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कहानी- दो कप चाय (Story- Do Cup Chai)

मैं सोच रही थी, हम स्त्रियां ही स्त्रियों की बात क्यों नहीं समझ पातीं? क्यों एक-दूसरे के प्रति इतनी असंवेदनशील हो उठती हैं? आंटी को तो यक़ीन ही नहीं हो रहा है कि अंकल नहीं रहे, अंकल तो उनके पास हैं, फिर वे शोक प्रकट करनेवालों के साथ समय बिताकर अपने इस एहसास को क्यों ख़त्म करें?

जिस दिन मैं मुंबई से दिल्ली अपने मायके पहुंची, उसी दिन मेरी अभिन्न सहेली रेखा ने फोन पर दुखद समाचार दिया कि सरिता आंटी के पति मोहन अंकल नहीं रहे. यक़ीन तो नहीं हुआ, पर सच तो था ही. आंटी जब घर का सामान लेने गई थीं, अंकल का हार्टफेल हो गया था. मां ने जब मेरे चेहरे की गंभीरता का कारण पूछा, तो मैंने उन्हें आंटी के बारे में बताया, आंटी हम दस महिलाओं की किटी ग्रुप की सबसे उम्रदराज़ महिला हैं. आंटी-अंकल अकेले ही रहते हैं, उनका इकलौता बेटा पवन अमेरिका में ही कार्यरत है. आंटी-अंकल साल में एक बार बेटे के पास ज़रूर जाते हैं. हम सबके लिए आंटी की लाइफस्टाइल एक प्रेरणा है. सुबह-शाम सैर, घूमना-फिरना, खाना-पीना, पत्रिकाएं पढ़ना, हमेशा ख़ुश रहना, आंटी जीवन में हर चीज़ का आनंद लेते हुए हमें शांत और ख़ुश रहने की प्रेरणा देती रहती हैं. उनका कहना है कि हर आयु का अपना आनंद है, हर स्थिति का एक सुख है, इसे समझ लें, तो जीवन आसान हो जाता है.
किटी पार्टी में किसी का भी मूड कभी ख़राब हो, तो आंटी से बात करते ही निराशा की धुंध छिटक जाती है और जीवंतता की धूप खिल उठती है.
अंकल रिटायर्ड टीचर थे, उनसे मिलना कम ही होता था. मेरे ऊपरवाले फ्लोर पर ही आंटी रहती हैं. अंकल से मेरी हाय-हैलो अक्सर लिफ्ट में ही होती रही है. आंटी से मेरा ख़ास लगाव हमारे पढ़ने-लिखने के शौक़ के कारण है. हम अक्सर पढ़ी हुई कहानियों के बारे में बात करते हैं, हमारा क़िताबों का आदान-प्रदान चलता ही रहता है.
मुंबई वापस आकर मैं दो दिन तो घर संभालने में ही व्यस्त रही, पति और बच्चों को छोड़कर गई थी, तो थोड़ी अस्त-व्यस्तता तो स्वाभाविक ही थी.
आंटी से जल्दी से जल्दी मिलने की इच्छा थी. उन्हें हमेशा हंसते-मुस्कुराते ही देखा था. अब उनके चेहरे की उदासी की कल्पना ही कष्टप्रद थी. मैंने रेखा को फोन किया, आंटी के घर जाने के बारे में पूछा कि क्या वो भी मेरे साथ चलेगी, तो रेखा ने कहा, “हम सब लोग तो होकर आ गए हैं, अब दोबारा जाने का कुछ फ़ायदा तो है नहीं.”
मैंने पूछा, “क्या मतलब?”
“अरे, आंटी बहुत मज़बूत हैं. उन्हें शोक प्रकट करने आए किसी व्यक्ति की ज़रूरत नहीं है. हम सबको उन्होंने साफ़-साफ़ कह दिया कि हम लोग बार-बार आकर परेशान न हों और सुमन, जानती हो? दूर बसे अपने रिश्तेदारों तक को उन्होंने कह दिया कि इतनी दूर आकर परेशान न हों. सोसायटी के लोग जब अंतिम संस्कार के लिए गए, तब भी वे एकदम शांत थीं, पवन भी आ गया था. उन्हें किसी ने रोते नहीं देखा. मान गए भई, बड़ी मज़बूत हैं आंटी, बहुत ही प्रैक्टिकल.”
मैं तो फिर कुछ बोल ही नहीं पाई. क्या करूं, इतने दिन बाद जाकर बोलूं भी तो क्या, ऐसे में कुछ समझ भी तो नहीं आता है कि क्या कहा जाए, पर मेरा जाना बनता तो था ही, मैंने कुछ और सहेलियों से भी पूछा कि क्या किसी को आंटी से मिलने जाना है, सबका यही जवाब था, “ना भई, एक बार जाकर लगा क्यूं आ गए, उन्हें कहां ज़रूरत है दुख में भी किसी की, बहुत बोल्ड हैं आंटी.”
