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कहानी- हाय हाय ईगोे (Short Story- Haye Haye Ego)

Dr. Neerja Srivastava 'Neeru'
डॉ. नीरजा श्रीवास्तव 'नीरू'

अम्माजी और पापाजी के चारों धाम से लौटने से पहले प्रत्यूष यह बात समझ लें, तो बेहतर है कि पत्नी भी उसके जैसे ही हाड़-मांस की बनी बुद्धि रखनेवाली एक इंसान होती है. अम्माजी तो पापाजी के चीखने-श्रापने से डर जाती हैं, वे मेरी बात नहीं मानेंगी, पर मैं प्रत्यूष को छोटा दुर्वासा तो बनने नहीं दूंगी… छोटा दुर्वासा..! वह अपनी नाम कल्पना पर हंस पड़ी.

प्रत्यूष बड़ा चिढ़ा-सा बैठा सोच रहा था- अब तक तो अम्मा ने पापा के आगे कितने तरह के पकवान सजा दिए होते. सुबह-शाम आगे-पीछे घूम-घूम करके कितनी ही बार माफ़ी मांग चुकी होती. मगर आर्या तो बिल्कुल मस्त है. मैंने आज फिर ग़ुस्से से जो कह क्या दिया कि तुम्हारे हाथ का खाना नहीं खाना, जाने क्या बनाती हो. पर अब तो उसे कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ रहा. मैं खाना खाऊं या ना खाऊं… आज हफ़्तेभर हो गए. मैंने तो अपना रौब झाड़ने के लिए यूं ही कह दिया था.
“नई-नई है, थोड़ा दबा के रखना होगा…”
“कंट्रोल करके रखना…” सबने यही समझाया था. घर में देखा भी ऐसा ही था. इसीलिए तो पढ़ी-लिखी पर नॉन वर्किंग संस्कारी पत्नी लाया कि पति परमेश्‍वर से डरेगी, हर बात मानेगी. मगर ये तो पकवान बना-बना कर अकेले ही उड़ाए जा रही है.
हलुए की सोंधी सुगंध उसके नथुनों में भर रही थी, तो मुंह में पानी आ गया. ज़ुबान छटपटाने लगी. पर कैसे कहूं कि मुझे भी दो, ईगो जो आड़े आ रहा था. कल लंच में राइस और दहीवाली स्मूद कढ़ी बनाई थी मेरी पसंदीदा! उफ़्फ़… और इसने डिनर भी चंक्स मटर पुलाव का किया था. परसों समोसे, दही भल्ले का प्रोग्राम था इसका. नरसों मालपुए. तरसों. वह आर्या की हफ़्तेभर से बनाई डिशेज़ को मन मसोस के याद करता रहा.
पापा की दाल जैसे अम्मा के आगे गलती रही, वैसा ही सोचा था मेरी भी… पर… इससे आगे तो मेरी बिल्कुल ही नहीं गल रही. उस दिन जो मैंने परोसी थाली दीवार पर दे मारी, तो मेहमानों के आने से पहले मुझे ही साफ़ करना पड़ा. उसने तो मुस्कुराते हुए दो टूक में कह दिया, “तुमने गंदगी मचाई है. तुम ही जानो और जाने तुम्हारे आ रहे मेहमान. मैंने तो घर एक बार सुबह चमका दिया था.”
किस मिट्टी की बनी है ये हाउसवाइफ. तभी समझ जाना चाहिए था. पर… बिना बात के पापा की तरह यूं मेरा ग़ुस्सा दिखाना शायद सही नहीं. ज़माना बदल गया है. लड़कियां पढ़ी-लिखी होने के साथ समझदार व तर्कपूर्ण भी हो गई हैं. जॉब करें या न करें. मुझे ख़ुद पर ही
कंट्रोल करना होगा, वरना बाहर का खा-खाकर मर जाऊंगा. बनाती भी तो ख़ूब है. रोज़ ही
कोई बढ़िया डिश… आज भी बाहर का टेस्टलेस खाना खाया ही नहीं गया. अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत… आइडिया… उसने चुटकी बजाई. अभी सारा चुगा मतलब खाया तो होगा नहीं उसने. फ्रिज में कुछ रख तो छोड़ा होगा. वो अपने टीवी में मस्त है, तो मैं जाकर चेक करता हूं… वाह! समोसा, गुलाब जामुन, कस्टर्ड… उसने हाथ बढ़ाया ही था कि रुक गया. एक ही समोसा, एक ही गुलाब जामुन… पकड़ा जाऊंगा, तो क्या इज़्ज़त रह जाएगी? बेटा, कहां गई अकड़? ये प्लेटफार्म पर ढंक कर रखा क्या है? ओह लच्छा परांठा, मसालेदार भिंडी, पनीर भुर्जी और रायता… कैसी ज़ालिम है जानबूझकर मुझे चिढ़ाने के लिए रखा है.


