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कहानी- घोंसला (Story- Ghosla)

“नहीं बीबीजी! ये चिड़िया जानती थी कि एक दिन बच्चे उड़ जाएंगे. देखो उस चिड़िया को न कोई दुख है, न संताप. इंसान और चिड़िया में यही फ़र्क़ है. हम बच्चों को इस उम्मीद से पाल-पोसकर बड़ा करते हैं कि ये हमारे बुढ़ापे का सहारा बनेंगे और हम अपना पूरा जीवन उनके वापस आने की आस में गुज़ार देते हैं. आख़िर हमारी ख़ुशियां बच्चों की मोहताज क्यों हैं? क्या हमें स्वयं अपनी ख़ुशियां ढूंढ़ने का हक़ नहीं है?”

 

“बीजी! खाना लगा दूं?” तीसरी बार आकर पूछा लाजो ने. “नहीं! मेरा मन नहीं है. ऐसा कर ये खाना तू खा ले. बचा हुआ खाना घर ले जा, बच्चे खा लेंगे.” मैंने कहा. मन नहीं था खाने का. दीवारों को ताकते हुए कौर निगलने में उकताहट होने लगी है. लाजो ने खिड़की के परदे हटा दिए. कमरे में रोशनी फैल गई, लेकिन मन के अंधेरे का क्या करूं? आदित्य के जाने के बाद ह़फ़्तेभर से स्वयं को इस कमरे में कैद कर लिया है.
“खाने का मन नहीं है तो मैं चाय बना लाती हूं.” लाजो ने मनुहार से कहा तो मैं इंकार न कर सकी. सांय-सांय करती इस कोठी की नीरसता को स़िर्फ मेरे और लाजो के शब्द तोड़ते हैं. ह़फ़्ते भर पहले इस कोठी की दीवारें हंस रही थीं, बोल रही थीं, खिलखिला रही थीं आदित्य, रचना और बच्चों के साथ. साल भर इन्हीं पलों का इंतज़ार रहता है. हंसी, ठहाकों और किलकारी से गूंजती है कोठी, जब ये लोग छुट्टियों में लंदन से भारत आते हैं. उन चंद दिनों में पूरी ज़िंदगी जी लेती हूं. ऐसा लगता है जैसे जीवन की गति लौट आई है.
इस बार आदित्य आया तो ज़िद पकड़ ली, “मम्मी! आप मेरे साथ चलो, वहीं रहना. यहां अकेली रहती हो तो मुझे भी चिंता लगी रहती है.”
“बरगद की जड़ों को उखाड़कर नई जगह लगा सकते हैं भला! तेरे पापा की यादें बसी हैं इस घर में.” बड़ी मुश्किल से समझाया था उसे. इस शर्त पर ज़िद छोड़ी थी उसने कि अगली बार उसके साथ लंदन चलूंगी. उसका मन रखने के लिए ‘हां’ कह दिया था मैंने. एक बार गई थी लंदन. यहां आकर उसने मेरा पासपोर्ट-वीज़ा बनवाया और ले गया मुझे अपने साथ. मैं भी यही चाहती थी. यहां अकेले रहकर यादों की जुगाली करने से बेहतर था पोते-पोती के साथ शेष जीवन काटना. आदित्य की इच्छा थी कि जाने से पहले ये कोठी बेच दूं. “आप तो हमारे साथ रहोगी, फिर इस कोठी का क्या करना? इसे बेच देते हैं. मैंने प्रॉपर्टी डीलर से बात कर ली है. अच्छी क़ीमत मिल रही है.” आदित्य ने कहा, लेकिन न जाने क्यों मेरा मन नहीं माना. “अपनी मिट्टी से इतनी जल्दी मोह नहीं छूटता बेटा! मेरी आंख इसी कोठी में बंद होगी.” इसके बाद उसने कोठी बेचने का कभी ज़िक्र नहीं किया.
“बीबीजी चाय!” लाजो टेबल पर चाय का कप रखकर चली गई. अपनों के बीच जाकर बेहद ख़ुश थी मैं. लेकिन हमारी ख़ुशी की परिभाषाएं अलग थीं. आदित्य और रचना सुबह ऑफ़िस निकल जाते और बच्चे स्कूल. मैं दिनभर घर में अकेली रहती. एकाकीपन दूर करने के लिए मैंने रसोई की बागडोर अपने हाथ में ले ली. उस दिन नाश्ते में परांठे देखकर रचना ने टोका था, “मम्मी! अगर आप बच्चों को रोज़ इस तरह परांठे खिलाती रहीं तो वो ओवरवेट हो जाएंगे. कितनी कैलोरीज़ होती हैं इसमें. हमारी हेल्थ के लिए भी ये परांठे ठीक नहीं हैं.” पिज्ज़ा शायद कैलोरीज के सांचे में फ़िट बैठता था.
