Short Stories

हिंदी कहानी- डर अनजाना-सा (Short Story- Darr Anjana-Sa)

”आप विश्‍वास नहीं करेंगी डॉक्टर, पिछले कई महीनों से मेरा लेखन कार्य बिल्कुल ठप्प पड़ा है. मैं चंद पंक्तियां लिखने में भी स्वयं को असमर्थ पा रही हूं. मेरी सृजन क्षमता को मानो लकवा मार गया हो, जबकि अध्ययन और लेखन मेरे लिए संजीवनी बूटी की तरह हैं. ये मुझमें प्राणवायु का संचार करते हैं. इनके बिना तो मैं जीते जी ही मर जाऊंगी. मैं क्या करूं डॉक्टर, मैं क्या करूं??” कहते-कहते मैं फफककर रो पड़ी.

”नहीं…” एक घुटी-घुटी चीख मुंह से निकली और मैं झटके से उठ बैठी. जब आंखें अंधेरे में देखने की अभ्यस्त हुईं तो पता चला पूरा शरीर पसीने से तरबतर था.

‘उफ़, फिर वही भयानक सपना!’

‘सपना नहीं मिताली, यह हक़ीक़त है. यह सपना तुम्हारे भविष्य का आईना है. इसे पहचानो और व़क़्त रहते संभल जाओ.’ अंदर से उठती आवाज़ ने मुझे चेतावनी दी.

हां, मुझे ख़ुद को बदलना ही होगा. मुझे अपने खोल से बाहर निकलना ही होगा, वरना कहीं मेरा भी वही अंजाम? एक अज्ञात भय से मैं पुन: सिहर उठी. अब फिर से नींद आना नामुमकिन था. बेहतर है, मैं अपनी अधूरी पड़ी कहानी पूरी कर लूं. लेकिन लाख प्रयास के बावजूद दिमाग़ काम नहीं कर रहा था. और दिमाग़ के ज़ोर के बगैर क़लम ने चलने से इंकार कर दिया. हारकर मैंने भी हथियार डाल दिए.

‘बह जाने दो दिमाग़ी धारा को, जिस ओर भी वह बहना चाहे.’ सामने ही मौसी की पोती की शादी का कार्ड पड़ा था. ‘चलो, यहीं से शुरुआत करती हूं.’ मैंने फटाफट सूटकेस में दो भारी साड़ियां और शगुन का लिफ़ाफ़ा डाला और अगले ही दिन पहुंच गई शादी में. मुझे देखकर वहां जो कानाफूसी शुरू हुई, तो वह मेरी रवानगी तक चलती रही. खिन्न मन से मैं घर लौटी. दिल ने कहा, ‘रिश्तेदारी निभाना तुम्हारे बस का नहीं मिताली.’ लेकिन मन ने समझाया, ‘यदि एक बार ठान लो तो क्या मुश्किल है? इतने बरसों बाद किसी पारिवारिक समारोह में सम्मिलित हुई हो तो ऐसी प्रतिक्रिया तो स्वाभाविक है. धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा.’

कांताबाई आ चुकी थी. उसे सफ़ाई में जुटा देख मैं भी सहज होकर सूटकेस संभालने लगी. अचानक दिमाग़ में बिजली कौंधी. ‘बाई से घनिष्ठता भी तो ज़रूरी है.’

“अं…तुम्हारे कितने बच्चे हैं?”

“हं…?”  वह चिहुंककर पलटी और मुझे घूरने लगी.

“मैं तुम्हीं से पूछ रही हूं.” मैंने मुस्कुराने का असफल प्रयास करते हुए कहा.

“तीन. हं….., हां तीन ही हैं. आप ठीक तो हैं बीबीजी?”

“हां, मैं बिल्कुल ठीक हूं.  मुझे क्या हुआ है?”

“नहीं, ऐसे ही मुझे लगा…..”

“तुम्हें लगा मानो कोई भूत देख लिया हो.” ग़ुस्सा पीते हुए मैं मन-ही-मन बुदबुदाई. सब लोग मुझे समझते क्या हैं? क्या मैं हाड़-मांस के इंसानों से अलग हूं? मुझमें कोई भावना या संवेदना नहीं है? दिल कर रहा था फूट-फूटकर रोऊं, लेकिन मन-मसोसकर रह जाना पड़ा, क्योंकि बाई अब भी मुझे ही घूर-घूरकर देखे जा रही थी. दिन भर किसी काम में मन नहीं लगा और रात होते ही फिर वहीं भयानक सपना! मुझे लगा यदि जल्दी ही कुछ किया नहीं गया तो मैं पागल हो जाऊंगी.

