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कहानी- कांवड़िया (Short Story- Kanvadiya)

माया के कंधों का भार हल्का हो गया था, पर उसे लगा कि वसीम उसके कंधों पर आ बैठा है. लाडला-सा… प्यारा-सा… मासूम-सा बेटा… माया के मन में विश्‍व के समूचे विचार एक साथ दौड़ रहे थे कि कौन कहता है कि भगवान किसी जाति विशेष की थाती है… ईश्‍वर तो सब का है… भावनाएं किसी की बपौती नहीं… घंटियों का नाद किसी की संपत्ति नहीं… और मानव जाति से बढ़कर कोई जाति नहीं…!!

“क्या नाम है तुम्हारा?” कार की पिछली सीट पर धंसते हुए माया ने हमेशा की तरह ड्राइवर की तरफ़ प्रश्‍न उछाला, तो छह जोड़ी आंखों ने अलग-अलग तरह से घूरकर उसे देखा.
“आप भी ना मां, थोड़ा रुको तो सही.” शीना बिटिया फुसफुसाई.
“कोई बात नहीं, मां की आदत है.” राकेश भी धीरे से खिड़की से हैंड बैग पकड़ाते हुए दबे स्वर में बोलकर आगे की सीट पर जा जमे. नन्हा शांतनु विंडो सीट पर शांत जम गया था और माया धीरे-से हंस दी थी. तब तक ड्राइवर ने मिरर को ठीक करते हुए जवाब ही दे डाला था. “वसीम अकरम. मेरे बाबा को पाकिस्तानी क्रिकेटर वसीम अकरम बहुत पसंद है. उसी के नाम पर रख डाला मेरा नाम.” माया ने मुस्कुराते हुए कहा, “अरे वाह!” लेकिन हृदय के किसी कोने से कुछ चटकने की आवाज़ ज़रूर आई थी.
आज माया परिवारसहित कैलाश गुफा जा रही थी. जब से छत्तीसगढ़ राकेश के साथ स्थानांतरण पर आए हैं, तब से ही पर्यटन के शौक़ीन राकेश हर छुट्टी पर कहीं न कहीं घूमने निकल पड़ते हैं. माया ड्राइवर का नाम पूछने में न जाने क्यों रुचि रखती है और हमेशा पहला प्रश्‍न ड्राइवर से नाम का दाग देती है.
वसीम- 22-23 वर्ष का दुबला-पतला युवक. नीली फेडेड जींस, हरे रंग की टी-शर्ट और गले में काला धागा. बालों को ख़ास अंदाज़ दिए हुए बड़े इत्मीनान व आत्मविश्‍वास के साथ ड्राइविंग सीट पर बैठा था वो.
“सभी बैठ गए न आराम से?” पीछे मुड़कर उसने शांतनु की विंडो का लॉक चेक किया और राकेश ने भी पीछे मुड़कर देखा और हां का इशारा किया, तो ड्राइवर ने सधे हाथों से गाड़ी स्टार्ट कर दी.
शहर के भीतर स्पीड से चलती गाड़ी और स्पीड ब्रेकरों पर रुकती-उछलती गाड़ी में माया के मन में विचार भी कभी रुकते, तो कभी उछलते जा रहे थे. ड्राइवर वसीम ने राकेश से पूछा, “कैलाश गुफा ही जाना है ना या कहीं और भी?”
“हां, पर यदि रास्ते में आते समय वो घुनघुट्टा बांध भी दिखा दो तो…” राकेश ने आग्रहवाले अंदाज़ में कहा.
“हां, वो तो इसी सड़क पर है. बस, पांच किलोमीटर अंदर ही तो है.” वसीम ने सहमति से सिर हिलाते हुए कहा, “वो देखो, मेरा घर इसी मोहल्ले में है.” वसीम ने सड़क से गुज़रते मकानों की कतार की तरफ़ इशारा किया था. “इसे मिनी पाकिस्तान भी कहते हैं.” उसने जुमला जोड़ा था.
