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कहानी- फुटबॉल (Short Story- Football)

“अर्थात मैं फुटबॉल बनूंगा... छह महीने एक पाले में तो छह महीने दूसरे में. और वैसे भी तुम दोनों होते कौन हो मेरे विषय में फैसला लेने वाले. अपने लिए फैसला लेने के लिए अभी मैं जीवित हूं और पूर्णत: सक्षम भी हूं...”

दो घंटे हो गए थे आज मुझे पार्क में अकेले बैठे हुए. सुबह की सैर करने के पश्‍चात घर वापस जाने का मेरा मन ही नहीं हुआ. रोज़ाना सुबह पार्क के चार-पांच चक्कर लगाकर उसके बाद वहां बने जिम में कुछ वक़्त गुज़ार कर फिर मैं घर वापस जाता था. ये दिनचर्या कहूं या फिर घर से बाहर अधिक समय बिताने का बहाना कहूं, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. जब से शांति मुझे छोड़ कर गयी है घर के भीतर तो मन बिल्कुल नहीं लगता था. अब तो अक्सर घर से बाहर निकलने के बहाने ही ढूंढता था. हर पल हृदय बाहर शांति और सुकून के लिए ललायित रहने लगा था. घर के बाहर हृदय और मन कुछ शांत रहते हैं. आज मेरी पत्नी शांति की तिमाही थी, अतः मन सुबह से ही अशांत था. घर के भीतर भी और बाहर भी. आज तो पार्क का भी सिर्फ एक चक्कर लगाया था और कदम जिम जाने के स्थान पर वहां लगे पलाश के वृक्ष के नीचे पड़ी बेंच पर स्वतः चल पड़े. ये पलाश का  वृक्ष मेरे और शांति के प्रेम का, आंसुओं का, ग़म का, ख़ुशी का, कहे-अनकहे संवादों का और न जाने कितने ऐसे क्षणों का साक्ष्य था. पूरे पार्क में ये एकमात्र पलाश का वृक्ष था, जिसकी बेंच पर हमने न जाने कितना वक़्त गुज़ारा था और कितने सुख-दुख, आंसू-मुस्कुराहटें साझा करके अपना हृदय हल्का करते थे. यहां बैठकर मुझे उसके होने का एहसास होता है. उसे पलाश के फूल अत्यंत प्रिय थे. उसके लाल रंग के फूलों और उनकी सुगंध से पूरा वातावरण सुगंधित हो जाता था. फूलों की सुगंध चलती बयार के साथ मिल कर हमारे साथ को और रमणीक बना देती थी.

उसका साथ छूटे हुए आज पूरे तीन महीने हो गए थे. इन तीन महीनों का हर पल युगों के समान बीता था.

हम उम्र के उस पड़ाव में थे, जहां इंसान को अपने जीवनसाथी की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है और यदि इनमें से कोई एक भी साथी उसका साथ छोड़ कर चला जाए, तो दूसरे के लिए उसका जीवन मरुभूमि के समान रुखा और नीरस हो जाता है. उसके लिए जीवन का शेष सफ़र तय करना अत्यंत कठिन हो जाता है. धीरे-धीरे वो अपनी संतान पर आश्रित हो जाता है. इस कलयुगी युग में माता-पिता संतान को बोझ लगने लगते है और अंत में माता-पिता एक फुटबॉल के समान हो जाते हैं. कभी इस पाले में तो कभी उस पाले में. अपनी ज़िम्मेदारी से भागने में उन्हें तनिक भी संकोच नहीं होता. यही इस युग का शाश्‍वत सत्य है.

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आज दिवगंत आत्मा की शांति के लिए घर में बच्चों ने पूजा रखी है. मंदिर से पंडित जी को बुला कर भोजन कराना था, इसलिए पकवान भी बन रहे थे, जिसमें शांति की पसंद के पकवानों को भी विशेष स्थान मिला था. सुबह जब सैर के लिए घर से निकल रहा था, तो बड़ी बहू ने टोकते हुए कहा था, “आज पार्क में देर मत कीजिएगा बाबूजी, आज मांजी की आत्मा की शांति के लिए पूजा रखी है.”

“और बाबूजी पंडितों को जिमाने के लिए मांजी के ही पसंद के पकवान बनाए हैं. ख़ासतौर पर मूंग की दाल का हलवा है. मांजी को मूंग की दाल का हलवा अत्यंत प्रिय था ना इसलिए.”

छोटी बहू ने ताल से ताल मिला दी. कह कर दोनों बहुएं रसोई में चली गयीं.

बहुओं की बात का कोई उत्तर न देते हुए बिना उनके मुख को देखे मैं सधे कदमों के साथ पार्क की तरफ़ निकल गया.

बहुओं के कहे शब्द “मांजी की पसंद के पकवान बनाए हैं और ख़ासतौर पर मूंग की दाल का हलवा...” मेरे कानों में पिघला शीशा घोल रहे थे.