बच्चों की अपनी अलग दुनिया थी. कार्टून चैनलों ने दादी-नानी की कहानियों को पीछे छोड़ दिया था. भूख लगने पर ही उन्हें मेरी याद आती. मेरे लिए यही काफ़ी था. टूटी-फूटी हिन्दी में जब वो पोहा या उपमा की फ़रमाइश करते तो मैं गठिए का दर्द भूलकर रसोई में जुट जाती. ऐसा लगता जैसे आदित्य का बचपन लौट आया है. मैं उनका स्कूल बैग जमा देती. उनका कमरा ठीक कर देती. व्यस्तता के ये पल मुझे अपार ख़ुशी देते. “मम्मी! तुम इन बच्चों का काम मत किया करो. इन्हें अपना काम ख़ुद करने दो.” आदित्य ने मुझे स्कूल बैग रखते हुए देखकर कहा था. “क्यों, जब तू छोटा था तो क्या मैं तेरा काम नहीं करती थी?” हंस दी मैं.
“तब बात अलग थी. आप हाउसवाइफ़ थीं. रचना वर्किंग वुमन है. उसे घर और ऑफ़िस दोनों संभालना पड़ता है. ऐेसे में अगर ये बच्चे आलसी हो गए तो उस पर काम का बोझ बढ़ जाएगा.” आदित्य ने समझाया था मुझे. लेकिन वो शायद नहीं समझ रहा था कि ये बच्चों के साथ कुछ पल बिताने का बहाना है. इन्हीं पलों के लिए तो मैं सात समंदर पार आई हूं.
अपनों के बीच अकेली हो गई थी मैं. दिनभर रिमोट हाथ में लेकर चैनल खंगालती रहती. एक बार इत्तेफ़ाक़ से कोई हिन्दी धार्मिक चैनल मिल गया तो ख़ुश हो गई मैं. रोज़ दोपहर में चैनल पर भजन आते थे. चैनल की आवाज़ ऊंची कर मैं मंत्रमुग्ध होकर भजन सुनती और गुनगुनाती. कुछ दिनों बाद पड़ोसियों ने आकर आदित्य से शिकायत की. “आपके घर में रहनेवाली ओल्ड लेडी दोपहर में ऊंची आवाज़ में म्यूज़िक चलाती है. हमें डिस्टर्ब होता है. इसे बंद करवाइए, वरना हम पुलिस से आपकी शिकायत करेंगे.”
“मम्मी! ये इंडिया नहीं, लंदन है. यहां ज़िंदगी नियम से चलती है.” एक बार फिर आदित्य नेे समझाया. भावनाएं और सुख-दुख भी नियम के ग़ुलाम हो जाएं तो ऐसी ज़िंदगी का क्या मतलब. अपनी जड़ों की याद सताने लगी थी. भाग-दौड़ भरी इस ज़िंदगी में शब्दों के लिए कोई जगह नहीं थी. रिश्तों की नाज़ुक डोर में कहीं गांठ न लग जाए, इसलिए कहने से डरती थी कि मैं वापस जाना चाहती हूं. जानती थी आदित्य सबसे पहले यही सवाल करेगा, “आपको यहां कोई तकलीफ़ है क्या?” मन की पीड़ा कैसे कहती? कुछ नहीं चाहिए मुझे सिवाय दो प्यारभरे शब्दों और कुछ पलों के.
बनारस से बड़ी ननद का फ़ोन आया था, “बेटे की शादी है. तुम लोग ज़रूर आना.” “इतनी लंबी छुट्टी लेना फ़िलहाल मुमकिन नहीं है. बच्चों के एक्ज़ाम्स भी चल रहे हैं.” रचना ने मजबूरी बताई. “हमारा जाना पॉसिबल नहीं है तो आप चले जाइए.” आदित्य ने कहा तो मैं फौरन मान गई. यही तो चाहती थी मैं. बनारस से मैं सीधी दिल्ली आ गई. आदित्य ने कई बार फ़ोन किया, “आप वापस कब आ रही हो?” हर बार कोई न कोई बहाना बनाकर टाल देती मैं उसे. कभी गठिए का दर्द तो कभी लंदन का मौसम. मन नहीं हुआ वापस जाने का. वहां अपनों के बीच भी अकेली थी मैं और यहां पराए लोगों ने अकेलेपन का एहसास नहीं होने दिया. फिर भी मन भला बच्चों के बिना मानता है कहीं? साल भर उनके आने की राह ताकती हूं. इस बार आदित्य से पूछा था मैंने, “यहां नौकरी नहीं मिल सकती क्या?” “लोग विदेश जाने के लिए तरस रहे हैं. अगर मैं नौकरी छोड़कर यहां आ गया तो इससे बड़ी मूर्खता और क्या होगी? और फिर यहां क्या रखा है?” आदित्य ने कहा तो मन में हूक-सी उठी, ‘क्या यहां मैं नहीं हूं?’
