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कहानी- एक राधा यह भी (Short Story- Ek Radha Yeh Bhi)

 

प्यार करना अथवा न करना अपने बस में नहीं होता शायद. कहा जाता है कि प्यार पुरुष की ज़िंदगी का तो एक नामालूम-सा हिस्सा होता है, पर स्त्री के लिए उसके पूरे वजूद पर छाया हुआ संपूर्ण जीवन होता है.

 

घर में अनेक लोग हैं. सामान्यतः जितने होते हैं, उससे भी कुछ अधिक ही. किन्तु मुझे घर वीरान और सूना-सूना लग रहा है. आज मां का दाह संस्कार हुआ है. लौटते-लौटते सांझ घिर आई थी. नहाने-धोने के बाद बाहर से मंगवाया भोजन परोस दिया गया. भोजन निपटाते-निपटाते सात बज गए. खाना खाकर बच्चे टीवी पर अपना मनपसंद कार्टून चैनल लगाकर बैठ गए. मामी और छोटी मौसी ड्रॉइंगरूम में बैठी दुनिया-जहान के संबंधियों के दुख-सुख की बातें कर रही हैं. बड़ी बुआ तो श्मशान घाट से ही मुंह दिखाकर चली गई थीं.
कानपुरवाली बुआ रात यहीं रुककर सुबह ही जा पाएंगी. भइया दिनभर के थके हैं. मानसिक झटके के साथ सब इंतज़ामात करने की ज़िम्मेदारी भी उनके सिर पर थी, सो वे भोजन करके लेट गए हैं. भाभी कमरे का दरवाज़ा बंदकर धीमे से टीवी चलाकर बैठी हैं, ताकि उनके मनपसंद सीरियल्स मिस न हो जाएं.
एक मैं ही इस कमरे से उस कमरे में, इस कोने से उस कोने में मां को तलाश रही हूं! हां! जानती हूं, मेरे ही सामने हुआ है मां का दाह संस्कार, पर अब भी घरभर में उनकी उपस्थिति को महसूस कर सकती हूं मैं. गमले का यह पौधा उन्हीं का रोपा हुआ है, चादर पर उन्हीं के हाथ की कढ़ाई है. आलमारी की क्रॉकरी उन्हीं के द्वारा धो-पोंछकर सहेजकर रखी हुई है. सभी जगह तो है उनकी छाप और इसी एहसास को मैं अपने भीतर समेट लेना चाहती हूं. अगली बार लौटूंगी, तब तक नहीं बचेगी यह. सुबह ही बहुत कुछ हटा दिया जाएगा.
सब सो चुके हैं, किन्तु मेरी आंखों में नींद नहीं है. कच्ची-पक्की एक झपकी लगी भी, तो सुबह पांच बजे फिर उचट गई. इसी समय तो मां उठकर नहा-धो लेती थीं. यह समय उनकी आराधना का होता था. यूं वह बहुत भक्त क़िस्म की नहीं थीं, पर उन्हें एकांत में बैठ चिंतन-मनन करना अच्छा लगता था. शायद इसीलिए उनके शयनकक्ष से जुड़ा छोटा-सा एक मंदिर जैसा बना हुआ है. मंदिर जैसा इसलिए कह रही हूं, क्योंकि उसी में एक तरफ़ चुनिंदा पुस्तकों की एक आलमारी भी है, जिसमें धार्मिक पुस्तकें कम दूसरी अधिक हैं. गीता के कर्मयोग के साथ रवीन्द्रनाथ टैगोर की गीतांजली भी रखी है. विश्‍व प्रसिद्ध लेखकों की पुस्तकों का अंग्रेज़ी अनुवाद है. महादेवी वर्मा का काव्य संकलन है. मैं चुपचाप आकर वहीं बैठी हूं. यहां स़िर्फ मां हैं और मैं हूं, पुस्तकों की आलमारी के सामने एक आराम कुर्सी रखी है, जिस पर बैठ मां पढ़ा करती थीं. कुर्सी की दायीं तरफ़ एक बड़ी-सी चौकी पर राधा-कृष्ण की मूर्तियां हैं. एकनिष्ठा, पतिव्रत, सदाचार इत्यादि पर इतना बल देनेवाली भारतीय संस्कृति में राधा-कृष्ण कैसे आराध्य बन गए, यह मेरी समझ से परे है. कृष्ण का विवाह तो रुक्मिणी के संग हुआ था न! कहते हैं, राधा भी विवाहिता थीं. मुझे अकेली बैठी देख बचपन की अनेक यादें मेरे पास आ बैठी हैं. बचपन का समय व्यक्ति कभी नहीं भूलता. वो मस्ती, वो अल्हड़पन. उस समय यह समझ ही नहीं होती कि जीवन की आपाधापी में यह समय फिर कभी नहीं लौटेगा. उस समय तो हमें बड़े होने की जल्दी रहती है और बड़े होकर हम बचपन को पकड़े रखना चाहते हैं.
