Short Stories

कहानी- फ्लैश फॉरवर्ड (Short Story- Flash Forward)

”हां, तो मैं बता रही थी कि फिर एक दौर ऐसा आया कि हम दोनों ही अकेले हो गए. उसकी पत्नी की मृत्यु हो गई और मेरा पति…”

“क्या?” मैं ज़ोर से चिल्ला उठी.

“घबराओ मत. ये सब मैंने फ्लैश फॉरवर्ड में देखा था. फिर मैंने अपना पुश्तैनी मकान बेचा और समुद्र किनारे एक फ्लैट में रहने आ गई. वहां एक दिन शाम को पार्क में सैर करते व़क़्त मुझे रितु मिल गई…”

“क्या वह भी विधवा?”

“अरे, नहीं ममा. उसका पति जीवित था.

रिया बेहद अच्छे मूड में आकर मेरे पास बैठ गई और अपनी दोनों बांहें मेरे गले में डाल दीं. मैं समझ गई कि वह कुछ बात बताने के लिए उत्सुक है.

“ममा, मालूम है मैंने विवेक से शादी के लिए हां क्यों की?”

“तुम्हारी सहेली का भाई है और तुझे पसंद आ गया होगा?”

“वो भाई तो रितु का बचपन से ही है, तब से देखती आ रही हूं, पर मैंने उसे कभी इस एंगल से नहीं देखा था. जबकि रितु तो बात-बात में मुझे कहती रहती थी, ‘तुझे इस होटल का रवा डोसा पसंद है? अरे भैया को भी बहुत पसंद है…’ ‘क्या तुझे ‘रॉकस्टार’ फिल्म अच्छी लगी? अरे, भैया को भी बहुत अच्छी लगी…’ मैं तो उसकी बातों से बुरी तरह खीझ जाती थी. तब वह रोने-जैसा मुंह बनाकर बोलती थी. ‘तुझे लगता है मैं बातें बनाती हूं, लेकिन रिया सच, तुम्हारी क़सम! तुम्हारी और भैया की पसंद वाकई बिल्कुल एक जैसी है. तुम दोनों का स्वभाव भी काफ़ी मिलता है.”

“फिर?”

“मुझे उसकी बातों में रस आने लगा था. वह बात ही इतने मज़ेदार तरी़के से कह रही थी. फिर मैंने फ्लैश फॉरवर्ड में देखा कि हम दोनों की शादी हो गई. एक दूजे से नहीं, अलग-अलग जगह. हम अपनी-अपनी गृहस्थी में ख़ुश थे. बच्चे हो गए. उनकी भी शादियां हो गईं…”

मैं मुंह बाए सुन रही थी, पर मुझसे रहा नहीं जा रहा था.

“यह फ्लैश फॉरवर्ड क्या बला है?”

“अरे, बहुत सिंपल चीज़ है ममा. जैसे आप टीवी पर, सिनेमा में फ्लैशबैक देखती हैं. उसमें अतीत में घटी घटना आंखों के सामने साकार होने लगती है. ऐसा ही कुछ फ्लैश फॉरवर्ड में होता है, जिसमें हम अपने अनुमान के आधार पर भविष्य में कुछ घटित होता देखते हैं और वो सब कुछ एक चलचित्र की तरह हमारी आंखों के सामने चलता रहता है. हां, तो मैं बता रही थी कि फिर एक दौर ऐसा आया कि हम दोनों ही अकेले हो गए. उसकी पत्नी की मृत्यु हो गई और मेरा पति…”

“क्या?” मैं ज़ोर से चिल्ला उठी.

“घबराओ मत. ये सब मैंने फ्लैश फॉरवर्ड में देखा था. फिर मैंने अपना पुश्तैनी मकान बेचा और समुद्र किनारे एक फ्लैट में रहने आ गई. वहां एक दिन शाम को पार्क में सैर करते व़क़्त मुझे रितु मिल गई…”

“क्या वह भी विधवा?”