इस बार माया के विचारों को एक ज़ोरदार झटका लगा था. ये राकेश भी न पता नहीं कहां-कहां से गाड़ी बुक कर लेते हैं. भोले बाबा शंकर के घाट जाना है, वो भी सावन में. शहर के तमाम कांवड़िए भगवे रंग के वस्त्र पहनकर पैदल ही 80 कि.मी. का सफ़र तय करते हैं. वो कितनी श्रद्धा भाव से कल कांवड़ लेकर आई थी. लाल केसरिया रिबन्स से सजी, कंधे पर रखनेवाली डंडी पर खिलौनों की लटकन, दोनों तरफ़ सुर्ख़ ईंट रंग की छोटी-छोटी गगरिया कांवड़ को आकर्षक बना रही थी.
“पैदल न सही गाड़ी में चलेंगे…” माया ने भी राकेश से सावन में ही चलने की ज़िद की थी. आख़िर वो भी यह जानना चाहती थी कि कांवड़िए किस तरह पैदल इतनी दूर जाते हैं. पर तेरी श्रद्धा में इस वसीम के साथ चलने में क्या फ़र्क़ पड़ेगा? माया ख़ुद से ही सवाल कर रही थी.
फिर भी फ़र्क़ ना सही पर… माया के विचार आपस में ही बहस करके एक-दूसरे से उलझ रहे थे कि शहर सीमा पर लगे पेट्रोल पंप पर ड्राइवर ने गाड़ी लगा दी. वो गाड़ी से बाहर निकलकर पान की दुकान की तरफ़ बढ़ा, तो माया के विचार बोलों में फूट पड़े, “लो, अब ये क्या ले जाएगा कैलाश गुफा?”
“इसे तो ड्राइवरी करनी है. अब चाहे मज़ार पर जाए या कैलाश गुफा. क्यों भई शीना?” राकेश ने अपनी बेटी को अपने विचारों में मिलाते हुए कहा और हंस दिए. ड्राइवर पेट्रोल भरवाकर आ चुका, तो उसने पिछली खिड़की से झांककर कहा, “मौसी, ये कांवड़ नीचे मत रखो पैरों में. इसे अपनी गोद में रख लो. पवित्र चीज़ है ना!” माया सकपका गई थी. गाड़ी ने रफ़्तार पकड़ ली थी. बाहर जैसे धरती ने हरियाली ओढ़ रखी थी. दूर-दूर तक चावल, मक्के व गन्ने के खेत मानो मन को हरा-भरा कर रहे थे.
वसीम तरह-तरह की जानकारियां दिए जा रहा था. उसने बताया कि वो आज सुबह बाबा की मज़ार पर जानेवाला था. एक पार्टी ने गाड़ी बुक की थी. मज़ार बिलासपुर ज़िले में है, पर यात्रियों के घर पर उसी समय कोई ज़रूरी काम आ पड़ा, सो उनके घर से ही लौट आया… “आपके साथ भोले बाबा के यहां जाना जो लिखा था. जो लिखा है, उसे कौन मिटा सका है.”
छोटा-सा लड़का दर्शन बघारने लगा था. माया के मन का ज़ख़्म रह-रहकर हरा हो रहा था, जो गाड़ी में बैठते समय चटक की आवाज़ से चोट खाया था. शीना और शांतनु खिड़की से लगातार बाहर का नज़ारा देख रहे थे, पर माया अपने मन की खिड़की में भी झांक नहीं पा रही थी. उसकी झोली में पड़ी सुंदर-सजी कांवड़ को बार-बार रहस्यमयी दृष्टि से देख लेती थी.
रास्ते में एक कार खड़ी थी. उसके यात्री सड़क पर खड़े थे. वसीम ने गाड़ी धीमी करके ड्राइवर से पूछा, “क्या हुआ लक्ष्मण?”
