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कहानी- कछुआ (Story- Kachhua)

 

नंदा भाभी की ख़ुशी से चहकती आवाज़ में सुझाए जा रहे समीकरणों के सम्मुख मुझे अपने सभी समीकरण औंधे मुंह गिरते नज़र आ रहे थे. खोल से निकला कछुआ मंद, परंतु स्थिर चाल से निरंतर आगे और आगे बढ़ता चला जा रहा था और उसे जीतने के गुर सिखानेवाला घमंडी खरगोश अपनी विजय के मद में फूला रास्ते में ही सो गया था.

गांव से सासू मां का फ़ोन था. वे और ससुरजी कुछ दिनों के लिए हमारे पास रहने आ रहे थे. यह अच्छी ख़बर थी, लेकिन दूसरी ख़बर ने मेरे माथे पर चिंता की लकीरें खींच दीं. उन्होंने नंदा भाभी से बात करनी चाही, लेकिन भाभी घर पर नहीं थीं.
“ठीक है, उसे कहना वापसी में हमारे संग गांव लौटने के लिए तैयार रहे. तुम्हारे संग बहुत रह ली.”
“पर मांजी, जब दो सालों से नंदा भाभी यहीं हैं और उनका मन भी यहां रम गया है, तो फिर वापिस गांव ले जाने का औचित्य मेरी समझ में तो नहीं आ रहा है.” मैंने धीमे स्वर में प्रतिवाद करना चाहा.
“यह बड़ी अजीब बात कह दी तुमने. अरे, नंदा गांव में ही पैदा हुई, पली-बढ़ी, ब्याह हुआ. दो साल से तेरे और मुन्ना के पास शहर क्या गई, वहीं की होकर रह गई. नंदा से कह देना सामान बांधकर तैयार रहे.”
“ज… जी मांजी.” उदास मन से फ़ोन रखकर मैं घर के काम निबटाने में जुट गई. मन यह सोचकर व्याकुल हो रहा था कि नंदा भाभी को यह बात कैसे बताऊंगी? क्या प्रतिक्रिया होगी उनकी? क्या वे सचमुच उसी दलदल में लौटने को तैयार हो जाएंगी? दलदल… हां, दलदल ही तो था गांव का वह वातावरण, जहां मैंने उन्हें और उन जैसी कई विधवाओं को पल-पल मरते देखा था. रूखा-सूखा खाना, पहनने के नाम पर दो स़फेद सूती धोतियां, बिस्तर के नाम पर एक चादर, चाहो तो ओढ़ लो और चाहो तो बिछा लो… दिनभर गृहस्थी के कामों में पिसते रहना… कान खुले, मगर होंठ बंद रखना ही उनकी नियति थी. मेरा दिल यह देखकर छलनी हो जाता था कि कैसे उन्हें बुज़ुर्ग औरतों की खरी-खोटी, हमउम्र महिलाओं की थोथी सहानुभूति और लफंगे शोहदों के अश्‍लील मज़ाक भी सीने पर पत्थर रखकर सह लेने पड़ते थे.
क्या पुरुष साथी के न रहने से स्त्री की कोमल भावनाएं और उमंगें मर जाती हैं? यदि नहीं, तो फिर उसे इन्हें मारकर तिल-तिल जीने पर क्यूं मजबूर किया जाता है?
नंदा भाभी यानी मेरी जेठानी. मुझसे बमुश्किल दो साल ही तो बड़ी थीं. न जाने वे कैसे इस उम्र में अपने अरमानों का गला घोंटकर यह घुटन भरा जीवन जी रही थीं. उनके प्रति आरंभ से ही मेरा विशेष झुकाव रहा था. सबसे बड़ी जेठानी किरण भाभी तो पूरी तरह ग्रामीण परिवेश में रची-बसी देहातन महिला थीं. उनसे छोटी नंदा भाभी ग्यारहवीं तक पढ़ी थीं और आगे भी पत्राचार से पढ़ाई जारी रखे हुए थीं. उनमें मैंने हमेशा कुछ नया करने की ललक देखी थी. मुझे लगता था उनमें अपार संभावनाएं हैं, जिन्हें किसी उपयुक्त अवसर की तलाश है.
मेरा दिल करता था कि चाहे जैसे भी हो, उन्हें इस दलदल से खींचकर बाहर निकाल लूं. शीघ्र ही मुझे उपयुक्त अवसर भी मिल गया. रवीन्द्र यानी मेरे पति को किसी काम से दो दिनों के लिए गांव जाने का मौक़ा मिला, तो मैंने उन्हें स्पष्ट कह दिया कि वे नंदा भाभी को साथ लेकर ही लौटें. गांव भी फ़ोन करके कह दिया कि चुन्नू के दांत निकल रहे हैं और मेरी तबीयत भी ठीक नहीं है, इसलिए यदि नंदा भाभी कुछ समय के लिए यहां आकर रह जाएं, तो मुझे सुविधा हो जाएगी. सब ओर से प्रयास कर लेने के बाद भी मैं अंत तक उनके आगमन को लेकर आशंकित ही रही. रवीन्द्र के साथ उन्हें गाड़ी से उतरता देखने पर ही मैं सुकून की सांस ले सकी थी.
शहर का उन्मुक्त वातावरण देख आरंभ में तो नंदा भाभी असहज-सी बनी रहीं. मुझे लगा शायद वे इसकी अभ्यस्त नहीं हैं, इसलिए उन्हें अच्छा नहीं लग रहा है, लेकिन थोड़ा-सा कुरेदने पर ही वे खुल गई थीं.