“अरे, नहीं ममा. उसका पति जीवित था. वह अपनी पोती को पार्क में घुमाने लाई थी. कुछ देर सुख-दुख की बातें चलती रहीं. मेरी बात ख़त्म होते ही वह बोल पड़ी. भैया भी बिल्कुल अकेले हो गए हैं. भाभी चल बसी और बच्चे विदेश में सेटल हो गए. वे भी आजकल इसी अपार्टमेंट में रहते हैं. लो, वे आ भी गए. मैंने बताया था न तुझे कि वे भी तेरी तरह शाम की सैर किए बगैर नहीं रह सकते. अब तुम दोनों बातें करो. मैं चलती हूं गुड़िया के दूध का वक़्त हो गया है. मैं विवेक को गौर से देखने लगी. अभी भी काफ़ी तंदुरुस्त और स्मार्ट लग रहे थे. हम रोज़ मिलने लगे और फिर हमने शादी का फैसला कर लिया. रितु ने ख़ुशी-ख़ुशी हम दोनों की शादी करवाई, तो मैंने सोचा, जो काम 40 साल बाद करना है, वह आज ही कर लिया जाए.”

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मैंने अपना सिर पकड़ लिया. “उ़फ्! यह आज की जनरेशन. क्या सोचती है, क्या बोलती है, क्या करती है, इन्हें कुछ होश नहीं रहता और ऊपर से तुर्रा ये कि हम स्पष्टवादी हैं. साफ़ बोलना पसंद करते हैं. लेकिन हम यदि दो बातें स्पष्ट सुना दें, तो इनका पारा चढ़ जाएगा. सोचकर मैंने मुंह सिल लेना ही बेहतर समझा. बड़ी मुश्किल से तो शादी के लिए राज़ी हुई है.

धूमधाम से विवाह संपन्न हुआ और देखते ही देखते नाज़ों पली बिटिया पराई हो गई. नाम के अनुरूप ही विवेक बहुत समझदार लड़का साबित हुआ. रिया प्रोफेशनली बहुत साउंड थी, लेकिन घर-गृहस्थी के मामले में थोड़ी कच्ची थी, पर विवेक के प्यार और विश्‍वास ने कभी गृहस्थी की गाड़ी डगमगाने नहीं दी. रिया जिस तरह मुझसे फोन पर खुलकर लंबी-लंबी बातें करती थी, उससे साफ़ ज़ाहिर होता था कि दोनों के बीच अच्छी अंडरस्टैंडिंग थी. स़िर्फ एक बात मुझे खटकती थी. दोनों जब भी दो-चार दिन की छुट्टियां लेकर आते, विवेक अपने शहर अपने घर चल देता और रिया मेरे पास रुक जाती. रितु की शादी के बाद वे लोग अपने पैतृक शहर जाकर बस गए थे.

“तुम कभी अपनी सास के पास छुट्टियां बिताने नहीं जाती रिया? विवेक या उसके माता-पिता कभी कुछ कहते नहीं? और न विवेक ही कभी यहां रुकता है?”

“यह हम दोनों ने आपस में तय कर रखा है ममा. अब क्या है बड़ी मुश्किल से कितने ही महीनों में दो-चार दिन की छुट्टी मिलती है, तो वह अपने ममा-पापा के पास रहना चाहता है और मैं आपके पास. फिर विवेक की ममा आपकी तरह हाउसवाइफ़ थोड़े ही हैं, वे वर्किंग वुमन हैं. मैं जाऊंगी, तो उन्हें असुविधा होगी. रितु भी अपने ससुराल में है. मेरे न जाने पर मां-बेटे पहले की तरह आराम से अपना व़क़्त गुज़ारते हैं. घूमते हैं, मिलकर पकाते-खाते हैं और गप्पे लड़ाते हैं. मैं दाल-भात में मूसलचंद नहीं बनना चाहती. दूसरे, चार दिन की छुट्टी में भी मैं वहां चली गई, तो फिर आपके पास कब रहूंगी?”

“पर बेटी?”

“हम सभी एक-दूसरे की मजबूरी को समझते हैं और इसलिए कोई इसे अन्यथा नहीं लेता. आप भी इन छोटी-छोटी बातों को लेकर परेशान न हों ममा.” रिया के समझाने पर मैंने सहमति में गर्दन तो हिला दी थी, पर दिल आशंकित ही रहा.