यह भी पढ़ें: महिलाओं के लिए फाइनेंशियल सिक्योरिटी के 5 बेस्ट ऑप्शन्स (5 Best Financial Security Options For Women)

विचारों की कड़ी में उलझा मेरा दिमाग़ मेरे क़दमों को कब मनोचिकित्सक तक ले गया, ख़ुद मुझे भी पता न चला. भान तो तब हुआ जब मनोचिकित्सक ने मुझे विश्‍वास में लेकर मेरी अंतर्व्यथा को शब्दों में ढलवाना आरंभ किया और मैं यंत्रचलित-सी सब कुछ बताती चली गई.

“युवावस्था में एक के बाद पहले मां और फिर पिताजी को खो बैठी. मां को मेरी शादी का बड़ा चाव था. भाई-भाभी ने उस ज़िम्मेदारी को निभाना चाहा, पर मैंने ही किनारा कर लिया. शुरू से ही मैं गंभीर और एकाकी प्रवृत्ति की रही हूं. मां-पिताजी की असमय मृत्यु ने मुझे और भी अपने खोल में समेट लिया. मैंने गांव में अध्यापिका की नौकरी कर ली और इस तरह भैया-भाभी से भी धीरे-धीरे हमेशा के लिए दूर होती चली गई. गांव-गांव, शहर-शहर घूमते-घूमते सेवानिवृत्त होकर अंतत: मैं यहां इस महानगर में आकर बस गई. मेरी एक साथी अध्यापिका ने मुझे उचित क़ीमत पर यह छोटा-सा आशियाना दिलवा दिया था. मुझे लिखने का शौक़ रहा है. सेवानिवृत्ति के बाद मैंने स्वयं को पूरी तरह से इसी शौक़ में डुबो दिया. समय-समय पर मेरी रचनाएं छपती रहती हैं. पेंशन की निश्‍चित रकम मेरे लिए पर्याप्त है. मेरी एक बंधी-बंधाई दिनचर्या है. मुझे न अपने पड़ोसियों से मतलब रहा है, न रिश्तेदारों से. यहां तक कि बाई से भी कभी कोई विशेष बात नहीं होती. मैंने न तो कभी किसी से कोई अपेक्षा रखी है और न ही मैं चाहती हूं कि कोई मुझसे कुछ अपेक्षा रखे. मुझे अपनी ज़िंदगी से कभी कोई शिकायत नहीं रही. कुछ समय पूर्व तक मैं पूर्णत: आत्मसंतुष्ट थी. लेकिन…?”

“लेकिन क्या? बोलिए मितालीजी. आपको अपने संतुष्ट जीवन से एकाएक असंतुष्टि क्यों हो गई? किसने आपकी शांत और स्थिर जीवनधारा में कंकड़ फेंका है?”