“कुछ चाहिए था?” अचानक आर्या की आवाज़ सुनकर ढक्कन गिरते-गिरते बचा. उसने हड़बड़ा कर ढंक दिया. “न नहीं… उ… उधर कॉक्रोच जा रहा था. कल हिट छिड़क लेना पूरे किचन में. तुमने क्या सोचा मैं…” घबराहट में यही सूझा उसे, वह अकड़ से बोला.
वह पानी पीकर आंखों में पकवानों का सपना लिए बिस्तर में औंधा जा गिरा. आर्या स्थिति का आनंद लेते हुए खाना लेकर टेबल पर आ गई. उसका दूसरा सीरियल शुरू होने जा रहा था. जबसे प्रत्यूष ने उसके हाथ का खाना बंद किया है, तब से उसने दस बजे का एक टाइम बना लिया, ताकि इससे पहले अगर वो मांगे, तो वो खाना आराम से दे सके. सामान्यतया वह इसी समय डिनर कर लिया करती.
जब तक सास-ससुर उनके पास थे, तो आर्या उनके कहने से न चाहते हुए भी अपनी ग़लती न होने पर भी हर बार प्रत्यूष का मनुहार कर लिया करती. परन्तु उसे ग़लत के लिए मनुहार करना सही
नहीं लगता.
ऐसे ही लाड़ में तो लड़कों के दिमाग़ सातवें आसमान पर पहुंच जाते हैं. कुछ तो किसी को करना ही चाहिए. अम्माजी और पापाजी के चारों धाम से लौटने से पहले प्रत्यूष यह बात समझ लें, तो बेहतर है कि पत्नी भी उसके जैसे ही हाड़-मांस की बनी बुद्धि रखनेवाली एक इंसान होती है. अम्माजी तो पापाजी के चीखने-श्रापने से डर जाती हैं, वे मेरी बात नहीं मानेंगी, पर मैं प्रत्यूष को छोटा दुर्वासा तो बनने नहीं दूंगी. छोटा दुर्वासा..! वह अपनी नाम कल्पना पर हंस पड़ी.
हां पापाजी को दुर्वासा ऋषि ही कहना चाहिए. कुछ मन का न हो, तो झट अम्माजी को, उनके खानदान को श्रापने-कोसने बैठ जाते हैं. दुर्वासा ही तो हैं मानो. काश, अम्माजी समझ सकें कि पापाजी अपने को ही कभी वरदान भी दे लिया करें, जो अपनी दिव्य शक्ति पर इतना विश्‍वास है. बोलूंगी अम्माजी को तो उनका डर शायद ख़त्म हो.

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सप्ताह और बीत गया पर प्रत्यूष का ईगो कम न हुआ.
आख़िर मैं पति हूं, उसको ही मनाने आना चाहिए. पापाजी को आने दो, फिर ठीक हो जाएगी. तब तक पेटदर्द का नाटक करता हूं, शायद तब पिघल जाए खाना पूछने आए. मैंने भी तो जाने क्यों बढ़कर बॉस के साथ डांस करने को बोल दिया, तो उसने मना कर दिया और मुझे ग़ुस्सा आ गया. घर आकर मैंने इसकी अच्छी ख़बर ली थी.
“कीड़े पड़ेंगे तेरे भाई को… उसका ऑस्ट्रेलिया वीज़ा नहीं हो पाएगा. तेरे हाथ का खाना ही नहीं खाऊंगा.”