आंखें अविरल बहने लगी थीं. इंसान के दोगलेपन का, उसके ढोंग से रू-ब-रू होकर हृदय अत्यंत पीड़ित हो गया. और अगर वो इंसान आपकी अपनी संतान हो, तो पीड़ा अधिक गहरी होती है. आज शांति के प्रिय पकवान और हलवा बना कर सबको खिलाए जाएंगे सुपुत्र कहलाए जाएंगे, परंतु उस दिन... अतीत मुझे अपनी ओर खींचने लगा. आंखों के सामने वो दिन चलचित्र की तरह चलने लगा.

“क्या बात है शांति... सुबह-सुबह भीनी-भीनी ख़ुशबू ने पूरे घर को महका दिया. क्या बना रही हो?”

“मूंग की दाल का हलवा.”

“मूंग की दाल का हलवा. किस ख़ुशी में भई?”

हलवे का नाम सुन कर मेरी आंखों में अजीब सी चमक आ गई थी. मूंग की दाल का हलवा मुझे अत्यंत प्रिय है और मुझसे अधिक शांति को प्रिय था. इस बात का शांति को भलीभांति ज्ञात था. अक्सर वो मेरी ख़ुशी के लिए मूंग की दाल का  हलवा बना देती थी. हलवा खा कर हम दोनों को असीम तृप्ति मिलती थी.

“ख़ुशी-वुशी कुछ नहीं. आपको पसंद है ना... बस इसलिए. जब तक मैं जीवित हूं आप खा लो, उसके बाद...”

इससे पहले वो अपना वाक्य पूरा करती मैंने उसके मुख पर हाथ रख दिया. हम दोनों भावविह्लल हो गए.

“कैसी बातें करती हो. अरे, अभी तो तुम्हें सौ साल जीना है. पोते-पोतियों को खिलाना है और...”

“मांजी, ये आप सुबह-सुबह क्या बना रही हैं. पूरा घर महक गया है.” बड़ी बहू ने हमारी वार्तालाप पर विराम लगा दिया

“वो मैं मूंग की दाल का हलवा बना रही हूं. तुम्हारे बाबूजी को बेहद पसंद हैं.”

“बाबूजी से ज़्यादा तो आपको पसंद है मांजी. मूंग की दाल के हलवे में घी की मात्रा बहुत होती है. डॉक्टर ने आपको ज़्यादा घी-तेल का सेवन करने के लिए मना किया है और आप हैं कि बाबूजी के बहाने...” छोटी बहू ने आकर ताल से ताल मिला दी.

“और नहीं तो क्या आप लोग तो स्वाद स्वाद में खा लेंगे, परहेज़ नहीं करेंगे और फिर...”

“और फिर क्या बड़ी बहू, जो कहना चाहती हो स्पष्ट कह दो.” मैं क्रोध से बोला.

“आप शांत रहिए और चलिए यहां से भीतर चलते हैं. खामाखां बात बढ़ जाएगी.” शांति मुझे शांत करने लगी.

“मैं क्यों शांत रहूं. अरे ये घर मेरा है मेरा. अभी मैंने किसी चीज़ का बंटवारा नहीं किया है. अगर हमें कुछ हो गया, तो मत लेकर जाना हमें डॉक्टर के पास. हम एक-दूसरे के लिए सक्षम हैं.”

“आप शांत हो जाइए.” वो मुझे शांत करते-करते अचानक गिर पड़ी.

हॉस्पिटल पहुंच कर डॉक्टर ने बताया, “हार्ट अटैक आया है और उनकी स्थिति अत्यंत गंभीर हैं. हम अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश कर रहे है, किंतु...”

“क्या डॉक्टर साहब..?”

“आप सभी दुआ कीजिए, बस कोई चमत्कार ही उन्हें जीवनदान दे सकता है.” डॉक्टर साहब कह कर चले गए.

मैं वही किंकतर्व्यविमूढ़ हो गया. आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा. पल-पल युगों के समान बीत रहा था. वक़्त मुट्ठी में से रेत की तरह फिसल रहा था. शांति के मुख से लेकर पैरों तक... उसका पूरा शरीर तरह-तरह की नलियों से लिपटा हुआ था. डॉक्टर अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश कर रहे थे. कहते हैं ना होनी बहुत बलवान होती है. अंत: जीवन और मृत्यु के युद्ध में विजय मृत्यु की हुई. शांति के जाने के बाद मैं मात्र एक चलती-फिरती काया बन कर अपनी शेष आयु पूर्ण कर रहा था. मैं अक्सर एकांत में सोचता की कितनी विचित्र विडंबना है नियति की जिस घर-परिवार को बनाने में, उसको सींच कर हरा-भरा करने में अपनी समस्त ख़ुशियां स्वाह कर देते हैं. वही परिवार जीवन के एक बिंदु पर आकर स्वार्थी हो जाता है. सोच पंगु हो जाती है और हम इसी भ्रम में इतराते हैं बुढ़ापे में सुकून भरा जीवन व्यतीत. करेंगे अर्थात अपनी रिटायर्ड लाइफ अपने परिवार के साथ ख़ुशी-ख़ुशी व्यतीत करेंगे, पर तब तक समय बहुत बदल जाता है. यही सपने लिए हम युवावस्था से बुढ़ापे तक आ जाते है. बाद में एहसास होता है कि उस पड़ाव तक आते-आते दो पीढ़ियों के बीच सोच का, रहने-सहने का एक बहुत बड़ा अंतर आ जाता है, जिसे हम चाह कर भी मिटा नहीं पाते. पहले हम अपने सभी शौक परिवार की ख़ुशी के लिए त्याग देते हैं और उसके बाद शौक हमें त्याग देते हैं. हम अपने जीवन में अपने आपको उसी मोड़ पर खड़ा पाते हैं, जहां से हमने अपना सफ़र शुरू किया था. बुढ़ापे के सफ़र में जीवनसाथी की सबसे अधिक आवश्यकता होती है और इसी सफ़र में तुम मुझे अकेला छोड़ कर चली गई शांति.