“मैं अख़बारों में आए दिन छपनेवाली ख़बरों से असहज हो उठी हूं. मेरे जैसा एकाकी जीवन गुज़ारनेवाले प्रौढ़ और वृद्ध अब इस महानगर में सुरक्षित नहीं हैं. हालांकि इस असुरक्षा का एहसास मुझे पहले से ही था, इसलिए मैंने विशेष सुरक्षा व्यवस्था कर रखी है. सुरक्षागार्ड रात को दो बार विशेष रूप से मेरे घर के चक्कर लगा जाता है. दूधवाला, सब्ज़ीवाला घंटी बजाकर दूध-सब्ज़ी दे जाते हैं. किरानेवाला एक फ़ोन करने पर सारा सामान पहुंचा जाता है. मैं ही कभी-कभी बदलाव के लिए नीचे घूमने आ जाती हूं तो आवश्यक ख़रीददारी कर लेती हूं, अन्यथा मुझे कोई असुविधा नहीं है. लेकिन एकाकी प्रौढ़ों के दर्दनाक अंत संबंधी ख़बरें पढ़-पढ़कर मैं अपने होश खो बैठी हूं. पहले प्रसिद्ध अभिनेत्री ललिता पवार, फिर परवीन बॉबी, फिर ‘बुलेट’ फ़िल्म की वह अभिनेत्री और भी न जाने कितनी महिलाएं! ये सभी अपने घरों में मृत पाई गईं और दो-दो तीन-तीन दिनों तक इनकी लाशें सड़ती रहीं. कोई इनका अंतिम संस्कार करनेवाला भी नहीं था. ये सभी तो अपने ज़माने की मशहूर हस्तियां थीं, मैं तो एक अदना-सी प्रौढ़ा हूं. जब उनका अंत इतना बुरा था तो मेरा अंत कैसा होगा? ये सोच-सोचकर ही मैं सिहर उठती हूं. अक्सर मुझे रात में दु:स्वप्न आ घेरते हैं. मैं मृत्युशैया पर पड़ी हूं और कोई मुझे पानी देनेवाला भी नहीं है. छटपटाते हुए मैं प्राण त्याग देती हूं. मेरी मृतदेह अंतिम संस्कार के इंतज़ार में बंद घर में पड़ी है. बाई, दूधवाला, सब्ज़ीवाला घंटी बजाकर मेरे घर में न होने का कयास लगाते हुए निकल जाते हैं. मैं बेबस-सी आवाज़ें लगाकर उन्हें रोकने का प्रयास कर रही हूं, पर वे तो मानो न तो मुझे देख रहे हैं और न मुझे सुन रहे हैं. तीसरे दिन लाश से उठती दुर्गन्ध पड़ोसियों को पुलिस को फ़ोन करने के लिए तत्पर करती है. पुलिस आकर दरवाज़ा तोड़ती है. बदबू का एक भभका उठता है. लोग नाक पर रुमाल रखकर दूर छिटक जाते हैं… और मैं चिल्लाकर नींद से जाग जाती हूं. लेकिन अफ़सोस, मेरी भयभीत चीख की आवाज़ भी किसी के कानों तक नहीं पहुंचती और कोई मेरे पास आकर यह नहीं पूछता कि मैं क्यों चिल्लाई?” उत्तेजना में मैं हांफने लगी.

यह भी पढ़ें: कहीं आपको भी तनाव का संक्रमण तो नहीं हुआ है? (Health Alert: Stress Is Contagious)

“लीजिए, ठंडा पानी पी लीजिए.” डॉक्टर ने सामने रखा ग्लास मुझे थमा दिया. मैंने एक ही सांस में ग्लास खाली कर दिया.

“थैंक्यू, आपको यह सब कुछ बताकर मैं बहुत हल्का महसूस कर रही हूं.”

“मैं समझ सकती हूं. प्लीज़ गो ऑन.” डॉक्टर ने मेरी हौसलाअफ़ज़ाई की.

“अपने दुर्दान्त की कल्पना से सिहरकर मैंने लोगों से मेल-जोल बढ़ाने का प्रयास किया. लेकिन मुझे लगता है, जितनी तकलीफ़ मुझे अपने खोल से निकलने में होती है, उतनी ही, बल्कि उससे कहीं ज़्यादा तकलीफ़ लोगों को मुझे आत्मसात करने में होती है. आप विश्‍वास नहीं करेंगी डॉक्टर, पिछले कई महीनों से मेरा लेखन कार्य बिल्कुल ठप्प पड़ा है. मैं चंद पंक्तियां लिखने में भी स्वयं को असमर्थ पा रही हूं. मेरी सृजन क्षमता को मानो लकवा मार गया हो, जबकि अध्ययन और लेखन मेरे लिए संजीवनी बूटी की तरह हैं. ये मुझमें प्राणवायु का संचार करते हैं. इनके बिना तो मैं जीते जी ही मर जाऊंगी. मैं क्या करूं डॉक्टर, मैं क्या करूं??” कहते-कहते मैं फफककर रो पड़ी.

डॉक्टर ने उठकर मेरी पीठ सहलाई. “आप घर जाइए और आराम कीजिए. आपकी समस्या कोई बहुत बड़ी समस्या नहीं है. परसों आप इसी समय आकर मुझसे मिलें. थैंक्स फॉर कॉपरेशन.”

