वो फोन पर किसी से हंसकर बात कर रही थी, "अरे, अब बहुत आराम है. वंश की भी चिन्ता नहीं रहती. सौरभ की मां ने बहुत अच्छे से घर संभाल रखा है… इसलिए ही तो उनको गांव से यहां ले आए कि उनको पैसा भेजना और यहां कामवालियों के पैसे देना दोनों बच रहे हैं और काम भी अच्छा हो रहा है. और वंश की देखभाल भी, वो भी बिल्कुल मुफ़्त. फ्री में फुल टाइम मेड मिल गई है, वरना इन मेड के नखरे तो उफ़… तंग आ गई थी मैं. तब हम लोगों ने ये रास्ता निकाला…" इसके आगे तो शारदाजी सुन न सकीं.
"सौरभ, उठो ना, देखो तो मम्मीजी कहां रह गई हैं. नौ बजनेवाले हैं, अभी तक नहीं आईं. वैसे तो रोज़ आठ बजे तक आ जाती थीं, पर इधर दो-तीन दिन से रोज़ आधा घंटा देर से आती हैं, पर आज तो एक घंटा हो गया अभी तक नही आईं." नेहा ने अपने पति सौरभ से कहा.
"कहां गई होंगी… अभी आ जाएंगी, तुम परेशान न हो." सौरभ ने उत्तर दिया.
"अरे परेशान कैसे न होऊं अभी नाश्ता भी तैयार नहीं है और बाकी सारा काम भी वैसै ही पड़ा है. अभी तक कामवाली भी नही आई है. अब मै काम देखूं या ऑफिस जाऊं. मेरे ऑफिस का भी टाइम हो रहा है और मेरा टिफिन-नाश्ता वगैरह कुछ भी तैयार नही है. हद है लापरवाही की भी." नेहा खीझकर बोली.
सौरभ, "तुम परेशान मत हो. लाओ मैं तुम्हारी मदद करता हूं, वरना तुम्हें ऑफिस के लिए लेट हो जाएगा."
नेहा, "मेरी मदद की छोड़ो, अपनी मां की फ़िक्र करो, पता नहीं कहां रह गई हैं. मैं तो कहती हूं आज ही उनसे बात करो कि ये सब क्या है. कहां जाती हैं आजकल."
सौरभ, "जाएंगी कहां, कही बातचीत में व्यस्त हो जाती होंगी."
नेहा, "क्या पता? आजकल तो किसी को भी कुछ कहा नही जा सकता. जवान की तो छोड़ो बूढों के भी रंग-ढंग अलग हैं."
सौरभ ग़ुस्से में, "मतलब! क्या कहना चाहती हो तुम?"
नेहा, "मैं कुछ नहीं कह रही. अपनी मां से बात करो कहां रहती हैं इतनी देर आजकल." कहते हुए नेहा अपने काम में लग गई.
ये बात हो रही है शारदाजी के बारे में, जो पति के देहावसान के बाद गांव से शहर अपने बेटे-बहू के साथ रहने आई हैं.
"गांव में अकेले कैसे रहोगी…" ये कहकर उनका बेटा उन्हे अपने साथ शहर ले आया था.
जब से शारदाजी आई थीं धीरे-धीरे घर के सारे काम की ज़िम्मेदारी उन पर ही आ गई थी. सौरभ उनका इकलौता बेटा और नेहा उनकी बहू दोनों ही मल्टीनेशनल कम्पनी में नौकरी करते थे. वंश उनका ढाई साल का पोता प्ले स्कूल जाता था. उसे छोड़ने और लाने की ज़िम्मेदारी भी शारदाजी के ही कंधों पर ही आ गई थी. पहले तो घर के सभी कामों के लिए कामवाली आती थी और एक फुल टाइम मेड रखी हुई थी, जो पोते वंश की भी देखभाल करती थी. पर एक के बाद एक करके सबकी छुट्टी कर दी गई थी कि वो सही से काम नहीं करती हैं. बस, एक बर्तन और साफ़-सफ़ाईवाली आती है.
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ख़ैर शारदाजी अपना ही घर है, बेटा-बहू, पोते हैं ये सोचकर पूरे घर की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले रखी थी. पर इतना सब करने के बाद भी उनकी घर मे इज्ज़त नहीं थी. नेहा तो कभी सीधे मुंह बात ही नहीं करती थी. उसे तो सिर्फ़ उनके काम से ही मतलब था. अपने बेटे सौरभ के मुंह से प्यार के दो बोल सुनने को भी तरस कर रह जाती थीं.