आम कामकाजी महिला की तरह रिया की ज़िंदगी की गाड़ी भी घर और ऑफिस के बीच हिचकोले खाती चलने लगी. कभी बाई नहीं आई, कभी कुक ने छुट्टियां ले लीं, कभी हाथ में चोट लग गई, कभी विवेक से खटपट… इन सब पर ऑफिस में भी बढ़ती ज़िम्मेदारी और तनाव. मैं अपनी ओर से भरसक उसकी समस्या सुलझाने का प्रयास करती, मुश्किलों से जूझने का हौसला भी देती, पर ख़ुद अंदर से टूट जाती. नन्हीं मासूम-सी जान कितने-कितने मोर्चे एक साथ संभालेगी? दिल की बेहद साफ़ और भोली रिया अक्सर ऑफिस में चल रही पॉलिटिक्स से परेशान हो उठती थी. “समझ ही नहीं आता ममा किस पर भरोसा करूं और किस पर नहीं? किसको काम के लिए हां कहूं और किसे साफ़ इंकार कर दूं? लगता है, हर कोई मुझ पर ही हावी हो रहा है.” मैं उसे समझाने का प्रयास करती, “बेटी, ऐसा तो हर ऑफिस में चलता रहता है.”

“आपको क्या पता? आप कब ऑफिस गईं?” वह तुनक उठती.

“नहीं गई. पर तुम्हारे पापा से और दूसरे लोगों से सुनती तो रहती हूं न? सब जगह ये ही ढाक के तीन पात हैं, पर जिनमें प्रतिभा है, जो परिश्रमी हैं, वे हर परिस्थिति से निबट लेते हैं और अधिक निखरकर सामने आते हैं.”

“आप ठीक कहती हैं ममा.” रिया का आत्मविश्‍वास लौट आता, तो मेरा मन भी प्रसन्न हो उठता.

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सप्ताहांत में दो छुट्टियों का संयोग देखकर रिया और विवेक ने घर आने का कार्यक्रम बना लिया. सुनकर मेरा मन मयूर नाच उठा और मैं बड़े उत्साह से उनके आने की तैयारियां करने लगी. लेकिन अपनी तैयारियों पर मुझे जल्द ही विराम लगाना पड़ा. रिया को पता चला, तो वह भी उदास हो उठी.

“क्या ममा! मेरी और विवेक की तो छुट्टी भी मंज़ूर हो गई है.”

“तो ऐसा कर इस बार तू भी उसके साथ अपने ससुराल हो आ. बहुत समय से तेरा वहां जाना नहीं हुआ. अब क्या करूं बेटा, तेरी मौसी का ऑपरेशन नहीं होता और वो नहीं बुलाती तो हम इस दौरान कहीं नहीं जाते. अब ऐसे अवसर पर ना भी नहीं कह सकते. ज़रूरत पड़ने पर घरवाले काम नहीं आएंगे, तो और कौन काम आएगा?”

“नहीं, नहीं. आप निश्‍चिंत होकर जाइए. मैं विवेक के संग मेरठ ही हो आती हूं.” रिया का निर्णय सुन मुझे कुछ तसल्ली मिली.

छोटी बहन का ऑपरेशन निबटाकर मैं घर लौटी, तब तक रिया की छुट्टियां समाप्त हो चुकी थीं और वे लोग भी अपने शहर लौट गए थे. मुकुल को ऑफिस रवाना कर मैं सूटकेस, बैग आदि खाली करने लगी. तभी रिया का फोन आ गया. वह ऑफिस जा रही थी. चहकते हुए उसने बताया कि उसका ससुराल का कार्यक्रम बहुत मज़ेदार रहा. “मम्मीजी और पापाजी तो इतने ख़ुश थे ममा कि मैं आपको बता नहीं सकती. उन्होंने भी अपने-अपने ऑफिस से दो-दो दिन की छुट्टी ले ली थी. हम पूरा मेरठ घूमे. मम्मीजी कह रही थीं कि वे तो हमेशा से चाहती थीं कि मैं भी विवेक के साथ छुट्टियों में उनके पास जाऊं. पर मेरी इच्छा न जानकर संकोच के मारे चुप रह जाती थीं. बता रही थीं कि इस बार विवेक भी ख़ूब खिला-खिला लग रहा है, वरना हमेशा तो आकर बस सोया रहता है. कहीं चलने को कहते हैं, तो कहता है सब देखा हुआ तो है. मैं तो यहां थकान उतारने आया हूं. पर इस बार तो उसका घूमने और खाने की फरमाइशों का दौर ही ख़त्म नहीं हो रहा है. यूं लग रहा है, जैसे दो ही दिनों में तुझे सब कुछ दिखा और खिला देना चाहता है. घर में कितनी रौनक़ हो गई है…” रिया की आवाज़ की चहचहाहट बता रही थी कि वह कितनी ख़ुश है. मैं आनंद के सागर में गोते लगाने लगी. उसकी बातें थीं कि ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही थीं.