“मीनू, तुम दोनों को इस उन्मुक्त वातावरण में आज़ादी से जीते देखकर और एक-दूसरे के साथ यूं ख़ुश देखकर मुझे बहुत सुकून महसूस होता है, लेकिन एक आशंका मुझे घेरे रहती है कि मुझ विधवा का मनहूस साया तुम्हारी हंसती-खिलखिलाती ज़िंदगी में ग्रहण न लगा दे.”
“ऐसा मत सोचिए भाभी. आप इतनी समझदार होकर ऐसी दक़ियानूसी सोच में विश्‍वास रखती हैं?”
“मेरे या तेरे विश्‍वास रखने से बरसों पुरानी मान्यताएं थोड़े ही बदल जाएंगी पगली.”
“ठीक है भाभी, मान लिया हमारे कहने से मान्यताएं नहीं बदलने वालीं, लेकिन आप ही कुछ ऐसा क्यूं नहीं कर दिखातीं कि लोगों को अपने दक़ियानूसी विचार बदलने पड़ें. कब तक दूसरों की दया और सहानुभूति पर ज़िंदगी बसर करती रहेंगी आप?” मेरी बातें सुन भाभी ने बस चुप्पी साध ली और गहरी सोच में डूब गईं.
भाभी ने आते ही रसोई की कमान संभाल ली थी. उनका तर्क था कि उनके पास काम नहीं होगा, तो उनका मन नहीं लगेगा और वे चार दिन भी नहीं रह पाएंगी, लेकिन यह देखकर बेहद तकलीफ़ होती थी कि सबको अच्छा भोजन कराकर वे अपने लिए दो सूखी रोटियां ही बनाती थीं. मेरे लाख समझाने के बावजूद उन्होंने इसे ही अपनी नियति मान लिया था, लेकिन मैं भी हार माननेवाली नहीं थी. मुझे मालूम था कि भाभी को खाने में मछली बहुत पसंद थी. एक दिन मैंने उन्हें दूसरे कामों में लगाकर खाना ख़ुद पकाया और जान-बूझकर स़िर्फ मछली ही पकाई.
खाने बैठे, तो भाभी ने तुरंत कह दिया, “मैं यह सब नहीं खाती मीनू.” वे थाली से उठने लगीं, तो मैंने उन्हें बैठा लिया और जबरन भाभी के मुंह में कौर ठूंस दिया. उस दिन आग्रह करके भरपेट खिलाया था उन्हें. खाना ख़त्म करते-करते भाभी की आंखों में आंसू आ गए थे.
“क्या हुआ? कोई कांटा फंस गया?” मैं घबरा गई थी.