“टायर पंचर हो गया है.” वो ड्राइवर जो लक्ष्मण था बोला.
“स्टैपनी है ना?” वसीम ने पूछा.
“हां.” “तो चल लगा…” कहते हुए वसीम ने कार आगे बढ़ा दी.
“अपने पास भी है न स्टैपनी?” राकेश ने आशंका से पूछा था.
“हां, चिंता न करें कुछ नहीं होगा. श्रद्धा भाव से भोले शंकर के पास जा रहे हैं ना!” वसीम ने आश्‍वस्त किया था और माया के ज़ख़्म पर मरहम-सा लगा. तुम भी बाबा को मानते हो? माया के मन की बात होंठों पर नहीं आ सकी थी.
80 कि.मी. का फासला अब 2 कि.मी. पर ही रह गया था. कैलाश गुफा के धूमिल से बोर्ड ने कच्ची सड़क पर मुड़ने का इशारा भर किया था.
टोल-टैक्स जैसी जगह पर बैरियर ने गाड़ी रोकी, तो वसीम ने उतरकर पर्ची कटवाई और राकेश की ओर रुख करके कहा, “श्रद्धा भाव से कुछ भी दे दें. ये श्रद्धा भाव मुझे अच्छा लगता है.” माया ने उसे चौंककर देखा. उसे कैसे मालूम कि यह उसका भी प्रिय जुमला है. “बस, यहीं उतरना है.” उसने दरवाज़ा खोला. शांतनु को गोद में लेकर उतारा और माया की गोद से कांवड़ हाथ में ले ली. “ध्यान से मौसी, संभलकर, कांवड़ बड़ी पवित्र चीज़ होती है.”
संभलनेवाली चीज़, तो तुमने झपट ली. माया का मन चीखा था, पर शंकाओं का ज़ख़्म धीरे-धीरे हल्का भी होने आया था.
माया ने झटपट ज़मीन पर पैर रखा. राकेश अपनी कंघी करने में व्यस्त थे और शीना अपने कानों के झुमके संभाल रही थी. माया से कांवड़ भी न संभली.
“चलो जी, अब पहले दर्शन कर लो कैलाश गुफा के, फिर चाय-वाय पीना.” माया ने झुंझलाकर राकेश को कहा.
“हम कहां चाय के लिए कह रहे हैं… हम तो वाय के लिए भी नहीं कह रहे…” राकेश ने अपने मज़ाकिया अंदाज़ में कहा.
पेड़ों के घने झुरमुटों के बीच चप-चप करती पगडंडी के बीच शांतनु को गोद में लेकर राकेश ने क़दम बढ़ा दिए.
पैर संभालती, सलवार के पायचे को ऊपर समेटती, बंदरों के झपटे से बचती, माया वसीम का पीछा करने की कोशिश में डगमग-डगमग चल रही थी.
वसीम कांवड़ को कंधे पर लेकर गर्व से सीना तानकर चल रहा था. कांवड़ के दोनों सिरों पर रखी गगरिया झूलती-सी ऊपर-नीचे होती हुई कभी ज़मीन को छूने का प्रयास, तो कभी आसमान की ओर उठान से लचकती-इठलाती हुई वसीम के दोनों कंधों से लिपटकर उसकी बांहों से घिरी हुई थी.
माया को उसके भाग्य पर रश्क़ हुआ था, पर दूसरे ही क्षण उस पर लाड़ उमड़ आया था. हां, वह पहला ही क्षण था, जब उसे वसीम ड्राइवर पर लाड़ आया था कि किस कदर उसने पवित्र कांवड़ को सावधानी से अपने कंधों से लिपटा रखा था.
माया ने सरपट क़दम बढ़ाए और वसीम से कांवड़ के लिए आग्रह किया, “वसीम, ये कांवड़ मुझे भी दे दो ना कंधे पर. तुम थक जाओगे.” पहली बार माया के विचारों में ड्राइवर का नाम उभरा था.