“पर हुआ क्या?” बात मेरे पर ही उल्टी पड़ी. “मुझ तक तो ठीक है, पर यह भाई कहां से आ गया. चलो ठीक है. अब जब तक तुम ख़ुद नहीं बोलोगे, तब तक मैं तुम्हारा खाना नहीं बनाऊंगी. कई बार पापाजी, अम्माजी के सामने ये धमकी देख चुकी हूं तुम्हारी… उनके लिहाज़ के कारण उनके कहने पर मैंने तुमसे माफ़ी भी मांग ली, पर अब उनके आने पर भी नहीं बनाऊंगी, जब तक ख़ुद बोलोगे नहीं.”
“तुम्हारी मां को ही बनाने की तमीज़ नहीं, तुम क्या… क्या… ही बनाती हो और क्या बनाओगी. मैं तुमसे अब कहूंगा बनाने को इस ख़ुशफ़हमी में मत रहना…”
“सोच लो अम्माजी भी नहीं हैं.”
“सोच लिया, तुम्हारे खानदान की तरह बिना दिमाग़ का नहीं हूं.”
“ठीक है. बहुत बढ़िया, ओके..!”
“हुं…” ग़ुस्सा दिखाकर प्रत्यूष पास रखे स्टूल पर किक मार के चला गया था.
आज सेकंड सैटरडे है. कल भी छुट्टी है. पेट में दर्द है का बहाना ठीक है. घर का खाना दे ही देगी. वह बिस्तर पर आड़े-तिरछे होकर दर्द का बहाना करने लगा.
“क्या हुआ, जाग गए?” आर्या ने खाली मग, चाय, शुगर के सेशे रखते हुए, इलेक्ट्रिक कैटल पानी डालकर ऑन
कर दी थी.
“तड़प क्यों रहे हो? दर्द हो रहा
है क्या?”
“हां, थोड़ी वोमिट और लूज मोशन… पेट में दर्द…”
“डॉक्टर को फोन करती हूं.”
“अरे नहीं ऐसा भी नहीं है…”
“तड़प तो इतना रहे हो. अच्छा मैं पुदीन हरा और हॉट वॉटर बैग लेकर
आती हूं.”
फिर तो प्रत्यूष को ज़बरदस्ती गर्म पानी से सिंकाई करनी पड़ी. नाक बंद करके किसी तरह से उसने पुदीन हरा गटका और न… न… करते हुए भी शेष दवाइयां खानी न पड़ जाएं, वह घबराकर उठ बैठा.
“मैं अब बेहतर फील कर रहा हूं.” वह झट चाय बनाने लगा.
“ब्रेड या बिस्किट ले लो. खाली चाय मत पियो… मैं लाती हूं.”
“नहीं नहीं!”
“अरे वह मेरे हाथों की थोड़े ही बनी है. मार्केट की है…” कहकर वह मुस्कुराई.
खा-पीकर फिर लेट गया.
“मुझे डिस्टर्ब मत करना. थोड़ा आराम कर लूंगा अभी, तो ठीक हो जाऊंगा.”
उसने जानबूझकर अपने लिए खिचड़ी बनाई. क्या पता वास्तव में दर्द हो और वह मांगे. खिचड़ी के पांच यार दही, घी, भरता, पापड़, अचार… वह मन ही मन मुस्कराई, मुझे तो ये भी पसंद है.
पर प्रत्यूष के लिए तो स़िर्फ खिचड़ी थी. वह भी मूंग की.
बारह बजे डोरबेल बजी थी.
“अरे, प्रदीप भैया आप और दीया भाभी… बिना बताए अचानक… वाओ!” आर्या ने दरवाज़ा खोला, तो प्रत्यूष के कज़न प्रदीप भैया-दीया भाभी को देखकर ख़ुशी से बोल उठी.
“हां, दीया की फ्रेंड की शादी है कल. सोचा नहीं था, पर बस गाड़ी उठाई चले आए. बताया नहीं कि सरप्राइज़ देंगे तुम्हें… हा हा… चाचा-चाची तो होंगे नहीं. चारों धाम की यात्रा पर गए हैं मालूम है. पर हमारे प्रत्यूषजी कहां हैं सेकंड
सैटरडे को?”
