कहानी- फ्रैक्चर (Short Story- Fracture)

मीनू त्रिपाठी

“मत पूछना उनसे कि उन्होंने झूठ क्यों बोला. छोटा बच्चा जब चोट खाता है, तब स़िर्फ दर्द के मारे नहीं रोता है, बल्कि ध्यान खींचने के लिए भी रोता है. इन दिनों तुम्हारा वहां जाना, उनके साथ समय बिताना, तुमसे अपनी
थोड़ी-सी मिजाज़-पुरसी करवाना उनकी वही बाल आकांक्षाएं हैं. बुढ़ापा बचपन का पुनरागमन है, तुमने नहीं सुना?”

केमिस्ट शॉप से निकलते ही प्रभास की नज़र सामने बनी पार्किंग में गाड़ी में बैठते बाबूजी के दोस्त कम फैमिली डॉक्टर वर्मा पर पड़ी. चार दिन पहले वह बाबूजी से मिलने घर आए थे. उनके लिए चाय बनाने उठे बाबूजी के पैर में असावधानी वश ठोकर लग गई. पैर की उंगलियों में तेज़ दर्द था, इसलिए डॉक्टर वर्मा ने उसी व़क्त उनको ले जाकर एक्सरे करवाया, तो पता चला फ्रैक्चर हुआ है. डॉक्टर वर्मा की निगरानी में ही बाबूजी की दवाई, मरहम-पट्टी चल रही है…
डॉक्टर वर्मा गाड़ी स्टार्ट करते, उससे पहले ही प्रभास ने वहां जाकर गाड़ी का शीशा खटखटा कर नमस्ते किया और मुस्कुराकर बोला, “आपसे मिलने को सोच रहा था, पर समय नहीं निकाल पाया. दरअसल, थैंक्स कहना चाह रहा था. आपकी वजह से…”
“तुम्हारे बाबूजी के पैर में चोट लग गई…” उन्होंने परिहास किया, तो वह झेंपता हुआ बोला, “अरे नहीं, ठोकर तो कैसे भी लग सकती थी. आपके सामने लगी, तो अच्छा रहा. कम से कम एक्सरे वगैरह सब समय पर हो गया.”
“तुम्हारे बाबूजी फोन पर बता रहे थे आजकल तुम रोज़ उनसे मिलने आते हो. आते रहा करो.” डॉक्टर वर्मा भेदभरी मुस्कान के साथ कह रहे थे, “बूढ़े शेर को देखा है कभी? शांत हो जाता है, कुछ दयनीय भी. मैं तो कहता हूं तारा को लेकर आ जाओ
उनके पास.”
“तारा को लेकर आ सकता, तो बात ही क्या थी… आपसे क्या छिपा है.” प्रभास की मनोदशा का ख़्याल कर डॉक्टर वर्मा ने बात बदलते हुए कहा, “चलो ध्यान रखो उनका. गनीमत थी फ्रैक्चर नहीं निकला. जिस तरह से उस दिन ठोकर लगी थी, मुझे लगा था पैर की उंगली में हेयरलाइन फ्रैक्चर तो ज़रूर होगा, पर वह भी नहीं निकला.”
“पर फ्रैक्चर तो…” वह कुछ कहता, उससे पहले ही पार्किंग वाले के गाड़ी बाहर निकालने के इशारे पर उन्होंने हाथ खिड़की से निकालकर प्रभास की ओर बढ़ाते हुए कहा, “घर आओ, किसी दिन बैठते हैं.” प्रभास ने यंत्रवत उनसे हाथ मिलाया और फिर उन्होंने गाड़ी बढ़ा ली.
प्रभास अवाक्-सा उन्हें जाता देखता रहा. उनके कहे शब्द ‘गनीमत है फ्रैक्चर नहीं निकला…’ ने उसे उलझा दिया. घर जाते समय रास्तेभर बीते दिनों के घटनाक्रम की रील उसकी आंखों के सामने चलती रही.

