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कहानी- दीदी (Story- Didi)

Hindi Short Story जब डायरी बंद की, तब मुझे एहसास हुआ कि मेरी आंखों से अश्रुधारा बह रही थी. दीदी, जो ऊपर से इतनी शांत दिखाई देती थी, अंदर से विचारों से इतनी उद्वेलित होगी. उसके चेहरे पर कभी भावों को आते-जाते नहीं देखा मैंने. मैं अनुमान ही लगाती रहती थी कि अब दीदी क्या सोच रही होगी. लेकिन आज उसकी डायरी सब कुछ कह गई थी मुझे. सफलता और असफलता की आशा-निराशा के बीच मन में एक तूफ़ान चल रहा था. ऑपरेशन थियेटर की टिप-टिप होती लाल बत्ती कभी आशंकाओं को बढ़ा देती, तो कभी दिलासा देती प्रतीत होती. नर्सों के पैरों की आहट, दिल की धड़कनों के साथ मिलकर चलने लगती. ऑपरेशन थियेटर का कांच पारदर्शी होते हुए भी हरे पर्दों से ढंका हुआ... लाख आंखें गड़ाने पर भी कुछ भी दिखने की कोई संभावना नहीं. मेरे परिवार के दो जीवन डॉक्टरों के पास प्रयोग के लिए पड़े थे. मेरे पापा और मेरी इकलौती दीदी नीना. पिछले दो सालों से चल रही कशमकश आज मंज़िल तक पहुंचने के प्रयास में थी. दो साल पहले का वो दिन, मुझे आज भी याद है जब महीनों पुराना दर्द झेलते हुए पापा के दोनों गुर्दों को डॉक्टरों ने बेकार साबित कर दिया था. कुछ दिनों तक तो पूरे परिवार में विचारशून्यता की स्थिति बनी रही. परिवार में मैं और दीदी थी. भैया तो विदेश में पढ़ाई कर बस, वहीं का ही होकर रह गया था. वहां की यंत्रवत् ज़िंदगी का एक हिस्सा बनकर, जहां न कोई एहसास होता है, न भावनाएं. भैया को पत्र डालकर सूचित किया, तो यंत्रवत् जवाब आया कि पापा को अमेरिका भेज दो, वहां इलाज हो जाएगा. ये तो जैसे एक औपचारिकता हुई, जिसमें तथ्य तक पहुंचने का प्रयास नहीं किया गया. न पूछा था तबियत कैसी है? न ही ये जानने का प्रयास किया कि पापा के अमेरिका आने का ख़र्च और वहां जाने का प्रबंध कौन करेगा? फिर मम्मी का जोश उभरकर सामने आया. मम्मी ने पापा के इलाज का सारा भार अपने कंधों पर ले लिया. कभी दिल्ली, कभी अहमदाबाद, तो कभी मुंबई. इलाज के सिलसिले में मम्मी पापा को लेकर चक्कर लगाती रहीं. मैं और दीदी हमेशा अकेले रहते थे, पड़ोसियों के सहारे. फिर एक दिन निराशाजनक चेहरा लिए मम्मी टैक्सी से उतरीं. पापा को हल्का-सा सहारा देते हुए मम्मी की आंखों से आंसुओं की धारा बह निकली, लेकिन मम्मी के मुंह में न तो शब्द थे, न सिसकियां. मैं और दीदी तो समझ ही नहीं पा रहे थे कि क्या हुआ. पापा मुंह-हाथ धोने को उठे तो मम्मी ने धीरे-से हमें बताया, “पापा के दोनों गुर्दे ख़राब हो गए हैं और इलाज भी शायद...” आगे के शब्द जैसे बिना बोले ही समझ में आ गए थे. यह भी पढ़ें: मन का रिश्ता: दोस्ती से थोड़ा ज़्यादा-प्यार से थोड़ा कम “लेकिन मम्मी, गुर्दा तो बदल सकता है न?” मैंने इतनी मासूमियत से कह दिया जैसे कोई पुर्जा बदलना हो. “लेकिन बेटा, इतना आसान नहीं है, जितना तुम सोच रही हो.” “मैं दूंगी गुर्दा मम्मी, मैं दूंगी...” मैं चिल्ला पड़ी. मेरे भोलेपन पर उस समय मम्मी हंस भी नहीं पाई थीं. फिर एक नया सिलसिला शुरू हुआ था गुर्दा देने की ज़िद का. परिवार के सदस्यों के अलावा और देता भी कौन? परिवार के सदस्यों के नाम पर थी तो बस मम्मी, मैं और नीना दीदी. इस बार पापा का चेकअप करवाने मम्मी अहमदाबाद गईं तो हम दोनों को भी साथ ले गईं. डॉक्टर ने पूछा, “गुर्दा कौन देगा?” तो मैं और मम्मी एक साथ बोले ‘मैं’, जबकि दीदी ने आगे बढ़कर अपनी तरफ़ इशारा ही किया था. मम्मी की प्रौढ़ावस्था देखकर डॉक्टर उनके गुर्दा देने पर सहमत नहीं हुए और हम दोनों बहनों को अगले दिन सुबह बिना कुछ खाए-पीए आने को कहा. हमारी मम्मी तो किंकर्त्तव्यविमूढ़-सी हो गई थीं. करतीं भी क्या? एक तरफ़ तो पापा की ज़िंदगी का सवाल था और दूसरी तरफ़ उनके शरीर के दो टुकड़े थे. धर्मशाला के उस छोटे-से कमरे में हम चार प्राणियों ने चुपचाप रात बिताई जैसे कुछ घटित ही नहीं हो रहा, जबकि दिलों के भीतर कितना भयंकर तूफ़ान चल रहा था यह मेरा नवपरिपक्व मन अच्छी तरह जानता था. मम्मी की नज़र कभी पापा को, तो कभी हमें देखती और पापा... उन्हें तो हम दोनों को देखकर ही शायद जीने की ललक पैदा होती होगी. मैं सोच रही थी यदि मेरा गुर्दा पापा के काम आएगा तो मैं धन्य हो जाऊंगी, शायद ऐसे ही भाव दीदी के मन में भी थे. डॉक्टर ने चेकअप किया और यह अवसर दीदी के हिस्से में गया. मुझे लगा, जैसे मुझसे कोई बहुत बड़ी ग़लती हो गई है. जो भी हो, अब हमें अगले मंगलवार को होनेवाले ऑपरेशन के लिए तैयार करना था अपने आपको. ऑपरेशन एक नहीं, दो थे. एक पापा का और एक नीना दीदी का. दीदी का गुर्दा निकालकर पापा को जो लगाना था. ऑपरेशन थियेटर का दरवाज़ा खुला तो एक नर्स बाहर निकली. मैं भागकर उसके पास गई, तो उसने हाथ से धैर्य रखने का इशारा किया और चली गई. कुछ देर बाद ही डॉक्टरों की पूरी टीम बाहर निकली. उनमें से एक डॉक्टर ने मम्मी से कहा, “चिंता की कोई बात नहीं है, सब ठीक हो जाएगा.” तो राहत की सांस ली थी हमने. लगभग एक घंटे बाद पापा और दीदी को वार्ड में लाया गया. दोनों को पास-पास ही बिस्तर दिया गया. पहले दीदी की आंखें खुलीं, तो पहला ही सवाल था, “पापा ठीक हैं?” मैं झटपट आगे बढ़ी और कहा, “हां... हां... बिल्कुल ठीक हैं. वो देखो.” मैंने साथवाले बिस्तर पर लेटे पापा की ओर इशारा किया. अधमुंदी आंखों से दीदी ने पापा को देखा, मानो अपने पूरे होते सपनों को पूरा होते देख रही हों और उन्होंने फिर आंखें मूंद लीं. पापा ने भी अपनी अधखुली आंखों में बुदबुदाया था, “नीना कहां है?” और मम्मी ने भी नीना दीदी की ओर इशारा करके बताया था. पंद्रह दिन बाद पापा और दीदी को कुछ हिदायतें देकर डॉक्टरों ने छुट्टी दे दी और हम अपने शहर वापस लौट आए, कुछ खोकर और कुछ लेकर. धीरे-धीरे दीदी और पापा सामान्य होते जा रहे थे. पापा जब भी नीना दीदी की ओर देखते तो भाव-विभोर हो जाते. अपने भाव वे शब्दों में नहीं बांध सकते थे. कई बार मुझे ऐसा लगता था कि दीदी के प्राण पापा में दौड़ रहे हैं और पापा, दीदी को जी रहे हैं. चार महीने गुज़र चुके थे और पापा ने दीदी के प्राणों को पूरी तरह अपना लिया था. ऑपरेशन के ठीक छह महीने बाद अचानक ही एक शाम को पापा की तबीयत ख़राब हो गई. जब तक भागदौड़ की, तब तक पापा हमें छोड़कर जा चुके थे. विश्‍वास ही नहीं हो रहा था कि पापा हमें छोड़कर जा सकते हैं. ऐसा लग रहा था, पापा सो रहे हैं, क्योंकि रात के सन्नाटे में सारा शहर सो रहा था और... दीदी के प्राण भी सो गए थे. रोने की सीमा के बाद एक ग़म पीना पड़ा हम सभी को, जिसे पीने से आंसू आंखों से नहीं निकलते, बल्कि सीधे दिल पर गिरकर उसे भिगोते हैं. गुनगुनाती हुई दीदी चुप हो गई थी और मम्मी तो जैसे शांति की प्रतिमा ही बन गई थीं, स्वयं को तटस्थ बनाने की कोशिश में. फिर शुरू हुआ समस्याओं का सिलसिला. एम.