“बैठिए ना भैया बुलाती हूं. थोड़ा पेट में दर्द था उनको सुबह से. दवाई देकर आई थी. डिस्टर्ब करने को मना किया था. काफ़ी सो लिए. अब जगा देती हूं.”
“अरे नहीं… अपने आप उठने दो. हम लोग तो इतनी जल्दी भागनेवाले नहीं.”
“थोड़ा नहाकर फ्रेश हो लेता हूं, फिर चाय पीऊंगा पहले…”
“जी… भाभी आप उधर दूसरे बाथरूम में चले जाइए. आप भी फ्रेश हो लीजिए. मैं तब तक चाय बनाती हूं.”
चाय सर्व करने के बाद आर्या ने पूछा, “क्या खाएंगे बताइए?”
“बनाया क्या है तुमने आर्या, पहले ये बताओ?”
“प्रत्यूष की तबीयत ठीक नहीं थी, इसलिए बस खिचड़ी बनाई थी मूंग की.”
“अरे यार मूंग की खिचड़ी कौन खाएगा. उसे खाने दो. अभी क्या बनाओगी ऑर्डर ही कर देते हैं.” उन्होंने आपस में राय कर खाना स्वीगी से ऑर्डर कर
दिया था.
“अरे तुमने मुझे उठाया ही नहीं. बताना तो चाहिए था भैया-भाभी आए हैं आख़िर…” प्रत्यूष ने आकर दोनों के चरण छुए थे.
“ख़बर तो कर दी होती आप दोनों ने… लंच तैयार मिलता.”
“अरे मैंने ही मना किया था तुम्हें डिस्टर्ब ना करें. अब कैसी तबीयत है? पेट का क्या हाल है?”
“खाने की कोई चिंता नहीं भैया. ऑर्डर कर दिया है. आप आराम से बैठिए.”
दीया बोली.
खाना आ चुका था. आर्या गर्म कर डोंगे में खिचड़ी भी ले आई.
“हां भाई तुम तो अपनी खिचड़ी खाओ. हम लोग यहां वैसे भी शादी में आए हैं. बातों का सिलसिला घर से शुरू कर लेते हैं. काश तुम्हारी तबीयत ठीक होतीे. बहुत बढ़िया ख़ुशबू आ रही है. बहुत लज़ीज़ है, पर नहीं तुम तो नहीं खाओगे. घी, मक्खन, मसाला बहुत होता है इनमें, नुक़सान करेगा पेट को.”
प्रत्यूष बड़े पशोपेश में पड़ गया. भैया-भाभी के सामने कह भी नहीं सकता था कि आर्या के हाथ का खाना नहीं खा रहा है इन दिनों और ना ही पेट दर्द का बहाना करने से वह ऑर्डर पर आए खाने को ही खा सकता था.

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“सोच क्या रहे हो प्रत्यूष. लो
गरम-गरम खिचड़ी दही के साथ खा लो. पेट बिल्कुल ठीक हो जाएगा. फिर जाकर आराम करो.”
प्रदीप ने खिचड़ी का डोंगा उसके आगे बढ़ा दिया था.
उसने घूर कर आर्या को देखा, तो आर्या की हंसी छूटते-छूटते बची.
“क्यों भाई, उसे क्यों घूर रहे हो. बाकी कुछ तुझे नहीं मिलेगा. चुपचाप अपनी खिचड़ी ख़त्म कर.” प्रदीप-दीया हंसे थे.
मन मारकर उसको खिचड़ी खानी ही पड़ी. न घी मिला, ना पापड़-अचार. केवल खिचड़ी और दही. रात को तो शादी में ही जाना था. प्रदीप-दीया आर्या को भी साथ ले गए. प्रत्यूष कुढ़ कर रह गया.
कैसे इठला रही है महारानीजी. सिर फूटे इसका. लेकिन मुस्कुराते हुए उन्हें बाहर छोड़ने आना पड़ा,
“बाय एंजॉय!”