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उस दिन इतवार था… भरी दुपहरी में डोरबेल बजी, तो देखा जमना काकी थीं. जमना काकी पिछले 20 वर्षों से मां-बाबूजी के घर का काम करती आई हैं. तारा से कोर्ट मैरिज के बाद बाबूजी के कोप से तारा को बचाने के लिए पैतृक घर से लगभग आठ सौ मीटर की दूरी पर एक अपार्टमेंट में किराए पर फ्लैट ले लिया. तब मां ने काकी को उनके घर का काम करने को कहा. दोनों घरों का काम करनेवाली काकी वह पुल बन गई, जिस पर चढ़कर मां और वह ख़ुुद एक-दूसरे के जीवन में झांक लेते.


‘आज क्या बना, आज कहां गए दोनों? बनती तो है न दोनों में… घर में कौन-सी नई चीज़ आई…’ जैसी ख़बरें मां को जमना काकी से मिल जातीं और उसे मां की… कि वह आजकल बीमार रहने लगी हैं. उनका पुराना तपेदिक उभर आया है.
बाबूजी ने मां से कहा, “मैं उस लड़की का मुंह नहीं देखूंगा, पर तुझे उससे मिलने में ख़ुशी मिलती है तो मिल… कह दे उनसे कि तुझसे मिलने आ सकते हैं.” काकी घर की हर बात बताती.
दोनों घरों को अदृश्य डोर से बांधे रखनेवाली काकी को असमय आया देख मन आशंका से कांप उठा. बिना कुछ पूछे वह व्यग्रता से बोलीं, “अभी फोन आया था बाबूजी का. पैर में ठोकर लगी है. वो डॉक्टर वर्मा हैं न… मिलने आए थे. उनके लिए वह चाय बनाने उठे और पैर में कुर्सी लग गई. एक्सरे करवा आए हैं. फ्रैक्चर हुआ है.” यह सुनकर वह और तारा बेतरह घबरा उठे थे. बाबूजी को देखने उसके साथ तारा भी चलने को हुई, तो काकी ने टोका, “तुम काहे जा रही हो बिटिया… जानती तो हो. तुम्हें देखकर उनका दिमाग़ ख़राब हो जाता है. उलटा-सुलटा कुछ कह दिया, तो ऐसी हालत में न उनके लिए, न तुम्हारे लिए सही होगा.”
तारा के पैर इस चेतावनी पर ठिठक गए. भावावेश में वह बेचारी भूल गई कि डेढ़ साल पहले बाबूजी ने घर की डेहरी न लांघने की उसे क़सम दी थी. हालांकि मां की बीमारी के दौरान उन्हें लगने लगा था कि वह दिन दूर नहीं जब बाबूजी उन्हें गले से लगा लेंगे… पर वह दिन आता, उससे पहले मां चली गईं. उनकी तेरहवीं तक बाबूजी मौन रहे, पर तेरहवीं के दूसरे दिन भीतर दबा आक्रोश तारा पर फूट पड़ा. उसकी परोसी थाली झटके से सरकाकर खड़े हो गए और बोले, “अब तो ख़ुश है न… पहले बेटे को दूर किया, अब सास को खा गई.”
“बाबूजी…” वह तड़प उठा, तो वे जलती आंखों से उसे देखकर बोले, “मेरा मरा मुंह देखोगे, जो कभी इसे यहां लाया तो…” सहमी हुई तारा की तरफ़ नफ़रत भरी दृष्टि से देख बोले, “जा, चली जा… क़सम है तुझे मेरी, जो फिर कभी इस घर की डेहरी लांघी…” कहते-कहते वह अचानक गिर पड़े.
बाबूजी को अस्पताल ले जाने की नौबत आई. उस दौरान उसे महसूस हुआ मां उसके आसपास हैं और कह रही हैं, “उम्मीद थी तेरे बाबूजी बदल जाएंगे, पर ऐसा न हो पाया. अपनी क़सम दी है, तो ले जा तारा को यहां से… अपने पति का मैं मंगल चाहती हूं…”
तब उसने निराशा से तारा से कहा, “मां को खो दिया. इन्हें नहीं खो सकते. तुम घर जाओ मैं इनकी ख़बर भेजता रहूंगा.”