मैं तेरह-चौदह वर्ष की हूं, जब हम दोनों बहन-भाई मां के संग मामा के घर उनके बेटे के विवाह में सम्मिलित होने आए हैं. सब रिश्तेदार पहुंच चुके हैं, सिवाय मेरे पापा के, जो ऊंचे ओहदे पर यानी अपने प्रांत के चीफ सेक्रेटरी हैं. उन्हें मां के रिश्तेदारों के साथ संबंध रखना अपनी तौहीन लगती है. घर में भी वे ख़ूब रौब जमाते हैं. हम दोनों भाई-बहन उनसे बात करते डरते हैं. ऐसा भी नहीं कि हर समय डांट-फटकार ही करते रहते हैं, परंतु उनकी आग्नेय दृष्टि, बात मुंह से निकलते ही पूरी हो जाने की अपेक्षा रखना, हमें उनसे दूरी बनाए रखने पर मजबूर कर देती हैं.
मां को तो शायद पहले ही दिन उन्होंने अच्छी तरह समझा दिया था कि वही इस घर के मालिक हैं और पत्नी होने के नाते उन्हें पति की इच्छानुसार ही जीना होगा. इस मामले में उनका फ़लसफ़ा बहुत परंपरावादी है. उनके हिसाब से पत्नी के जीवन का रिमोट सदैव पति के हाथ में होना चाहिए और पत्नी झुककर चलनेवाली ही ठीक रहती है. ऐसा भी नहीं कि मां कम पढ़ी-लिखी हैं या सलीकेदार नहीं हैं. वे तो एक नामी स्कूल में साइंस पढ़ाती हैं. अपने विद्यार्थियों एवं समीक्षकों में उनका मान-सम्मान है. समस्या आने पर स्वयं स्कूल की प्रिंसिपल तक उनसे सलाह-मशविरा कर लेती हैं. हमारी शिक्षा एवं पालन-पोषण की सारी ज़िम्मेदारी उनकी रही है, लेकिन पापा की उपस्थिति में पूरी तरह ख़ामोश रहती हैं वे. शायद इस बात से डरती हैं कि बच्चों के सामने ही पापा कोई सीन क्रिएट न कर दें. मुझे नहीं याद कि पापा ने किसी भी बात पर कभी उनकी राय ली हो- घर के मामलों में भी. मां की इच्छा-अनिच्छा कोई नहीं जानता. उसे व्यक्त करने का साहस वह कभी नहीं कर पाईं या कहूं तो उसे व्यक्त करने का उन्हें कोई मतलब ही नज़र नहीं आता.
मां हमेशा पापा की ज़िंदगी के हाशिये पर ही खड़ी रहीं, पर एक दृढ़ आत्मविश्‍वास के साथ. न उन्होंने स्वयं में हीनभावना पनपने दी और न ही अपना आत्मविश्‍वास खोया. जैसे-जैसे हम बड़े होते गए, हम भाई-बहन को घर में फैला तनाव समझ आने लगा. यह भी समझ आने लगा कि मौज-मस्ती हम तभी कर पाते हैं, जब पापा घर में नहीं होते. जितना समय वह घर पर होते सब अपने-अपने काम में व्यस्त रहते अथवा व्यस्त होने का नाटक करते.
मामा के घर आकर तो मां पहचानी ही नहीं जा रही थीं. वही मां जो घर में किसी मशीन की तरह चुपचाप काम में लगी रहती हैं- बिना उत्साह और बिना जीवंतता के, वहीं मायके में उनके चेहरे का उत्साह देखते ही बनता है, बात-बात पर खिलखिलाकर हंस पड़ना, सबसे बोलते-बतियाते देख लगता ही नहीं कि यह मेरी मां ही हैं.