दूसरे दिन भैया-भाभी निकल गए, तो आर्या ने उससे पूछा, “अब मेरे हाथ का खा तो लिया. प्रतिज्ञा टूट गई छोटे दुर्वासाजी. मैं अपना खाना बनाने जा रही हूं. तुम्हें खाना हो तो बोल दो.”
“कोई प्रतिज्ञा नहीं टूटी, वो तो भैया-भाभी की वजह से मैंने खा लिया. कुछ बोला नहीं, वरना ऐसी बेइज़्ज़ती होती उनके सामने तुम्हारी कि होश ठिकाने आ जाते. पति खा नहीं रहा और पत्नी खाना उड़ाए जा रही है. ज़रा भी शर्म-संकोच नहीं. पाप लगेगा तुम्हें.”


“हाय ईगो… मेरा ईगो… अब भी सीधे-सीधे नहीं कह सकते कि मैं खाऊंगा.” वह हल्के से मुस्कुराई.
“जैसी मर्जी अपने आका.”
डेढ़ महीने बीत गए थे.
ऐसे कब तक चलेगा. मैं फ़ालतू में एक्स्ट्रा बनाकर रखती हूं प्रत्यूष के लिए कि अभी कहेगा कि खाना दे दो. पर नहीं ज़िद्दी, अकड़ू है. हाय हाय इनका ईगो… और फिर सारा बासी दूसरे दिन ख़ुद को खाना पड़ता है. इनके लिए तो फ्रेश ही बनाकर रखती हूं. हद हो गई. आर्या
सोचने लगी.
मुझे फिर पकवान भी बनाने की क्या ज़रूरत है. एक राउंड मार के बाज़ार में मैं भी खा लिया करूंगी चटर-पटर कभी मन किया तो. कॉलोनी से बाहर निकलते ही बहुत सारी दुकानें सजी रहती हैं. कहीं भी कुछ भी खा लो. साथ में नीतू और श्रीजा से गप्पे भी मार लिया करूंगी.
वह अपनी सखियों के साथ का प्लान बनाने लगी.
बेकार में फिर खाना बनाने-रखने, बर्तन धोने का झंझट ही क्यों.
पंछी बनू उड़ती फिरूं मस्त गगन में आज मैं आज़ाद हूं मस्त गगन में… वह मुस्कुराकर गुनगुनाने लगी.
प्रत्यूष ने किचन में झांककर देखा. आज तो बिल्कुल किचन साफ़ है. फ्रिज में भी कुछ नहीं रखा. शायद शर्म आ गई या पाप के डर से ख़ुद भी नहीं खा रही. बना भी नहीं रही आर्या… अब फंसेगी जब पेट में चूहे बुरी तरह कूदेंगे. तब आएगी सॉरी बोलने.
पर ये क्या आर्या तो पानी पूरी, टिक्की का लंच ही कर आई. प्रत्यूष के पूछने पर कि खाना क्यों नहीं बनाया आज अपना? तो आर्या ने चटकारे लेते हुए मज़े से बता दिया था.
“बहुत बेशर्म हो. नर्क में जाओगी, कीड़े पड़ेंगे तुम्हारे पेट में…”
“कभी ज़ुबान पर कहते हो, कभी पेट में. पहले सोच लो कहां पड़ने हैं.” वह मुस्कुराई फिर ज़ोर से बोली.
“जय हो छोटे दुर्वासाजी. आपके लिए भी लाई हूं.”
वह टिक्की, चाट पापड़ी खाने बैठ
गया था.
“अच्छी है न?” आर्या ने पूछा, तो उसने घूर कर देखा था.
एक दिन, “सुनो प्रत्यूष, आज श्रीजा का बर्थडे है. डिनर के बाद ही आ पाऊंगी. कहो तो तुम्हारे लिए. उसकी मम्मी गाजर का हलवा, शाही पनीर और दाल मखनी बनाने में माहिर हैं. आज बनानेवाली हैं, बहुत टेस्टी बनाती हैं. उनके हाथ का खाने में तो कोई प्रॉब्लम नहीं? मैं तुम्हारे लिए खाना ले आऊं क्या?”
“तुम्हारा जो जी आए करो. मेरा सुनती कहां हो.” वो मुंह बनाकर बोला.