“बीबीजी! आज तो मैं इस घोंसले को तोड़कर ही दम लूंगी.” लाजो की आवाज़ से मेरी तंद्रा टूटी. लाजो झाड़ू लेकर ग़ुस्से से रोशनदान की तरफ़ देख रही थी. पूरे कमरे में तिनके, रस्सी के छोटे-छोटे टुकड़े और कपड़े की रंग-बिरंगी कतरनें फैली पड़ी थीं. रोशनदान पर चिड़िया घोंसला बनाने की तैयारी कर रही थी.
लाजो झाड़ू लेकर स्टूल पर चढ़ गई. न जाने कहां से चीं-चीं करती हुई चिड़िया आ कर घोंसले के आसपास मंडराने लगी. मैंने चिड़िया को ग़ौर से देखा. उसकी गोल-गोल आंखें मानो कह रही थीं, मत उजाड़ो मेरा आशियाना. मेरा दिल पसीज गया. सूने आशियाने का दर्द मुझसे बेहतर कौन समझ सकता था. “बीबीजी! आप देखना ये चिड़िया दिनभर चीं-चीं करके शोर मचाएगी. कचरा फैलाएगी सो अलग.” लाजो ने तर्क दिया. “कोई बात नहीं. तेरे और मेरे अलावा अब कोई तो शोर करेगा.” मेरी बात सुनकर लाजो हंस दी.
मैं रोज़ उस घोंसले को देखती. लगाव हो गया था मुझे उस घोंसले से. रोशनदान से छनकर आती सूरज की किरणों से नहाया घोंसला बेहद ख़ूबसूरत लग रहा था. ऐसा लगता जैसे प्रकृति ने स्वयं सधे हाथों से इसका निर्माण किया है. शाम को चिड़िया अपने इस आशियाने के लिए चोंच में दबाकर कुछ न कुछ ज़रूर लाती- रस्सी के टुकड़े तो कभी रंग-बिरंगी पन्नी. अक्सर वो ट्यूबलाइट पर बैठकर अपने घोंसले को निहारती. तब उसकी आंखों में संतुष्टि के भाव देखे थे मैंने.
इधर कुछ दिनों से चिड़िया दिन में कई बार घोंसले के चक्कर काट रही थी. चीं-चीं का शोर भी बढ़ गया था. लाजो ने कमरे की सफ़ाई करते हुए घोंसले में झांक कर देखा, “चिड़िया ने अंडे दिए हैं बीबीजी!” वो ख़ुश होकर चिल्लाई. काफ़ी दिनों बाद मन को सुकून मिला था.
घोंसले की सुरक्षा को लेकर मैं चिंतित हो गई. मन में डर बना रहता कि कहीं गली में क्रिकेट खेलते बच्चों की गेंद आशियाना न उजाड़ दे. लाजो मुझे चिंतित देख मुस्कुराती, “आप चिंता मत करो. कुछ नहीं होगा इस घोंसले को.” मैं उस दिन का इंतज़ार कर रही थी, जब इस आशियाने में चहचहाहट सुनाई देंगी.
दिन में कई बार मैं उस कमरे में जाती, इस आस में कि शायद आज चहचहाहट सुनाई दे. कुछ दिनों से गठिए का दर्द भी बढ़ गया था. चलने में असहनीय पीड़ा होती. सुबह-शाम लाजो से तेल की मालिश करवाती. इसके बावजूद दिन में एक बार घोंसले को देखना न भूलती. न जाने कैसा लगाव था उस आशियाने से.
शाम को लाजो भागती हुई आई, “बीबीजी! अंडे में से बच्चे निकल आए हैं. पूरे तीन हैं तीन.” गठिए का दर्द भूलकर मैं कमरे की तरफ़ दौड़ी. पलंग पर चढ़कर उचक कर देखने लगी. तीन छोटी-छोटी चोंच दिखाई दे रही थी. मातृत्व की ऊर्जा से अभिभूत चिड़िया फुदकती हुई पूरे कमरे में मंडराकर नए मेहमानों के आने का संदेश दे रही थी. लाजो ने शाम को हलवा बनाया. आदित्य के जाने के बाद पहली बार मन से हलवे का स्वाद चखा था.
नन्हें बच्चे शाम को चिड़िया के इंतज़ार में भूख से व्याकुल चीं-चीं करते तो मन होता मैं स्वयं जाकर उनकी चोंच में दाना डाल दूं. लाजो मेरी इस सोच पर हंस देती. उन बच्चों के साथ मैं भी चिड़िया का इंतज़ार करती. बच्चों की भूख शांत होने के बाद ही मेरे गले से निवाला उतरता. उनकी चोंच अब घोंसले के बाहर तक पहुंचने लगी. मां के बाहर जाने पर तीनों अपने नाज़ुुक परों को फैलाते और डर कर वापस खींच लेेते.