ए. की पढ़ाई स्थगित करके दीदी ने बी.एड. करने का फ़ैसला किया. नए माहौल में स्वयं को ढालने में क़रीब एक साल लगा हमें. दीदी का बी.एड. पूरा हुआ और मेरा बी.ए. यह समय हमारे लिए आर्थिक और मानसिक कशमकश का रहा. हम तीनों ने स्वयं को ऐसे सिकोड़ लिया था मानो, अपनी भावनाओं के आदान-प्रदान की क्षमता को भी नष्ट कर दिया हो. दीदी ने प्राइवेट स्कूल में अध्यापिका की नौकरी कर ली थी. फिर आर्थिक संबल से मिले आत्मविश्‍वास की धूप से जब हमारे मन सिंकने लगे तो हमारे सिकुड़े मन खुलने लगे. अब हम एक-दूसरे से चर्चा करने लगे थे. यह भी पढ़ें: बच्चों को कहां लेकर जाएं? व्यावहारिकता की दुनिया में लौटे तो मम्मी दीदी की शादी की बात को ले बैठीं, पर दीदी ने बड़ी दृढ़ता से मना कर दिया और उल्टा मेरी शादी का प्रस्ताव रखा. लेकिन मैं... दीदी से छोटी मैं, यह कैसे मान सकती थी? अब मैं भी परिपक्व थी. बी.एड. में प्रवेश ले ही लिया था. बस, पूरा होते ही नौकरी कर सकती थी. मैंने दीदी और मम्मी को तर्क भी दिया था. लेकिन दीदी की आंखों में आशंका के जो अस्पष्ट शब्द थे, वो मैं पढ़ तो नहीं पाई थी, लेकिन उनकी बनावट से उनके भावों को ज़रूर समझ गई थी. कशमकश के इस दौर में लड़के देखने आते रहे. हम दोनों ही विवाह योग्य थीं, इसलिए दोनों पर ही सबकी नज़रें पड़ती थीं. औपचारिक या अनौपचारिक रूप से देखते हुए न जाने कब विनय ने मुझे पसंद कर लिया था. विवाह की रस्में न चाहते हुए भी यंत्रवत् निभा गई थी मैं... और अपनी मम्मी और दीदी से अलग हो गई थी. अब दीदी और मम्मी अकेले ही जीवन व्यतीत किए जा रही थीं. दीदी के पास जाने कौन-सा उद्देश्य था. मैं दबी ज़बान में दीदी से शादी की बात करती, तो दीदी की चुप्पी जैसे मुझसे प्रश्‍न करती... “क्या तुम्हारी नज़र में ऐसा कोई लड़का है जो...” दीदी के मन की बात मैं भी जानती थी, लेकिन कुछ न कर पाने को मजबूर थी. क्या कोई लड़का यह बात जानकर दीदी को स्वीकार कर पाएगा कि दीदी का एक ही गुर्दा है? मैं एक बच्चे की मां बन चुकी थी, लेकिन उसकी हर किलकारी मुझे अपराधबोध से भर देती. फिर एक दिन हमारी दूर की बुआजी ने अपने किसी रिश्तेदार के लिए शादी का प्रस्ताव भेजा. इस बार मैं मौक़ा नहीं खोना चाहती थी. मैं और विनय इंदौर जाकर लड़का देख आए थे. मध्यमवर्गीय परिवार का लड़का प्राइवेट कंपनी में कार्यरत था. इस बार मैं दीदी से बड़ी बन गई थी और मम्मी को घर-वर के बारे में बताकर संतुष्ट कर दिया था. मैं नहीं चाहती थी कि इस बार हम किसी छोटे-से कारण से रिश्ता अस्वीकार कर दें. ‘चट मंगनी पट ब्याह’ का प्रस्ताव रखा. दीदी को इस बार बोलने का अवसर ही नहीं दिया. दीदी भी शायद सहमत थी. मैंने और विनय ने दौड़-धूपकर शादी का सारा काम किया. दीदी को विदा करके ही दम लिया. दीदी की विदाई के बाद मैं घर समेटने में मम्मी की मदद कर रही थी कि दीदी की अलमारी में मुझे एक डायरी नज़र आई. उत्सुकतावश खोल बैठी तो पूरी पढ़कर ही दम लिया. डायरी पापा को गुर्दा देने के बाद ही लिखी गई थी. शुरू के पन्नों में प्रसन्नता के भाव नज़र आ रहे थे, जहां पापा को गुर्दा देकर दीदी बहुत ख़ुश थी. एक जगह तो दीदी ने