कैसे कह दूं मुझे घर का खाना ही अच्छा लगता है. फिर किसी के घर का हो. पर कहूं कैसे. आर्या सोचने लगी- सीधे तो स्वीकार कर ही नहीं कर सकता. हाय हाय ईगो… लेकर आऊं.. चाहता है पर कहेगा कैसे. उसकी अकड़ बरक़रार रहे. पता नहीं क्यों पूछ ही लिया मैंने. अब ले ही आऊंगी और क्या. आर्या ने लंबी सांस भरी.
उस दिन तो श्रीजा की मम्मी का बनाया स्वादिष्ट भोजन बड़े मज़े से खाया, पर दूसरे दिन का क्या करे.
“मैं लॉन्ड्री के लिए जा रही हूं. तुम्हें कपड़े देने हैं तो दे दो.”
“कोई ज़रूरत नहीं सब साफ़ है. तुम्हारे जैसे हर दिन गंदे नहीं करता.” वह सुनाते हुए ज़ोर से बोला था.
आज लॉन्ड्री करने में जुटी है, तो मैं जल्दी-जल्दी ट्राई मारता हूं. किचन में कोई हलचल नहीं इसकी. ऐसा क्या है, मैं भी तो बना सकता हूं. ऐसा कौन सा रॉकेट साइंस है. यूट्यूब पर तो सारी जानकारी भरी पड़ी है. वहीं से तो सब सीख लिया इसने और कमाल की शेफ़ बनी फिर रही है.
चावल-दाल उबालना ही तो है. चल बेटा प्रत्यूष शुरू हो जा.
चावल-दाल ढूंढकर बिना धोए एक कुकर में थोड़ा पानी, चावल, एक में दाल, चार ग्लास पानी डालकर चढ़ा दिए. दाल में मुट्ठीभर नमक डालकर, दो चम्मच हल्दी भी डाल दी. अब दाल पीली भी हो गई. बस हो गया. इत्ता ही सा तो काम है. हां, सब्ज़ी का क्या करूं, ये भिंडी पड़ी है. उसने आठ-दस उठा ली थी.
“दिए नहीं तुमने कपड़े. एक स्लॉट धुल भी गया.” आर्या उसे ढूंढ़ते हुए किचन में आ गई.
“अच्छा जनाब आज तो खाना बन
रहा है.”
“देख क्या रही हो? देखना कैसे मिनटों में बनता है बढ़िया खाना. दाल-चावल चढ़ा भी दिए. बस सब्ज़ी-रोटी ही तो बनानी रह गई है. देखना तुम्हारी तरह घंटों में नहीं कैसे मिनटों में बनाता हूं.”
“हा… हा… मिनटों में…” आर्या ने चुटकी बजाई और मुस्कुरा कर चली गई.
ये भिंडी केवल ऊपर का पोर्शन निकाल देता हूं. छोटा-छोटा काटने का क्या फ़ायदा टाइम वेस्ट? बस क़ड़ाही में तेल, पानी, नमक डालकर चढ़ा देता हूं. हो गई सब्ज़ी भी. उसने सब डाल-डूल के ढक्कन भी लगाया ही था कि दाल की सीटी बज उठी. साथ ही ढेर सारा पानी फव्वारे की तरह चारों ओर ऐसा फैलने लगा कि वह
घबरा गया.
चूल्हा, प्लेटफॉर्म, कड़ाही, शर्ट सब पीले रंग से सन गए. जल्दी से उसने गैस बंद की. चावल की भी छठी सीटी बज उठी. छह सीटी में तो पक ही जाएगा. गैस बंद कर दिया था. किसी तरह से सब्ज़ी का ढक्कन खोला, जो दाल के पानी से सना हुआ था. भिंडी गलकर लबाबदार पानी में तैर रही थी.