ये एकाकी जीवन बहुत कठोर और निर्दयी है शांति... मैं स्वसंवादों से घिरा हुआ था कि तभी “बाबूजी... आप अभी तक यहीं बैठे हैं. घर चलिए सभी प्रतीक्षा कर रहे हैं. पूजा में देर हो रही है.” बड़े बेटे निशांत ने आकर कहा.

मैं चुपचाप उठ कर कठपुतली की तरह उसके पीछे-पीछे चल दिया. पंडित जी के मंत्रोचारण से पूरा घर गूंज रहा था. मूंग दाल के हलवे की घर में घूमती भीनी सी महक मुझे भीतर तक कचोट रही थी. इसी हलवे के कारण आज मेरी पत्नी सामने हार चढ़े फ्रेम में सजी हुई है. मैं पूजा में मूक दर्शक बना बैठा रहा. सर्व सम्पन्न होने के बाद में बैठक में बैठा था. तभी मेरे दोनों बेटे निशांत और सुशांत अपनी-अपनी पत्नियों के साथ मेरे पास आए और बोले, “बाबूजी, आपसे कुछ बात करनी है.”

“बोलो निशांत, क्या बात है?”

“वो बाबूजी मेरा प्रमोशन हो गया है.” छोटे बेटे सुशांत ने बोला.

“अरे ये तो बहुत ख़ुशी की बात है.”

“पर पर बाबूजी...”

“ऐसी क्या बात है सुशांत, जो तुम कहने में हिचकिचा रहे हो.”

“वो बाबूजी, साथ में मेरा ट्रांसफर लखनऊ हो गया है और अगले पंद्रह दिन में मुझे वहां ज्वॉइन करना है. अभी फ़िलहाल हम कंपनी के दिए फ्लैट में शिफ्ट हो जाएंगे.”

“अरे ये तो अच्छी बात है ना... इसमें इतना हिचकिचकाने की क्या बात थी.” मैंने बात को नरम तरी़के से कहा.

“वो दरअसल बाबूजी... आप तो हमारी आर्थिक स्थिति से भली-भांति परिचित हैं और फिर अब तो सुशांत भी लखनऊ शिफ्ट हो रहा है, तो...” निशांत ने उसके सुर में सुर मिलाया.

“तो क्या बेटा..?”

“तो बाबूजी हमने फैसला किया है कि हम आपकी ज़िम्मेदारी बारी-बारी उठाएंगे...”

 “मतलब..?” मैंने अपने आपको संयतित करके पूछा.

“आप छह महीने यहां रहेंगे और छह महीने लखनऊ. इससे हम दोनों को आपकी सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त हो जाएगा और...”

“अर्थात मैं फुटबॉल बनूंगा... छह महीने एक पाले में तो छह महीने दूसरे में. और वैसे भी तुम दोनों होते कौन हो मेरे विषय में फैसला लेने वाले. अपने लिए ़फैसला लेने के लिए अभी मैं जीवित हूं और पूर्णत: सक्षम भी हूं... और रहा प्रश्‍न आर्थिक स्थिति का तो क्या बेटा मेरे छह महीने तुम्हारे पास ना रहने से तुम्हारी आर्थिक स्थिति मज़बूत हो जाएगी?.. क्या मेरा खाना-पीना इतना महंगा है?”

“नहीं बाबूजी आप ग़लत समझ रहे हैं, मेरे कहने का अर्थ...”

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“निशांत, तुम्हारे कहने का अर्थ तुम्हारी अंतरात्मा बेहतर जानती होगी. और वैसे भी तुम दोनों को मेरे विषय में चिंतित होने की कोई आवश्यकता नहीं है. मैंने अपने रहने के लिए जगह ढूंढ़ ली है.”

“आप कहां रहेंगे बाबूजी...” सुशांत ने उत्सुक्त होकर पूछा.

“वहां जहां मैं फुटबॉल ना बनूं. वृद्धाश्रम में...” एक सुकून भरी लंबी सांस भर कर मैं उठ कर अपना सामान पैक करने चल दिया.

कीर्ति जैन
कीर्ति जैन

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