पर एक दिन तो नेहा को फोन पर बात करते हुए उन्होंने जो सुना, वो उनके लिए असहनीय हो गया था. वो फोन पर किसी से हंसकर बात कर रही थी, "अरे, अब बहुत आराम है. वंश की भी चिन्ता नहीं रहती. सौरभ की मां ने बहुत अच्छे से घर संभाल रखा है… इसलिए ही तो उनको गांव से यहां ले आए कि उनको पैसा भेजना और यहां कामवालियों के पैसे देना दोनों बच रहे हैं और काम भी अच्छा हो रहा है. और वंश की देखभाल भी, वो भी बिल्कुल मुफ़्त. फ्री में फुल टाइम मेड मिल गई है, वरना इन मेड के नखरे तो उफ़… तंग आ गई थी मैं. तब हम लोगों ने ये रास्ता निकाला…" इसके आगे तो शारदाजी सुन न सकीं.
असहनीय पीड़ा हुई उन्हें. क्षुब्ध हो गया था उनका मन यह सोचकर कि जिसे वह अपना घर, बेटा-बहू समझ रही थीं उनके लिए उनका कोई महत्व ही ना था. उनकी स्थिति घर मे सिर्फ़ एक फुल टाइम मेड की थी. बहू को क्या दोष दे उनका ख़ुद का बेटा भी उनका सम्मान नहीं करता था. कितने प्यार और उत्साह से वो इस घर को संभाल रही थीं, पर नेहा की बात सुनकर वे अत्यंत दुखी हो गई थीं. वे चुपचाप बिना नेहा को आभास कराए कि वो उसकी बात सुन चुकी हैं अपने काम में लग गई थीं.
शारदाजी के पति सुरेन्द्रजी एक किसान थे. दूसरे की ज़मीन पर खेती का काम करते थे. उसी के मेहनताने से उनका घर चलता था. ख़ुद की कोई ज़मीन-जायदाद थी नहीं, एक-दो कमरे का छोटा-सा अपना मकान ही था.
सौरभ उनकी इकलौती संतान शादी के ग्यारह सालों बाद काफ़ी मन्नतों के बाद हुआ था. वे दोनों सौरभ की परवरिश में कोई कमी नहीं चाहते थे. अपना पेट काटकर भी उसकी सारी इच्छा पूरी करते थे. वे दोनों चाहते थे कि उनका बेटा पढ़-लिख जाए और बहुत बड़ा आदमी बन जाए. और सौरभ भी उनकी उम्मीदों पर खरा उतरा था. गांव के स्कूल में हमेशा पढ़ाई में अव्वल आता था. स्कूल की पढ़ाई के बाद शहर आ गया. कॉलेज मे दाख़िला लिया. पढ़ाई मे अव्वल रहने के कारण स्कॉलरशिप मिलती थी. कॉलेज के बाद इंजीनियरिंग की और एक मल्टीनेशनल कम्पनी मे बतौर इंजीनियर सिलेक्ट हो गया. सौरभ ने फोन कर उन्हें बताया था नौकरी के बारे में, जिसे सुनकर वे दोनों बहुत ख़ुश थे. शारदाजी ने उससे कहा, "बेटा, अब तो कुछ दिन के लिए घर आ जा. कितने दिन हो गए हैं तुम्हें देखे हुए."
सौरभ, "क्या मां, अभी तो नौकरी मिली है अभी से छुट्टी ना मिलेगी. छह महीने बाद देखता हूं. छुट्टी मिलते ही आऊंगा. क़रीब आठ महीने बाद सौरभ आया दो दिन के लिए. मां-बाबूजी के लिए ख़ुशख़बरी लेकर कि वो एक लड़की को पसंद करता है और अगले महीने दोनों शादी कर रहे हैं. शादी की बात सुनकर दोनों पति-पत्नी अवाक रह गए थे. अपने इकलौते बेटे की शादी को लेकर उन दोनों के सारे अरमान धरे के धरे रह गए थे.
लेकिन सौरभ की ख़ुशी के लिए वह दोनों मान गए. ना मानने का प्रश्न ही नहीं था, क्योंकि सौरभ ने अपना फ़ैसला सुना दिया था.
"अरे बेटा, इतनी जल्दी शादी का इंतज़ाम कैसे होगा?" शारदाजी ने सौरभ से पूछा.
"मां, तुम्हें इंतज़ाम को लेकर परेशान होने की कोई ज़रूरत नहीं है. शादी शहर में होगी. वहां नेहा के पिता ही शादी का सारा इंतज़ाम कर रहे हैं. अगले महीने आप दोनों को वहां आशीर्वाद देने चलना है."
ख़ैर, अगले महीने शहर जाकर विवाह सम्पन्न कराकर दोनों गांव लौट आए थे. उसके बाद शहर जाना ना हुआ. दोनों पति-पत्नी अकेले ही रहते थे.