बाबूजी से मिला अपमान का कड़वा घूंट पीकर तारा ने ससुराल की डेहरी जो पार की, तो फिर वापस न लौटी. मां की ख़ुुशी और बीमारी की वजह से जो रास्ता थोड़ा खुला था, वह उनके जाने से पूरी तरह बंद हो गया. मोहल्ला-टोला, नाते-रिश्तेदार… स्वयं उसने भी कई बार उन्हें मनाने का प्रयास किया, पर वह ज़िद पर अड़े रहे. आख़िरकार वो जहां ख़ुश हैं, रहने दो… जीवन के इसी मूलमंत्र के साथ बाबूजी को उनके हाल पर छोड़कर परिस्थितियों से समझौता किया गया… ये क्या कम था कि उसके आने पर बाबूजी ने कभी कोई बंदिश नहीं लगाई.
उस दिन जब वह घर पहुंचा, तो बाबूजी बैठक की दीवान पर बड़े से कुशन पर पैर रखे गद्दी के सहारे अधलेटे से मानो उसी का इंतज़ार कर रहे थे.
“बाबूजी, दुनिया को ख़बर है कि आपके पैर में चोट लगी है, पर हमें जमना काकी से पता चल रहा है.” उसके उलाहने पर उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. कुछ देर वह वहीं बैठा रहा, फिर बोला, “चाय पिओगे…
बना लाऊं…”
“तू पिएगा तो पी लूंगा.” बाबूजी बोले.
उनके पैर को लेकर वह अथाह चिंता में डूबा रहा कि कैसे छह हफ़्ते निकलेंगे. घर आकर रातभर बेचैनी रही. सुबह भोर ही में उनसे फिर मिलने पहुंच गया.
“इतनी सुबह क्यों, सब ठीक तो है?” बाबूजी ने विस्मय से पूछा, तो वह कुछ उखड़कर बोला, “ठीक ही तो नहीं है
आपका पैर…”
“क्या मेरे पैर के पीछे अपनी नींद-चैन सब उड़ा लेगा. जा, चाय बना दे. आज तेरे साथ पी लेता हूं…” स्नेहसिक्त उलाहने के साथ बाबूजी के चेहरे पर चमक आ गई थी.
तब से पिछले चार दिनों से यही रूटीन चल रही है. सुबह-सुबह की चाय उनके साथ पीता है. ऑफिस से सीधे बाबूजी के पास जाता है. एक-दो घंटा रुककर घर आता है. कई बार मन में आया कि उन्हें साथ रहने को बोले, पर अव्वल तो वह चलेंगे नहीं… और जो यह असंभव संभव में बदला, तो तारा के साथ उनका रूखा व्यवहार उसकी गर्भावस्था की उस अंतिम स्टेज के लिए जिसमें मानसिक शांति और प्रसन्नता चाहिए… सही न होगा, सोचकर टाल गया.
जिस फ्रैक्चर को लेकर वह इन दिनों दोनों घरों के बीच चकरगिन्नी बना है, वह फ्रैक्चर तो है ही नहीं… वह हैरान था.
“मुझे झूठ से नफ़रत है प्रभास… जब तुम्हें निधि से शादी करनी ही नहीं थी, तो क्यों इतने दिन अंधेरे में रखा…” झूठ से नफ़रत करनेवाले बाबूजी इतना बड़ा झूठ कैसे और क्यों बोल गए. अतीत की आंधी उसे उड़ाकर उस कालखंड में ले गई, जब तारा से उसके प्रेम का खुलासा हुआ था.
बाबूजी उस पर दहाड़ रहे थे, “बोल, बोलता क्यों नहीं, इतने दिन हमें अंधेरे में क्यों रखा… ख़ुद पर काबू रखना चाहिए. याद रखना चाहिए तुम्हारी शादी तय हो चुकी है.”
“शादी तय कब हुई कभी सोचा है. छह साल का मैं और पांच साल की निधि… और प्लीज़ यह मत बताने लगना कि हम कभी गुड्डे-गुड़िया खेलते मम्मी-पापा बन जाया करते थे और आप लोग ख़ूब हंसते थे.”
“पर मैंने अपने परम मित्र को ज़ुबान
दी है.”
“अब आप ज़ुबान खुलवाने पर विवश ही कर रहे हैं, तो सुन लीजिए आपके परम मित्र की बेटी यानी निधि भी किसी को प्यार करती है.”
“क्या कह रहा है!” मां आंखें फाड़े उसे देख रही थीं.
“ये सच है मां… क़रीब सालभर पहले निधि ने बताया, जब मैं तारा को लेकर गिल्ट में था.”