सगाई की रस्मवाले दिन बाहर से आए नाते-रिश्तेदार सुबह से ही ढोलक लेकर बैठे हैं. एक थक जाता है, तो दूसरा संभाल लेता है और मां इन सबमें सबसे आगे हैं. ढोलक पर थाप देतीं, कभी विवाह गीत गातीं, तो कभी फिल्मी. पंजाबी टप्पों में तो सबको पछाड़ चुकी हैं, कितने तो याद हैं उन्हें, कैसा सटीक जवाब दे रही हैं.
शाम के चार बज गए हैं. शहर के क़रीबी रिश्तेदार-मित्र आने शुरू हो चुके हैं. दोपहर में आराम कर चुकी स्त्रियां और लड़कियां तैयार होकर ड्रॉइंगरूम में जुटने लगी हैं. बाहर लगे पंडाल में तो छह बजे कार्यक्रम शुरू होना है, पर भीतर लोग अभी से मस्ती के मूड में आ चुके हैं. मामा के एकलौते बेटे का विवाह है और हमारे मिलनसार मामा के तो अनेक यार-दोस्त हैं, रिश्तेदारी भी ख़ूब स्नेहभाव से निभाते हैं वे. किसी ने संगीत लगा दिया है, तो कुछ लोग नाचने के मूड में भी आ गए है, विशेषकर युवा लड़के और लड़कियां. हल्के गुलाबी रंग की साड़ी में बहुत सुंदर लग रही हैं मां. यह सौंदर्य गुलाबी साड़ी के कारण है या उनके चेहरे के उमंग-उत्साह के कारण, पता नहीं.
मामा के एक मित्र ने आगे बढ़कर मां को संग नाचने को आमंत्रित किया है. किसी ने बताया है कि मां उन्हें कॉलेज के समय से जानती हैं. मां सकुचा रही हैं, परंतु घर की अन्य महिलाओं ने पकड़कर उन्हें खड़ा कर दिया है. शालीनता बनाए हुए दोनों संग-संग नाच रहे हैं. मां की पलकें झुकी हुई हैं, पर मामा के उस मित्र की नज़रों में स्पष्ट दुलार है, प्रशंसा है.
मां से जुड़ी यादों में खो गई थी कहीं. अरे, इस समय तो मैं मां के मंदिर जैसे कमरे में बैठी हूं. नज़र फिर राधा-कृष्ण की प्रतिमाओं पर जा पड़ी है. इन मूर्तियों को मां अपने हाथों से वस्त्र सिलकर पहनाया करती थीं. गोटा किनारी लगातीं, सुंदर-सुंदर राखियों में फेर-बदलकर इनके गहने बनातीं. कमरे की साफ़-सफ़ाई भी स्वयं करतीं. अतः इस कमरे में स़िर्फ उन्हीं के हाथों की छाप है. वही स्पर्श महसूस करने के लिए मैंने पहले कृष्ण की प्रतिमा को और फिर राधा की प्रतिमा को उठा लिया है. राधा की प्रतिमा थामने के लिए जो हाथ उसके नीचे रखा था, वहां काग़ज़ का एक सख़्त कोना-सा महसूस हुआ. मैंने प्रतिमा को ऊपर उठाया, तो खोल में एक लिफ़ाफ़ा दिखा, जो मैंने फ़ौरन निकाल लिया. एक बार सोचा बाद में इत्मीनान से देखूंगी, पर एक तो उत्सुकता और फिर यह सोच कि घर के बाकी जन तो अभी गहरी नींद सो रहे हैं, मैंने लिफ़ा़फे से काग़ज़ निकाल लिए. छोटे-छोटे दो पत्र हैं. पत्र न कहकर नोट कहना अधिक उचित होगा. दो-चार पंक्तियां, बिना किसी संबोधन के, पर मां ने इतने संभालकर रखे हैं, तो निश्‍चय ही उन्हीं के लिए हैं. पहले वाले में एक ही पंक्ति है, जो मेरी समझ से परे है. दूसरा थोड़ा-सा बड़ा है.
तुम कहती हो बच्चों के प्रति तुम्हारा कर्त्तव्य अभी बाकी है. उन्हें तुम एक संपूर्ण जीवन देना चाहती हो, पर मैं तो उन्हें अपनाने को तैयार हूं न. ख़ैर तुम जो निर्णय लोगी, मुझे मंज़ूर होगा. कभी मेरी ज़रूरत पड़े, तो एक संदेश पर चला आऊंगा.