होंठों पर फीकी-सी मुस्कुराहट लिए मैंने डॉक्टर से विदा ली. घर आकर मैं बिस्तर पर औंधी पड़ गई. नींद ने कब मुझे अपनी आगोश में ले लिया, कुछ भान न रहा. ज़ोर-ज़ोर से दरवाज़ा खटखटाने और घंटी बजने की आवाज़ से मुझे कुछ चेतना हुई, लगा फिर वही दु:स्वप्न देख रही हूं. मगर ‘माई! माई!’ की आवाज़ से नींद उड़ गई और मैंने उठकर दरवाज़ा खोल दिया.

“क्या बीबीजी, कितनी देर करती हो दरवाज़ा खोलने में? मैं कब से खड़ी हूं… और घरों का भी तो काम निबटाना है.” मैं बुत-सी उसे निहारती रही. शायद ख़ुद को यह विश्‍वास दिला रही थी कि यह सपना नहीं, हक़ीकत है और मैं ज़िंदा हूं.

मुझे निर्निमेष निहारते देख बाई घबरा गई. “लगता है आपकी तबियत ठीक नहीं है.” कहते हुए बाई ने मेरी कलाई पकड़ ली.

“उई मां, आपको तो बहुत तेज़ बुखार है. पहले क्यूं नहीं बताया? चलो बिस्तर पर जाकर लेटो, मैं तुलसी-अदरक की चाय बनाकर लाती हूं.” वह मुझे घसीटकर बिस्तर तक ले गई और लिटाकर चादर ओढ़ा दी. मैं कुछ समझ या कह पाऊं, इससे पूर्व ही वह गरम चाय का प्याला लेकर हाज़िर थी. मैंने चाय के संग एक क्रोसीन ले ली.

“आपको बुखार में तनिक भी हिलने की ज़रूरत नहीं है, मैं सब संभाल लूंगी. आप मुंह से बात नहीं करतीं तो क्या हुआ, हम जानती हैं कि आप दिल की बहुत अच्छी हैं. और मेमसाब लोग तो इधर-उधर की पचास बातें पूछती हैं, लेकिन आप बस अपने काम से काम रखती हैं.” बाई की बातों से मुझे ऐसा महसूस हो रहा था मानो मरुस्थल में एकाएक हरियाली लहलहा उठी हो. मैं इस हरियाली का भरपूर आनन्द उठा पाऊं, इससे पूर्व ही दरवाज़े की घंटी बज उठी.

“आप बैठी रहिए, मैं देख लूंगी.” बाई ने दरवाज़ा खोल दिया. सामने वाले मकान की मिसेज मल्होत्रा एक महिला के संग खड़ी थीं. मेरा उनसे कोई विशेष परिचय नहीं था, बस एक-दो बार हाय-हैलो हुई थी.

“नमस्ते मितालीजी, यह मेरी सहकर्मी सानिया है. आपकी कहानियां और लेख बड़े चाव से पढ़ती है. कई बार आपसे मिलवाने का आग्रह कर चुकी है. आज ऑफ़िस से ज़रा जल्दी फ्री हो गए तो मैं उसे आपसे मिलवाने ले आई. शायद आपकी तबियत ठीक नहीं है. कोई बात नहीं, आप आराम करें, हम फिर आ जाएंगे.” “अरे नहीं, बैठिए.” मैंने बाई को दो चाय लाने का इशारा किया. “ऐसे ही थोड़ा बुखार हो गया था. अभी क्रोसीन ली है, उतर जाएगा.” हम देर तक साहित्यिक चर्चा करते रहे. मुझे लग रहा था दवा की असली खुराक तो मुझे अब मिल रही है. दो घंटे बाद वे जाने के लिए उठ खड़ी हुईं. “मैं बिट्टू के संग आपके लिए अभी दलिया बनाकर भिजवा दूंगी. आप आराम कीजिए.”

“अरे आप क्यूं तकलीफ़…” मैं कहती ही रह गई, पर वे नहीं मानीं.

“आप इसी तरह लिखती रहिएगा. आप नहीं जानतीं, आपकी रचनाओं से हमें हमारी कितनी ही समस्याओं का समाधान मिल जाता है. और सबसे बड़ी बात, उन्हें पढ़ने से हमें आत्मिक तृप्ति होती है.”