कुछ दिनों से गठिए का दर्द फिर उभरने लगा. इस दर्द के साथ बुख़ार ने भी जकड़ लिया. बेचारी लाजो! दिन-रात मेरी सेवा करती. ह़फ़्ते भर बिस्तर से न उठ पाई. “आंटीजी! आपको तन के इलाज से ज़्यादा मन के इलाज की ज़रूरत है. आपकी दवा तो आदित्य है. उनके पास चली जाइए. सारा मज़र्र् छू मंतर हो जाएगा.” डॉक्टर ने दवाई के साथ सलाह दी थी. शायद वो ठीक कह रहा था. सूनी दीवारों ने शरीर को खोखला कर दिया है. सांय-सांय करती इस कोठी में घबराहट होने लगी है.
“मम्मी! मैं वीज़ा का इंतज़ाम करता हूं. आप चिंता मत करो. मैं आपको लंदन के सबसे बड़े डॉक्टर को दिखाऊंगा.” आदित्य ख़ुश हो गया मेरा फैसला सुनकर.
काफ़ी दिनों बाद आज उस कमरे में जाना हुआ. रोशनदान से सीधी आती धूप ने घोंसले की याद दिलाई. उजाड़ और सूना घोंसला देखकर मन को धक्का-सा लगा. गुलज़ार आशियाना पल भर में वीरान हो गया. लाजो झाड़ू लेकर आ गई. “रहने दे लाजो! मत फेंक इस घोंसले को. देख बेचारी चिड़िया कितनी उदास है.” पंखे पर बैठी चिड़िया की तरफ़ मैंने देखा. “नहीं बीबीजी! ये चिड़िया जानती थी कि एक दिन बच्चे उड़ जाएंगे. देखो उस चिड़िया को न कोई दुख है, न संताप. इंसान और चिड़िया में यही फ़र्क़ है. हम बच्चों को इस उम्मीद से पाल-पोसकर बड़ा करते हैं कि ये हमारे बुढ़ापे का सहारा बनेंगे और हम अपना पूरा जीवन उनके वापस आने की आस में गुज़ार देते हैं. आख़िर हमारी ख़ुशियां बच्चों की मोहताज क्यों हैं? क्या हमें स्वयं अपनी ख़ुशियां ढूंढ़ने का हक़ नहीं है?” लाजो की बात सुनकर मैं हैरान रह गई. अशिक्षित स्त्री ने अनजाने में मुझे जीवन का पाठ पढ़ा दिया. फुर्र से उड़ गई चिड़िया रोशनदान से निकलकर. खुले आसमान ने उसे अपनी बांहों में समेट लिया.
उस आसमान की तलाश में जुट गई मैं. लाजो के साथ मिलकर पूरी कोठी की सफ़ाई कर डाली. सारी खिड़कियां खोल दीं. ताज़ी हवा का झोंका चुपके से झांकने आया. ऊपरवाले दोनों कमरों के सामान को स्टोर रूम में श़िफ़्ट कर दिया. कोठी के बाहर बोर्ड लगा दिया ‘घोंसला’. दूसरे शहरों से पढ़ने आई लड़कियां अपने अभिभावकों के साथ इस घोंसले में थोड़ी-सी जगह की तलाश में पहुंच गईं. “आंटीजी! प्लीज़ मुझे ऊपरवाला कमरा दे दीजिए.” “मैं अपना बिस्तर खिड़की के पास लगाऊंगी.” “मैं और मेरी सहेली एक ही कमरे में रहेंगे आंटीजी!” लड़कियों के इस शोर में जीवन की लय सुनाई दे रही थी. लय के साथ मैं स्वयं भी गतिमान थी.
नई उमंग और नया जोश भर दिया था इस लय ने. गठिए के दर्द ने भी हार मान ली. दिनभर मैं उनकी फ़रमाइशें पूरी करने में जुटी रहती. कॉलेज से आने के बाद उनकी बातें सुनकर समय का पता ही नहीं चलता.
“मम्मी! आप ये किस चक्कर में पड़ गईं. आजकल लोगों का कोई भरोसा नहीं है और फिर ये आराम करने के दिन हैं आपके.” आदित्य नाराज़ हो गया. आराम तो अब मिला है उकताहट से, गठिए के दर्द से, घर में पसरे सन्नाटे से.
आज मेरा ‘घोंसला’ खिलखिला रहा है. हंस रहा है. बोल रहा है लड़कियों के साथ, लाजो के साथ. और … और मेरे साथ.

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        शिप्रा विज

 

Meri Saheli Team

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