कोई नहीं देशी घी से तो स्वाद आ ही जाएगा. करछी भर देशी घी भी पड़ गया. चावल तो नीचे से जलकर बिल्कुल काले हो चुके थे और दाल तो गली ही नहीं. सारा पानी जो निकल गया. थोड़ा पानी डालकर फिर चढ़ा देता हूं. चावल तो जल गए, अब रोटी? चार-छह रोटियां ही तो खाता हूं फटाफट बन जाएंगी. आटा गूंथा, तो पानी ज़्यादा पड़ गया और आटा मिलाते-मिलाते सवा किलो के लगभग का डोंगर बन गया. बेलने के अथक प्रयास के बाद भी जब चकले से रोटी न निकली, तो उसे बहुत ग़ुस्सा आया. हटाओ यार स्वीगी से ही ऑर्डर कर देता हूं. वह कॉल करने लगा.
आर्डर तो कर दिया, पर ये सब साफ़ कौन करेगा. गंदगी मैंने मचाई है तो… तो… मुझे ही… वह तो करनेवाली नहीं, ग़ुुस्सा अलग होगी, मज़ाक अलग बनाएगी. मरता क्या न करता. आर्या के आने से पूर्व सब साफ़-सुथरा करके रखने में वह लस्त-पस्त हो गया.
खाना आ गया, तो उसकी जान में
जान आई. भूख से भी और बुरा हाल जो हो रखा था. पीले-लाल हुए कपड़ों में ही खाने बैठ गया.
“अच्छा जी, मिनटों में तुम्हारा बढ़िया खाना ऐसे बनता है? स्वीगी ज़ॅमेटो ज़िंदाबाद?” आर्या मुस्कुराई.
“तुम्हारे लिए भी रखा है.”
“वाह थैंक्यू तब तो, मगर तुम्हारी लाल-पीली हालत देखकर तो मेरी किचन में प्लेट लेने जाने की भी हिम्मत नहीं हो रही है.”
“अरे बिल्कुल साफ़ है, जो बनाया था इतना टेस्टी कि सब सफ़ाचट और खा-पीकर सब पूरा किचन साफ़ भी कर दिया. वो तो थोड़ा टेस्ट बदलने के लिए बाज़ार से
मंगा लिया.”
“अच्छा क्या बात है… पर कुछ जलने की महक आ रही है देखूं तो!” कहकर वह किचन में चली गई.
“जल तो तुम्हारा दिल रहा होगा. देखो धुआं भी उठ रहा है, जो तुम अपने आगे किसी को समझती नहीं. तुम्हारे बिना भी कर लिया ना…” ज़ोर से बोलता हुआ वह अपने जोक पर ख़ुद ही हंस पड़ा.
“हां ख़ुशफ़हमी रहती है कुछ लोगों को अपने अनुभव के अनुसार…” कहकर वह मुस्कुराई और चली गई.
माता-पिता की तीर्थ धाम से लौटने का भी व़क्त आ रहा था, परंतु प्रत्यूष का ईगो अभी तक कम नहीं हुआ. वह यह मानने को तैयार नहीं था कि आर्या कुछ कामों में उससे लाख गुना बेहतर है. पत्नी के आगे अपनी हार कैसे मान ले, कैसे कबूल कर ले कि अपनी ज़िंदगी में उसका महत्व है. उसे अपने आगे कमतर दिखाने से बाज़ नहीं आता. चाहे बाहरी लोगों में भले उसकी तारी़फें करके अपनी इज़्जत बनाता फिरता.
संडे को प्रत्यूष के चार दोस्त आर्या भाभी के हाथ का खाना खाने को अड़ गए.
“यार इतने दिन शादी को हो गए, अभी तक भाभी के हाथ का खाना नहीं खिलाया. ऑफिस में रोज़ तारीफ़ों के पुल बांधता है… तब से टाले जा रहा है. हम चारों कल आ रहे हैं बस…!”
दोस्त रवि ने अपना निर्णय सुना दिया. शशांक, आलोक व मुदित ने भी सहमति जता दी. फंस गया था प्रत्यूष. क्या करता आर्या से कहना पड़ा.
“आर्या देखो, मैं तो नहीं चाहता था कि कोई आए जब तक मां-पापा वापस नहीं आ जाते, पर दोस्तों ने ज़िद पकड़ ली है कि तुम्हारे हाथ का खाएंगे. इसलिए मैं मार्केट से मंगवा लूंगा. तुम कह देना मैंने बनाया है.”
