पाऊं. शायद यह मेरा लिखा डायरी का अंतिम पृष्ठ हो. मां के द्वारा लिखा यह अंतिम पृष्ठ था, जो उन्होंने अपने हाथ से लिखा था. डायरी पढ़कर मेरी आंखें भर आईं. पिछला एक माह इतना गहमा-गहमी भरा रहा कि कुछ भी सोचने का समय नहीं मिला. मां की अंतिम दिनों की मानसिकता आज मैं उनकी डायरी पढ़कर जान पाई हूं. पापा के प्रति उनका प्यार उन्हें मरने से रोक रहा था. भले ही उन्हें वैधव्य का दुख सहना पड़े. वे पापा के सुख के लिए जीवनभर के संचित विश्‍वास और मान्यता तक छोड़ने को तैयार थीं. यही बातें तो एक स्त्री को विशिष्ट बनाती हैं. आज मुझे अपनी मम्मी की सहेली प्रियंवदा आंटी की याद आ रही है. वर्षों पूर्व उनके जवान बेटे का ज़बर्दस्त एक्सीडेंट हो गया था. वह मरणासन्न अवस्था में अस्पताल लाया गया. उस समय आंटी की स्थिति हृदय विदारक थी. वह डॉक्टरों के सामने अपने बेटे को ठीक करने के लिए पैरों में गिर-गिरकर भीख मांग रही थीं, लेकिन डॉक्टर उन्हें इतना भर आश्‍वासन दे पा रहे थे कि यदि हम इसे बचा भी पाए, तब भी आपका बेटा अपने पैरों पर जीवनभर खड़ा नहीं हो पाएगा. इतना सुनकर वही आंटी, जो अभी तक डॉक्टरों के सामने गिड़गिड़ा रही थीं, आंखें मूंद प्रभु से प्रार्थना करने लगीं, “हे प्रभु! मेरे बच्चे को मुक्ति देना. इसे अपनी शरण में ले लो, जिससे इसे नया शरीर मिल सके.” प्रभु की लीला भी निराली है, वह तो मानो ‘तथास्तु’ कहने को तैयार ही बैठे थे. इधर आंटी की आंखें खुलीं, उधर उनके लाडले बेटे ने अंतिम सांस ली. कहना न होगा कि उसके बाद आंटी ने जीवनभर प्रभु से कुछ मांगने के लिए आंखें बंद नहीं की. बेटे का ग़म उनके जीवन का नासूर बन गया था. आज भी प्रियंवदा आंटी का दुख याद करके रोंगटे खड़े हो जाते हैं. हमारे भारतीय समाज के व्रत-त्योहारों के विषय में जब भी मैं सोचती हूं, तब मुझे तो यही लगता है कि यह केवल हमारे मनोबल को बढ़ाने के लिए बनाए गए हैं. इनका कोई भी वैज्ञानिक आधार नहीं है. मनुष्य इस दुनिया में एक निश्‍चित अवधि के लिए आता है, न कम, न ज़्यादा. यदि व्रतों आदि में सत्यता होती, तब क्यों असंख्य स्त्रियां असमय ही अपने पतियों को खो देतीं? उनके बच्चे असमय ही काल के गाल में समा जाते हैं. क्या उनकी मांएं अपने बच्चों की लंबी आयु के लिए व्रत-उपवास नहीं करतीं? हां, इन सब बातों का हमारे जीवन पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव तो अवश्य ही पड़ता है. दूसरे ये हमारी भारतीय संस्कृति का अटूट हिस्सा हैं, जिसकी जड़ें हमारे समाज में गहराई तक समाई हैं. मां की डायरी पढ़ने के बाद से ही मां की बहुत याद आ रही है. उनकी मुझसे बहुत सारी अपेक्षाएं थीं. वह पापा का हाथ मेरे हाथ में सौंप गई हैं. उन्होंने मुझ पर गिरीश से भी ज़्यादा विश्‍वास किया. पापा भी तो मां के जाने के बाद मानो आज्ञाकारी बच्चे बन गए हैं. कभी-कभी तो मुझे बड़ा डर लगता है. हे प्रभु! मुझे इतनी शक्ति देना कि मैं मां की अपेक्षाओं पर खरी उतर सकूं. mirdula gupta pic      मृदुला गुप्ता
अधिक शॉर्ट स्टोरीज के लिए यहाँ क्लिक करेंSHORT STORIES

Share this article