“हां मौसी लो ना. कितनी श्रद्धा भाव से लाई हैं आप.” वसीम ने अपने कंधे से उतारकर माया के कंधे पर कांवड़ रख दी थी.
माया कांवड़ लेकर इतरा उठी थी. कांवड़ ढोकर चलते हुए उसे लग रहा था मानो वो झूला झूल रही है. शीना और शांतनु पीछे हंसते हुए बोल रहे थे, “वाह मां! बोलो बम-बम भोले…” और फिर माया से दो क़दम आगे हो गए थे. वसीम माया के साथ क़दम मिलाकर चल रहा था. जब-जब गगरी ज़मीन छूने को होती, तो वो कांवड़ की डोर लपककर ऊपर कर देता.
“ध्यान से मौसी…” का जुमला अब माया के कानों में मिश्री घोलता प्रतीत हो रहा था. माया को वसीम का कांवड़ को छूना अब बुरा नहीं लग रहा था.
कैलाश गुफा के प्रवेश पर बड़े-बड़े पीतल के घंटे टंकार को आतुर थे, पर माया का हाथ कैसे पहुंचे. माया ने घंटे की तरफ़ कातर निगाहों से देखा, तो वसीम भागकर पास पड़ा बांस ले आया. उसने माया के हाथ में लंबा बांस देकर घंटे की टंकार से नाद करवा दिया था. फिर बारी-बारी शीना, शांतनु और राकेश की भी मदद की थी. कैलाश गुफा के अंदर शिवलिंग तक कांवड़ ले जाने में भी वसीम पूरी सावधानी बरत रहा था कि माया से कहीं कांवड़ का एक भी पल्ला ज़मीन से न छू जाए. वसीम ने कांवड़ की दो बहंगियों को अपनी झोली में रखा, तो माया ने गगरियों को उठाकर शिवलिंग पर कच्चा दूध-पानी विसर्जित कर दिया. वसीम ने उठकर घंटा बजाया और ज़ोर से बोल उठा, “बम-बम भोले!” माया गगरियों सहित हाथ जोड़कर नत-मस्तक खड़ी थी. उसकी कनखियों से न चाहते हुए भी वसीम दिखाई दे रहा था, जो उसी की तरह हाथ जोड़े नत-मस्तक खड़ा था. उसे वसीम की श्रद्धा में कहीं कोई कमी नहीं नज़र आ रही थी. राकेश और
शीना-शांतनु कहीं आगे निकल गए थे. माया वसीम के साथ कांवड़ लेकर हौले-हौले चल रही थी. गुफा से बाहर निकलकर वसीम ने कांवड़ को एक पेड़ पर लटकाने को कहा. कांवड़ को जुदा करने का समय आ गया था.
माया के कंधों का भार हल्का हो गया था, पर उसे लगा कि वसीम उसके कंधों पर आ बैठा है. लाडला-सा… प्यारा-सा… मासूम-सा बेटा… माया के मन में विश्‍व के समूचे विचार एक साथ दौड़ रहे थे कि कौन कहता है कि भगवान किसी जाति विशेष की थाती है… ईश्‍वर तो सबका है… भावनाएं किसी की बपौती नहीं… घंटियों का नाद किसी की संपत्ति नहीं… और मानव जाति से बढ़कर कोई जाति नहीं…!!
“लो प्रसाद.” वसीम नारियल के टुकड़े लेकर सामने खड़ा था.
कार का दरवाज़ा वसीम ने खोला, तो माया सीट में जा धंसी. अब उसकी गोद में कांवड़ जैसी पवित्र चीज़ नहीं थी. अब उसके आंचल में वसीम जैसा पवित्र बेटा खेल रहा था. माया के सारे शंका-आशंकाओं से बने ज़ख़्म भर गए थे.

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        संगीता सेठी

 

Meri Saheli Team

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