“हे भगवान!” मां ने माथा पकड़ लिया और बाबूजी दीवान पर लगभग ढह गए… कुछ देर चुप्पी साधकर बोले, “कौन है वो लड़की! कुल-गोत्र क्या है… मां-बाप कौन हैं… कहां के हैं?”
वह घुटनों के बल बैठ गया था और अपना माथा दीवान से टिकाते हुए बोला, “बाबूजी, कुल-गोत्र देखकर प्यार नहीं हुआ. मां-बाप कौन हैं… कहां के हैं पता नहीं, माने हैं भी या नहीं…”
उसकी उलझी-उलझी बातों पर मां की त्योरियां चढ़ गईं.
“क्या बकवास कर रहे हो तुम?”
“तारा अनाथाश्रम में पली-बढ़ी है.” उसने बताया, तो मां विचलित हो बोलीं, “हे प्रभु, तो अब ये दिन भी देखना पड़ेगा. किसका गंदा खून है… जायज़-नाजायज़, जाति-धर्म कुछ नहीं पता. न… न… ये नहीं चलेगा…”
मां एकदम से बाबूजी बन गईं और
बाबूजी पत्थर…
मां-बाबूजी का रवैया देखकर उसे कोर्ट मैरिज ही एकमात्र विकल्प नज़र आया. मां ने इकलौते बेटे की पसंद को आख़िरकार स्वीकार लिया, पर बाबूजी…
अतीत के वन में भटकता वह कब घर आया और कब डोरबेल पर उंगली रख दी, जान ही न पाया. सामने खड़ी तारा को देख मानो होश आया. अंदर आकर सोफे पर निढाल बैठते हुए बोला, “आज डॉक्टर वर्मा मिले थे. कह रहे थे बाबूजी के पैर की उंगलियों में फ्रैक्चर है ही नहीं… समझ में नहीं आया कि बाबूजी ने फ्रैक्चर वाली बात क्यों बोली… ग़लती मेरी भी है, जो एक्सरे रिपोर्ट को लेकर डॉक्टर वर्मा से बात नहीं की. पूछूंगा उनसे क्यों झूठ बोला…”


तारा बिना कोई प्रतिक्रिया दिए रसोई में चली गई. चाय लेकर आई, तो उसे शून्य में निहारते देख बोली, “मत पूछना उनसे कि उन्होंने झूठ क्यों बोला. छोटा बच्चा जब चोट खाता है, तब स़िर्फ दर्द के मारे नहीं रोता है, बल्कि ध्यान खींचने के लिए भी रोता है. इन दिनों तुम्हारा वहां जाना, उनके साथ समय बिताना, तुमसे अपनी थोड़ी-सी
मिजाज़-पुरसी करवाना उनकी वही बाल आकांक्षाएं हैं. बुढ़ापा बचपन का पुनरागमन है, तुमने नहीं सुना?”
प्रभास ने प्रतिक्रिया नहीं दी, तो वह उसके हाथों को थामकर बोली, “तुमने बाबूजी से कब पूछा था कि वो अकेले कब तक रहेंगे…”
“याद नहीं…”
“ये सही है क्या?”
“छोड़ो ये सब… वैसे भी कल से उनके पास जाना नहीं होगा…” प्रश्‍नवाचक नज़रों से ताकती तारा से वह बोला, “बताया तो था, चार दिन की वर्कशॉप है. दिल्ली जाना होगा.”

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तारा का चेहरा उसके जाने की बात सुनकर बुझ गया, तो वह बोला, “चार दिन की बात है और तुम्हारी डिलीवरी डेट तीन हफ़्ते बाद की है. फिर जमना काकी तो हैं ही.”
प्रभास ने बहुतेरा ढाढ़स बंधाया, पर अकेले रहना उसे अंदर से आशंकित कर रहा था. आजकल वह अलग-सा अनुभव कर रही है… एक परिवर्तन उसके भीतर तैयार हो रहा था, जिसके लिए वह अभी तैयार नहीं थी. प्रभास का जाना ज़रूरी था. उसे कुछ कहकर वह परेशान नहीं करना चाहती थी.
प्रभास के दिल्ली जाने के बाद जहां तारा आशंकित थी, वहीं बाबूजी भी परेशान थे. इन दिनों रोज़ आने वाला प्रभास चार दिन से नहीं आया. जमना काकी कोई न कोई बात उस घर की छेड़ ही देती थीं, पर आजकल वह भी चुप रहती हैं.