“और पता है ममा, उन्होंने मेरी ऑफिस संबंधी सारी समस्याएं चुटकियों में सुलझा दीं, जिन्हें आप भी नहीं सुलझा सकती थीं, क्योंकि आप वर्किंग नहीं हैं और विवेक भी नहीं सुलझा पाया था, क्योंकि वह वुमन नहीं है.” मैं अनायास ही मुस्कुरा उठी थी.

“उन्होंने मुझे घर और ऑफिस में तालमेल के इतने कारगर टिप्स बताए हैं कि मुझे सब कुछ बेहद आसान लगने लगा है. मम्मीजी तो वर्किंग वुमन होते हुुए भी घर को इतना सुव्यवस्थित और साफ़ रखती हैं कि मैं तो दंग रह जाती हूं. नौकर तो वहां भी हैं, पर उनसे काम लेने का भी एक तरीक़ा होता है, ये मुझे अब समझ आया. मैं उनसे विवेक की पसंद की कुछ डिशेज़ भी सीखकर आई हूं. और हां, उन्होंने मुझे एक बेहद ख़ूबसूरत घाघरा-चोली ड्रेस दिलवाई है, वो मैं नवरात्रि में पहनूंगी. मैंने और विवेक ने अब निश्‍चय किया है कि हम दोनों अब अपनी छुट्टियां ख़ुद को बांटकर नहीं, बल्कि छुट्टियों को बांटकर बिताएंगे. अगली छुट्टियों में विवेक भी मेरे साथ आपके पास रहेगा और लौटते समय हम दोनों दो दिन मेरठ रुकेंगे. क्यों ठीक है न ममा? आप तो हमेशा से यही चाहती थीं.”

“पर तू मानती कहां थी? तभी तो हमें जबरन मौसी के यहां जाना पड़ा.”

“जबरन? तो क्या मौसी का ऑपरेशन नहीं था?”

“अरे था. कैटरेक्ट (मोतियाबिंद) का छोटा-सा ऑपरेशन था. दो घंटे में करवाकर घर आ गए थे. उनकी बेटी लीना और दामादजी भी आए हुए थे. इसलिए ज़्यादा कुछ काम था ही नहीं. हम तो ऐसे ही अपनी तसल्ली के लिए चले गए थे.”

“ओह! तो मुझे सबक सिखाने के लिए यह योजना बनाई गई थी.”

“फिर क्या करती? मैंने फ्लैश फॉरवर्ड में देखा कि तेरे बार-बार अकेले आने से और विवेक के अकेले घर जाने से कोई भी ख़ुश नहीं था. पर तुम दोनों पति-पत्नी के निर्णय के बीच बोलकर कोई बुरा भी नहीं बनना चाहता था. बेटी, विवाह दो इंसानों का नहीं, दो परिवारों का मिलन होता है. दो इंसान निस्संदेह एक-दूसरे के साथ बेहद ख़ुश रह सकते हैं, लेकिन परस्पर जुड़ाव के लिए उसे दूसरे पक्ष से जुड़ी सभी चीज़ों से जुड़ना होता है. जैसे मुझे तुम अत्यंत प्रिय हो, तो तुमसे जुड़ा विवेक, उसके माता-पिता, भाई-बहन आदि स्वतः ही प्रिय लगने लगे. उनसे जुड़ाव तुम्हारे प्रति जुड़ाव बढ़ाएगा, घटाएगा नहीं. क्या तुम्हें नहीं लगता कि ससुराल से लौटने के बाद विवेक तुम्हें और भी ज़्यादा प्यार करने लग गया है?”

“हां ममा, बिल्कुल ऐसा ही है. मैं ख़ुद इस बदलाव पर हैरान हूं, पर तुम्हें कैसे पता चला?”

“अपनी फ्लैश फॉरवर्डवाली रील में मुझे सब कुछ साफ़-साफ़ नज़र आ रहा है.”

“ओह ममा, आपने तो मेरा तीर मुझ ही पर चलाकर मेरी ज़ुबान पर ताला लगा दिया है.” अपनी पराजय स्वीकारते हुए भी रिया की ख़ुशी छुपाए नहीं छुप रही थी.

    शैली माथुर

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