“न न मैं भला झूठ क्यों बोलूंगी. कह दूंगी तुम्हें मेरे हाथ का पसंद नहीं… तुम मेरे हाथ का खाना नहीं चाहते, तो तुम्हारे दोस्तों को क्या पसंद आएगा, इसी करके तुमने मार्केट…”
“नहीं…अरे नहीं, ऐसा नहीं कह सकती. मैंने उन लोगों से तुम्हारी बहुत तारी़फें कर रखी हैं.”
“अच्छाजी, घर में दंगा बाहर बताओ सब चंगा. मेरे खाने की तारीफ़ और तुम… वो क्यों?”
“देखो घर की इज़्ज़त का सवाल है. तुम्हें स़िर्फ इतना ही तो कहना कि तुमने बनाया है. मैं तो तुमसे कहूं भी ना
बनाने को.”

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“अच्छा जी अभी भी ईगो. हाय हाय ईगो… झूठ में तो शामिल नहीं होऊंगी. हां, तुम्हें नहीं खाना न… उन लोगों के लिए तो बना सकती हूं.”
“ठीक है जैसी तुम्हारी मर्ज़ी. मैं अपने लिए मंगा लूंगा.”
शाम को पति उसके दोस्त आए. आर्या ने टेबल एक से एक आइटम से सजा दी.
“बहुत ही बढ़िया खाना है. हर आइटम लाजवाब!”
सब टूट पड़े और प्रत्यूष भी. सबने प्लेटें चाट-चाट के खाईं. ख़ूूब तारी़फें हुईं.
स्वीगी से अपने लिए मंगाया खाना कोने में पड़ा रह गया. खाने की हड़बड़ी में प्रत्यूष भूल ही गया था उसे छुपाना.
“थोड़ा लो चखो ये भी. वरना वेस्ट जाएगा. खाना कम न पड़ जाए, मैंने इसलिए मंगा लिया था.” उसने झूठी सफ़ाई पेश कर दी.
“अरे यार, इतने बढ़िया खाने के आगे बाहर का खाना कौन खाएगा.”
“भाभीऽऽऽ! आर्या भाभी! थैंक यू सो मच फॉ योर लवली डिशेज़… यम्मी डिनर!” आर्या पुकार सुनकर अंदर आ चुकी थी. प्रत्यूष ने झट खाने का पैकेट पीछे कर लिया.
“आप सबने भर पेट खाया न?…और तुमने?” आर्या ने फिर हैरानी से प्रत्यूष से पूछा था.
“हां.. हां, मैंने भी खा लिया सबके साथ में. ये बाहर चौकीदार को थमा देता हूं.” उसने पैकेट आगे कर दिया था.
“अरे यार बाहर तो तारीफ़ों के पुल बांधता रहता है. सामने कहने में तेरा ईगो आ रहा है. इन्हें साथ खाने भी न दिया. तेरी जगह मैं होता तो हाथ ही चूमकर थैंक्यू बोलता… पत्नी है तेरी. बोल हमारे सामने उन्हें भी. उनकी निगाह में तेरी इज़्ज़त ही बढ़ेगी और प्यार भी. बोल जल्दी…”
“… सच में खाना बहुत बढ़िया है… थैंक्यू!” उसने सचमुच झुककर हाथ चूम लिए थे.
“आई एम सॉरी आर्या!”
“ये बात हुई न.” दोस्तों की हंसी और क्लैप के बीच वे दोनों मुस्कुरा दिए. आज अचानक ही प्रत्यूष का ईगो कहीं दूर बह गया था.
“यार तेरी हरकतों के बारे में आर्या भाभी की सहेली श्रीजा ने मेरी बहन नेहा से सब बता दिया था, तो हम सबने भाभी के साथ मिलकर तुझे छकाने का प्लान बनाया और हम आ धमके डिनर के लिए…”
किचन में सामान रखते हुए आर्या सोच रही थी, बस अब ईगो के जैसे ही प्रत्यूष के अंदर से छोटे दुर्वासा को भी अपने कमण्डल के साथ दूर रवाना होना होगा. कुछ तो इसके लिए भी करना होगा… छोटा दुर्वासा… सोचकर आर्या फिर अपनी कल्पना पर हंंस पड़ी.

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