– तुम्हारा अमित

सुंदर सधी लिखावट. स्पष्ट शब्द और स्पष्ट संकेत भी. मैं सोलह साल की थी, जब पापा खुलेआम नीरा आंटी के संग रहने लगे थे. यूं उनके बारे में अफ़वाहें-क़िस्से तो पहले भी सुने थे, पर इधर-उधर भटककर पापा फिर घर लौट ही आते थे, लेकिन अब वह अपना सब सामान लेकर स्थाई रूप से चले गए थे. मां ने उनसे आर्थिक सहायता लेने से इनकार कर दिया था. घर में उनके बारे में कभी कोई चर्चा न होती और न ही मां उनके विरुद्ध कोई शब्द कहतीं. मेरे और भाई के विवाह में वे ज़रूर आए थे- लोक दिखावे के लिए ही समझ लो. पापा के घर छोड़ने के बाद दोनों बुआ ने भी आना बंद कर दिया था. हालांकि उन्हें हम बच्चों से काफ़ी स्नेह था. उन्हें अपने भाई के किए पर शर्म आती थी अथवा मां से कोई शिकायत थी, ये उन्होंने कभी स्पष्ट नहीं किया. कुछ वर्ष पूर्व पापा का अचानक देहांत हो जाने पर मैंने उन्हें लंबे अरसे के बाद देखा था. छोटी बुआ ने उनके पश्‍चात् से टेलीफोन द्वारा थोड़ा-बहुत संपर्क बना रखा था. कल मां की मृत्यु पर भी दोनों आई हुई थीं. छोटी बुआ तो कानपुर से विशेष रूप से आई थीं.

बहुत लोग आए थे मां को अंतिम विदाई देने. कुछ को मैं पहचानती थीं, कुछ को नहीं. मां के सहकर्मियों का समूह ग़मगीन चेहरे लिए एक तरफ़ खड़ा था. कहीं-कहीं हंसी-मज़ाक भी चल रहा था. अनेक लोग स़िर्फ मुंह दिखाने भर को ही आते हैं और संवेदना प्रकट करके आगे बढ़ते ही वे अन्य बातों में मशगूल हो जाते हैं. शायद यह स्वाभाविक भी है. आख़िर आपका दुख मृतक से आपके रिश्ते पर ही तो निर्भर करता है.
पंडित द्वारा बताए गए सब संस्कार पूरे कर भैया मामा के साथ बाकी इंतज़ाम देखने भीतर गए हैं. संबंधियों से घिरकर भी मेरी नज़र मां के पार्थिव शरीर पर ही टिकी है. अब फिर कभी नहीं दिखेगा ममता से छलकता यह चेहरा. तभी मैंने देखा 60-65 वर्षीय एक सज्जन मां के समीप आकर बैठ गए हैं. मैंने सोचा मां के सहकर्मियों में से कोई होंगे. यद्यपि उन्होंने उस समूह की तरफ़ एक बार भी मुड़कर नहीं देखा था. आंखें मूंदे वे देर तक मां के पास बैठे रहे. खड़े होकर मां को हल्के से छुआ और फिर बिना किसी से मिले, बिना किसी से एक भी शब्द कहे चुपचाप चले गए. बैठने और चलने का अंदाज़ कुछ परिचित-सा लगा, पर पहचान न सकी. तेरह-चौदह वर्ष की उम्र में देखा चेहरा याद भी कैसे रह सकता था. वह भी विवाह की भीड़ में देखा चेहरा. परंतु आज मैं आपको पहचान गई हूं अमित अंकल. कल मुझे लगा था कि जाते-जाते आपने अपनी आंखें पोंछी हैं, तब तो मैंने उसे अकारण मान लिया था, पर क्या वह वर्षों से मन में दबा, बांध तोड़ बाहर निकल आया कोई अश्रु था? ताउम्र प्यार की एक बूंद को तरसती रही मां और उनके ठीक पीछे निश्छल प्रेम का असीम सागर आ-आकर लौटता रहा. सब जानती थीं मां, पर अनदेखा किए खड़ी रहीं अपने संस्कारों की धरोहर संभाले. बांसुरी की टेर अनसुनी कर दी इस राधा ने.
प्यार करना अथवा न करना अपने बस में नहीं होता शायद. कहा जाता है कि प्यार पुरुष की ज़िंदगी का तो एक नामालूम-सा हिस्सा होता है, पर स्त्री के लिए उसके पूरे वजूद पर छाया हुआ संपूर्ण जीवन होता है. लेकिन कभी सोचा है आपने कि प्रिय से मिलन संभव न हो पाने पर वही स्त्री अपने इसी प्यार को मन के किन्हीं गुमनाम तहखानों में दबा अपने होंठों को यूं सिल लेती है कि उन पर भूले से भी कभी प्रिय का नाम आने न पाए. साथ ही वह अपने सब धर्म, दुनियादारी और कर्त्तव्य पूरी तरह निभाती चलती है. इतना सामर्थ्य एक स्त्री के सिवा और किसमें हो सकता है? सच तो यह है कि स्त्री अपने लिए जीती ही कब है? आज के इस व्यक्तिवादी युग में अपने बच्चों की ख़ातिर मां ने अपनी सब ख़ुशियां कुर्बान कर सही किया अथवा नहीं, इसका निर्णय मैंने आप पर छोड़ा.

 

     उषा वधवा

 

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Usha Gupta

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