मैं फिर अगले दिन ही शाम को चार बजे आंटी के घर गई, डोरबेल बजाई, तो एक छोटे बच्चे ने दरवाज़ा खोला. मैंने अंदर जाकर देखा, पांच-छह बच्चे ट्यूशन पढ़ रहे थे. आंटी कई सालों से ट्यूशन पढ़ाती हैं. मैंने एकदम से तो कुछ नहीं कहा, आंटी के पास जाकर बैठ गई, आंटी ने बच्चों को थोड़ी देर अपने आप पढ़ने के लिए कहा, फिर मैंने धीरे-धीरे कहना शुरू किया, “आंटी, मैं बाहर गई हुई थी, पता चला तो बहुत दुख हुआ, समझ नहीं आ रहा क्या कहूं.” कहकर मैंने क़रीब पैंसठ वर्षीया आंटी के गंभीर चेहरे पर नज़र डाली. उन्होंने गहरी सांस लेते हुए कहा, “इंसान क्या कर सकता है, ईश्‍वर की बातें हैं, वही जाने.”
मैंने ध्यान से उनके चेहरे को देखा, एकदम शांत, गंभीर, उदास, खाली-खाली-सा चेहरा, आंटी ऐसी तो कभी नहीं दिखीं. हम दोनों फिर चुप रहे. हमारे मन की कुछ बातें भले ही शब्दों की अभिव्यक्ति से परे होती हैं, पर मन में कुछ शक्तियां ऐसी होती हैं, जो किसी की मनोदशा को अच्छी तरह भांप लेती हैं. उनके अनकहे दुख को आंखों में ही पढ़ा मैंने. फिर मैंने कहा, “आंटी, आपको किसी भी चीज़ की ज़रूरत हो, तो फोन कर दीजिए, संकोच मत कीजिएगा.”
“हां, थैंक्यू सुमन.”
बच्चे पढ़ने के लिए इंतज़ार कर रहे थे, बेचैनी से पहलू बदल रहे थे, मुझे उठना ही ठीक लगा. मैंने जैसे ही उठने का उपक्रम किया, आंटी ने कहा, “सुमन, आने के लिए थैंक्स.”
“नहीं आंटी, थैंक्स की तो कोई बात ही नहीं है, आपके दुख में हम सभी आपके साथ हैं.”
“हां, जानती हूं, पर मैं किसी को परेशान नहीं करना चाहती. मोहन ने जीते जी किसी को कभी कोई तकलीफ़ नहीं दी. अब उनके जाने के बाद किसी को परेशान करने, तकलीफ़ उठाने क्या बुलाना, यह मेरे हिस्से का दुख है और मुझे सहना ही है… और अभी तो मुझे ही यक़ीन नहीं हुआ कि मोहन चले गए हैं, उनकी यादों का, उनकी बातों का एक अद्भुत सुरक्षा कवच महसूस होता है मुझे अपने इर्द-गिर्द. आज भी अतीत की बगिया से मन के आंगन में मुट्ठीभर फूल बिखेर जाती है उनकी चिर-परिचित पदचाप, जिसकी ख़ुशबू से मेरा रोम-रोम अब भी पुलकित हो जाता है, आज भी रोज़ सुबह मुझसे अंजाने में ही चाय भी दो कप बन जाती है.”
मेरा संवेदनशील मन अथाह वेदना से कराह उठा, इस बात के मर्म ने मेरे दिल को ऐसे छुआ कि मेरी आंखें स्वतः ही भरती चली गईं, जिसे महसूस करके आंटी ने मेरा कंधा थपथपा दिया. उनके स्नेहिल स्पर्श को महसूस कर मैंने उन्हें देखा, लगा आंखों से ही मानो मौन ही मुखर होकर भावनाओं को बांच रहा हो.
“आंटी, चलती हूं. बच्चे पढ़ने के लिए आपका इंतज़ार कर रहे हैं, फिर आऊंगी.” कहकर मैं घर जाने के लिए निकल पड़ी, बहुत भारी हो गया था मन.
उनकी दो कप चायवाली बात ने ही उनके दिल का गहरा राज़, सारी उदासी खोल दी थी. कभी-कभी हम किसी के प्रति अंजाने में ही कोई भी धारणा बना लेते हैं. हमें एहसास ही नहीं होता कि सामनेवाले इंसान के दिल में क्या चल रहा है. वो अपने दुख को सहने के लिए कितनी मेहनत कर रहा है, पर मेरा मन भी आत्मग्लानि से भर उठा था. मैं सोच रही थी, हम स्त्रियां ही स्त्रियों की बात क्यों नहीं समझ पातीं? क्यों एक-दूसरे के प्रति इतनी असंवेदनशील हो उठती हैं? आंटी को तो यक़ीन ही नहीं हो रहा है कि अंकल नहीं रहे, अंकल तो उनके पास हैं, फिर वे शोक प्रकट करनेवालों के साथ समय बिताकर अपने इस एहसास को क्यों ख़त्म करें? कुछ बालहठ ही होता है ऐसे पलों का, यादों में डटे रहने का. अंकल तो उनके पास हैं, उनके साथ हैं, रोज़ सुबह दो कप चाय यूं ही तो नहीं बनती न!

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          पूनम अहमद

 

Meri Saheli Team

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