आज तो हद ही हो गई. दोपहर के 12 बज गए और जमना काकी अभी तक घर नहीं आईं. बाबूजी ने फोन किया, तो वह भी नहीं उठाई. उन्होंने चाय बनाकर पी ली. फल-दूध से पेट भर लिया, तब 11 बजे के आसपास वे आईं.
बाबूजी ने नज़रें तरेर कर उन्हें देखा, पर बोले नहीं… उम्मीद थी कि वह देर से आने की कुछ सफ़ाई देंगी, पर हुआ उलटा… बाबूजी को देखकर वह माथे पर हाथ रखकर बोलीं, “क्या क़िस्मत पाई है बिटिया ने. मां-बाप का सुख नहीं भोगा. पड़ी हैं लावारिस-सी अस्पताल में… खैर बता दूं कि दादा बन गए हो… पोती हुई है.”
बाबूजी पहले तो सन्न से जमना काकी को ताकते रहे. फिर, ‘कब..?’ किसी तरह उनके मुंह से निकला, तो वे बोलीं, “सुबह गई, तो दर्द से बेहाल थी. पड़ोसी ले गए… उसी में देर हो गई. कपड़ा-लत्ता जो समझ में आया लेकर अस्पताल गई, तब तक बच्ची हो गई थी.”
“वाह बहुत ख़ूब. बच्ची हुई और प्रभास ने बताना मुनासिब नहीं समझा.”
“वो हों तब तो बताएं.”
“मतलब! कहां है प्रभास?”
“क्या जाने, कुछ काम से बाहर गांव गए हैं. उन्हें इत्तिला कर दिया है. पहुंचनेवाले थे. शायद आ भी गए हों.”
“हे भगवान हद है लापरवाही की. ऐसी दशा में कौन पत्नी को छोड़ता है और जो जाना इतना ज़रूरी था, तो किसी को ज़िम्मेदारी सौंप देता.”
“तारा की ज़िम्मेदारी किसे सौंप देता बाबूजी?” सहसा प्रभास की आवाज़ कानों में पड़ी, तो वे चौंक कर पलटे. कुछ कहते उससे पहले ही वह बोला, “आपने तो तारा को घर की डेहरी न लांघने की क़सम दे दी. वो भी अपनी… आप पिता हैं, तो आपका मंगल तो सोचना ही है, वरना मां को क्या मुंह दिखाऊंगा.”
“तेरी मां को मैं क्या मुंह दिखाऊंगा प्रभास…” बाबूजी भीगे स्वर में बोल
रहे थे.
“घर में लक्ष्मी आई और स्वागत में कोई खड़ा नहीं था. ये पाप तूने मेरे सिर पर क्यों डाला है. बता जाता तो कम से कम…”
“कम से कम क्या होता… आप इस कान से सुन लेते, पर इस घर में आने की इजाज़त तो न देते.” प्रभास भर्राए स्वर में बोला और बाबूजी निशब्द ज़मीन को घूरते रहे. अचानक प्रभास ने उनका हाथ थामकर पूछा, “देखने चलेंगे?”
क्षणांश मौन के बाद उन्होंने न में गर्दन हिलाई. चेहरा बना-बिगड़ा, फिर भरे गले से किसी तरह बोले, “लेने चलूंगा.”
उन्हें सीने से लगाकर प्रभास फुसफुसाया, “खाली पोती को..?”
“पागल है क्या. उसे भी जिसका
दोषी हूं.”
“और क़सम?..”
“पोती को लेकर डेहरी लांघने को थोड़े मना किया था. क़सम तो कट ही गई… और न भी कटी हो, तो अभी कौन-सा ज़िंदा हूं.”
“बाबूजी…” विचलित हो उसने अपना हाथ उनके मुंह पर रख दिया और आनंद के अतिरेक में उनके पैर छूने झुका, तो नज़र पट्टी बंधी उंगलियों पर गई. वह मुस्कुराया… और मन ही मन बोला, ‘इस फ्रैक्चर ने तो बहुत कुछ जोड़ दिया…’ जमना काकी बहुप्रतीक्षित दृश्य देख अपनी आंखें धोती से पोंछते
हुए घर की लक्ष्मी के आगमन की तैयारी में जुट गईं.

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