“मछली का नहीं, तेरे प्यार का कांटा. अब वापस कैसे गांव लौट पाऊंगी?… बरसों बाद इतना तृप्त होकर खाया है. वरना स्वाद क्या होता है, मैं तो भूल ही गई थी. तू ज़रूर पिछले जन्म में मेरी मां रही होगी.” भाभी रो पड़ी थीं. मैं देर तक उन्हें सीने से लगाए दुलारती रही थी. छोटी बच्ची की तरह वे मुझे बेहद निरीह और मासूम लग रही थीं. मैं सचमुच ही ख़ुद को उनकी मां मान बैठी थी. मैं भाभी को अच्छे से अच्छा खिलाने, पहनाने का प्रयास करती. उन्हें आधुनिक प्रगतिशील विचारोंवाली महिलाओं से मिलवाती. भाभी का पत्राचार से ग्रैजुएशन पूरा हो गया था और मैंने एक प्राथमिक स्कूल में उनकी नौकरी भी लगवा दी थी. नंदा भाभी आत्महीनता
की ग्रंथि से उबरने लगी थीं. उनमें सीखने की और आगे बढ़ने की इतनी ललक थी कि प्रगति के हर सोपान के किवाड़ उनके सामने स्वतः ही खुल जाते थे.
वक़्त बीतने के साथ-साथ नंदा भाभी महिला समाज सुधारक संस्थाओं की अगुआ बनती जा रही थीं. उनका ओजमयी व्यक्तित्व और अनुभवजन्य भाषण महिलाओं के दिल में उतरता चला जाता था. उनसे ़ज़्यादा पढ़ी-लिखी और रसूख़दार महिलाओं को उनके सामने शीश नवाते देख मुझे आश्‍चर्य भी होता था और गर्व भी. गर्व यह सोचकर कि कुछ समय पहले तक जो भाभी अपने खोल में दुबकी कछुआ मात्र थीं, वे अब मेरे प्रयासों के कारण खोल से बाहर निकल चुकी हैं.
उन्हीं नंदा भाभी के लिए सासू मां का फरमान आया था कि उन्हें उनके साथ पुनः गांव लौटना होगा. क्या नंदा भाभी मान जाएंगी? मैं बेचैनी से नंदा भाभी के घर लौटने का इंतज़ार करने लगी.
शाम को जब नंदा भाभी घर लौटीं, तो मैंने उन्हें मांजी के फ़ोन की बात बताई. मेरी बात सुनते ही उनके चेहरे पर तनाव झलकनेलगा था.
“परेशान मत होइए भाभी. प्रगति के इस मुक़ाम पर पहुंचकर अब फिर से उस दलदल में धंसना बेवकूफ़ी होगी. आप जो भी निर्णय लें, सोच-समझकर आराम से लें.”
“पर मांजी को इंकार…?”
“यही तो समस्या है. आज तक उन्हें ना कहने का साहस कोई नहीं कर पाया है, पर किसी को तो यह साहसिक क़दम उठाना
ही होगा.”
“रात बहुत हो गई है. अभी खाना खाकर सो जाते हैं. कल इस समस्या पर विचार करेंगे.” नंदा भाभी कपड़े बदलने चली गईं, तो मैं भी चुन्नू के लिए खाना लेने रसोई की ओर चल पड़ी.
नंदा भाभी का संयमित और गंभीर आचरण चकित कर देनेवाला था. मैं दो बरस पूर्व की और आज की नंदा भाभी की तुलना करने लगी. पहले वे कैसे ज़रा-सी भी विपरीत परिस्थिति होते ही विचलित होकर बच्चों की तरह रोने लगती थीं. ख़ुद को हर समस्या की जड़ मान कोसने लगती थीं और अब कितना आत्मविश्‍वास आ गया है उनमें. बड़ी से बड़ी समस्या भी उन्हें विचलित नहीं करती. अवश्य भाभी मांजी को समझाने और मनाने की कोई युक्ति खोज रही होंगी. वे कहीं नहीं लौटनेवालीं, यहीं रहेंगी. रात को बिस्तर पर लेटी मैं देर तक ख़ुद को समझाती रही. सवेरे अलार्म की आवाज़ से आंख खुली. भाभी के कमरे में झांका, तो वे कुछ लिखा- पढ़ी में व्यस्त थीं. शायद क्लास की तैयारी कर रही होंगी.