सौरभ हर माह कुछ पैसे भेज देता था, पर दोनों कभी भी गांव नही आते थे. बस, फोन से ही बात होती थी कभी-कभी. ख़ैर दोनों इस उम्र में भी एक-दूसरे के साथ के सहारे जीवन गुज़ार रहे थे, पर पति की मृत्योपरांत सौरभ गांव का मकान बेचकर उन्हें अपने साथ शहर ले लाया था कि अब वो शहर में उसके साथ रहेंगी.
आज भी शारदाजी अपने पोते वंश को छोड़ने प्ले स्कूल गई थीं, तब से एक घंटा हो गया अभी तक नहीं आई थीं. इसी कारण से नेहा खीझ रही थी, क्योंकि अभी तक कोई भी काम नहीं हुआ था.
तभी शारदाजी ने घर मे प्रवेश किया.
"अरे मां, कहां रह गई थीं आप. हम दोनों कितने परेशान थे." सौरभ ने कहा.
"हां बेटा, परेशान तो हो ही गए होगे तुम लोग, क्योंकि अभी तक घर का कोई काम जो नहीं हुआ…" शारदाजी ने कहा.
"अरे मां, यह कैसी बातें कर रही हैं आप. मुझे तो इस बात की चिंता हो रही थी कि इस अनजान शहर में इतनी देर कहां लगा दिया आपने. कहीं रास्ता तो नहीं भूल गईं." सौरभ ने कहा.
"मुझे ख़ुशी हुई ये सुनकर बेटा कि तुझे अपनी बूढ़ी मां की इतनी चिन्ता है. जुग जुग जियो मेरे लाल… पर अब अपने घर को संभालो तुम लोग, क्योंकि मैं जा रही हूं." शारदाजी ने सपाट लहजे मे उत्तर दिया.
"जा रही हैं, मगर कहां और क्यों?.." सौरभ और नेहा एक साथ बोल उठे.
शारदाजी के जाने की बात सुनकर नेहा और सौरभ दोनो ही चौंक गए थे.
नेहा के तो चेहरे का रंग ही जैसे उड़ गया था ये सोचकर कि अब घर और वंश को कौन संभालेगा और सारे काम कैसे होंगे.
जब से शारदाजी आई हैं, तब से तो वो घर मे तिनका भी नही हिलाती थी. सारे काम और वंश की देखभाल सब शारदाजी ही करती थीं और वे दोनों निश्चिंत थे और कामवालियों को दिया जाने वाला पैसा भी बच रहा था.
"पर मां! आप कहां जाएंगी? अब तो गांव का मकान भी नहीं है और इस उम्र में आप अकेले कहां रहेंगी… आपको यहां क्या परेशानी है?" सौरभ ने पूछा.
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"बेटा, तुम्हें इस सबकी चिन्ता करने की कोई ज़रुरत नहीं है. मेरे रहने और खाने-पीने सबकी व्यवस्था हो गई है."
"क्या… कहां रहेंगी आप?" सौरभ ने आश्चर्यचकित होकर पूछा.
"वो मुझे एक डे केयर में काम मिल गया है. वेतन भी अच्छा देंगे और साथ ही रहना-खाना भी. कल से मैं वहीं जा रही हूं."
"क्या आप डे केयर में काम करेंगी और वहीं रहेंगी. ये आप क्या कह रही हैं मां! कम से कम मेरी इज्ज़त के बारे में तो सोचा होता. शहर में मेरी कितनी इज्ज़त है और उसे धूल में मिला रही हैं." सौरभ ग़ुस्से में बोला.
"अच्छा मांजी, इसी वजह से आजकल आपको देर हो रही थी. आपको अगर यहां कोई परेशानी है, तो हमें बताइए, पर आप यहीं रहिए. क्यों इस तरह के काम करके हमारी बदनामी कराना चाहती हैं आप." नेहा भी सौरभ के सुर मे सुर मिलाते हुए बोली.
नेहा की बात सुनकर शारदाजी मुस्कुराई और बोलीं, "बहू, काम तो काम होता है और फिर वहां काम करके मैं सम्मान के साथ रह सकूंगी और फिर फुल टाइम मेड से तो मुझे ये काम ज़्यादा अच्छा लगा, जितने घंटे की नौकरी उतने ही घंटे काम करना होगा."
शारदाजी की बात सुनकर नेहा के चेहरे का रंग उड़ गया था, वो एक भी शब्द ना बोल पाई.
"और हां! तुम लोग अपनी बदनामी की चिंता मत करो. आख़िर तुम्हारी मां हूं, अपने बच्चों की बदनामी हो ऐसा कैसे सोच सकती हूं. मैं इस शहर से दूर दूसरे शहर जा रही हूं, जहां तुम्हें कोई नही जानता." शारदाजी सौरभ और नेहा की ओर मुखातिब होकर बोलीं और अपने कमरे में चली गईं. सौरभ-नेहा अवाक खड़े देखते रह गए थे.
- रिंकी श्रीवास्तव
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