लिखा था, “मेरे शरीर में लगे टांकों में उठती टीस से मैं कभी आहत नहीं होती हूं, बल्कि ऐसा लगता है कि मैं पापा के दर्द को बांट रही हूं. बहुत अच्छा लगता है, सचमुच.” फिर एक जगह लिखा था, “उस दिन जब नर्स ने मेरे टांकों को स्पिरिट से साफ़ किया तो मुझे वो दर्द अपना नहीं लगा, बल्कि पापा का दर्द लगा...” आगे एक जगह लिखा था- “सोचती हूं कि मुझमें बड़प्पन कब से आ गया?” “पापा को जीते देखकर बहुत ख़ुश होती हूं.” “पापा मुझे देखकर ख़ुश होते हैं.” यानी पापा के जीने तक सारी डायरी पापा के इर्द-गिर्द ही थी. फिर पापा की मौत... काफ़ी दिनों तक कुछ नहीं लिखा था दीदी ने. फिर शुरू किया तो निराशाजनक शब्दों से- “पापा नहीं मरे, मैं मर गई हूं. मेरे शरीर का हिस्सा पापा को ज़िंदा नहीं रख पाया. दिल करता है अपने दूसरे गुर्दे को भी काट फेंकूं.’ फिर बहुत-सी ऐसी बातों के बाद दीदी ने लिखा था, “रीना और मम्मी आजकल शादी की बात करती हैं मुझसे. हंसी आती है मुझे उनकी बातों पर. भला, मुझसे कौन करेगा शादी? सारी दुनिया को पता है मेरे गुर्दा देने की बात. न करे शादी कोई, लेकिन ग़म तो इस बात का है कि पापा भी नहीं रहे. यदि वो रह जाते तो मेरा त्याग सार्थक हो जाता.” जब डायरी बंद की, तब मुझे एहसास हुआ कि मेरी आंखों से अश्रुधारा बह रही थी. दीदी, जो ऊपर से इतनी शांत दिखाई देती थी, अंदर से विचारों से इतनी उद्वेलित होगी. उसके चेहरे पर कभी भावों को आते-जाते नहीं देखा मैंने. मैं अनुमान ही लगाती रहती थी कि अब दीदी क्या सोच रही होगी. लेकिन आज उसकी डायरी सब कुछ कह गई थी मुझे. इन विचारों की दुनिया से बाहर आई तो एकदम आशंकित हो उठी कि कहीं ये डायरी जीजाजी के हाथ न लग जाए. उनको हमने इस बात का खुलेआम ज़िक्र नहीं किया. दीदी के भावों का कहीं पता चल गया तो कहीं वे भी पश्‍चाताप से न भर उठें. मैंने वो डायरी अपनी अटैची में डाल ली. दो दिन बाद दीदी हम लोगों से मिलने आई तो गले लगकर रो पड़ी. मैंने दीदी से पूछा, “सब ठीक है न ससुराल में?” “हां... हां...” “और जीजाजी?” “उनके बारे में तो पूछ ही मत, सही अर्थों में इंसान हैं.” सुनकर मैंने राहत की सांस ली. चाय-पानी के दौर के बाद मैं एकांत कोना ढूंढ़ने लगी, जहां दीदी से कुछ बात कर सकूं. मौक़ा पाते ही मैंने दबे स्वर में कहा, “दीदी, वो डायरी... आपकी... सोचती हूं कहीं छुपा दूं या फाड़ दूं.” “हट पगली, क्या ज़रूरत है?” “कहीं जीजाजी को पता न चल जाए.” “अरे नहीं, वही तो कह रही थी मैं. पहली मुलाक़ात में मैं सोच रही थी कि इस बारे में बात करूं या नहीं. फिर तुम्हारे जीजाजी ने ही शुरुआत की... तुम तो बहुत महान हो...” “कैसे?” मैं भौंचक्की रह गई थी. “इतना महान कोई नहीं होता नीना. मुझे बुआजी ने सब कुछ बता दिया है. इसी बात पर तो तुम्हें पसंद किया है मैंने. त्याग की मूर्ति को कौन नहीं अपने घर पर स्थापित करना चाहेगा? और मैं तो जैसे भावविह्वल हो गई थी ऐसा पति पाकर.” दीदी भावुकता में अनवरत बोले जा रही थी. “ओह दीदी, मैं तो सोच रही थी...” और मैं दीदी के गले से लिपट गई. मैं दीदी के भावों को पढ़ने का प्रयास कर रही थी. ऐसा लग रहा था, कोहरा साफ़ हो गया है और दीदी साफ़ परदे पर अपनी ज़िंदगी की संवरती तस्वीर देख रही है.

     संगीता सेठी

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