“कितने बजे की क्लास है भाभी?”
“आज स्कूल नहीं जा रही. आजकल दूसरा काम ही इतना निकल आता है कि मैनेजमेंट ने भी कह दिया है कि आप अपनी सुविधानुसार ही क्लास लेने आया करें.”
“अच्छा!” मैं भाभी के प्रभाव से प्रभावित थी. ये ज़रूर मांजी को गांव न लौटने के लिए मना लेंगी. मैं मन ही मन तर्क-वितर्क के समीकरण बैठा रही थी कि तभी भाभी के स्वर ने मुझे चौंका दिया.
“मीनू, मैंने मांजी के संग लौटने का निश्‍चय कर लिया है.”
“क्या?” मैं जैसे आसमां से गिरी. “मुझे विश्‍वास नहीं हो रहा कि इतना आगे बढ़ने के बाद अब आप पीछे लौटने का निर्णय कैसे ले सकती हैं?”
“मीनू, मेरी जैसी कई अबलाएं अभी भी उस दलदल में धंसी हैं. मेरे अकेले के बाहर निकल आने से मेरी ज़िम्मेदारियां समाप्त नहीं हुई हैं, बल्कि और बढ़ गई हैं. मुझे उन सबको भी उबारना है, बाहर निकालना है, जिसके लिए मुझे उनके बीच लौटना ही होगा.”
मैं नतमस्तक हो उठी. “धन्य हैं भाभी आप! कितनी अच्छी सोच है आपकी.” एक बार फिर मुझे ख़ुद पर गर्व हो आया. अपने ही खोल में दुबके कछुए को मैंने ही तो गर्दन उठाकर जीना सिखाया और ज़िंदगी की रेस में इतना आगे बढ़ जाने का हौसला दिया.
मन ही मन अपनी विजयश्री की दुन्दुभि बजाती मैं कमरे से बाहर निकल आई. तभी फ़ोन पर बतियाती नंदा भाभी के वार्तालाप से मेरे कान खड़े हो गए. “चंद्राजी, एक ख़ुशख़बरी है. उसे सुनकर आगामी चुनाव के लिए मुझे अपनी पार्टी का उम्मीदवार बनाने का आपका इरादा और भी मज़बूत हो जाएगा. मैं अपनी सासू मां के साथ गांव लौट रही हूं. वहां अपने भाषणों और मीटिंगों से मैं जनता का रुझान पूरी तरह अपनी पार्टी की ओर मोड़ दूंगी. विधवाओं, अबलाओं के तो शत- प्रतिशत वोट आप अपनी झोली में ही समझो. इतने सालों तक उनके बीच रहने के कारण मैं उनकी मानसिकता अच्छी तरह समझती हूं. थोड़ी चुमकार-पुचकार और एक-दो उनके पक्ष में घोषणाएं मात्र करने से ही अच्छे-ख़ासे मतदाता पट जाएंगे… हां… हां… और चुनाव के समय तक फिर से लौटकर मैं यहां का मोर्चा संभाल लूंगी. मैं अभी वोटों का यह समीकरण ही बैठा रही थी कि कितने प्रतिशत जातिगत आधार पर, कितने विधवाओं के…”
नंदा भाभी की ख़ुशी से चहकती आवाज़ में सुझाए जा रहे समीकरणों के सम्मुख मुझे अपने सभी समीकरण औंधे मुंह गिरते नज़र आ रहे थे. खोल से निकला कछुआ मंद, परंतु स्थिर चाल से निरंतर आगे और आगे बढ़ता चला जा रहा था और उसे जीतने के गुर सिखानेवाला घमंडी खरगोश अपनी विजय के मद में फूला रास्ते में ही सो गया था.

       संगीता माथुर

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