“मैं आपकी भावनाओं का ख़याल रखूंगी. आप भी मुझे ऐसे ही सहयोग करती रहिएगा.” बड़े ही तृप्त मन से मैंने उनसे विदा ली. अब लेटने का मन नहीं कर रहा था. मैं बालकनी में कुर्सी लगाकर बैठ गई. संध्या की सुरमई छटा चारों ओर पसरने लगी थी. सड़क पर कारों का धीरे-धीरे बढ़ता क़ाफिला बहुत भला लग रहा था. कभी यही रेंगता क़ाफिला झुंझलाहट से भर देता था. सच है, जब मन शांत हो तो सब कुछ सुहाना लगता है. मैं भी कितनी बुद्धू हूं! जीवन की सार्थकता किसमें है, यही नहीं समझ पाई. इस नश्‍वर शरीर का क्या होगा, यह बेसिर पैर की बात सोच-सोचकर ज़िंदा शरीर को दुख देती रही. अरे, जिस शरीर में प्राण ही नहीं, उसकी क्या चिंता करना? मौत तो किसी को कभी भी, कहीं भी आ सकती है. यदि सीमा पर लड़ने वाला जवान अपनी मौत को लेकर इतना फ़िक्रमंद हो जाए तो देश का क्या होगा? इंसान यदि मौत से डर-डरकर जीता रहा तो वह तो जीते जी मर जाएगा.

मैं अपने ढंग से ज़िंदगी जीते हुए आत्मसंतुष्ट हूं. दूसरों के लिए मेरा जीवन अनुकरणीय और सराहनीय रहेगा, यह सुखद एहसास यदि दिल में है, तो मौत हमेशा सुखद ही लगेगी. सोचते हुए मैंने काग़ज़- क़लम उठा ली. अधूरी कहानी आज अवश्य ही पूरी हो जाएगी.

 

     संगीता माथुर

अधिक शॉर्ट स्टोरीज के लिए यहाँ क्लिक करें – SHORT STORIES

Summary
Article Name
कहानी- डर अनजाना-सा (Short Story- Darr Anjana-Sa) | Best Hindi Kahaniya
Description
''आप विश्‍वास नहीं करेंगी डॉक्टर, पिछले कई महीनों से मेरा लेखन कार्य बिल्कुल ठप्प पड़ा है. मैं चंद पंक्तियां लिखने में भी स्वयं को असमर्थ पा रही हूं. मेरी सृजन क्षमता को मानो लकवा मार गया हो, जबकि अध्ययन और लेखन मेरे लिए संजीवनी बूटी की तरह हैं. ये मुझमें प्राणवायु का संचार करते हैं. इनके बिना तो मैं जीते जी ही मर जाऊंगी. मैं क्या करूं डॉक्टर, मैं क्या करूं??”
Author
Publisher Name
Pioneer Book Company Pvt Ltd
Publisher Logo
Usha Gupta

Share
Published by
Usha Gupta

Recent Posts

हास्य काव्य- मैं हुआ रिटायर… (Hasay Kavay- Main Huwa Retire…)

मैं हुआ रिटायरसारे मोहल्ले में ख़बर हो गईसब तो थे ख़ुश परपत्नी जी ख़फ़ा हो…

April 12, 2024

अक्षय कुमार- शनिवार को फिल्म देखने के लिए सुबह का खाना नहीं खाता था… (Akshay Kumar- Shanivaar ko film dekhne ke liye subah ka khana nahi khata tha…)

अक्षय कुमार इन दिनों 'बड़े मियां छोटे मियां' को लेकर सुर्ख़ियों में हैं. उनका फिल्मी…

April 12, 2024

बोनी कपूर यांनी केले ८ महिन्यात १५ किलो वजन कमी (Boney Kapoor Lost 15 Kg Weight By Following These Tips)

बोनी कपूर हे कायमच चर्चेत असणारे नाव आहे. बोनी कपूर यांचे एका मागून एक चित्रपट…

April 12, 2024

कामाच्या ठिकाणी फिटनेसचे तंत्र (Fitness Techniques In The Workplace)

अनियमित जीवनशैलीने सर्व माणसांचं आरोग्य बिघडवलं आहे. ऑफिसात 8 ते 10 तास एका जागी बसल्याने…

April 12, 2024

स्वामी पाठीशी आहेत ना मग बस…. स्वप्निल जोशीने व्यक्त केली स्वामीभक्ती ( Swapnil Joshi Share About His Swami Bhakti)

नुकताच स्वामी समर्थ यांचा प्रकट दिन पार पडला अभिनेता - निर्माता स्वप्नील जोशी हा स्वामी…

April 12, 2024
© Merisaheli